Friday, August 21, 2020

बोलिए एसपी साहेब

बोलिए एस. पी. साहेब!....

भारतीय फ़िल्म इतिहास में 'गैंग्स आॅफ वासेपुर' का उतना ही महत्त्वपूर्ण स्थान है जितना नसबंदी किए गए लोगों के बीच इंदिरा जी का।
इसी फ़िल्म के एक सीन में सरदार खान ने रामाधीर सिंह के बेटे को, जो तत्कालिक विधायक भी हैं, उनको एस. पीए. आफ़िस में कूट दिया।
अज़ीब दृश्य है जब सरदार खान ने एस. पी. साहेब से पूछा है कि -  "एस. पी. साहेब! एक विधायक को सरेआम थाने में थप्पड़ मारने के लिए केतना दिन जेल में रहना पड़ता है"?
यह दृश्य मैं दोस्तों के साथ सिनेमाघर में देख रहा था। जैसे ही सरदार खान ने विधायक जी को थप्पड़ मारा वैसे ही सिनेमाघर सीटियों और चीख-चिल्लाहटों से गूँज उठा.... लेकिन मैं चुप रहा।
अगले सीन में बगल में खड़ा एक व्यक्ति बोल पड़ता है - अब तो एस. पी. साहेब हमहूँ जेल में जायेंगे ... और विधायक जी को वो भी एक थप्पड़ लगा देता है....।
इस सीन पर मैंने सीटियाँ बजाईं, खूब चिल्लाया....लेकिन पूरा सिनेमाघर चुप रहा।
                    कुछ देर बाद साथी उदित ने पूछा - भैया! कभी-कभी आप एकदम समझ में नहीं आते!
मैंने कहा - देखिए उदित! सरदार खनवां का थप्पड़ मारना प्रतिक्रिया मात्र है। अपने ज़माने के हिस्ट्रीशीटर रहे रामाधीर सिंह के बेटे को थप्पड़ मारना, एक नये-नये उभर रहे हिस्ट्रीशीटर सरदार खान की जवाबी कार्रवाई है यह! और कुछ भी नहीं।
लेकिन अगले सीन में एक आम आदमी की हिम्मत है। व्यवस्था के दुष्चक्र से ऊब चुका वह आदमी भले ही धीरे से विधायक को चपत लगाता है, लेकिन यह दृश्य इतना बताने के लिए काफ़ी है कि आम आदमियों को भी गुस्सा आता है। वो भी कभी-कभी अपने आत्म-सम्मान के लिए जेल जाने से नहीं हिचकता।
और लोकतंत्र की ताकत सरदार खान की प्रतिक्रिया में नहीं, उसी आम आदमी के द्वारा मारे जाने वाले थप्पड़ की आवाज़ में ज़िंदा है.... ।
छोड़िये भी ये सनीमा की बातें!
                बलिया जिला कभी क्रांतिकारी कहा जाता था। शायद इमर्जेंसी में इंदु जी ने ऐसी नसबंदी की, कि बलिया की आने वाली पीढ़ियों में भी मर्दाना ताकत की कमजोरी साफ़-साफ़ देखी जा सकती है।
इसी बलिया की एक तहसील बेल्थरा-रोड के एसडीएम हैं अशोक चौधरी।
सत्ता और कुर्सी का नशा इनकी बुढ़ौती पर अक्सर भारी पड़ने लगता है। कल ये अपने कार्यालय से अचानक निकले, हाथ में प्रशासनिक लाठी उठाई और आम जनता को लोकतंत्र का मतलब समझाने लगे।
उन्होंने दौड़ा-दौड़ा कर लोगों को मारा। फिर भी मन न भरने पर सड़क पर उतर आए और आते-जाते लोगों को पीटना शुरू किया।
भ्रष्ट तंत्र के अधिकारी अक्सर अंधे हो जाते हैं और इन्हें फिर नहीं दिखाई देता कि किसने मास्क लगाया है या नहीं!
इन्हें नहीं दिखाई देता कि जेईई की परीक्षा में माननीय सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी थी - जिंदगी नहीं रुकती।
इन्हें नहीं दिखाई देता कि प्रधानमंत्री कह रहे हैं - हमें कोरोना के साथ जीना होगा।
इनको ये भी नहीं पता कि किसी भी तहसील में आम जनता के लिए ए. सी. नहीं लगा है कि कोई आराम करने आएगा।आम आदमी अगर सिस्टम में न फँसे तो किसी कोर्ट - कचहरी या तहसील में पेशाब भी न करने जाए!
