Thursday, August 31, 2023

हम चरागों

हम चराग़ों की तरह शाम से जल जाते हैं....

कल की शाम यकीनन बेहद ख़राब गुज़री और मेरी तक़दीर में लिखा है कि फिर सुब्ह भी ख़राब ही होगी।
तफ़सील से कहूँ तो कल के शाम की शुरुआत कल से ही नहीं हुई थी। जहाँ तक याद है, वो गर्मियों के बेहद उमस भरे दिन थे। साथी डॉ. आनंद ने कहा था कि चलिए भैय्या! कहीं घूम आया जाए! 
यूँ तो हम घूमने के इरादे से झारखंड आए थे और घूमना ही छोड़ कर सब कुछ हो रहा था।
हम पैदल टहलते हुए विवेकानंद चौक पर पहुँचे। वहाँ किसिम - किसिम के अनाजों को भून कर गर्मागर्म भूजा खिलाने वाले धनीराम जी की लोकप्रिय दुकान थी। दुकान क्या थी! किसी बेवा की साड़ी थी। जिस पर पैबंद लगाते - लगाते अब साड़ी का ही पता नहीं चल रहा था। हालांकि डॉ. आनंद ने कहा था - देखिए भैय्या ! स्वरोजगार इसे कहते हैं। हमारी तरह बी. एड्. /पी0-एच0डी0 होता तो आज बेरोज़गार होता।
मैंने धनीराम जी की ओर देखा तो बेसाख़्ता बिना मुस्कुराए न रह सका - आग की तपिश में झुलसा साँवला सा चेहरा। दरमयाना कद। आम सी शक्ल-ओ-सूरत का एक आम आदमी। लेकिन उन्होंने जो शर्ट पहन रखी थी उस पर पाँच - पाँच सौ के नोटों के साथ दो - दो हज़ार के नोट भी छपे थे। एक झटके में कहें तो कुछ एक - आध लाख रुपये तो वो बदन पर चिपकाए घूम रहे थे। 
मैंने हँसी के लिए पूछा - धनीराम जी! ये शर्ट कहाँ से खरीदा। एक मुझे भी चाहिए था। 
उन्होंने भी हँसते हुए खोरठा भाषा में जो जवाब दिया उसका मतलब था कि ये शर्ट उनकी पत्नी ने उन्हें गिफ्ट दिया है जो सामने सिलवट पर चटनी पीस रही थी। 
अब मैंने उस ग्रामीण औरत को देखा। साड़ी के आँचल को सिर पर से लपेट कर मद्धम स्वर में कोई गीत गा रही थी जिसकी भाषा खोरठा होने के कारण मुझे समझ में तो नहीं आया लेकिन रस जरुर समझ में आया - वही जिसे भवभूति ने कहा है - एको रस:करुणैव... ।
मेरी क्षेत्रीय भाषा भोजपुरी है, और यहाँ साथ काम करने वालों के बीच मुझे क्षेत्रीय भाषा को लेकर बहुत दिक्कतें आती थीं।
फिर क्या! मैंने रात - दिन मेहनत किया। लगातार पंद्रह दिनों तक...और तब जाकर मेरे सहकर्मी लोग आज भोजपुरी बोल पाते हैं। हालांकि मेरा काम था- "खोरठा भाषा और साहित्य का अध्ययन" ।
मैंने धनीराम जी से कहा - आपको पता है दो हज़ार के नोट सरकार वापस ले रही है। आपको भी यह शर्ट बैंक में जमा करना होगा। 
भूजा भूनते हुए उनके हाथ लरज गये। लेकिन जवाब में जब उन्होंने कुछ कहा नहीं तो मैंने भी उनकी दुकान के पास बज रहे फिल्मी गीत पर ध्यान केन्द्रित किया - "गर्मी - ए - हसरत - ए नाकाम से जल जाते हैं। हम चरागों की तरह शाम से जल जाते हैं" ।
2002 के बाद जवान हुई पीढ़ी को यह यकीन दिलाना ठीक वैसे ही मुश्किल है कि "राज़" फिल्म से पहले भी यह गज़ल अदब में पाई जाती थी, जैसे 2014 के बाद आज़ाद हुई पीढ़ी को यह यकीन दिलाना कि हम कांग्रेस से नहीं अंगरेज़ों से आज़ाद हुये थे। कतील शिफ़ाई की यह ग़ज़ल बेशक उनकी सभी ग़ज़लों पर तब भारी पड़ गई जब राज़ फिल्म की नायिका ने बड़े मादक अंदाज़ में इसे फिल्म में पढ़ा था। ठीक वैसे ही जैसे आज लोकतंत्र का मतलब बड़े मादक अंदाज़ में पढ़ा जा रहा है। 
हालांकि न तो मैंने पहली दफ़ा इस ग़ज़ल को सुना था और न ही वो फिल्म वाली  लड़की पहली दफे कतील शिफ़ाई की इस ग़ज़ल के चंद शे'रों को दुहरा रही होगी।
फिर भी उस समय मेरे मन में न जाने क्यों आया कि मैंने मोबाइल निकाला और जियो - ट्यून में से सर्च करके' शोभा गूर्टू' की आवाज़ में इसी ग़ज़ल को यूँ सेट कर दिया कि कोई फोन करे तो रिंग की जगह उसे यही शे'र सुनाई दे।
उस दिन और कोई कयायत नहीं गुज़री। शाम का क्या! वो तो रोज़ की ढलनी ही थी। 
अगले दिन ही डॉ. आनंद मेरे कमरे में आए और बोले - भैय्या ! एक बात कहूँ! अपने मोबाइल में से ये सड़ा हुआ काॅलर ट्यून हटा दीजिए। 
मैं हैरान रह गया। आनंद उसी लखनऊ का है, जहाँ की पहचान अदब, तहज़ीब और नफ़ासत से थी। 
मैं डाँटने की वाला था फिर ख़्याल आया कि यह व्यक्तिगत रुचि की बात भी तो हो सकती है! क्योंकि डॉ. आनंद की योग्यता में संदेह नहीं। विद्वान होने के साथ - साथ तेज़ भी है। अभी केंद्रीय विद्यालय की टीजीटी और पीजीटी दोनों में चयनित हुआ था लेकिन मुझे छोड़ कर जाना नहीं चाहता।
                      खैर! जो कयामत आनी थी कल आई। शाम को बड़े दिनों बाद हम विवेकानंद चौक की तरफ घूमने गये। धनीराम जी वहाँ न दिखे, न उनकी वो खूबसूरत दुकान ही वहाँ थी, जिसकी फटी हुई छत से हम तारों - सितारों को बखूबी गिन सकते थे। हाँ! लुढ़कती हुई सी सिल पड़ी थी जिसके चटकार स्वाद में कैद होकर न जाने कितने लोगों ने घंटे भर इंतज़ार किया होगा कि अब भूजे के साथ चटनी मिलेगी। 
मैंने बगल की दुकान से धनीराम जी के बारे में पता किया तो मालूम हुआ कि उनकी दुकान रेल विभाग द्वारा बनाये जा रहे ओवर-ब्रिज के रास्ते में आती थी। इसलिये उनकी दुकान हटा दी गई। 
                दुकान के ध्वंसावशेषों को देखते हुए जाने क्यों मुझे लगा जैसे कोई औरत साड़ी के आँचल को सिर पर ओढ़े हुए आ रही है।मेरे बगल से निकल कर औंधी पड़ी सिल को ठीक करती है और फिर उस पर चटनी पीसने लगी है... कंठ से ठीक वही दर्द भरा गीत फूट पड़ता है। लेकिन आज खोरठा न समझते हुए भी मैं साफ़-साफ़ समझ पा रहा हूँ... जैसे किसी ने कतील शिफ़ाई की ग़ज़ल का मिसरा उठा दिया हो... गर्मी - ए- हसरत-ए- नाकाम से जल जाते हैं...।फिर किस बेखुदी में मैं कमरे तक आया, मुझे याद नहीं। 
                    आज की सुब्ह हर साल की तरह सबसे पहले आगरे से आशु चौधरी दीदी का फोन आया। मैंने डरते-डरते फोन उठाया।हे ईश्वर! कुछ गलत न सुनना पड़े! 
उन्होंने कहा - जब काॅलर - ट्यून अच्छी हो तो फोन थोड़ा देर से उठाना चाहिए। रक्षाबंधन की शुभकामना असित!
                    न चाहते हुए भी 'काॅलर ट्यून' की बात आने से मुझे फिर धनीराम जी याद आए। उनकी शर्ट, उनकी दुकान और उस बदनसीब सिल की भी याद आ गई, जिसके एक किनारे बैठ कर चटनी पीसती वो साँवली युवती एकदम कतील शिफ़ाई की ग़ज़ल जैसी थी। 
हालांकि अब वहाँ मोटा सा पिलर बन गया है और उस पर सर्च लाइट लगा दी गई है जिससे इस कस्बे में रौनक आ गई है लेकिन मुझे ये उजाला जैसे तवायफ़ के कोठे से आती रोशनी की तरह चुभता है। जिसमें रौनकें तो हैं लेकिन सूकून नहीं।उजाला तो है लेकिन इस उजाले का कोई भविष्य नहीं.... ।

