तकनीकी से थोड़ा दूर रहना....
आजकल गाँव गाँधी आश्रम के उजरके कंबल जैसी धुंध में दिन भर लिपटा रहता है। इस धुंध में कब सुबह हो जाती है और कब साँझ, किसी को कुछ पता ही नहीं चलता। उधर खेतों में गेहूँ के मनढीठ पौधे सुबह की शीत का भार अपने कपार पर लिए दिन भर काँपते रहते हैं इधर सर से लेकर पाँव तक कपड़ों के भार से दबे रहने पर भी शरीर काँपता रहता है।
पिछले दिनों की धुआंधार बारिश से तो गाँव बच गया लेकिन लगता है यह ठंड जान लेकर ही छोड़ेगी।
धूप की स्थिति यह है कि तीन - चार दिन पर सूरज अचानक धुंध के बीच किसी कोने से सरकारी कर्मचारी की तरह निकलता है और आसमान के रजिस्टर पर साइन बना कर ओझल हो जाता है। दिन भर ओसारे में जलते अलाव को घेर कर बैठा हुआ गाँव अपने आप में भी धीरे-धीरे सुलगता रहता है - सैकड़ों बातों की गर्मी में... हज़ारों वादों की गर्मी में और लाखों उम्मीदों की गर्मी में।
परभुनाथ चचा सामने बैठे पूरन सिंघ से पूछ बैठते हैं -अच्छा! दिन तो बीत गया होगा न?
पूरन सिंघ "अबकी बार चार सौ पार" नामक व्हाट्स-ऐप ग्रुप के एडमिन हैं। मैसेज़ के अक्षरों पर कत्थक करती उनकी उंगलियाँ जैसे ठहर सी जातीं हैं - का बोले हैं! "अच्छा दिन" बीत गया? कान खोलकर सुन लीजिए! दुई हजार पचास तक आपके अखिलेश बाबू नहीं आने वाले...।
मन मसोस कर रह गए परभुनाथ चचा। बड़ी उम्मीद से तीन साल पहले एक फेसबुक ग्रुप बनाया था - "युवा देश युवा अखिलेश"।
लेकिन दो साल बीतते - बीतते वह ग्रुप समाज से सिमट कर परिवार तक ही रह गया। अब वहाँ सिर्फ परभुनाथ चचा पोस्ट करते हैं और अपनी ही चारों आईडी से लाइक करके दिल को समझा लेते हैं कि एक न एक दिन देश में समाजवाद जरुर आएगा।
कपार पर हाथ रखकर बोले परभुनाथ चचा - मरदे! हम राजनीतिक बात नहीं किए! हम तो बस पूछ रहे थे कि दिन अभी केतना बचा है?
तभी ओसारे के भीतर का दरवाज़ा खोल कर चाची एक हाथ में संझवत का दिया और दूसरे हाथ से घंटी टुनटुनाते हुए निकलीं। मुँह से हमेशा की तरह श्लोक ही झर रहे थे - "अपने तो न कोई काम है न धाम। आ ऊपर से एगो आ गया है मुँहझौंसा मोबाइल! दिन-रात बस टिप - टिप, टिप-टिप... " ।
चाची तुलसीचौरे पर दिया रखकर चलीं गईं। दिए की हिलती - डुलती लौ को देखते हुए रजेसवा ने कहा - परभुनाथ चचा! मटर नहीं बोवाया है का हो!
परभुनाथ चचा थोड़ा तन गए और बोले - उन्नीस सौ सत्तर के बाद कोई ऐसा साल नहीं बीता जिस साल कियार के खेत से तीन कुंतल मटर न निकला हो!
तभी अलाव के धुएँ से 'सेक्युलर हिंदुओं' की तरह आँखें बंद किए रजेसवा बोल पड़ा - का फायदा ऊ तीन कुंतल मटर होने से जब ओसारे में बैठे दु - चार आदमी को देखने तक को न मिले।
अपनी ही बातों में फंसे परभुनाथ चचा बेमन से उठे और अंगना में चाची के पास जाकर खड़े हो गए। लेकिन साफ़ साफ़ कहने की हिम्मत नहीं हुई। इसलिए बात को दूसरे तरह से कहा - सरसों का तेल घर में होगा कि नहीं?