                  इसी बीच सोशल मीडिया पर इनके करतूतों के विडियोज़ दौड़ने लगे और डी. एम. ने इनका स्थानांतरण किया। बाद में सरकार ने भी डैमेज़ कंट्रोल किया।
यह विडियोज़ देखिए और सोचिए कि आप अपनी माँ को बहन को या किसी को भी लेकर बाइक से जा रहे हैं और आपके देह पर एसडीएम की लाठी गिरने से पहले आपकी माँ या आपकी पत्नी अपने हाथों पर वह लाठी की चोट रोक ले रही है। कैसा लगता आपको! क्या करते आप!
                      मैं सैकड़ों पार्टियों के हज़ारों नेताओं को कुछ नहीं कहूँगा।
सत्ता की दलाली से पेट भरने वाले सभी अख़बारों के पत्रकारों को कुछ नहीं कहूँगा।
लेकिन लाइब्रेरी की किताबों और दस रुपये फ़ीस की बढ़ोत्तरी होने पर बवाल मचा देने वाले छात्र - नेताओं तुम तो 1975 की इमर्जेंसी के बाद पैदा हुए! तुम कैसे हिजड़े निकल गए?
एसडीएम का पे-बैंड 9300-34800 होता है और ठीक यही पे-बैंड भारत के किसी भी इंटर कॉलेज में पढ़ा रहे साधारण से मास्टर का भी होता है। इतनी ही औक़ात है एसडीएम अशोक चौधरी की।
               ऐ 1975 के बाद के लोगों! अगर ज़मीर जाग जाए तो जाओ ट्विटर पर और "एस. पी. बलिया" के पेज़ पर जाकर पूछो कि -
"बोलिए एसपी साहेब! किसी एसडीएम को सरेआम उसके चैम्बर में थप्पड़ मारने के लिए केतना दिन जेल में रहना पड़ता है..." ।

असित कुमार मिश्र
बलिया

Friday, August 14, 2020

मुक्ति-पर्व एक

मुक्ति-पर्व....

विज्ञापन - बाजार की दुनिया कहती है कि एक लेखक को सदैव इसी तरह के 'सस्पेंस' वाले भड़काऊ और अट्रैक्टिव शीर्षक देने चाहिए ताकि पाठकों को लगे कि लेखक की निज़ी ज़िंदगी में ज़रूर कुछ ऐसा दोष है, जिससे मुक्ति का नाम है - मुक्ति-पर्व।या कि उसने ऐसा कुछ 'मी-टू' टाइप पाप किया है जिसकी मुक्ति का पर्व है यह मुक्ति पर्व।
लेकिन मुक्ति से पहले उस बंधन के बारे में बताना ज़रूरी है, जिनसे मुक्त होना ही आज उत्सव है।
शास्त्रोक्ति भी कहती है कि परमात्मा को बताने से पूर्व आत्मा को बताना आवश्यक है, संन्यास को बताने से पूर्व गृहस्थ को बताना आवश्यक है, सत्य को बताने से पूर्व असत्य को या फिर अंधेरे को बताने से पूर्व उजाले को ही.... इस नित्य युगल का भी कहीं अंत है भला !
                       टेलीफ़ोनिक-वार्ता के इस वाक्य से ही इस विपत्ति का प्रारंभ हुआ था जब नायिका ने मनुहार किया था - "प्लीज़ एक बाइक खरीद लीजिए न! मुझे आपका साइकिल से आना-जाना अच्छा नहीं लगता"।
मैंने मूल इच्छा को समझना चाहा - देखिए! आपको मेरा साइकिल से चलना अच्छा नहीं लगता और मैं बाइक खरीद लूँ। यह दोनों दो अलग-अलग बातें हैं। मैं बिना बाइक खरीदे ही साइकिल चलाना छोड़ दूँ तो कैसा रहेगा?