असित कुमार मिश्र 
बलिया 



                    




Friday, August 25, 2023

नोटिस

नोटिस 

याद रखें कि कल से नया फेसबुक नियम (नया नाम मेटा) शुरू हो रहा है। मत भूलो कि कि अंतिम तिथि आज है!!!!
मैं असित कुमार मिश्र फेसबुक और उसके नये नाम मेटा को अपने सारे फोटोज़, लेख, टिप्पणियों, यहाँ हुए समस्त लड़ाई-झगड़ों, राजनीतिक वाद-विवादों को उसके व्यक्तिगत इस्तेमाल की इज़ाज़त नि:शुक्ल और नि:संकोच देता हूँ।
बन जाओ असित कुमार मिश्र और जी लो ससुर मेरी ज़िन्दगी। चार दिन में बुद्धि न खुल जाए तो कहना! 
अब तक लोग समझ गये होंगे कि आख़िर में मैंने भी फेसबुक को नोटिस भेज ही दिया। 
              हालांकि फेसबुक पर जीने - मरने वाले लोग जानते हैं कि, फेसबुक की दुनिया में कुछ पोस्ट कालजयी हैं। मतलब हर काल में जीने वाले। उन्हें एक बार स्पर्श कर लो बस! वो अपनी गति से दौड़ने लगते हैं।               जैसे- रिक्शे पर अख़बार पढ़ता हुआ अर्थशास्त्र में एम. ए. (गोल्डमेडलिस्ट) और नेट उत्तीर्ण एक लड़का जो रिक्शा चलाकर अपनी पढ़ाई का खर्च निकालता है। 
यह फेसबुक पर एक ज़माने में सबसे वायरल पोस्ट थी। इसे शेयर करने वालों ने एक बार भी नहीं सोचा कि नेट का मतलब क्या है! इस योग्य लड़के के दिमाग़ में यह क्यों नहीं आया कि इस अथाह शारीरिक श्रम की अपेक्षा किसी स्कूल-कालेज़ में पढ़ा कर या ट्यूशन पढ़ाकर अपना खर्च निकाल सकता है और बची हुई एनर्जी से अपनी तैयारी भी समुचित कर सकता है! 
दूसरी एक और वायरल पोस्ट है जिसमें सब्जी बेचने वाले एक आदमी ने अपनी बेटी को डाक्टर बना दिया है। जो अब तक सेवानिवृत्त हो चुकी होंगी और एन. पी. एस. योजना के तहत हज़ार - दो हज़ार पेंशन भी पा रही होंगी। लेकिन उनके बचपन की फोटो कब तक दौड़ती रहेगी यह ठीक - ठीक पता नहीं। 
एक और पोस्ट थी अत्यंत व्यापक - नार्वे में एक रेस्तरां है जहाँ काॅफ़ी पीने वाले लोग एक कप काॅफ़ी पीकर दो कप का मूल्य देते हैं ताकि कोई और ज़रूरतमंद व्यक्ति भी आकर सम्मान के साथ पी सके। 
हालांकि कुली लाइंस के लेखक प्रवीण झा ने बताया भी कि यहाँ ऐसा कोई रेस्तरां नहीं है। फिर भी अपने पाठकों से मैं जानना चाहता था कि आप में से कोई ऐसा है क्या जो एक कप चाय पीकर दो कप का पैसा जमा कर देता हो? एक किलो सब्जी खरीद कर दुकानदार से बोलता हो कि भाई! दो किलो का पैसा काट लो और कोई जरूरतमंद आए तो उसे दे देना। एक शर्ट - पैंट खरीद कर, दो शर्ट या पैंट का पेमेंट किया है क्या आपने यह सोचकर कि किसी दिन कोई जरूरतमंद आएगा तो ले जाएगा? 
अलग से आर्थिक सहायता या किसी चीज़ के लिए चंदा जुटाना दूसरी बात है। मैं उसकी बात नहीं कर रहा। 
तो नार्वे हो या जिम्बाब्वे वहाँ ऐसा होता होगा! आपको यकीन है क्या! 
                      यह तो फेसबुक की बात हुई। लेकिन जब फेसबुक नहीं था तब भी ऐसे तमाम किस्से और पोस्ट वायरल होते थे। नब्बे के दशक में काम भर की जवान हुई पीढ़ी को याद होगा कि उस समय पीले या हरे रंग के अख़बार कागज़ पर किसी गुमनाम प्रेस से एक पर्चा छपता था कि राजस्थान के एक आदमी को सपने में नाग देवता आए और उन्होंने कहा कि इस पर्चे को पाँच सौ लोगों में छपवा कर बँटवाओ। फलवना ने नहीं छपवाया तो उसकी माँ मर गयी और चिलवना ने छपवा कर बाँट दिया तो उसे यूपी में मास्टरी की नौकरी मिल गई। 
उस दौर में अच्छे-अच्छे लोगों ने गुमनाम छापेखानों से वो पर्चे छपवाये। उस समय फेसबुक नहीं था न ही इसका नया वर्जन मेटा था तब भी सबसे ज्यादा वायरल पोस्ट यही थी। ऐसा नहीं है कि उस समय कम पढ़े-लिखे लोग थे लेकिन हम परंपरावादी लोग हैं न! और क्या जाता है सौ - पचास पर्चे छपवा ही देने से। समझ लेंगे कि सौ रुपये जेब से गिर गये। ऐसे लोगों में तब भी विद्यार्थी थे, अध्यापक थे, प्रोफ़ेसर्स थे, वकील थे... ।
                    आज चंद्रमा पर हमारे पहुँच जाने के बाद भी गौर कीजिये कि हम आज भी वहीं हैं कि नहीं? दो - तीन से हम फेसबुक को फेसबुक पर "नोटिस" भेज रहे हैं। भेजने वालों में वही विद्यार्थी हैं, अध्यापक हैं, प्रोफ़ेसर हैं, संपादक हैं... यहाँ तक तो फिर भी ठीक था। आज मित्र-सूची में शामिल एक वकील साहब ने भी बिना टिकट और बिना नोटरी अधिकारी के मुहर /हस्ताक्षर के यह 'नोटिस' फेसबुक को खींच मारी है। फेसबुक का मालिक भी हँस रहा होगा कि जिस देश में एल. एल. बी. की डिग्री इतनी सस्ती है कि बी. एड्. बेरोज़गारों से ज्यादा एल. एल. बी. बेरोज़गर हों, वहाँ से भी न्यायायिक /गैर न्यायायिक नोटिस फेसबुक पर भेजी जा रही है। कमबख्त फेसबुक का वकील हमारे सम्मन की तामील करते-करते ही खून फेंक देगा। 
             तो साथियों रुकना नहीं है। बस कल भर का ही समय है। फेसबुक और उसके नये वर्जन मेटा को यह नोटिस जारी करते रहना है। भले मेटा साल भर पुराना हो गया हो! लेकिन याद रहे कल ही आख़िरी डेट है। कल के बाद फेसबुक आपकी सारी वो गुप्त जानकारियाँ बेच देगा, जिसे कोई भी अप्लिकेशन डाउनलोड करते हुए आपने पहले दिन ही "एलाउ" कर दिया था। 
                    इस पोस्ट को काॅपी-पेस्ट अवश्य करें। यूपी के एक रिटायर्ड मास्टर ने इसे कापी पेस्ट किया तो उसे पुरानी पेंशन मिलने लगी और अजमेर के एक आदमी ने इग्नोर किया तो.... याद आयी नब्बे के दशक की धमकी! 
नोटिस के साथ-साथ प्रणाम भी स्वीकारें। 

