Saturday, September 18, 2021

एक शहर था

इस दश्त में एक शहर था वो क्या हुआ....?

             भारत के किसी भी शहर में जब भी कोई लेखक आता है (रायल्टी प्राप्त लेखक कृपया 'उतरना' समझें) तो उस शहर में आने से पहले दो काम करता है। पहला फोन और वो भी उसे जिसका नाम 'संपादक' होता है।
लेखक और संपादक का रिश्ता "कभी सास भी बहू थी" टाइप होता है। हिंदी का साहित्य गवाह है कि अगर कालांतर में लेखकों को ठीक-ठाक रायल्टी मिली होती तो आज संपादकों का नाम संकटग्रस्त जातियों की आईयूसीएन सूची (लाल सूची) में होता।
हिंदी का लेखक जो दूसरा महत्त्वपूर्ण काम करता है वो है उस जगह के समाचार पत्रों में लोकल न्यूज़ पढ़ते हुए यह पता करना कि आज कहाँ और किस जगह साहित्यिक गोष्ठी अथवा साहित्यिक सम्मेलन वगैरह आयोजित है और वो स्वादानुसार कहाँ का मुख्य अतिथि या विशिष्ट अतिथि बन सकता है।
यह आधुनिक युग की परंपराएँ हैं। और परंपराएँ , परंपराएँ ही होती है जिसका निर्वहन "माँग में सेंनुर" भरने की तरह आवश्यक है।
                  मैंने भी प्रयागराज उतरते ही साहित्य की मर्यादा का पालन किया और अखबार में लोकल का न्यूज पढ़ते हुए अनहद पत्रिका (त्रैमासिक) के यशस्वी संपादक संतोष चतुर्वेदी भैया को फोन भी किया - का हाल बा भइया?
संतोष भैया इतिहास के गम्भीर अध्येता, भाषिक सहोदर तथा 'स्वजातीय' हैं।'स्वजातीय' इसलिए लगाना पड़ा कि फिलहाल चर्चा में आए प्रसिद्ध इतिहासकार श्री मनोज मुन्तशिर भी स्वजातीय ही हैं जिन्होंने हिन्दी दिवस पर अपनी माताजी को मम्मी की जगह "माँ" कहने की अद्वितीय परंपरा शुरू की है। वर्नना हम जैसे गैर ऐतिहासिक लोग 'माई' ही कहते आए थे आज तक। 
खैर! संतोष भइया ने कहा - सब ठीके बा हो। तूं बतावऽ कहाँ बाड़ऽ?
मैंने कहा - भैया! प्रयागराज में हूँ। यहाँ अखबार में एक न्यूज छपी है नीलकांत जी के साथ कुछ आर्थिक अपराध हुआ है क्या?
उन्होंने आश्चर्य से पूछा - तुम जानते हो उन्हें?
                  क्या कहता मैं कि मेरे इस लेख का शीर्षक भी नीलकांत का ही है!
एक जमाने में अपनी मौज और अपने तेवर का एकलौता लेखक नीलकांत जिनके बारे में इलाहाबाद के साहित्यिक लोग जानते ही होंगे कि उन्होंने "एक बीघा गोएड़" समेत दर्जन भर उपन्यास लिखे और कोलकाता वाली पत्रिका 'लहक' ने शायद अप्रैल या मार्च 2016 में इन पर अपना विशेषांक भी निकाला था।
"एक बीघा गोएड़" की वास्तविक कीमत वही आँखें समझ पायेंगी जिन्होंने प्रेमचंद, रेणु, भैरव प्रसाद गुप्त, और मार्कण्डेय को पढ़ने के साथ-साथ आजादी के बाद चकबंदी के समय गाँव में गोएड़ वाली जमीन के लिए लेखपाल, नायब तहसीलदार और तहसीलदारों का ईमान पैसे पर बिकते देखा था। यही नहीं उन्हीं आँखों ने यह भी देखा होगा कि जब पुलिसिया लाठी, लेखपाल का नज़राना और पट्टीदारी में कट्टा - बंदूख चल जाने के बाद हरहराते देह ने कँपकँपाते हाथों से पट्टे का कागज लिया तभी पूँजीवाद ने सड़क के किनारे वाली जमीन की मालियत बढ़ा दी.... ।
                      आज कोई नहीं पूछता गोएंड वाली जमीन को और ना ही ऐसे किसी लेखक नीलकांत को कि वो आज किस भाव में और किस हाल में हैं! वर्ना इसी गोएंड वाली जमीन और नीलकांत जी में जब तक ऊर्जा थी तब तक इन्हें कौन न जानता था! जिस जमीन के दम पर किसान के बदन पर कुर्ता फहरता था और जिन लेखकों के दम पर शहरों की रवायतें जिंदा थीं। आज यकीन नहीं होता कि यह उन्हीं लोगों काा बसाया प्रयागराज है!
                        याद कीजिए! जब तक जिस्म में जान हो तब तक गोएंड की जमीन, भले ही वो फसल देकर थक चुकी हो, उसे बंधक नहीं रखा जाता।
देख लीजियेगा नीलकांत जी के साथ उम्र के आखिरी पड़ाव में ऐसे दुर्दिन में जिन लोगों ने आर्थिक अपराध किया है उनके खिलाफ कोई कार्रवाई हुई भी है या नहीं!
प्रयागराज के जिलाधिकारी महोदय एसपी महोदय को ट्विट कीजिए और उन्हें बताइए कि पूँजीवाद ने भले सड़क के आसपास के जमीनों की कीमत बढ़ा दी है लेकिन हम अपने गोएंड की जमीन और "एक बीघा गोएंड" के लेखक के ही साथ हैं.....।
वर्ना बनतीं जाएंगी अट्टालिकाएँ सड़क वाली जमीन पर और घटती जाएगी गोएंड वाली जमीन की कीमत।
                   संभव है आज चुरा लें कुछ लोग अपनी नज़रें गोएंड वाली जमीन और उसके लेखक नीलकांत से।
लेकिन याद रखिएगा जब भी मेरे या आप जैसा साहित्य का कोई विद्यार्थी पाठक या लेखक उतरेगा भारत के किसी भी सुदूर गाँव से किसी भी शहर के स्टेशन पर तब वहाँ के लोकल अखबारों की कतरनें आपके गाल पर तमाचा मार कर यह जरूर पूछेंगी - इस दश्त में कोई शहर था वो क्या हुआ....