अब उधर से तर्क की जगह भावना के तीर चले थे - मेरी उम्र की लड़कियों के सपने में उनका राजकुमार 'आॅडी' से नहीं तो कम से कम 'स्विफ़्ट डिज़ायर' से तो ज़रूर आता है, लेकिन मेरे सपने का राजकुमार एटलस गोल्डलाइन सुपर से...।
ना चाहते हुए भी मैं उत्तेजित हो गया था - यह पूँजीवादी विचार है। क्यों कोई राजकुमार आॅडी - फ़रारी से ही आएगा! क्या साइकिल से आने वाले का हृदय नहीं होता! चमचमाते 'हश-पपीज़' सैंडिल पहन कर आने वाले नायक ही प्रेम के पात्र हैं और कच्ची पगडंडियों पर धूल-धूसरित, बिवाईयों वाले पैरों के लिए प्रेम का दरवाज़ा बंद रहेगा? यह तो बाज़ारवाद है, प्रपञ्च है, प्रेम का अनादर है।
                      लेकिन भावनाओं को तर्क, शास्त्र, संवाद, भाषण आदि से नहीं जीता जा सकता है। बस यथार्थ में ही वह शक्ति है जो भावना को परास्त कर देती है।
मैंने समझाया - देखिए! जिस तेजी से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता घट रही है लोग आॅडी और स्विफ़्ट गाड़ियों को छोड़ कर साइकिल पर आ रहे हैं। लोग नये प्रकार के पतले अनाजों को छोड़कर मोटे अनाजों पर आ रहे हैं।शहरों को मन, वचन, क्रम से पकड़े हुए लोग, अब शहरों को छोड़ रहे हैं। छोड़ना ही होगा उन्हें। क्योंकि वही जीवन है वही सत्य है...
                         "पहले पकड़ तो लीजिए तब छोड़िएगा".... गुस्साई हुई इसी आवाज़ के साथ फोन कट गया था।
इस एक वाक्य ने चिंता और चिंतन दोनों में एक साथ डाल दिया। चिंतन इस बात का कि सत्य वास्तविक रूप में इतना ही कड़वा है। ऐसा बहुधा देखा गया है कि लोग आज़ादी के दिन पक्षियों को आज़ाद करते हैं ताकि वो आज़ादी का आनंद ले सके। लेकिन उसके पहले उसे कैद भी तो करते हैं!
पिछले साल एक प्रसिद्ध कामरेड मित्र का फोन आया था - असित भाई! विवाह - बंधन में बँध रहा हूँ। आपके आगमन की प्रतीक्षा रहेगी।
मैं चौंक गया था - लेकिन साथी आप तो हमेशा आज़ादी की बातें करते थे मैंने यू-ट्यूब चैनल्स पर अक्सर सुना है आपको।
साथी ने अट्टहास किया - भाई! पहले बँध तो जाने दीजिए तब न आज़ाद होऊँगा।
मतलब बँधना क्यों ताकि मुक्त हो सकें। बिना बँधे मुक्ति कैसी ! बिना पकड़े छोड़ना कैसा! मतलब पहले बाइक खरीद लें फिर उसे छोड़ कर साइकिल को पकड़ लें।
और चिंता इस बात की कि धन संग्रह को सदैव वणिक-वृत्ति मानता रहा। अतः न तो कोई फिक्स डिपॉजिट ही उपलब्ध था और न बचत खाते में इतने पैसे। हम उन प्रकार के लोगों में से हैं जिन्हें देख कर एलआईसी वाले लोग खुद रास्ते बदल लेते हैं।
तय हुआ कि अब बाइक खरीदनी है चाहे सब कुछ बेचना पड़े। और इस कार्य में सामने आए दोस्त-मित्र .... खरीदने में नहीं! बेचने में।
कोई फेफड़ों की अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में क़ीमतें बता रहा था तो किसी मित्र ने सलाह दी थी कि बस एक यकृत बेच दीजिए और मनपसंद बाइक ले लीजिए। कोई मित्र अखबार पढ़ कर सुनाने लगे कि परसों 'आई - फ़ोन' के लिए एक लड़के ने अपनी एक किडनी बेच दी।
एक मित्र बहुत देर से कुछ कहना चाह रहे थे। आखिरकार पास आए और फुसफुसाते हुए बोले - कुछ नहीं। असित भाई! बाइके न चाहिए! बस समझिए कि दुआर पर खड़ी हो गई है।
मैं हैरानी से उनके आत्मविश्वास की थाह लेने लगा।
उन्होंने समझाया - किडनी-फेफड़ा कुछ नहीं बेचना है। बस ब्लड...
मैंने तुरंत रोक लिया - भैया! सुई लगवाने से पहले खुद को तैयार करना पड़ता है। कमज़ोर हृदय का आदमी हूँ। ब्लड निकालने की बातें न कीजिये।
मित्रवर नाराज़ हुए - तुम्हारी यही कमी है। बात पूरी नहीं सुनते हो। जैसे आजकल ब्लड बेचा जा रहा है न! वैसे ही 'वो' भी बिक रहा है...।
मेरे मुँह से निकला - मैं समझा नहीं!
अच्छा! छोड़ो यह सब। ये बताओ "विक्की डोनर" फिल्म देखे हो कि नहीं!