असित कुमार मिश्र 
बलिया 


Saturday, August 19, 2023

शोध पत्र

शोध विषय :- "स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिन्दी उपन्यासों का सामाजिक यथार्थ"
(संदर्भ :सन् 1950 से 1975 तक) 
समस्या जिसका अध्ययन किया जाएगा:- 
 प्रस्तावित शोध की मुख्य समस्या स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिन्दी उपन्यासों में (सन 1950 से लेकर 1975 तक के ) पूर्वांचल पर आधारित उपन्यासों का अध्ययन करना तथा देखना कि उपरोक्त समय में पूर्वांचल तथा पूर्वांचल के समाज की वर्तमान समय से किस प्रकार की भिन्नता है जिससे पूर्वांचल के संपूर्ण समाज एवं संस्कृति को समझा जा सके। पूर्व में पूर्वांचल पर आधारित उपन्यासों का तथा इससे संबंधित अध्ययन अवश्य किया गया है, परंतु समाजशास्त्रीय आधार पर इन उपन्यासों का उल्लेख कहीं नहीं है। मैं समझता हूँ कि पूर्वांचल के समाज, संस्कृति और साहित्य को संपूर्ण रूप से समझने के लिए यह आवश्यक है कि उन प्रत्येक पहलुओं को समझा जाए जिन्होंने इसके निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस आधार पर पूर्वांचल आधारित उपन्यासों और इसका संपूर्ण समाजशास्त्र सदैव एक महत्त्वपूर्ण पहलू रहा है जिसकी भूमिका निसंदेह महनीय है तथा जिसकी उपेक्षा निश्चित ही हमारे ज्ञान हेतु अलाभकारी होगी। हिंदी उपन्यास मैला आँचल (फणीश्वर नाथ रेणु), बलचनमा (नागार्जुन) आधा गाँव (राही मासूम रजा) इत्यादि में हमें आंचलिकता तथा तत्कालीन समाज का चित्रण भलीभांति मिलता है। यथा - 'मैला आँचल' की भूमिका में रेणु कहते हैं - "इसमें फूल भी है,शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है, मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया" ।
                अतः यह आवश्यक है कि परिवर्तन की इस पूरी प्रक्रिया तथा परिणाम को संपूर्णता के साथ समझा जाए क्योंकि पूर्वांचल का क्षेत्र समाज और साहित्य एक दूसरे पर परस्पर निर्भर हैं। सभी ने एक दूसरे के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहाँ पूर्वांचल का समाज एक नए रूप में आया है। 
प्रस्तुत शोध के क्रम में समाजशास्त्र के विविध संदर्भ का अध्ययन करते हुए साहित्य में योगदान को समझने का प्रयत्न किया जाएगा तथा अधोलिखित प्रश्नों पर प्रकाश डाला जाएगा- 

1-चयनित उपन्यासों में चित्रित जीवनगत समस्याएँ क्या हैं? पूर्वांचल में ग्रामीण एवं शहरी जीवन के स्वरूप में किस तरह परिवर्तन आया है?

2- चयनित उपन्यासों जैसे बलचनमा और पुरुष पुराण आदि में समाज और संस्कृति की क्या उपादेयता है?
3- विभिन्न लेखकों की वैचारिकी और युगीन चेतना ने चयनित कृतियों और लेखकों को कैसे और कितना प्रभावित किया है?

4 चयनित उपन्यास वर्तमान समय  में किस रूप में प्रासंगिक हैं उपन्यासों की प्रखर अभिव्यक्ति में उनके कलात्मक पक्ष का कितना योगदान  है?
*अध्ययन का औचित्य* - स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिंदी उपन्यासों पर पूर्व में कार्य हो चुके हैं किंतु "स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिंदी उपन्यासों का सामाजिक यथार्थ" स्वयं में नवीन कार्य है। जिसमें शोध की अपार संभावना विद्यमान है। साहित्य में सामाजिक यथार्थ और सामाजिक संबंधों की समग्रता जनता के सामाजिक संघर्ष और इतिहास प्रक्रिया की दशा का चित्रण करके रचनाकार जनता का यथार्थ विकसित करता है जिससे जनता की चेतना तीव्र और जागृत होती है। चेतना के जागरण का अर्थ है अपनी मानसिकता सामाजिकता का बोध। और जागृत सामाजिक चेतना ही आगे चलकर परिवर्तनकारी चेतना बनती है।

(क) साहित्य के सामाजिक सरोकारों को देखते हुए भारतीय समाज के विकास की समस्याओं का अध्ययन करना तथा साहित्य के समाजशास्त्र को समझना अपेक्षित प्रतीत होता है क्योंकि जैसे-जैसे समाज में परिवर्तन होता है वैसे-वैसे साहित्य में भी परिवर्तन होता चलता है तथा साहित्यिक प्रवृत्तियाँ बदलती रहती हैं। 

(ख) साहित्य-अभिव्यंजना का सबसे सशक्त साधन है - उपन्यास। उपन्यास जीवन की सशक्त व्याख्या करता है। यह जन-जीवन का महाकाव्य है। उपन्यास मानव के यथार्थ जीवन के सबसे अधिक निकट होता है।अतः तत्कालीन समाज के यथार्थ जीवन, सामाजिक मूल्यों तथा स्थापनाओं को उद्घाटित करना हो तो उपन्यासों का अध्ययन एक सशक्त माध्यम हो सकता है।

