Tuesday, November 13, 2018

हो सकेगा सरकार

हो सकेगा सरकार...

सिकन्दरपुर... इस नाम में ऐसा कुछ भी नहीं जिसका जिक्र किया जा सके। बस बलिया का एक छोटा सा कस्बा है जो आम कस्बाई इलाकों जैसा ही है।सुबह यहाँ भी होती है शाम यहाँ भी होती है दोपहर का कुछ कह नहीं सकता। शायद होती ही होगी क्योंकि मैं अपने काॅलेज में व्यस्त रहता हूँ और मेरी ही तरह पूरा सिकन्दरपुर अपने-अपने कामों में व्यस्त ही रहता है।फिर कौन सोचने बैठा है कि दोपहर होती भी है या नहीं !
                     मंदिर-मस्जिद भी है यहाँ ,पूजा-नमाज़ भी है यहाँ, सौहार्द और वैमनस्य भी है यहाँ।परसों ही चाँदनी चौक में काशी की दुकान पर इमिरिती खा कर कागज़ से हाथ पोछते हुए फ़ैज़ ने कहा था - काशी चा! अइसन इमिरिती साला पूरा हिन्दुस्तान में ना मिली।
काशी जी कलाई को गोल-गोल घुमाना छोड़ कर थोड़ा सा रुक गए थे, फिर कड़ाही में गिर रही धोई की लकीर को उंगलियों से काट कर, उसमें अपनी चवनिया मुस्कान मिलाई थी और तब जवाब दिया था - अयोध्या जी! दुगो इमिरिती औरु खा लऽ... ।
फिर तो जो हँसी की आवाज़ उठी थी चारों तरफ़, उसमें सिकन्दरपुर की सारी चिन्ताएँ और सारे ग़म दूर हो गए।
दरअसल जिस दिन से 'फ़ैज़ाबाद' का नाम बदलकर 'अयोध्या' किया गया है उसी दिन से कस्बे के हर 'फ़ैज़' को 'अयोध्या जी' कहा जाने लगा है।
वैसे भी यह बदलाव का दौर है।इतिहास बदल रहा है,भूगोल बदल रहा है, नागरिक-शास्त्र बदल रहा है तो नाम का बदलना कौन सी बड़ी बात है। वैसे भी 'कुटज' नामक निबंध लिखते हुए हजारी बाबा ने कहा था कि- "नाम इसलिए बड़ा नहीं है कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। रूप व्यक्ति सत्य है नाम समाज सत्य...।"
बाबा के लिखे हुए की काट करना संभव नहीं है, फिर भी मुझे लगता है बाबा यह बताना भूल गए कि नाम 'समाज सत्य' तो होता ही है, नाम 'सरकार सत्य' भी होता है।
सरकार के मन में आ जाए तो कल ही सिकन्दरपुर का नाम भी बदल जाए।हालांकि इसकी उम्मीद नहीं है क्योंकि सरकार को पता ही नहीं होगा कि उसकी सल्तनत में कोई सिकन्दरपुर नाम की जागीर भी है। जब यहाँ के विधायक-सांसद को ही नहीं पता कि सिकन्दरपुर नाम का कोई कस्बा भी है तो सरकार तो बहुत ऊपर की चीज़ है।
                    खैर! सिकन्दरपुर में बात बस इतनी सी है कि मैं काॅलेज जाने के लिए बस यहीं से पकड़ता हूँ।चूंकि स्ववित्तपोषित काॅलेजेज़ में राजकीय प्राध्यापकों की तरह छूट तो मिलती नहीं कि घर पर मन न लगे तो काॅलेज ही आ जाइए और जब आ ही गए हैं तो दो पीरियड लेकर विद्यार्थियों पर एहसान कर ही दीजिये।
यहाँ तो आप आएँ या आपके मरने की ख़बर... बीच का कोई रास्ता नहीं होता।
इसलिए रोज़ काॅलेज जाना पड़ता है। और रोज़ एक ही सड़क पर यात्रा करते-करते इतना तो पता चल ही गया है कि इस सड़क की कमर कहाँ कितनी लचकती है फिर मुझे इस सड़क की मुहब्बत में खुद को गिरने से बचाने के लिए कितने डिग्री 'अपोजिट' झुकना पड़ेगा।
सिकन्दरपुर में बसें दो प्रकार की पाई जाती हैं। पहली साहित्यिक बसें जिनके पीछे सामान्यतया यमक अनुप्रासादि अलंकारों के उदाहरण दर्ज़ होते हैं जैसे - 'देख सहेली तेरा साज़न जा रहा है' अथवा 'मुस्कुरा के देख तमन्ना हम भी रखते हैं' टाईप। और थोड़े बड़े अक्षरों में उन फ़िल्मों के नाम टँगे होते हैं जिनमें हीरोइन या तो हीरो को नहीं मिलती या जिनके मिलने का कोई मतलब नहीं होता जैसे 'धड़कन' या 'गज़नी'। और ड्राइवर के दरवाज़े पर छोटे लेकिन मजबूत अक्षरों में बताया गया होता है - पायलट।