उधर से जैसे ही फिल्म की स्टोरी समझाई गई वैसे ही मुझे एक बात समझ में आई कि - 'मनुष्य की अतृप्त इच्छाएँ ज्यों-ज्यों उठती जाएँगी, बाजार त्यों - त्यों गिरता जाएगा' ।
उस रात स्वप्न में विभिन्न प्रकार की देशी-विदेशी मोटर साइकिलें आतीं रहीं। मोटर साइकिल को लेकर कोई विशेष इच्छा नहीं रही कभी भी। पीछे से उठी हुई, बेतरह सीट और अनावश्यक रूप से मोटे-मोटे पहियों वाली मोटर साइकिलों से अरुचि ही हुई। किसी का पिक-अप बहुत तेज़ तो किसी की रफ़्तार बहुत तेज़... इन सबमें कभी से कोई दिलचस्पी नहीं।
जीवन में सामान्य चाल और स्वभाविक शैली की पक्षधरता औरों को भी पसंद आए, यह ज़रूरी नहीं फिर भी अपनी पसंद भी तो कुछ होती है।
                            अगले दिन हम कस्बे के मनीष आटोमोबाइल्स पर गए।वहाँ ग्राहकों की भीड़ और बाइक्स की अनुपलब्धता देख कर दु:ख भी हुआ कि इस दौड़ में मैं ही पीछे कैसे रह गया। विभिन्न जातियों, उपजातियों और वर्णों की बाइक देखीं और समझीं जाने लगीं।
तभी एक अनहोनी घटना हुई। एक लंबे-चौड़े वर्दीधारी महोदय ने आकर प्रणाम किया। दोनों कंधों पर 'यूपी पुलिस' खुदा हुआ था।
ये उस समय की बात है जब यूपी पुलिस से डर नहीं लगता था। बहुत हुआ तो पुलिसकर्मियों ने यदा-कदा मुँह से ही 'ठाँय-ठाँय' कर लिया। इसके अतिरिक्त उनसे और किसी बात का डर नहीं रहता था।
मैंने देखा कि अजित थे।अजित मेरे बैचमेट और विद्यार्थी होने के साथ-साथ पड़ोसी जिले में सौ नंबर में कार्यरत हैं।
मैंने डाँटा - अपने जिले में अनावश्यक वर्दी पहन कर क्यों घूम रहे हो?
अजित बोले - नहीं सर! ड्यूटी से सीधा यहीं आया हूँ और एक बाइक ख़रीद कर फिर ड्यूटी पर ही चला जाऊँगा।
मैंने नई बाइक की अग्रिम बधाई दी और लगे हाथ यह भी पूछ लिया कि कौन सी बाइक लोगे।
अजित ने कहा - देखते हैं सर! जो भी सस्ती और टिकाऊ हो क्योंकि किश्त पर लेना है।
हालांकि बात छोटी सी है, लेकिन खुशी हुई कि लड़का सौ नंबर में है और बाइक किश्तों पर ले रहा है वर्ना चाहता तो ट्रक या ट्रेन भी खरीद सकता था।
मैंने अपने साथ के मित्र उदित से कहा - भाई! किश्तों पर बाइक कैसे मिलती है पता कीजिए! देखिए कि इज्ज़त और उसूल को छोड़कर जमानत क्या रखा जा सकता है!
                     यूँ हम भी किश्तों पर ही खुशी के खरीदार बन बैठे। तब नहीं पता था कि किश्तों में मिली खुशियाँ और किश्तों में लिखी जाने वाली कहानियाँ बहुत दर्द देती हैं...।
तब नहीं पता था कि ये कमबख़्त किश्तें ही एक दिन हाथों में पुलिस की हथकड़ियाँ डलवाएंगी....
खैर! शेष अगली किश्तों में ही....

असित कुमार मिश्र
बलिया

Tuesday, August 11, 2020

कहानी

मरना एक मामूली आदमी का....