(ग) कोई भी विशेष भू-भाग जिसकी अपनी एक संस्कृति हो, अपनी एक भाषा हो, अपनी समस्याएँ हों, संक्षेप में सामान्य देश भी जहाँ किसी विशेषता का आदेश दे- अंचल कहलाता है। जबकि आंचलिकता व्यक्ति की नवीन वृत्तियों का प्रतिफल है अतः आंचलिकता आंतरिक मूल्यों की गुणवत्ता है जो अंचल के प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक वातावरण की ही देन होती है ।
    समग्र रूप में कहा जा सकता है कि आंचलिक जीवन के यथार्थ का अध्ययन भारतीय जनमानस की आत्मा का अध्ययन है जिससे भारतीय संस्कृति, संस्कार एवं जीवन-मूल्यों को अधिक गंभीरता से समझा जा सकता है। शोध की दृष्टि से पर्याप्त सामग्री उपलब्ध होने के बावजूद "स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिंदी उपन्यासों का सामाजिक यथार्थ" (संदर्भ :सन् 1950 से 1975 तक) विषय पर कोई शोध-कार्य नहीं हुआ है।

*पूर्व में हुए शोध कार्य-*
 स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक (पूर्वांचल) हिंदी उपन्यासों पर हुए दो शोध-कार्य की जानकारी शोधगंगा द्वारा प्राप्त हुई है-

1. पूर्वांचल के आंचलिक उपन्यासों का विषय एवं शिल्पगत विवेचन : श्रीमती नीलमणि सिंह, वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर, वर्ष 2017

२. पूर्वांचल के आंचलिक कहानीकार समीक्षात्मक अध्ययन :  दिव्या सिंह, वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर, वर्ष 2009

*शोध की मौलिकता-*

स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक साहित्य में सामाजिक यथार्थ विशेष जानकारी एकत्र करने के क्रम में इस बात की जानकारी हुई है कि पूर्व में आंचलिक उपन्यासों के विषय तथा शिल्पगत विवेचन पर प्रकाश डाला गया है किंतु "स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक उपन्यास का सामाजिक यथार्थ" विषय पर कार्य का अत्यंत अभाव मिला। प्रस्तुत शोध- कार्य एक नवीन अध्ययन है, जिससे तत्कालीन समाज का अध्ययन समग्र रूप में किया जा सकता है। ऐसा मेरा प्रयास रहेगा।

*मीमांसात्मक सिद्धांत-*

साहित्य की सामाजिकता का सिद्धांत हिंदी साहित्य के समालोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी जी ने लिखा है- 'साहित्य जीवन की पुनर्रचना है और आलोचना इस पुनर्रचना की पुनर्रचना है इसी के आधार पर स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिन्दी उपन्यासों का सामाजिक यथार्थ (संदर्भ : सन 1950 से सन 1975 ई. तक) का चित्रण कहाँ तक हुआ है? इसका अध्ययन शोध-विषय के अंतर्गत करने का प्रयास किया जाएगा।

*परिकल्पना* - प्रायः सभी आंचलिक उपन्यासकारों ने स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिंदी उपन्यासों में सामाजिक यथार्थ की परिकल्पना प्रस्तुत की है। 

*अध्ययन की प्रविधि* - उपरियुक्त शोध-विषय का अध्ययन निम्नांकित प्रविधियों से किया जा सकेगा:-
(1)मार्क्सवादी प्रविधि - स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिंदी उपन्यासों के ग्रामीण समाज में वर्ग संघर्ष, वर्ग वैमनस्य और वर्ग भेद आदि का अध्ययन इसी प्रविधि से किया जाएगा। 
(2) तुलनात्मक प्रविधि -स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिंदी उपन्यासों में व्यक्त भारतीय ग्रामीण समाजों की तुलना और अन्यान्य पत्र - पत्रिकाओं में व्यक्त आंचलिक समाज की तुलना में तुलनात्मक प्रविधि का प्रयोग अपेक्षित होगा। 
(3) ऐतिहासिक प्रविधि - स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिंदी उपन्यासों में व्यक्त ग्रामीण जीवन के इतिहास, सामाजिक स्थिति और विकास आदि का आकलन कर बदलाव की माँग और संभावनाओं का अध्ययन ऐतिहासिक प्रविधि से किया जाएगा। 
*अध्ययन के स्रोत* - 
(क) प्राथमिक स्रोत - इसके अंतर्गत 1950 से 1975 तक के निम्नांकित स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिंदी उपन्यासों को आधार बनाया जाएगा - 
(1) बलचनमा, नागार्जुन (1952), वाणी प्रकाशन नई दिल्ली 
(2) मैला आँचल, फणीश्वरनाथ रेणु (1954), राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली 
(3) आधा गाँव, राही मासूम रजा (1966), राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली 
(4) राग दरबारी, श्रीलाल शुक्ल (1968)राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली 
(5) पुरुष पुराण, डॉ. विवेकी राय (1975) अनुराग प्रकाशन वाराणसी 
(ख) *द्वितीयक स्त्रोत * - द्वितीयक स्त्रोत के अंतर्गत समीक्षात्मक ग्रंथ, अन्य संबंधित शोध-प्रबंध, शोध- आलेख तथा पत्र - पत्रिकाओं का आधार ग्रहण किया जाएगा। 
अध्यायों का वर्गीकरण :

अध्याय विभाजन

प्रस्तावना

अध्याय एक: सामाजिक यथार्थ : एक अध्ययन

1.1 समाज का साहित्य से अन्तर्सम्बन्ध

1.2 रचनाकार समाज और रचनाएँ
13 साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन

अध्याय दो : हिंदी आँचलिक उपन्यास : एक संक्षिप्त परिचय

2.1 प्रेमचन्द पूर्व, प्रेमचन्द युगीन, प्रेमचंदोत्तर युगीन उपन्यास और उपन्यासकार

2.2 आँचलिकता : एक परिदृश्य

2.3 हिंदी के आँचलिक उपन्यासों का उद्भव और विकास

अध्याय तीन : स्वतंत्रता से पूर्व हिन्दी आँचलिक उपन्यासों का सामाजिक / सांस्कृति यथार्थः अध्ययन

3.1 पूर्वांचल का सामाजिक अध्ययन

3.2 मध्यवर्गीय चेतना

3:3 आंचलिक उपन्यासों में ग्राम

3.4 आंचलिकता की पहचान

अध्याय चार : स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यासों के सामाजिक यथार्थ के विविध आयाम