              लेकिन इधर मैं देख रहा हूँ कि मेरे समयानुसार ही एक दूसरे प्रकार की बस आकर ठीक मेरे सामने खड़ी हो जाती है।जिसके पीछे लिखा रहता है - जगह मिलने पर पास दिया जाएगा और सामने के मटमैले शीशे पर - उत्तर प्रदेश परिवहन तथा ड्राइवर के दरवाजे पर लिखा रहता है चालक। इसे हम असाहित्यिक बस की श्रेणी में रख सकते हैं। मैंने देखा है कि इन असाहित्यिक बसों का अपना अलग ही एक साहित्य होता है ठीक वैसे ही जैसे मुक्त छंद का अपना एक अलग छंद-विधान।
इन बसों में प्रायः वही चेहरे दिखते हैं जिन्हें न कुछ पाने की ख़्वाहिश होती है न कुछ खो जाने का ग़म, न समय से पहले पहुँच जाने की तेज़ी ना समय के बाद पहुँचने का दु:ख। इन बसों में ही भारत के वास्तविक रूप का दर्शन होता है। जनता पहले जिन उंगलियों से सरकार चुनती है बाद में उन्हीं उंगलियों से सीट कवर फाड़ डालती है क्योंकि बाद में सरकार का कुछ बिगाड़ नहीं सकती। कुछ दिलज़ले टाईप के लोग जो जवानी में अपनी पारबती से 'आई लव यू' नहीं कह पाए वो अब इन बसों की सीट पर 'आई लव यू पारबती' लिख कर प्रेम के भार से मुक्त हो जाते हैं।और छुपती निगाहों से 'सांसदों के लिए आरक्षित सीट' के पास चिपकाए गए उस रंगीन पोस्टर से मोबाइल नंबर नोट करते हैं जिन पर हर बुधवार की शाम हक़ीम जी से मिलने की ताक़ीद की गई रहती है।
ये बसें अपने हिस्से के सांसदों और पत्रकारों के इंतज़ार में लगभग बूढ़ी हो चुकी होती हैं। यूं जो थोड़े - बहुत लोग इन बसों में आ ही जाते हैं उन्हें लेकर अपनी रफ़्तार से बस चल पड़ती है।
                 लेकिन इन सबमें एक अलग  चेहरा भी है जो थोड़ा धूपछाँही रंग का है - कन्हैया जी का।
जो हर तरह के बसों में रोज़ दिखता है। जेठ की तपती दोपहरी हो या सावन-भादो की उफ़नाई सड़कें वो अपने मजबूत शरीर और मेहनती चेहरे के साथ सिकन्दरपुर की परंपरा बेचते दिख ही जाएँगे। सिकन्दरपुर की परंपरा है खुश्बू और इसकी पहचान है गुलाब।यहाँ की मिट्टी में गुलाब की अलग ही किस्म पैदा होती है और उससे बनने वाला इत्र 'कश्मीरी' देश में बस दो जगहों पर पाया जाता है एक कश्मीर में दूसरे सिकन्दरपुर में। 'बाबरनामा' में बताया गया है कि सिकन्दरपुर में तीन सौ से अधिक प्रकार के इत्र बनते थे।
हालाँकि अब लोकतंत्र में नेताओं की भूख से जितना भर 'लोक' बच पाया है उतना ही सिकन्दरपुर में पेट की भूख से गुलाब बचा रह गया है।फिर भी छोटी-छोटी शीशीयों में कमोबेश बीसों तरह के इत्र समेटे हुए कन्हैया जी खुश्बू की चलती फिरती दुकान हैं।अगल - बगल के जिलों से आए हुए लोग कन्हैया जी से ही जानते हैं कि यह 'गुलाबों की नगरी' है...।
मैं बचपन से ही कन्हैया जी को सिकन्दरपुर बस स्टेशन पर बसों में इत्र बेचते देखता आ रहा हूँ लेकिन नहीं जानता कि जब इनके साथ के लोग दूसरे कामों से अच्छा पैसा कमा रहे हैं तो ये अब तक अपने पुश्तैनी धंधे में क्यों रुके हैं? सिकन्दरपुर की तहज़ीब और खुश्बू फैलाते हुए इन्होंने कितनी रातें बिना रोटियों के गुज़ार दी होंगी!