असित कुमार मिश्र
बलिया

Tuesday, September 14, 2021

दिल सितुही

दिल सितुही देह सिलवट....

दू हजार के कलेन्डर से बीसवाँ बरिस देखते - देखत एतरे निकल गइल जइसे घर के मनसरहंग लइका घर से निकल जाव.... ना हंसिये आवे ना रोवाइये।
मरकिनौना कहियो एइसन दिन ना बीते जहिया दु-चार लोगन के मुअला के समाचार ना आवे। जिउ एतना डेराइल रहे कि सपनवो में सुस्मिता सेन ना सेनेटाइजरे लउके। सही में, जिनगी एतना सस्ता कबो ना रहे कि सर्दी-जोखाम, जे के आदमी कुछु ना बूझे,ओसे जान चल जाव।
                          एक दिन के बाति हऽ। भोरे में ऊंघाई टूट गईल। बुझाईल कि केहू रोवता। साँस एकदम से अटक गईल.... आहि रे बाप! केहू अगल-बगल से गइल का?
किल्ली खोल के बहरी निकलनीं। नीब के डाढि पर दु - तीन गो रुखी छुआ-छुई में लागल रहली सन आ ओसे तनीं ऊपर पुलुईं पर एगो कउवा के काँव-काँव सुनाईल।
ओइसे तऽ गाँव के भोर बहुत मनसाईन लागेला। लेकिन मन ठीको तऽ रहे के चाहीं। जब पूरा दुनिया में हमनी के समसान के फोटो दउरता तऽ मन मनसाईन ना भकसाईन भइले रही।
तबले फेर पुरुब ओर से ओइसहीं आवाज आईल। तनीं कान लगवला पर बुझाईल कि ना केहू रोवत नइखे, तीन घर आगे वाला बाबा आपन भजन वाला टीसन पकड़ लेले बाड़ें - भंवरवा के तोहरा संगे जाई.... रे भंवरवाऽऽऽ.... ।
मन में तऽ आईल कि इनके, इनकी भंवरवा के संगही उड़ा दिहीं - बाबा! ई कुल्ह का सुरु कइले बानीं। कुछु नीमन गाईं महाराज!
बाबा चुप तऽ हो गइलें लेकिन फिर बोललें - तऽ कोनो नीमन भजन मन परावऽ।
हम कहनीं - गाईं! जिंदगी प्यार का गीत है इसे हर दिल को गाना पड़ेगा....।
                पता ना बाबा ई वाला भजन गइनीं कि ना लेकिन मूड अपसेट तऽ होइए गइल।
अब सुतहू के बेरा ना रहे। सोचनीं कि वर्क फ्राॅम होम कईल जाव ।लेकिन ना वर्क में मन लागे ना होम में।
जब वर्क फ्राॅम होम से ले के वर्क फ्राॅम दुआरे तक कुल्ह कऽ के देख लीहनीं, आ कहीं मन ना लागल तऽ सोचनीं कि अब वर्क फ्राॅम पिछुआरी कर के देखल जाव।
सही बताईं तऽ अब गाँव में भी गाँव बस पिछुआरिये रह गइल बा, आगे से तऽ कुल सहर होइये गइल बा। अबहीं हमरे होस में जुआठ, हरीस, बरहा, हेंगा, गोईंठा के कहो, टुटले-फाटल डोली तक रहे। लेकिन सहर बने के सवख जब आवे ला तऽ साज होखे चाहे सामान, भासा होखे चाहे संस्कृति सबकर जगह पिछुआरिये बनल।
कुछु समझ में ना आइल कि का कइल जाव तऽ सोचनीं कि पेपर बना लीहल जाव। टेस्ट लेबहीं के बा।
अच्छा ई हमरे ना दुनिया के कवनो मास्टर के आदत हऽ, ओके जब कुछु ना बुझाई कि का करे के बा तऽ ऊ पेपर बनावे लागी। कवनो परीच्छा के पेपर उठा के देख लिहीं। देखते ई बुझा जाई कि सौ गो में निन्यानबे गो पेपर कुछु ना बुझइला के दौरान ही बनावल गईल बा।