4.1 सामाजिक आधार

4.2 सांस्कृतिक आधार

4.3 राजनीतिक आधार

4.4 आर्थिक आधार

अध्याय पाँच : स्वातंत्र्योत्तर हिंदी आंचलिक उपन्यासों का कलात्मक अध्ययन

5.1 कथानक का आधार
5.2 भाषा - शैली
5.3 बिम्ब और प्रतीक
5.4 अन्य प्रयोग

*संदर्भ ग्रंथ-सूची*
 मौलिक ग्रंथ 
1. बलचनमा - नागार्जुन (1952),वाणी प्रकाशन नई दिल्ली 
2.मैला आँचल - फणीश्वरनाथ रेणु (1954) ,राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली 
3. आधा गाँव - राही मासूम रजा (1966), राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली 
4.राग दरबारी - श्रीलाल शुक्ल (1968),राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली 
5.पुरुष पुराण - डा. विवेकी राय (1975),अनुराग प्रकाशन वाराणसी 
*समीक्षात्मक ग्रंथ - इनका समीक्षात्मक आधार लिया जाएगा। 
1.साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका :मैनेजर पाण्डेय, हरियाणा साहित्य अकादमी, चण्डीगढ़ 
2. साहित्य का समाजशास्त्रीय चिंतन : निर्मला जैन 
3. साहित्य का उत्तर समाजशास्त्र : डा. सुधीश पचौरी 
4. साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि : मैनेजर पाण्डेय 
5. साहित्य का समाजशास्त्र :डा. नगेन्द्र 
6. हिन्दी के आंचलिक उपन्यास और उनकी शिल्प विधि :डा. आदर्श सक्सेना 
7. स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास एक सर्वेक्षण :महेन्द्र चतुर्वेदी 
8. आंचलिक उपन्यास ग्रामीण मध्य वर्ग :हजारीप्रसाद द्विवेदी 
9. आंचलिकता और आधुनिक परिवेश कल्पना :शिव प्रसाद सिंह 
10. हिन्दी के आंचलिक उपन्यास :प्रकाश वाजपेयी 
11.शास्त्रीय समीक्षा के सिद्धांत :डॉ. त्रिगुणायत 
आंचलिक उपन्यास 






Tuesday, July 26, 2022

गीता पर हाथ रख कर.... (कथा - संग्रह)
                                                                लेखक :-  मानवेंद्र मिश्र






                   समर्पण :- 'न्याय' के लिए उठी हर आँखों के इन्तज़ार को

Friday, July 8, 2022

सुविचार का कुविचार

सुविचार का कुविचार 

बलिया से पचास - पचास कोस दूर जब भी कोई बारात दूसरे जिलों या राज्यों में जाती है तो अंगना में जूता-चुराई का नेग हाथों में धरते हुए साली जी सबका परिचय कराते हुए कहतीं हैं - ए जीजा! हई पिंकी है, हई सुभावती, हई रिंकिया, हई मुस्कान आ हई शोभा.... ।सबको चीन्ह लीजिए ठीक से.... इस बार मेरी कोई भी सखी इंटर में फेल हुई तो दिदिया किरिया कह रहे हैं कभी बलिया में गोड़ नहीं धरेंगे।
जीजाजी के बगल में बाडीगार्ड की तरह खड़े 26-26-26 साइज़ के देहधारी युवक ने मुँह में भरे गुटखे को थूकते हुए चवनियाँ मुस्कान के साथ कहा -हाईस्कूल पास का फोटोकॉपी और एक - एक फोटो दे देना सबका। सब लोग पास हो जाओगी आ आपको तो 'जिला टॅप' कराएँगे।
साली जी फेल होने के दुख को ओढ़नी में लपेटती हुई बोलीं - हम तो इसी साल पास हो गए होते लेकिन हमारे स्कूल का हेड मास्टर एतना कमीना था कि समीज़ में रखा हुआ चिट तक नहीं निकालने दिया था.... बलिया में सुने हैं कि ऐसा नहीं होता है!
बाडीगार्ड जी ने होठों से कुत्सित मुस्कान और जेब से एक मुहर निकाल कर साली जी के हाथ पर धरते हुए कहा - आप आइए तो बलिया में! आप ही को 'प्रेंसपल' बना देंगे....।
भक्क! - साली जी ने लजा कर कहा और सीढ़ियों से दौड़कर छत पर वाले कमरे में चली गईं। 
               इधर दुल्हन की बिदाई के समय गाँव के सीवान से निकलते हुए बारात ने जयकारा लगाया था - बोलो-बोलो भिरगू बाबा की.... जय! 
उधर छत पर पारबती उर्फ़ साली जी ने डाॅट पेन की रिफिल निकाली थी, उसकी स्याही को मुहर के उल्टे अक्षरों पर लगाया था और दीवार के कैलेंडर पर ठोंक दिया। कैलेंडर पर अगले ही पल कुछ अक्षर उभर आए थे - "प्रधानाचार्य फूलकुमारी देबी इंटर कॉलेज बलिया"।