मैं यह भी नहीं जानता कि किसी घर के वज़ूद में में एक ईंट का योगदान कितना होगा!
मैं यह भी नहीं जानता कि खुश्बू की कहानी लिखते समय तितलियों का जिक्र होता भी है या नहीं!
मैं यह भी नहीं जानता कि 'सुगंध-शास्त्र' लिखते हुए इस गुमनाम से माली कन्हैया जी के नाम भी कोई पन्ना होगा या नहीं! जिसने अपनी सारी जिंदगी खुश्बू की बिना पर मिलने वाले चंद सिक्कों पर गुजार दी...।
मैं यह भी नहीं जानता कि सरकार के कान तक हम आम लोगों की आवाज़ें पहुँचती भी है या नहीं! अगर पहुँचती होती तो मैं पूरे यकीन से यही कहता कि सरकार! यह जानते हुए भी कि सिर्फ़ नाम बदलने से कुछ नहीं होता फिर भी मैं चाहता हूँ कि मेरे कस्बे का नाम 'सिकन्दरपुर' से बदल कर 'कन्हैयापुर' कर दो...।
इसी कस्बे का नहीं बल्कि भारत के हर कस्बे हर नगर का नाम बदलकर वहाँ के उन मेहनतकश लोगों के नाम पर रख दो, जिनके पसीने की खुश्बू से वो कस्बे-शहर आबाद होते हैं... हो सकेगा सरकार.... ।

असित कुमार मिश्र
बलिया

हो सकेगा सरकार

हो सकेगा सरकार...

सिकन्दरपुर... इस नाम में ऐसा कुछ भी नहीं जिसका जिक्र किया जा सके। बस बलिया का एक छोटा सा कस्बा है जो आम कस्बाई इलाकों जैसा ही है।सुबह यहाँ भी होती है शाम यहाँ भी होती है दोपहर का कुछ कह नहीं सकता। शायद होती ही होगी क्योंकि मैं अपने काॅलेज में व्यस्त रहता हूँ और मेरी ही तरह पूरा सिकन्दरपुर अपने-अपने कामों में व्यस्त ही रहता है।फिर कौन सोचने बैठा है कि दोपहर होती भी है या नहीं !
                     मंदिर-मस्जिद भी है यहाँ ,पूजा-नमाज़ भी है यहाँ, सौहार्द और वैमनस्य भी है यहाँ।परसों ही चाँदनी चौक में काशी की दुकान पर इमिरिती खा कर कागज़ से हाथ पोछते हुए फ़ैज़ ने कहा था - काशी चा! अइसन इमिरिती साला पूरा हिन्दुस्तान में ना मिली।
काशी जी कलाई को गोल-गोल घुमाना छोड़ कर थोड़ा सा रुक गए थे, फिर कड़ाही में गिर रही धोई की लकीर को उंगलियों से काट कर, उसमें अपनी चवनिया मुस्कान मिलाई थी और तब जवाब दिया था - अयोध्या जी! दुगो इमिरिती औरु खा लऽ... ।
फिर तो जो हँसी की आवाज़ उठी थी चारों तरफ़, उसमें सिकन्दरपुर की सारी चिन्ताएँ और सारे ग़म दूर हो गए।
दरअसल जिस दिन से 'फ़ैज़ाबाद' का नाम बदलकर 'अयोध्या' किया गया है उसी दिन से कस्बे के हर 'फ़ैज़' को 'अयोध्या जी' कहा जाने लगा है।
वैसे भी यह बदलाव का दौर है।इतिहास बदल रहा है,भूगोल बदल रहा है, नागरिक-शास्त्र बदल रहा है तो नाम का बदलना कौन सी बड़ी बात है। वैसे भी 'कुटज' नामक निबंध लिखते हुए हजारी बाबा ने कहा था कि- "नाम इसलिए बड़ा नहीं है कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। रूप व्यक्ति सत्य है नाम समाज सत्य...।"
बाबा के लिखे हुए की काट करना संभव नहीं है, फिर भी मुझे लगता है बाबा यह बताना भूल गए कि नाम 'समाज सत्य' तो होता ही है, नाम 'सरकार सत्य' भी होता है।