अब आगे कुछ भी लिखने से पहले साफ़ कर देना चाहता हूँ कि, यह शीर्षक मेरा नहीं है। जहाँ तक याद है, कुछेक साल पहले दिल ने फिर एक बार आवारागर्दी की थी और मुझे पी. एचडी. की तरफ़ मोड़ दिया था। पुराने आचार्यों की बेवफ़ाईयों को भूल कर दिल ने फिर किसी रीडर की मुहब्बत में गिरफ़्तार होने का इशारा किया था।
ये वाले रीडर भाषा विज्ञान के आचार्य थे और हम ठहरे भाषा को मात्र संप्रेषण का माध्यम समझने वाले।
तय हुआ कि शोध-विषय के रूप में जनपद-बलिया के ही किसी साहित्यकार को लूँगा। जैसे पंडित केशव प्रसाद मिश्र, अयोध्या प्रसाद खत्री, भैरव प्रसाद गुप्त, हजारीप्रसाद द्विवेदी, भगवतशरण उपाध्याय, श्रीराम वर्मा (अमरकांत) केदारनाथ सिंह आदि में से किसी को भी...।
रीडर महोदय ने कहा था कि हाँ! केदारनाथ सिंह 'लेटेस्ट' हैं। अभी मरे हैं, ये ठीक रहेगा।
दिल से कराह निकली - क्या साहित्य के अध्यापकों के लिए साहित्यकारों का मरना बस इतना ही है - लेटेस्ट!
लेकिन शोध आख़िर है क्या! साहित्य और समझौते के बीच एक पतली सी पगडंडी से वहाँ तक चले जाना, जिस टेबल पर आपके थीसिस पर मुहर लग रही हो। यह समझौता भिन्न - भिन्न तरीके का हो सकता है शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, मूल्यगत, वगैरह - वगैरह।
अब समस्या यह थी कि केदारनाथ सिंह के साहित्य में बहुत जानकारी थी नहीं। बलियाटिक दोस्तों ने सदा की तरह साथ देने का वादा किया।
एक मित्र ने तो गुटका थूकते हुए कहा था - "असित भाई! तूं बस पढ़ाई पर धेयान दऽ। केदारनाथ सिंह से मुलाकात करावल हमरी जिम्मे छोड़ दऽ" ।
मुझे भरोसा दिलाने के लिए उन्होंने किसी को फोन भी किया - "हरे! चकिया गाँव में दु - चार गो लइकन के सेट कर। आ जइसे केदार बाबा अइहें ओइसे मिस काल मार दिहे" ... ।
मैं क्या बताता! कि अब केदार बाबा से मिलना इस जनम में संभव नहीं। मित्र जिस तरह केदारनाथ सिंह से मिलाने के लिए दृढ़ संकल्पित थे, उससे डर भी लगा कि नाम के पहले डॉक्टर से पूर्व कहीं सचमुच केदार बाबा से भेंट ही न करा दें!
                  हारे को हरिनाम! कितना सटीक मुहावरा है। मुझे भी ऐसे दुश्चिंता के समय राम जी तिवारी याद आए। व्यक्तित्व बेहद साधारण और ज्ञान इतना कि साहित्य के तमाम प्रोफ़ेसर्स के बीच भी इन्हीं की स्मृति आती है। मैंने फोन करना चाहा तो फोन की सूची से इनका नाम ही गायब!
ऐसा अक्सर होता है मेरे साथ। विषम परिस्थितियों में जब भी मोबाइल बदलना हुआ तो मारे जलन के फोन सूची से महत्त्वपूर्ण व्यक्ति निकल लेते हैं।पता नहीं कैसे उन लोगों को मालूम हो जाता है कि मैंने मोबाइल बदल दिया। मेरे ही भाग्य का दोष होगा!
पिछले दिनों एस सी काॅलेज़ बलिया के अंग्रेज़ी विभाग वाले डॉ. वाई. पी. सिंह मेरे दोस्तों से व्हाट्स-ऐप में आए संदेश कापी-पेस्ट करना सीख रहे थे।
मैंने हँस कर कहा था - सर! हमारा और आपका तकनीकी ज्ञान एक बराबर है।
उन्होेंने एक महत्त्वपूर्ण जवाब दिया - "असित बाबू! तकनीकी का ज्यादा ज्ञान जीवन के रस से दूर कर देता है" । उनके इस कथन की आड़ में मेरा भी काम चल जाता है।
                     तो रामजी तिवारी से केदारनाथ सिंह की कुछ पुस्तकें प्राप्त हुईं थीं। उनमें एक पुस्तक थी "कब्रिस्तान में पंचायत" जिसका पाँचवा या छठवाँ अध्याय रहा होगा - 'मरना एक मामूली आदमी का' जिसमें उन्होंने अपने गाँव के एक सामान्य व्यक्ति 'जगरनाथ 'के मर जाने की घटना का भावपूर्ण वर्णन किया है ।ये तो रही शीर्षक की बात। जिसे बता देना जरूरी था अन्यथा मौलिकता के समर्थक पत्थरबाज़ी पर उतर आते।
मैं बताने जा रहा था कि कल सुबह 'रामा' मर गए। ठीक - ठाक, अच्छे - भले थे। सुबह उठे नहाए - धोए! सर में थोड़ा दर्द जैसा महसूस हुआ तो लेट गए और फिर उठे ही नहीं।
हाँ! पता है। महादेवी ने "रामा" नाम से एक संस्मरण /रेखाचित्र खींचा था जिसमें उन्होंने अपने घरेलू नौकर 'रामा' का वर्णन किया है। लेकिन उनके रामा से मेरा रामा भिन्न है मौलिक है। और मौलिकता के रूखे - सूखे सड़क पर सरपट दौड़ने वाले लोग आलोचना की पगडंडी क्यों नहीं पकड़ लेते? साहित्य के इस 'मेन - रोड' पर उनका क्या काम!