                  पिछले दिनों यही बलिया जिला अपने ऐसे ही संपन्न होने वाले हाईस्कूल - इंटरमीडिएट की परीक्षाओं के कारण चर्चा में था।सब जानते हैं कि परीक्षा-कक्ष में बोलकर हल कराने से लेकर पेपर आउट कराने और कापियाँ घर लिखवाने में तमाम जीजाओं-सालियों और ससुर - दामादों का अथक प्रयास तो रहता ही है इसमें सरकारों और अधिकारियों का भी कम योगदान नहीं है।
हर साल की तरह इस साल भी हाईस्कूल - इंटरमीडिएट की परीक्षाएँ चल रही थीं। पेपर और उसके हल समयानुसार टेलीग्राम और व्हाट्स - ऐप पर आ ही रहे थे कि अचानक शहर में शोर उठा - "संस्कृत वाले शुक्ला गुरुजी व्हाट्स - ऐप पर पेपर भेजने में एसटीएफ के द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए हैं" ।
जहाँ तक याद आता है मैं भोजन कर रहा था। मारे दु:ख के आगे खाया न गया। हालांकि जानता हूँ कि विद्वान आदमी के पतित होने की संभावना ज्यादा होती है।फिर भी किसी अध्यापक की मृत्यु से ज्यादा दु:खदाई उसका जेल जाना होता है। वैसे तो गुरुजी से मेरा कोई सीधा संबंध नहीं था बस एक बार किसी बिचौलिए अध्यापक ने परिचय के क्रम में बता दिया कि ये असित कुमार मिश्र हैं हिंदी वाले। हिंदी के अध्यापक की गरिमा इतनी ही होती है कि लोग 'अच्छा - अच्छा' कह कर हाथ-वाथ मिला लें, मोबाइल नंबर या पता वगैरह लेना - देना प्राय: गणित और विज्ञान के अध्यापकों के साथ होता है। 
लेकिन गुरुजी ने न सिर्फ़ हाथ मिलाया बल्कि अपना मोबाइल फोन निकाल कर मेरे हाथों में देते हुए कहा - "अपना नंबर इसमें 'सेभ' कर दीजिए। कभी जरूरत हुआ तो नंबरवा रहेगा तभिए न बात होगी"।
 उस दिन के बाद गुरुजी से सशरीर मुलाकात का सौभाग्य तो न मिल पाया लेकिन सुबह - शाम मेरे व्हाट्स - ऐप पर उनके द्वारा भेजे जाने वाले सुविचार रोज प्राप्त होने लगे।
गुरुजी से मेरा संबंध" सुविचार" का था। वो रोज़ न जाने कितने-कितने परिश्रम से किन - किन गहन-गिरि-कानन-कुञ्जों से सुविचार इकट्ठा करते और मेरे व्हाट्स - ऐप में डाल कर मुझे महान व्यक्ति बनाने की असफल कोशिश में निरंतर लगे हुए थे।
मैंने उसी दिन कुछ गरिष्ठ अध्यापकों से गुरुजी के संदर्भ में पूछा कि - न तो उनकी कोई साली - सरहज अब हाईस्कूल - इंटर में होगी न कोई समधन.... फिर उन्हें पेपर व्हाट्स - ऐप पर भेजने की क्या जरूरत पड़ी थी? 
फिर मुझे जैसा बताया गया उसके अनुसार गुरुजी हर सुबह की भांति स्नान - ध्यान से निवृत्त होकर सुविचार फारवर्ड करने में लगे थे। भूलवश उनके नंबर पर किसी ने हाईस्कूल अंग्रेज़ी का पेपर भेज दिया। उन्होंने सोचा होगा कि यह भी कोई सुविचार का पोस्टर ही होगा भाषा भले विदेशी है और लगे भेजने.... ।
भेजने का यह क्रम तब रुका जब एसटीएफ ने उनके हाथों में हथकड़ियाँ डाल दीं।
                      कई दिनों तक गुरुजी के निष्पाप होने पर भी उनका यूँ जेल चले जाना बहुत अखरता रहा।एक ही अध्यापक जाति, कर्म और धर्म का होने के कारण बहुत दिनों तक सोचता रहा कि - काश! मैंने वकालत की डिग्री ली होती तो आज गुरुजी को जेल से रिहा करा लाता या जज़ साहबान तक मेरी पहुँच ही होती तो उनके पैरों पर भले गिरता लेकिन गुरुजी को बा-इज्ज़त बरी करा लाता।शासन - सत्ता तक भी मेरी आवाज़ पहुँचती तो जरूर बताता कि गुरुजी का चरित्र निर्दोष और निष्पाप है उन्हें चेतावनी देते हुए छोड़ दिया जाए।
                        इधर जीवन मंदाक्रांता छंद की मंथर गति से चल रहा था कि कल रात अचानक व्हाट्स-ऐप पर गुरुजी के नंबर से हलचल हुई और एक "रात्रिकालीन सुविचार" मेरे व्हाट्स-ऐप की झोली में आ गिरा। 
मैंने तुरंत शुक्ला जी के एक साथी गुरुजन के यहाँ फोन किया और पूछा कि - गुरुजी जेल से छूट गए हैं क्या? 
उधर से यादव गुरुजी ने बताया है कि - "सरवा दोपहर में ही जमानत पर आया है और" रात्रिकालीन सुविचार" शुरू कर दिया। संबंध के कारण इसको ब्लाक भी नहीं कर सकता। इसको आजीवन कारावास हो जाता तो इसके रोज़-रोज़ के सुविचारों से जान बचती"।
मैं क्या कहता!बस सोच रहा हूँ कि काश! मैंने वकालत की डिग्री ली होती तो गुरुजी को पुनः जेल तक छोड़ आता या जज साहब तक मेरी पहुँच ही होती तो जरूर कहता कि - जज साहब! आपको राज्य-सभा की कसम पेपर आउट प्रकरण में भले छोड़ दीजिए लेकिन फालतू के सुविचार फारवर्ड करने के जुर्म में 'सर तन से जुदा' टाइप कोई सजा जरुर सुनाइए गुरुजिउवा को.... ।
लेकिन मुझे पूरी उम्मीद है कि गुरुजी जमानत देने वाले जज साहब का मोबाइल नंबर जरुर लिए होंगे और इस "रात्रिकालीन सुविचार" की एक काॅपी उनके व्हाट्स-ऐप तक भी जरूर गई होगी.... 

असित कुमार मिश्र 