सरकार के मन में आ जाए तो कल ही सिकन्दरपुर का नाम भी बदल जाए।हालांकि इसकी उम्मीद नहीं है क्योंकि सरकार को पता ही नहीं होगा कि उसकी सल्तनत में कोई सिकन्दरपुर नाम की जागीर भी है। जब यहाँ के विधायक-सांसद को ही नहीं पता कि सिकन्दरपुर नाम का कोई कस्बा भी है तो सरकार तो बहुत ऊपर की चीज़ है।
                    खैर! सिकन्दरपुर में बात बस इतनी सी है कि मैं काॅलेज जाने के लिए बस यहीं से पकड़ता हूँ।चूंकि स्ववित्तपोषित काॅलेजेज़ में राजकीय प्राध्यापकों की तरह छूट तो मिलती नहीं कि घर पर मन न लगे तो काॅलेज ही आ जाइए और जब आ ही गए हैं तो दो पीरियड लेकर विद्यार्थियों पर एहसान कर ही दीजिये।
यहाँ तो आप आएँ या आपके मरने की ख़बर... बीच का कोई रास्ता नहीं होता।
इसलिए रोज़ काॅलेज जाना पड़ता है। और रोज़ एक ही सड़क पर यात्रा करते-करते इतना तो पता चल ही गया है कि इस सड़क की कमर कहाँ कितनी लचकती है फिर मुझे इस सड़क की मुहब्बत में खुद को गिरने से बचाने के लिए कितने डिग्री 'अपोजिट' झुकना पड़ेगा।
सिकन्दरपुर में बसें दो प्रकार की पाई जाती हैं। पहली साहित्यिक बसें जिनके पीछे सामान्यतया यमक अनुप्रासादि अलंकारों के उदाहरण दर्ज़ होते हैं जैसे - 'देख सहेली तेरा साज़न जा रहा है' अथवा 'मुस्कुरा के देख तमन्ना हम भी रखते हैं' टाईप। और थोड़े बड़े अक्षरों में उन फ़िल्मों के नाम टँगे होते हैं जिनमें हीरोइन या तो हीरो को नहीं मिलती या जिनके मिलने का कोई मतलब नहीं होता जैसे 'धड़कन' या 'गज़नी'। और ड्राइवर के दरवाज़े पर छोटे लेकिन मजबूत अक्षरों में बताया गया होता है - पायलट।
              लेकिन इधर मैं देख रहा हूँ कि मेरे समयानुसार ही एक दूसरे प्रकार की बस आकर ठीक मेरे सामने खड़ी हो जाती है।जिसके पीछे लिखा रहता है - जगह मिलने पर पास दिया जाएगा और सामने के मटमैले शीशे पर - उत्तर प्रदेश परिवहन तथा ड्राइवर के दरवाजे पर लिखा रहता है चालक। इसे हम असाहित्यिक बस की श्रेणी में रख सकते हैं। मैंने देखा है कि इन असाहित्यिक बसों का अपना अलग ही एक साहित्य होता है ठीक वैसे ही जैसे मुक्त छंद का अपना एक अलग छंद-विधान।
इन बसों में प्रायः वही चेहरे दिखते हैं जिन्हें न कुछ पाने की ख़्वाहिश होती है न कुछ खो जाने का ग़म, न समय से पहले पहुँच जाने की तेज़ी ना समय के बाद पहुँचने का दु:ख। इन बसों में ही भारत के वास्तविक रूप का दर्शन होता है। जनता पहले जिन उंगलियों से सरकार चुनती है बाद में उन्हीं उंगलियों से सीट कवर फाड़ डालती है क्योंकि बाद में सरकार का कुछ बिगाड़ नहीं सकती। कुछ दिलज़ले टाईप के लोग जो जवानी में अपनी पारबती से 'आई लव यू' नहीं कह पाए वो अब इन बसों की सीट पर 'आई लव यू पारबती' लिख कर प्रेम के भार से मुक्त हो जाते हैं।और छुपती निगाहों से 'सांसदों के लिए आरक्षित सीट' के पास चिपकाए गए उस रंगीन पोस्टर से मोबाइल नंबर नोट करते हैं जिन पर हर बुधवार की शाम हक़ीम जी से मिलने की ताक़ीद की गई रहती है।