इस रामा का नाम जरुर रामानंद या रामाकांत जैसा कुछ रहा होगा। लेकिन हम बच्चों की कई पीढ़ियों के लिए वो रामा ही थे।जो गोलगप्पे का ठेला लगाते थे । बनारसी लोग जिसे गोलगप्पा कहते हैं उसे हम बलियाटिक लोग फुल्की।
चलिए माना कि बनारस ही नहीं सारे भारत के लोग गोलगप्पा कहते हैं लेकिन हम लोग फुल्की ही कहते और मानते हैं।
कस्बे के बेहद संकरे स्थान जल्पा चौक में अपना पुश्तैनी मकान था रामा का।प्रायः हम जिसे मकान कहते हैं वह प्रेयसी के प्रेम में फैले हुए हाथों के फैलाव बराबर ही होता है। लेकिन आदमी को जगह चाहिए ही कितनी!
कस्बे से निकल कर रामा मिडिल स्कूल की ओर चले आते थे। मिडिल स्कूल के अलावा उन्होंने कस्बे में कहीं भी अपनी अनमोल फुल्कियों की क़ीमत नहीं लगने दी। चाहे वो गंधी मुहल्ला हो या बढ्ढा मुहल्ला। चाहे वो चाँदनी चौक हो या सब्जी मंडी। चाहे वो पुलिस चौकी रोड हो या सिनेमा रोड।
स्कूल के विशालकाय लौह - गेट के बाएँ तरफ़ अपने ठेले पर चौड़ी मोहरी वाले पाजामे और बंगला कुरते में बैठे रामा तब भी मँहगाई का रोना रोते रहते थे जब पच्चीस पैसे में पाँच फुल्कियाँ मिलती थीं।
वो उन लड़कियों का ज़माना था जो अपनी सहेलियों को फुल्कियाँ खिलाने के लिए अपनी हिंदी या गणित की किताबें खुशी-खुशी रामा को भेंट कर आतीं थीं। जिसके एक पन्ने को चार हिस्सों में बराबर फाड़कर फुल्की खाने का प्लेट समझा जाता था।
वो लड़कियाँ आपस में पैसे इकट्ठे कर एक साथ फुल्कियाँ खातीं थीं और कभी-कभी उन सहेलियों को भी साथ ले जातीं थीं जिनके घर से एक चवन्नी आने की संभावना नहीं थी।
उसके बाद का ज़माना हम जैसे प्रगतिशील बच्चों का आया। घर से चुराए गए  दो के सिक्के के बदले जब भी रामा हमें चार फुल्कियाँ खिलाते तो हमने हर बार ढिठाई से कहा - "एगो औरू खिआवऽ।अभी तऽ तीने गो भईल" ।
रामा ने हमसे पहले न जाने मिडिल स्कूल की कितनी पीढ़ियों को फुल्कियाँ खिलाईं होगीं लेकिन उनकी गिनती में कभी गड़बड़ी नहीं हुई।हमारी पीढ़ी में सबसे पहले हमने ही इस गड़बड़ी को पकड़ा था। पहली फुल्की का स्वाद गले में अटका रहता तब तक रामा दूसरी फुल्की हाथ में धरे काग़ज़ पर रख देते। मुँह में जाते ही पहली और दूसरी फुल्कियाँ मिल कर एक हो जातीं और यहीं से गिनती का क्रम बिगड़ता था। अभी मुँह से पहली सिसकारी निकली नहीं कि रामा बोल देते - "हो गइल चार गो"।
हमारा मानना था कि फुल्कियों की गिनती पहली सिसकारी से शुरू होनी चाहिए और जब आँखों से बहता हुआ तीतापन फुल्कियों के खारेपन से मिलने लगे तब चार कहिए, आठ कहिए, दस कहिए... जो भी कहिए सब मंज़ूर।
                       ज़िंदगी की रेस में हम चाहे कितने भी बड़े धावक क्यों न हों समय हमसे भी तेज़ है। बहुत बार तो हम खुद ही चौंक पड़ते हैं कि अरे! हमारी जिंदगी हमीं से आगे कैसे निकल गई!