अबहीं दु लाईन लिखनीं तबले बुझाईल कि पिछवा कुछ हीलता। घूम के देखनीं तऽ दुआरी के पर्दा रहे।
मन में आईल कि अइसन पर्दा अब आवत होई कि ना? बहुत पहिले गाँधी आश्रम के दुसुत्ती वाला पर्दा आवे। जेवना पर कुछु- कुछु, फूल - पतई के साथे गीता - रामायन के दोहा-चौपाई लिखाइल रहे...। बै! अब ऊ समय कहाँ बा! अब तऽ एक से एक डिजाइनदार पर्दा आवता।
मन में आइल कि देखल जाव एपर का लीखल बा? जब आँख उठा के देखनीं तऽ सिकुड़ के दिल सितुही आ देह डेरा के सिलवट हो गईल - "क्यों व्यर्थ चिंता करते हो?
तुम क्या लाए थे जो तुमने खो दिया...
जो आज तुम्हारा है वो कल किसी और का होगा.... "।
आहि रे करम! आजु के दिन ठीक - ठाक बीत जाव बस।
लैपटॉप के सिरहाने धर के चुपचाप सुतले में भलाई रहे। दस मिनट देस-दुनिया के चिंता में बीतल आ ओही में का जाने कब ऊंघाई लाग गइल।
दसो मिनट भी ठीक से ना बीतल होई, तबले दु गो पुलिस आ के डांटे लगलन स- मास्क कहाँ बा? तहार चालान होई। महामारी अधिनियम के तहत दु साल जेल.... हाथ छोड़ा के चलनीं भाग। डाक बंगला तक जात-जात मोटरसाइकिल के पेट्रोल खत्तम - ओनी पूरा पुलिस फोर्स। अब का करीं!
तबले पाछे से आ के एगो दरोगा हाथ पकड़ लीहलस - का हाल बा माट्साहब!
चिंहुक के उठनीं।देखनीं कि सोनापति भाई खटिया के लगे कुर्सी पर बइठल बाड़ें। हाथ देखनीं हथकड़ी ना रहे। तनी जिउ में जिउ आइल।
सोनापति कहलन - कांहे हाथ देखऽ तनीं?
हम जल्दी-जल्दी "कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती".... पढ़े लगनीं।
सोनापति ब्यंग में कहलन - अब केतना लक्ष्मी चाहीं! एगो तऽ सबसे आराम के नोकरी आ ओहू में सबसे ज्यादा तनखाह मास्टरे के बा। भर लाकडाउन ऐस कइल ह मास्टर लोग....
हम का बोलीं अब। बाकिर कहनीं कि- ए सोनापति भाई! ई तहार दोस नइखे। जेकरी-जेकरी नांव के बाद "पति" लागल बा न! ऊ सबके लागता कि मास्टरन के तनखाह बहुत ढेर बा।
हम आगे ओसारा में ले जाके पूछनीं- खैर! ई कुल छोड़ऽ, बतावऽ कइसे आईल भइल हऽ?
सोनापति भाई कहलन - देखऽ भाई! हमनीं के आम आदिमी हईं जा। हमनीं के बाप नेता - मंतरी बिजनेसमैन ना रहे। हमनीं के आगहूँ सोचे के बा आ पीछहू।
हम कहनीं - एकदम सही बात बा भयवा।
ऊ बात आगे बढ़वलन- हमनीं के सपनवो आम आदमी वाला आवेला - पेट्रोल खत्तम हो गईल - दाल खत्तम हो गईल - थइली कवनो काट लीहल-पुलीस चालान काट दीहलस ... एइसने कुल सपना रहेला हमनीं के किस्मत में। हं कि ना!
हम आंख चोरवा के कहनीं - हं भाई। एकदम सही बात कहलऽ।
आ बड़ आदिमी जानतरऽ का सपना देखे ला - पेट्रोल पंप खोले के, आपन जहाज कीने के एघरी तऽ टरेनवो मान लऽ। जेड प्लस सिकोरिटी के.... हई आम आदमी वाला जीवन हमनीं के तऽ जी लिहनीं जा। हमनी के लइका जीहन सन?