बलिया

Saturday, September 18, 2021

एक शहर था

इस दश्त में एक शहर था वो क्या हुआ....?

             भारत के किसी भी शहर में जब भी कोई लेखक आता है (रायल्टी प्राप्त लेखक कृपया 'उतरना' समझें) तो उस शहर में आने से पहले दो काम करता है। पहला फोन और वो भी उसे जिसका नाम 'संपादक' होता है।
लेखक और संपादक का रिश्ता "कभी सास भी बहू थी" टाइप होता है। हिंदी का साहित्य गवाह है कि अगर कालांतर में लेखकों को ठीक-ठाक रायल्टी मिली होती तो आज संपादकों का नाम संकटग्रस्त जातियों की आईयूसीएन सूची (लाल सूची) में होता।
हिंदी का लेखक जो दूसरा महत्त्वपूर्ण काम करता है वो है उस जगह के समाचार पत्रों में लोकल न्यूज़ पढ़ते हुए यह पता करना कि आज कहाँ और किस जगह साहित्यिक गोष्ठी अथवा साहित्यिक सम्मेलन वगैरह आयोजित है और वो स्वादानुसार कहाँ का मुख्य अतिथि या विशिष्ट अतिथि बन सकता है।
यह आधुनिक युग की परंपराएँ हैं। और परंपराएँ , परंपराएँ ही होती है जिसका निर्वहन "माँग में सेंनुर" भरने की तरह आवश्यक है।
                  मैंने भी प्रयागराज उतरते ही साहित्य की मर्यादा का पालन किया और अखबार में लोकल का न्यूज पढ़ते हुए अनहद पत्रिका (त्रैमासिक) के यशस्वी संपादक संतोष चतुर्वेदी भैया को फोन भी किया - का हाल बा भइया?
संतोष भैया इतिहास के गम्भीर अध्येता, भाषिक सहोदर तथा 'स्वजातीय' हैं।'स्वजातीय' इसलिए लगाना पड़ा कि फिलहाल चर्चा में आए प्रसिद्ध इतिहासकार श्री मनोज मुन्तशिर भी स्वजातीय ही हैं जिन्होंने हिन्दी दिवस पर अपनी माताजी को मम्मी की जगह "माँ" कहने की अद्वितीय परंपरा शुरू की है। वर्नना हम जैसे गैर ऐतिहासिक लोग 'माई' ही कहते आए थे आज तक। 
खैर! संतोष भइया ने कहा - सब ठीके बा हो। तूं बतावऽ कहाँ बाड़ऽ?
मैंने कहा - भैया! प्रयागराज में हूँ। यहाँ अखबार में एक न्यूज छपी है नीलकांत जी के साथ कुछ आर्थिक अपराध हुआ है क्या?
उन्होंने आश्चर्य से पूछा - तुम जानते हो उन्हें?
                  क्या कहता मैं कि मेरे इस लेख का शीर्षक भी नीलकांत का ही है!
एक जमाने में अपनी मौज और अपने तेवर का एकलौता लेखक नीलकांत जिनके बारे में इलाहाबाद के साहित्यिक लोग जानते ही होंगे कि उन्होंने "एक बीघा गोएड़" समेत दर्जन भर उपन्यास लिखे और कोलकाता वाली पत्रिका 'लहक' ने शायद अप्रैल या मार्च 2016 में इन पर अपना विशेषांक भी निकाला था।
"एक बीघा गोएड़" की वास्तविक कीमत वही आँखें समझ पायेंगी जिन्होंने प्रेमचंद, रेणु, भैरव प्रसाद गुप्त, और मार्कण्डेय को पढ़ने के साथ-साथ आजादी के बाद चकबंदी के समय गाँव में गोएड़ वाली जमीन के लिए लेखपाल, नायब तहसीलदार और तहसीलदारों का ईमान पैसे पर बिकते देखा था। यही नहीं उन्हीं आँखों ने यह भी देखा होगा कि जब पुलिसिया लाठी, लेखपाल का नज़राना और पट्टीदारी में कट्टा - बंदूख चल जाने के बाद हरहराते देह ने कँपकँपाते हाथों से पट्टे का कागज लिया तभी पूँजीवाद ने सड़क के किनारे वाली जमीन की मालियत बढ़ा दी.... ।
                      आज कोई नहीं पूछता गोएंड वाली जमीन को और ना ही ऐसे किसी लेखक नीलकांत को कि वो आज किस भाव में और किस हाल में हैं! वर्ना इसी गोएंड वाली जमीन और नीलकांत जी में जब तक ऊर्जा थी तब तक इन्हें कौन न जानता था! जिस जमीन के दम पर किसान के बदन पर कुर्ता फहरता था और जिन लेखकों के दम पर शहरों की रवायतें जिंदा थीं। आज यकीन नहीं होता कि यह उन्हीं लोगों काा बसाया प्रयागराज है!
                        याद कीजिए! जब तक जिस्म में जान हो तब तक गोएंड की जमीन, भले ही वो फसल देकर थक चुकी हो, उसे बंधक नहीं रखा जाता।
देख लीजियेगा नीलकांत जी के साथ उम्र के आखिरी पड़ाव में ऐसे दुर्दिन में जिन लोगों ने आर्थिक अपराध किया है उनके खिलाफ कोई कार्रवाई हुई भी है या नहीं!
प्रयागराज के जिलाधिकारी महोदय एसपी महोदय को ट्विट कीजिए और उन्हें बताइए कि पूँजीवाद ने भले सड़क के आसपास के जमीनों की कीमत बढ़ा दी है लेकिन हम अपने गोएंड की जमीन और "एक बीघा गोएंड" के लेखक के ही साथ हैं.....।
वर्ना बनतीं जाएंगी अट्टालिकाएँ सड़क वाली जमीन पर और घटती जाएगी गोएंड वाली जमीन की कीमत।
                   संभव है आज चुरा लें कुछ लोग अपनी नज़रें गोएंड वाली जमीन और उसके लेखक नीलकांत से।
लेकिन याद रखिएगा जब भी मेरे या आप जैसा साहित्य का कोई विद्यार्थी पाठक या लेखक उतरेगा भारत के किसी भी सुदूर गाँव से किसी भी शहर के स्टेशन पर तब वहाँ के लोकल अखबारों की कतरनें आपके गाल पर तमाचा मार कर यह जरूर पूछेंगी - इस दश्त में कोई शहर था वो क्या हुआ....