बचपन के खेल, बचपन के साथी और बचपन की फुल्कियाँ सब जैसे पीछे छूट गए। फिर भी रामा दिख भर जाएँ तो अब भी उनकी फुल्कियाँ खा ही लेता था।
इधर प्रतियोगिता आधारित बाजार ने जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित किया है। क्या छोटा क्या बड़ा! क्या अमीर क्या गरीब!
आप सैमसंग का पुराना मोबाइल छोड़ कर 'रेडमी नोट-एट' लिए घर की चौखट तक आए, तब तक 'नोट-नाइन' आ गया होगा। 'नोट-नाइन' को हाथ बढ़ा कर पकड़ा और दरवाज़े तक आए, तब तक 'नोट नाइन - मैक्स' आ गया। 'मैक्स' तक पहुँच बनाई तब तक 'नाइन मैक्स-प्रो' आ गया। और कमाल तो यह कि पहले वाला सैमसंग खरीदे ही अभी साल भर नहीं हुआ।
रामा इस प्रतियोगिता से अछूते कैसे रहते। अब नई उम्र के लड़के जीन की पैंट और टेरीकाट के छापे वाली शर्ट के दोनों किनारों को नीचे से बाँध कर बाजार में उतरे। जिनके ठेले रंगीन थे और जिनके आने से आसपास का माहौल "वो लड़की नहीं जिंदगी है मेरी" जैसे गानों से रंगीन हो जाता। रामा बाज़ार की इस चाल से चित्त हो गए और स्कुलिहा लड़कों में धीरे-धीरे रामा की पकड़ छूटती गई। इस घाटे को पूरा करने के लिए उनके पास बस एक ही उपाय था।
                       उस दिन मैंने तीसरी फुल्की ही मुँह में डाली थी कि रामा ने हाथ रोक लिया - बस! हो गईल।
मैं चौंक पड़ा था - "मरदे! कवनो किरिया खिया लऽ।अभी तीने गो भइल बा" ।
रामा उदास हो गए- "पियाज पचास रुपिया हो गइल बा आ मैदा अस्सी रुपिया। चना...। पाँच रुपिया में तीने गो मिली अबसे" ... ।
मैं उनकी बात काटी - "ठीक बा नया रेट काल्हु से लागी। आज खियावऽ" । और इस तरह एक और फुल्की खा कर ही हटा।
                      जिंदगी फिर अपनी रफ्तार से दौड़ती रही। हर कोई अपने हिस्से की दौड़ में खो गया रामा भी और मैं भी।मैंने काॅलेज़ ज्वाइन कर लिया। इधर रामा दिखते भी थे उसी तरह अपने पुराने से ठेले पर साँवली - साँवली फुल्कियों के साथ। बहुत बार मन हुआ कि खा लूँ लेकिन तात्कालिक काम की जल्दबाजी या बड़कपन के बोझ ने रुकने न दिया।
कई बार घर से बस फुल्कियाँ खाने की सोच कर स्कूल तक गया भी लेकिन रामा नहीं दिखे।
अगले दिन फिर गया फिर उनकी जगह खाली थी। मैंने बगल की स्टेशनरी वाली दुकान में पूछा - "रामा हो? कहाँ गए" ?
दुकानदार ने बताया - "हाँ! उनके घर बँटवारे का झगड़ा चल रहा है" ।
मैं हँस पड़ा था - "हाथ भर के घर में भी हिस्सा लगेगा" !