ये बसें अपने हिस्से के सांसदों और पत्रकारों के इंतज़ार में लगभग बूढ़ी हो चुकी होती हैं। यूं जो थोड़े - बहुत लोग इन बसों में आ ही जाते हैं उन्हें लेकर अपनी रफ़्तार से बस चल पड़ती है।
                 लेकिन इन सबमें एक अलग  चेहरा भी है जो थोड़ा धूपछाँही रंग का है - कन्हैया जी का।
जो हर तरह के बसों में रोज़ दिखता है। जेठ की तपती दोपहरी हो या सावन-भादो की उफ़नाई सड़कें वो अपने मजबूत शरीर और मेहनती चेहरे के साथ सिकन्दरपुर की परंपरा बेचते दिख ही जाएँगे। सिकन्दरपुर की परंपरा है खुश्बू और इसकी पहचान है गुलाब।यहाँ की मिट्टी में गुलाब की अलग ही किस्म पैदा होती है और उससे बनने वाला इत्र 'कश्मीरी' देश में बस दो जगहों पर पाया जाता है एक कश्मीर में दूसरे सिकन्दरपुर में। 'बाबरनामा' में बताया गया है कि सिकन्दरपुर में तीन सौ से अधिक प्रकार के इत्र बनते थे।
हालाँकि अब लोकतंत्र में नेताओं की भूख से जितना भर 'लोक' बच पाया है उतना ही सिकन्दरपुर में पेट की भूख से गुलाब बचा रह गया है।फिर भी छोटी-छोटी शीशीयों में कमोबेश बीसों तरह के इत्र समेटे हुए कन्हैया जी खुश्बू की चलती फिरती दुकान हैं।अगल - बगल के जिलों से आए हुए लोग कन्हैया जी से ही जानते हैं कि यह 'गुलाबों की नगरी' है...।
मैं बचपन से ही कन्हैया जी को सिकन्दरपुर बस स्टेशन पर बसों में इत्र बेचते देखता आ रहा हूँ लेकिन नहीं जानता कि जब इनके साथ के लोग दूसरे कामों से अच्छा पैसा कमा रहे हैं तो ये अब तक अपने पुश्तैनी धंधे में क्यों रुके हैं? सिकन्दरपुर की तहज़ीब और खुश्बू फैलाते हुए इन्होंने कितनी रातें बिना रोटियों के गुज़ार दी होंगी!
मैं यह भी नहीं जानता कि किसी घर के वज़ूद में में एक ईंट का योगदान कितना होगा!
मैं यह भी नहीं जानता कि खुश्बू की कहानी लिखते समय तितलियों का जिक्र होता भी है या नहीं!
मैं यह भी नहीं जानता कि 'सुगंध-शास्त्र' लिखते हुए इस गुमनाम से माली कन्हैया जी के नाम भी कोई पन्ना होगा या नहीं! जिसने अपनी सारी जिंदगी खुश्बू की बिना पर मिलने वाले चंद सिक्कों पर गुजार दी...।
मैं यह भी नहीं जानता कि सरकार के कान तक हम आम लोगों की आवाज़ें पहुँचती भी है या नहीं! अगर पहुँचती होती तो मैं पूरे यकीन से यही कहता कि सरकार! यह जानते हुए भी कि सिर्फ़ नाम बदलने से कुछ नहीं होता फिर भी मैं चाहता हूँ कि मेरे कस्बे का नाम 'सिकन्दरपुर' से बदल कर 'कन्हैयापुर' कर दो...।
इसी कस्बे का नहीं बल्कि भारत के हर कस्बे हर नगर का नाम बदलकर वहाँ के उन मेहनतकश लोगों के नाम पर रख दो, जिनके पसीने की खुश्बू से वो कस्बे-शहर आबाद होते हैं... हो सकेगा सरकार.... ।

असित कुमार मिश्र
बलिया