इस दश्त में एक शहर था वो क्या हुआ....?
भारत के किसी भी शहर में जब भी कोई लेखक आता है (रायल्टी प्राप्त लेखक कृपया 'उतरना' समझें) तो उस शहर में आने से पहले दो काम करता है। पहला फोन और वो भी उसे जिसका नाम 'संपादक' होता है।
लेखक और संपादक का रिश्ता "कभी सास भी बहू थी" टाइप होता है। हिंदी का साहित्य गवाह है कि अगर कालांतर में लेखकों को ठीक-ठाक रायल्टी मिली होती तो आज संपादकों का नाम संकटग्रस्त जातियों की आईयूसीएन सूची (लाल सूची) में होता।
हिंदी का लेखक जो दूसरा महत्त्वपूर्ण काम करता है वो है उस जगह के समाचार पत्रों में लोकल न्यूज़ पढ़ते हुए यह पता करना कि आज कहाँ और किस जगह साहित्यिक गोष्ठी अथवा साहित्यिक सम्मेलन वगैरह आयोजित है और वो स्वादानुसार कहाँ का मुख्य अतिथि या विशिष्ट अतिथि बन सकता है।
यह आधुनिक युग की परंपराएँ हैं। और परंपराएँ , परंपराएँ ही होती है जिसका निर्वहन "माँग में सेंनुर" भरने की तरह आवश्यक है।
मैंने भी प्रयागराज उतरते ही साहित्य की मर्यादा का पालन किया और अखबार में लोकल का न्यूज पढ़ते हुए अनहद पत्रिका (त्रैमासिक) के यशस्वी संपादक संतोष चतुर्वेदी भैया को फोन भी किया - का हाल बा भइया?
संतोष भैया इतिहास के गम्भीर अध्येता, भाषिक सहोदर तथा 'स्वजातीय' हैं।'स्वजातीय' इसलिए लगाना पड़ा कि फिलहाल चर्चा में आए प्रसिद्ध इतिहासकार श्री मनोज मुन्तशिर भी स्वजातीय ही हैं जिन्होंने हिन्दी दिवस पर अपनी माताजी को मम्मी की जगह "माँ" कहने की अद्वितीय परंपरा शुरू की है। वर्नना हम जैसे गैर ऐतिहासिक लोग 'माई' ही कहते आए थे आज तक।
खैर! संतोष भइया ने कहा - सब ठीके बा हो। तूं बतावऽ कहाँ बाड़ऽ?
मैंने कहा - भैया! प्रयागराज में हूँ। यहाँ अखबार में एक न्यूज छपी है नीलकांत जी के साथ कुछ आर्थिक अपराध हुआ है क्या?
उन्होंने आश्चर्य से पूछा - तुम जानते हो उन्हें?
क्या कहता मैं कि मेरे इस लेख का शीर्षक भी नीलकांत का ही है!
एक जमाने में अपनी मौज और अपने तेवर का एकलौता लेखक नीलकांत जिनके बारे में इलाहाबाद के साहित्यिक लोग जानते ही होंगे कि उन्होंने "एक बीघा गोएड़" समेत दर्जन भर उपन्यास लिखे और कोलकाता वाली पत्रिका 'लहक' ने शायद अप्रैल या मार्च 2016 में इन पर अपना विशेषांक भी निकाला था।
"एक बीघा गोएड़" की वास्तविक कीमत वही आँखें समझ पायेंगी जिन्होंने प्रेमचंद, रेणु, भैरव प्रसाद गुप्त, और मार्कण्डेय को पढ़ने के साथ-साथ आजादी के बाद चकबंदी के समय गाँव में गोएड़ वाली जमीन के लिए लेखपाल, नायब तहसीलदार और तहसीलदारों का ईमान पैसे पर बिकते देखा था। यही नहीं उन्हीं आँखों ने यह भी देखा होगा कि जब पुलिसिया लाठी, लेखपाल का नज़राना और पट्टीदारी में कट्टा - बंदूख चल जाने के बाद हरहराते देह ने कँपकँपाते हाथों से पट्टे का कागज लिया तभी पूँजीवाद ने सड़क के किनारे वाली जमीन की मालियत बढ़ा दी.... ।
आज कोई नहीं पूछता गोएंड वाली जमीन को और ना ही ऐसे किसी लेखक नीलकांत को कि वो आज किस भाव में और किस हाल में हैं! वर्ना इसी गोएंड वाली जमीन और नीलकांत जी में जब तक ऊर्जा थी तब तक इन्हें कौन न जानता था! जिस जमीन के दम पर किसान के बदन पर कुर्ता फहरता था और जिन लेखकों के दम पर शहरों की रवायतें जिंदा थीं। आज यकीन नहीं होता कि यह उन्हीं लोगों काा बसाया प्रयागराज है!
याद कीजिए! जब तक जिस्म में जान हो तब तक गोएंड की जमीन, भले ही वो फसल देकर थक चुकी हो, उसे बंधक नहीं रखा जाता।
देख लीजियेगा नीलकांत जी के साथ उम्र के आखिरी पड़ाव में ऐसे दुर्दिन में जिन लोगों ने आर्थिक अपराध किया है उनके खिलाफ कोई कार्रवाई हुई भी है या नहीं!
प्रयागराज के जिलाधिकारी महोदय एसपी महोदय को ट्विट कीजिए और उन्हें बताइए कि पूँजीवाद ने भले सड़क के आसपास के जमीनों की कीमत बढ़ा दी है लेकिन हम अपने गोएंड की जमीन और "एक बीघा गोएंड" के लेखक के ही साथ हैं.....।
वर्ना बनतीं जाएंगी अट्टालिकाएँ सड़क वाली जमीन पर और घटती जाएगी गोएंड वाली जमीन की कीमत।
संभव है आज चुरा लें कुछ लोग अपनी नज़रें गोएंड वाली जमीन और उसके लेखक नीलकांत से।
लेकिन याद रखिएगा जब भी मेरे या आप जैसा साहित्य का कोई विद्यार्थी पाठक या लेखक उतरेगा भारत के किसी भी सुदूर गाँव से किसी भी शहर के स्टेशन पर तब वहाँ के लोकल अखबारों की कतरनें आपके गाल पर तमाचा मार कर यह जरूर पूछेंगी - इस दश्त में कोई शहर था वो क्या हुआ....
असित कुमार मिश्र
बलिया
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