Friday, August 14, 2020

मुक्ति-पर्व एक

मुक्ति-पर्व....

विज्ञापन - बाजार की दुनिया कहती है कि एक लेखक को सदैव इसी तरह के 'सस्पेंस' वाले भड़काऊ और अट्रैक्टिव शीर्षक देने चाहिए ताकि पाठकों को लगे कि लेखक की निज़ी ज़िंदगी में ज़रूर कुछ ऐसा दोष है, जिससे मुक्ति का नाम है - मुक्ति-पर्व।या कि उसने ऐसा कुछ 'मी-टू' टाइप पाप किया है जिसकी मुक्ति का पर्व है यह मुक्ति पर्व।
लेकिन मुक्ति से पहले उस बंधन के बारे में बताना ज़रूरी है, जिनसे मुक्त होना ही आज उत्सव है।
शास्त्रोक्ति भी कहती है कि परमात्मा को बताने से पूर्व आत्मा को बताना आवश्यक है, संन्यास को बताने से पूर्व गृहस्थ को बताना आवश्यक है, सत्य को बताने से पूर्व असत्य को या फिर अंधेरे को बताने से पूर्व उजाले को ही.... इस नित्य युगल का भी कहीं अंत है भला !
                       टेलीफ़ोनिक-वार्ता के इस वाक्य से ही इस विपत्ति का प्रारंभ हुआ था जब नायिका ने मनुहार किया था - "प्लीज़ एक बाइक खरीद लीजिए न! मुझे आपका साइकिल से आना-जाना अच्छा नहीं लगता"।
मैंने मूल इच्छा को समझना चाहा - देखिए! आपको मेरा साइकिल से चलना अच्छा नहीं लगता और मैं बाइक खरीद लूँ। यह दोनों दो अलग-अलग बातें हैं। मैं बिना बाइक खरीदे ही साइकिल चलाना छोड़ दूँ तो कैसा रहेगा?
अब उधर से तर्क की जगह भावना के तीर चले थे - मेरी उम्र की लड़कियों के सपने में उनका राजकुमार 'आॅडी' से नहीं तो कम से कम 'स्विफ़्ट डिज़ायर' से तो ज़रूर आता है, लेकिन मेरे सपने का राजकुमार एटलस गोल्डलाइन सुपर से...।
ना चाहते हुए भी मैं उत्तेजित हो गया था - यह पूँजीवादी विचार है। क्यों कोई राजकुमार आॅडी - फ़रारी से ही आएगा! क्या साइकिल से आने वाले का हृदय नहीं होता! चमचमाते 'हश-पपीज़' सैंडिल पहन कर आने वाले नायक ही प्रेम के पात्र हैं और कच्ची पगडंडियों पर धूल-धूसरित, बिवाईयों वाले पैरों के लिए प्रेम का दरवाज़ा बंद रहेगा? यह तो बाज़ारवाद है, प्रपञ्च है, प्रेम का अनादर है।
                      लेकिन भावनाओं को तर्क, शास्त्र, संवाद, भाषण आदि से नहीं जीता जा सकता है। बस यथार्थ में ही वह शक्ति है जो भावना को परास्त कर देती है।
मैंने समझाया - देखिए! जिस तेजी से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता घट रही है लोग आॅडी और स्विफ़्ट गाड़ियों को छोड़ कर साइकिल पर आ रहे हैं। लोग नये प्रकार के पतले अनाजों को छोड़कर मोटे अनाजों पर आ रहे हैं।शहरों को मन, वचन, क्रम से पकड़े हुए लोग, अब शहरों को छोड़ रहे हैं। छोड़ना ही होगा उन्हें। क्योंकि वही जीवन है वही सत्य है...
                         "पहले पकड़ तो लीजिए तब छोड़िएगा".... गुस्साई हुई इसी आवाज़ के साथ फोन कट गया था।
इस एक वाक्य ने चिंता और चिंतन दोनों में एक साथ डाल दिया। चिंतन इस बात का कि सत्य वास्तविक रूप में इतना ही कड़वा है। ऐसा बहुधा देखा गया है कि लोग आज़ादी के दिन पक्षियों को आज़ाद करते हैं ताकि वो आज़ादी का आनंद ले सके। लेकिन उसके पहले उसे कैद भी तो करते हैं!
पिछले साल एक प्रसिद्ध कामरेड मित्र का फोन आया था - असित भाई! विवाह - बंधन में बँध रहा हूँ। आपके आगमन की प्रतीक्षा रहेगी।
मैं चौंक गया था - लेकिन साथी आप तो हमेशा आज़ादी की बातें करते थे मैंने यू-ट्यूब चैनल्स पर अक्सर सुना है आपको।
साथी ने अट्टहास किया - भाई! पहले बँध तो जाने दीजिए तब न आज़ाद होऊँगा।
मतलब बँधना क्यों ताकि मुक्त हो सकें। बिना बँधे मुक्ति कैसी ! बिना पकड़े छोड़ना कैसा! मतलब पहले बाइक खरीद लें फिर उसे छोड़ कर साइकिल को पकड़ लें।
और चिंता इस बात की कि धन संग्रह को सदैव वणिक-वृत्ति मानता रहा। अतः न तो कोई फिक्स डिपॉजिट ही उपलब्ध था और न बचत खाते में इतने पैसे। हम उन प्रकार के लोगों में से हैं जिन्हें देख कर एलआईसी वाले लोग खुद रास्ते बदल लेते हैं।