आदमी की औलाद हर बार आदमी ही हो यह जरूरी नहीं। रामा ने घर में सरहद नहीं हिज़रत कबूल की। और पूरे जिले में उनको मेरे ही गाँव का एक छोटा सा टोला मिली बसने के लिए।
इस तरह तीन - चार साल से रामा का ठेला मिडिल स्कूल के पास नहीं मेरे गाँव के मोड़ पर लगने लगा था।भाग्य को जिन थोड़े-बहुत बातों पर धन्यवाद दे सकता हूँ उनमें एक बात यह भी थी कि अब कहीं से भी घूम कर आने पर फुल्कियाँ आसानी से उपलब्ध हो सकतीं थीं। रामा नियमित रूप से मोड़ पर अपनी बढ़ती जा रही उम्र और मँहगाई के बीच ठेले को चट्टान की तरह टिका कर खड़े रहते थे। न बहुत कुछ की जरूरत ही थी उन्हें न बहुत कुछ खो जाने का डर ही। खुशी के लिए इतना काफ़ी था।
                     कुछ महीनों पहले ज़िंदगी की इस दौड़-भाग में अचानक कोरोना का प्रवेश हुआ। जब बड़े - बड़े शहर जहाँ के तहाँ रुक गए तो हम गाँव - देहात को कौन पूछता है! स्कूल, काॅलेज़, दुकान, बाजार सब बंद। पुलिस की काली - काली डरावनी गाड़ियों का शोर उन दिनों को और भी भयावह बना देता था। हमारे सामने एक अदृश्य शत्रु था जिससे तमाम लोग भूखे पेट लड़ रहे थे।
गाँव फिर भी शहरों की तुलना में कुछ ठीक हालत में थे। यहाँ चावल, दाल, गेहूँ और आलू पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध था। इसके आगे की चीज़ें वैसे भी अय्याशी की श्रेणी में आती हैं।
सरकार ने आम जनता के लिए राशन की उपलब्धता सुनिश्चित की। लेकिन सरकारी गोदामों से गरीबों के पेट तक गेहूँ को आने में कई बार व्यवस्था की चक्की में पिसना पड़ता है। कुछ लोगों के राशन के लिए नोडल अधिकारी महोदय को कई बार फोन करना पड़ा। साधारण से दवा के छिड़काव के लिए मुख्यमंत्री कार्यालय तक को तकलीफ़ में डालना पड़ा। उस समय जिससे जैसे बन रहा था वो अपने से नीचे की मदद कर रहा था।
धीरे-धीरे पहले लाॅक - डाउन का प्रथम चरण बीता। कुछ बंद दुकानों के ताले खुले। कुछ रेहड़ी और ठेले वालों ने सड़क का शृंगार करना शुरू किया।रामा भी अपने ठेले पर फुल्कियाँ सजाए मैदान में उतर चुके थे। लेकिन लोग बाहर कुछ भी खाने से डरते थे।
मैं रामा के पास रुका और कहा - फुल्की खिलाइए!
रामा ने चुपचाप काग़ज़ का टुकड़ा बढ़ाया। एक फुल्की खा लेने के बाद मैं रुक गया - बस। कोरोना में बाहर का बहुत नहीं खाना चाहिए।
मेरे हाथ से पचास का नोट पकड़ते हुए रामा ने उदास मन से कहा था - खुदरा दे दीजिए।
मैंने कहा - रखिए। बाद में ले लूँगा।
मुड़ कर जैसे ही आगे बढ़ा। रामा ने आवाज दी - माट्साहब!!
मुझे यकीन नहीं हुआ कि रामा ने मुझे बुलाया है। मैंने मुड़ कर देखा।
- "हाँ! आप ही को बुला रहा हूँ" ।
सहसा किसी ने भीड़ में नंगा कर दिया हो। अब इस संबोधन के बाद फुल्कियों में तीन - पाँच करना अपराध जैसा लगने लगा। यही सोच कर शर्म आ रही थी कि रामा मुझे अध्यापक जान कर भी सालों से अधिक फुल्कियाँ खिला रहे थे लेकिन कभी ज़ाहिर नहीं किया।
मैंने कहा -" हाँ रामा बताइए" !
उन्होंने पूछा - "बी. ए. में एडमिशन हो रहा है" ?
मैंने बताया - "नहीं अभी तो नहीं, लेकिन अगस्त लास्ट से होने लगेगा। बात क्या है" ?
उन्होंने धीरे से कहा - "एगो रिश्तेदारी के लड़की के एडमिशन करावे के बा लेकिन पइसा नइखे"।
मैंने फुल्कियों के टोकरे से एक कागज़ निकाला और अपना नंबर लिख कर देते हुए कहा - ये मेरा नंबर है। लड़की को दे दीजिएगा। लाइब्रेरी से कुछ किताबें भी मिल जाएँगी।
रामा ने चुपचाप काग़ज़ मोड़ कर कुरते की जेब में रख लिया था।
                     ये परसों शाम की बात है लेकिन कल सुबह रामा ने किसी का भी एहसान लेने से मना कर दिया। किसी मास्टर साहब का भी और शायद मेरा भी .... ।
असित कुमार मिश्र
बलिया
(फोटो : अब नई उमर के ठेले पर फुल्कियाँ खाते नई उमर के बच्चे)