असित कुमार मिश्र
बलिया

Tuesday, September 14, 2021

दिल सितुही

दिल सितुही देह सिलवट....

दू हजार के कलेन्डर से बीसवाँ बरिस देखते - देखत एतरे निकल गइल जइसे घर के मनसरहंग लइका घर से निकल जाव.... ना हंसिये आवे ना रोवाइये।
मरकिनौना कहियो एइसन दिन ना बीते जहिया दु-चार लोगन के मुअला के समाचार ना आवे। जिउ एतना डेराइल रहे कि सपनवो में सुस्मिता सेन ना सेनेटाइजरे लउके। सही में, जिनगी एतना सस्ता कबो ना रहे कि सर्दी-जोखाम, जे के आदमी कुछु ना बूझे,ओसे जान चल जाव।
                          एक दिन के बाति हऽ। भोरे में ऊंघाई टूट गईल। बुझाईल कि केहू रोवता। साँस एकदम से अटक गईल.... आहि रे बाप! केहू अगल-बगल से गइल का?
किल्ली खोल के बहरी निकलनीं। नीब के डाढि पर दु - तीन गो रुखी छुआ-छुई में लागल रहली सन आ ओसे तनीं ऊपर पुलुईं पर एगो कउवा के काँव-काँव सुनाईल।
ओइसे तऽ गाँव के भोर बहुत मनसाईन लागेला। लेकिन मन ठीको तऽ रहे के चाहीं। जब पूरा दुनिया में हमनी के समसान के फोटो दउरता तऽ मन मनसाईन ना भकसाईन भइले रही।
तबले फेर पुरुब ओर से ओइसहीं आवाज आईल। तनीं कान लगवला पर बुझाईल कि ना केहू रोवत नइखे, तीन घर आगे वाला बाबा आपन भजन वाला टीसन पकड़ लेले बाड़ें - भंवरवा के तोहरा संगे जाई.... रे भंवरवाऽऽऽ.... ।
मन में तऽ आईल कि इनके, इनकी भंवरवा के संगही उड़ा दिहीं - बाबा! ई कुल्ह का सुरु कइले बानीं। कुछु नीमन गाईं महाराज!
बाबा चुप तऽ हो गइलें लेकिन फिर बोललें - तऽ कोनो नीमन भजन मन परावऽ।
हम कहनीं - गाईं! जिंदगी प्यार का गीत है इसे हर दिल को गाना पड़ेगा....।
                पता ना बाबा ई वाला भजन गइनीं कि ना लेकिन मूड अपसेट तऽ होइए गइल।
अब सुतहू के बेरा ना रहे। सोचनीं कि वर्क फ्राॅम होम कईल जाव ।लेकिन ना वर्क में मन लागे ना होम में।
जब वर्क फ्राॅम होम से ले के वर्क फ्राॅम दुआरे तक कुल्ह कऽ के देख लीहनीं, आ कहीं मन ना लागल तऽ सोचनीं कि अब वर्क फ्राॅम पिछुआरी कर के देखल जाव।
सही बताईं तऽ अब गाँव में भी गाँव बस पिछुआरिये रह गइल बा, आगे से तऽ कुल सहर होइये गइल बा। अबहीं हमरे होस में जुआठ, हरीस, बरहा, हेंगा, गोईंठा के कहो, टुटले-फाटल डोली तक रहे। लेकिन सहर बने के सवख जब आवे ला तऽ साज होखे चाहे सामान, भासा होखे चाहे संस्कृति सबकर जगह पिछुआरिये बनल।
कुछु समझ में ना आइल कि का कइल जाव तऽ सोचनीं कि पेपर बना लीहल जाव। टेस्ट लेबहीं के बा।
अच्छा ई हमरे ना दुनिया के कवनो मास्टर के आदत हऽ, ओके जब कुछु ना बुझाई कि का करे के बा तऽ ऊ पेपर बनावे लागी। कवनो परीच्छा के पेपर उठा के देख लिहीं। देखते ई बुझा जाई कि सौ गो में निन्यानबे गो पेपर कुछु ना बुझइला के दौरान ही बनावल गईल बा।
अबहीं दु लाईन लिखनीं तबले बुझाईल कि पिछवा कुछ हीलता। घूम के देखनीं तऽ दुआरी के पर्दा रहे।
मन में आईल कि अइसन पर्दा अब आवत होई कि ना? बहुत पहिले गाँधी आश्रम के दुसुत्ती वाला पर्दा आवे। जेवना पर कुछु- कुछु, फूल - पतई के साथे गीता - रामायन के दोहा-चौपाई लिखाइल रहे...। बै! अब ऊ समय कहाँ बा! अब तऽ एक से एक डिजाइनदार पर्दा आवता।
मन में आइल कि देखल जाव एपर का लीखल बा? जब आँख उठा के देखनीं तऽ सिकुड़ के दिल सितुही आ देह डेरा के सिलवट हो गईल - "क्यों व्यर्थ चिंता करते हो?
तुम क्या लाए थे जो तुमने खो दिया...
जो आज तुम्हारा है वो कल किसी और का होगा.... "।
आहि रे करम! आजु के दिन ठीक - ठाक बीत जाव बस।
लैपटॉप के सिरहाने धर के चुपचाप सुतले में भलाई रहे। दस मिनट देस-दुनिया के चिंता में बीतल आ ओही में का जाने कब ऊंघाई लाग गइल।
दसो मिनट भी ठीक से ना बीतल होई, तबले दु गो पुलिस आ के डांटे लगलन स- मास्क कहाँ बा? तहार चालान होई। महामारी अधिनियम के तहत दु साल जेल.... हाथ छोड़ा के चलनीं भाग। डाक बंगला तक जात-जात मोटरसाइकिल के पेट्रोल खत्तम - ओनी पूरा पुलिस फोर्स। अब का करीं!
तबले पाछे से आ के एगो दरोगा हाथ पकड़ लीहलस - का हाल बा माट्साहब!
चिंहुक के उठनीं।देखनीं कि सोनापति भाई खटिया के लगे कुर्सी पर बइठल बाड़ें। हाथ देखनीं हथकड़ी ना रहे। तनी जिउ में जिउ आइल।
सोनापति कहलन - कांहे हाथ देखऽ तनीं?
हम जल्दी-जल्दी "कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती".... पढ़े लगनीं।
सोनापति ब्यंग में कहलन - अब केतना लक्ष्मी चाहीं! एगो तऽ सबसे आराम के नोकरी आ ओहू में सबसे ज्यादा तनखाह मास्टरे के बा। भर लाकडाउन ऐस कइल ह मास्टर लोग....
हम का बोलीं अब। बाकिर कहनीं कि- ए सोनापति भाई! ई तहार दोस नइखे। जेकरी-जेकरी नांव के बाद "पति" लागल बा न! ऊ सबके लागता कि मास्टरन के तनखाह बहुत ढेर बा।
हम आगे ओसारा में ले जाके पूछनीं- खैर! ई कुल छोड़ऽ, बतावऽ कइसे आईल भइल हऽ?
सोनापति भाई कहलन - देखऽ भाई! हमनीं के आम आदिमी हईं जा। हमनीं के बाप नेता - मंतरी बिजनेसमैन ना रहे। हमनीं के आगहूँ सोचे के बा आ पीछहू।
हम कहनीं - एकदम सही बात बा भयवा।
ऊ बात आगे बढ़वलन- हमनीं के सपनवो आम आदमी वाला आवेला - पेट्रोल खत्तम हो गईल - दाल खत्तम हो गईल - थइली कवनो काट लीहल-पुलीस चालान काट दीहलस ... एइसने कुल सपना रहेला हमनीं के किस्मत में। हं कि ना!
हम आंख चोरवा के कहनीं - हं भाई। एकदम सही बात कहलऽ।
आ बड़ आदिमी जानतरऽ का सपना देखे ला - पेट्रोल पंप खोले के, आपन जहाज कीने के एघरी तऽ टरेनवो मान लऽ। जेड प्लस सिकोरिटी के.... हई आम आदमी वाला जीवन हमनीं के तऽ जी लिहनीं जा। हमनी के लइका जीहन सन?
हम तऽ सोनापति भाई के देखते रह गइनी। सोनापति हमनी के पीढ़ी के हड़ाह कबि हउवन। ओइसे मूल रूप से मोटर मैकेनिक आ बीमा कंपनी के काम करेलन। हमरा बुझा गईल कि केतना सही बात बोलता जवान। हम कायल होके कहनीं - ना भइया! आवे वाली पीढ़ी खातिर नीमन से प्लानिंग करे के परी।
सोनापति तीन पन्ना के एगो फारम निकाल के कहलन - हई जीवन बीमा के फारम भरीं तब।
दु-केतरे तऽ कहल जाला - "कुजगहा फोड़ा आ ससुर बैद"।
एगो तऽ ओइसहीं कोरोना आर्थिक तमाचा मारता ओहू में आपने मित्र बीमा लेबे आ जाव।
हम बहाना कइनीं- भइया! बीमा में कवनो बाति नइखे बाकिर एकर पइसा बेरा पर ना मिलेला।
सोनापति जी ओज गुण आ बीर रस के कबि हईं। इहां के "बीमा-हजारा" किताब के जहिया बिमोचन रहे ओहि दिन किताब भले एगहू ना बेचाइल बाकिर सौ गो से अधिका बीमा मिलल रहे।
सोनापति भाई तनीं खिसिया के कहनीं - जवार में घूम के हमार रेकार्ड पता कर लिहीं। ई कंपनी एइसन - तइसन ना हऽ ।बीमा कराईं आ मान लीं कि बाई द वे कुछु हो गईल तऽ लास फुंकाये के बेरा ले चेक रउरी हाथ में.... ।कहीं तऽ लिख के दे दीं।
हमार त बुझाइल कि जाने निकल जाई। मने - मने हाथ जोड़ के भगवान से कहनीं कि हे भगवान आजु के दिन ठीके-ठीक निकल जाव।
केहूतरे सोनापति भाई से बियफ्फे के बीमा देबे के वादा कर के भेजनीं। आ घर में आके मोबाइल स्विच आफ कइनीं। आ दिन भर केहू से भेंट ना होखे एसे चुपचाप सुत गईनीं।
                             साँझ के बेरा उठनीं। आ भगवान के धन्यवाद दिहलीं कि आजु के दीन नीमने-नीमन कट गईल।
अगिला दिने सबेरे चाह पी के मोबाइल खोलनीं तऽ सोनापति भाई के एकईस गो मिसकाल के मैसेज।
एनी से फोन कइनीं - का हो सोनापति भाई! काल्हु एतना फोन कांहे आईल रहुवे ?
ओनी से सोनापति भाई के रोवनिया आवाज आईल - मरदे! का बताईं एगो बाछा के बचावे में अपने बोलेरो से लड़ के गिर गइनीं। मोटरसाइकिल के तऽ जवन हाल भइल ऊ भइल दहिना गोड़ टुटल बा। दस हजार रुपिया भेजऽ जल्दी से.... ।
- ओह! भइया नये गाड़ी रहल ह तऽ  इंस्योरेंस होखबे करी।
सोनापति भाई कहलन - अरे ऊ साला महीना भर जाँच करीहन सन ओहू के बाद जबले कुछ देईब ना तबले क्लेम ना मिली। इंस्योरेंस विभाग के अभी तूं नइखऽ जानत।
हम कहनीं - अच्छा भइया! दुर्घटना बीमा भा आयुष्मान कार्ड तऽ बा न?
सोनापति भाई कहलन - ना मरदे! हम आपने बीमा ना कर पवनीं। हम का जानीं कि एक्सीडेंट होइये जाई। आ आयुष्मान कार्ड हास्पिटलवा वाला मानते नइखन सन.... । रातिये भर में दिल सिकुड़ के सितुही हो गईल बा देह सिलवट ।काल्हु का जने कवना के मुँह देखले रहुंवी।
संयोग से हमरो मन में इहे बात चलत रहुवे कि काल्हु कवना के मुँह देखले रहुंवी.... ।आखिर में कहहीं के परल -हं भाई! एकदम सही बात कहलऽ हऽ।

असित कुमार मिश्र
बलिया