तय हुआ कि अब बाइक खरीदनी है चाहे सब कुछ बेचना पड़े। और इस कार्य में सामने आए दोस्त-मित्र .... खरीदने में नहीं! बेचने में।
कोई फेफड़ों की अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में क़ीमतें बता रहा था तो किसी मित्र ने सलाह दी थी कि बस एक यकृत बेच दीजिए और मनपसंद बाइक ले लीजिए। कोई मित्र अखबार पढ़ कर सुनाने लगे कि परसों 'आई - फ़ोन' के लिए एक लड़के ने अपनी एक किडनी बेच दी।
एक मित्र बहुत देर से कुछ कहना चाह रहे थे। आखिरकार पास आए और फुसफुसाते हुए बोले - कुछ नहीं। असित भाई! बाइके न चाहिए! बस समझिए कि दुआर पर खड़ी हो गई है।
मैं हैरानी से उनके आत्मविश्वास की थाह लेने लगा।
उन्होंने समझाया - किडनी-फेफड़ा कुछ नहीं बेचना है। बस ब्लड...
मैंने तुरंत रोक लिया - भैया! सुई लगवाने से पहले खुद को तैयार करना पड़ता है। कमज़ोर हृदय का आदमी हूँ। ब्लड निकालने की बातें न कीजिये।
मित्रवर नाराज़ हुए - तुम्हारी यही कमी है। बात पूरी नहीं सुनते हो। जैसे आजकल ब्लड बेचा जा रहा है न! वैसे ही 'वो' भी बिक रहा है...।
मेरे मुँह से निकला - मैं समझा नहीं!
अच्छा! छोड़ो यह सब। ये बताओ "विक्की डोनर" फिल्म देखे हो कि नहीं!
उधर से जैसे ही फिल्म की स्टोरी समझाई गई वैसे ही मुझे एक बात समझ में आई कि - 'मनुष्य की अतृप्त इच्छाएँ ज्यों-ज्यों उठती जाएँगी, बाजार त्यों - त्यों गिरता जाएगा' ।
उस रात स्वप्न में विभिन्न प्रकार की देशी-विदेशी मोटर साइकिलें आतीं रहीं। मोटर साइकिल को लेकर कोई विशेष इच्छा नहीं रही कभी भी। पीछे से उठी हुई, बेतरह सीट और अनावश्यक रूप से मोटे-मोटे पहियों वाली मोटर साइकिलों से अरुचि ही हुई। किसी का पिक-अप बहुत तेज़ तो किसी की रफ़्तार बहुत तेज़... इन सबमें कभी से कोई दिलचस्पी नहीं।
जीवन में सामान्य चाल और स्वभाविक शैली की पक्षधरता औरों को भी पसंद आए, यह ज़रूरी नहीं फिर भी अपनी पसंद भी तो कुछ होती है।
                            अगले दिन हम कस्बे के मनीष आटोमोबाइल्स पर गए।वहाँ ग्राहकों की भीड़ और बाइक्स की अनुपलब्धता देख कर दु:ख भी हुआ कि इस दौड़ में मैं ही पीछे कैसे रह गया। विभिन्न जातियों, उपजातियों और वर्णों की बाइक देखीं और समझीं जाने लगीं।
तभी एक अनहोनी घटना हुई। एक लंबे-चौड़े वर्दीधारी महोदय ने आकर प्रणाम किया। दोनों कंधों पर 'यूपी पुलिस' खुदा हुआ था।
ये उस समय की बात है जब यूपी पुलिस से डर नहीं लगता था। बहुत हुआ तो पुलिसकर्मियों ने यदा-कदा मुँह से ही 'ठाँय-ठाँय' कर लिया। इसके अतिरिक्त उनसे और किसी बात का डर नहीं रहता था।
मैंने देखा कि अजित थे।अजित मेरे बैचमेट और विद्यार्थी होने के साथ-साथ पड़ोसी जिले में सौ नंबर में कार्यरत हैं।
मैंने डाँटा - अपने जिले में अनावश्यक वर्दी पहन कर क्यों घूम रहे हो?
अजित बोले - नहीं सर! ड्यूटी से सीधा यहीं आया हूँ और एक बाइक ख़रीद कर फिर ड्यूटी पर ही चला जाऊँगा।
मैंने नई बाइक की अग्रिम बधाई दी और लगे हाथ यह भी पूछ लिया कि कौन सी बाइक लोगे।
अजित ने कहा - देखते हैं सर! जो भी सस्ती और टिकाऊ हो क्योंकि किश्त पर लेना है।
हालांकि बात छोटी सी है, लेकिन खुशी हुई कि लड़का सौ नंबर में है और बाइक किश्तों पर ले रहा है वर्ना चाहता तो ट्रक या ट्रेन भी खरीद सकता था।
मैंने अपने साथ के मित्र उदित से कहा - भाई! किश्तों पर बाइक कैसे मिलती है पता कीजिए! देखिए कि इज्ज़त और उसूल को छोड़कर जमानत क्या रखा जा सकता है!
                     यूँ हम भी किश्तों पर ही खुशी के खरीदार बन बैठे। तब नहीं पता था कि किश्तों में मिली खुशियाँ और किश्तों में लिखी जाने वाली कहानियाँ बहुत दर्द देती हैं...।
तब नहीं पता था कि ये कमबख़्त किश्तें ही एक दिन हाथों में पुलिस की हथकड़ियाँ डलवाएंगी....
खैर! शेष अगली किश्तों में ही....

असित कुमार मिश्र
बलिया

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