हम तऽ सोनापति भाई के देखते रह गइनी। सोनापति हमनी के पीढ़ी के हड़ाह कबि हउवन। ओइसे मूल रूप से मोटर मैकेनिक आ बीमा कंपनी के काम करेलन। हमरा बुझा गईल कि केतना सही बात बोलता जवान। हम कायल होके कहनीं - ना भइया! आवे वाली पीढ़ी खातिर नीमन से प्लानिंग करे के परी।
सोनापति तीन पन्ना के एगो फारम निकाल के कहलन - हई जीवन बीमा के फारम भरीं तब।
दु-केतरे तऽ कहल जाला - "कुजगहा फोड़ा आ ससुर बैद"।
एगो तऽ ओइसहीं कोरोना आर्थिक तमाचा मारता ओहू में आपने मित्र बीमा लेबे आ जाव।
हम बहाना कइनीं- भइया! बीमा में कवनो बाति नइखे बाकिर एकर पइसा बेरा पर ना मिलेला।
सोनापति जी ओज गुण आ बीर रस के कबि हईं। इहां के "बीमा-हजारा" किताब के जहिया बिमोचन रहे ओहि दिन किताब भले एगहू ना बेचाइल बाकिर सौ गो से अधिका बीमा मिलल रहे।
सोनापति भाई तनीं खिसिया के कहनीं - जवार में घूम के हमार रेकार्ड पता कर लिहीं। ई कंपनी एइसन - तइसन ना हऽ ।बीमा कराईं आ मान लीं कि बाई द वे कुछु हो गईल तऽ लास फुंकाये के बेरा ले चेक रउरी हाथ में.... ।कहीं तऽ लिख के दे दीं।
हमार त बुझाइल कि जाने निकल जाई। मने - मने हाथ जोड़ के भगवान से कहनीं कि हे भगवान आजु के दिन ठीके-ठीक निकल जाव।
केहूतरे सोनापति भाई से बियफ्फे के बीमा देबे के वादा कर के भेजनीं। आ घर में आके मोबाइल स्विच आफ कइनीं। आ दिन भर केहू से भेंट ना होखे एसे चुपचाप सुत गईनीं।
                             साँझ के बेरा उठनीं। आ भगवान के धन्यवाद दिहलीं कि आजु के दीन नीमने-नीमन कट गईल।
अगिला दिने सबेरे चाह पी के मोबाइल खोलनीं तऽ सोनापति भाई के एकईस गो मिसकाल के मैसेज।
एनी से फोन कइनीं - का हो सोनापति भाई! काल्हु एतना फोन कांहे आईल रहुवे ?
ओनी से सोनापति भाई के रोवनिया आवाज आईल - मरदे! का बताईं एगो बाछा के बचावे में अपने बोलेरो से लड़ के गिर गइनीं। मोटरसाइकिल के तऽ जवन हाल भइल ऊ भइल दहिना गोड़ टुटल बा। दस हजार रुपिया भेजऽ जल्दी से.... ।
- ओह! भइया नये गाड़ी रहल ह तऽ  इंस्योरेंस होखबे करी।
सोनापति भाई कहलन - अरे ऊ साला महीना भर जाँच करीहन सन ओहू के बाद जबले कुछ देईब ना तबले क्लेम ना मिली। इंस्योरेंस विभाग के अभी तूं नइखऽ जानत।
हम कहनीं - अच्छा भइया! दुर्घटना बीमा भा आयुष्मान कार्ड तऽ बा न?
सोनापति भाई कहलन - ना मरदे! हम आपने बीमा ना कर पवनीं। हम का जानीं कि एक्सीडेंट होइये जाई। आ आयुष्मान कार्ड हास्पिटलवा वाला मानते नइखन सन.... । रातिये भर में दिल सिकुड़ के सितुही हो गईल बा देह सिलवट ।काल्हु का जने कवना के मुँह देखले रहुंवी।
संयोग से हमरो मन में इहे बात चलत रहुवे कि काल्हु कवना के मुँह देखले रहुंवी.... ।आखिर में कहहीं के परल -हं भाई! एकदम सही बात कहलऽ हऽ।

असित कुमार मिश्र
बलिया