चाची ने कहा - हाँ, है।
आ हरियर मरिचा भी होगा न?
चाची ने अबकी आँखें दिखा कर कहा - हूँ ऽऽ।
परभुनाथ चचा ने आखिरी चाल चलते हुए कहा - भूख जैसा लग रहा है दू अंजुरी मटर भून दीजिए न!
चाची ने उनके चाल की काट करते हुए पूछा - लगी है भूख? ई कांहे नहीं कह रहे हैं कि ओसारे में जमे डीह - देवता लोगों को खिलाना है!
परभुनाथ चचा ने नरमी से समझाया - देवनथवा की माँ! समाजवाद यही कहता है कि सबको खिला कर आप खाइए! अपना पेट तो जानवर भी भर लेता है...।
चाची ने दाँत पीसते हुए कहा - "ये अपना समाजवाद ओसारे में जाकर उन्हीं लोगों को समझाइए। पूरन सिंघ के छज्जे से कम से कम पचास गो लौकी तुराया होगा। कांहे नहीं एक लौकी लाकर दुआर पर पटक दिए! अवधेसवा की भैंस एतना दूध देती है आज तक जोरन भी नहीं निकला उसके तीनों दयादी से..." ।
परभुनाथ चचा ने हैरानी से चाची की ओर देखा और सोचा - आखिर कौ जीबी का मेमोरी है इसके दिमाग में कि पूरे गाँव की एक छोटी सी बात से लेकर किसके तरकारी में कितना नमक पड़ता है, सबका हिसाब रखे रहती है।
उधर ओसारे में अलाव पर दो - तीन लकड़ियाँ और रख दी गई थीं ताकि आग थोड़ी देर तक और रह सके।
मटर भूनने की महक भर आने की देर थी कि बगल से रामानंद चौधरी भी चले आए। सबने थोड़ा - थोड़ा सरक कर उनके लिए भी जगह बनाया। रामानंद को बैठे हुए थोड़ी देर हुई थी कि पूरन सिंघ बोल पड़े - कहीं कुछ जलने की महक आ रही है क्या?
रामानंद जी बड़े पर्यावरण संरक्षक के तौर पर सोशल मीडिया में उभरे हैं। फेसबुक पर बिना पौधे लगाने की पोस्ट किए नहाते - खाते नहीं हैं। उन्होंने फेसबुक ही खोला था। एक कमेंट को लाइक करते हुए उपदेशक की भांति कहा उन्होंने - तुम लोगों को अपने - अपने नेताओं से फ़ुरसत मिलेगी तब न जानोगे कि अमेजन के जंगल में आग लगी है और जंगल खतम होने की देर है साक्षात परलय होगा परलय...!
तभी रजेसवा ने झटके से उठ कर अलाव के कोने पर सुलगती उनकी चादर हटाते हुए कहा - मरदे! जंगल - वंगल नहीं आपके चादर का हई कोना जल रहा है।
रामानंद जी ने देखा अमेजन के जंगल के साथ-साथ उनके ऊनी चादर का एक कोना भी ठीक-ठाक जल चुका था और ओसारे के भीतर मटर की घुघनी खाते हुए अब एनआरसी पर बहस छिड़ चुकी थी.... ।
ठीक उसी समय ओसारे के बाहर दुआर पर भी एक गाँव था। जिसमें न फेसबुक था, न व्हाट्स-ऐप, न ट्विटर और न ही लाइक-कमेंट। वहाँ पाँच - छह छोटे - छोटे बच्चे थे और बच्चों के बीच में भूरी देह पर सफेद चकत्ते लिए छोटा सा 'मोतिया' था। जिसके चारों पैरों में बच्चों ने सरसों की पायल पहनाई थी और कमर में सरसों की करधन।पूँछ में बाँधी गई सरसों के फूलों की लंबी लड़ियाँ और कानों में सरसों के फूल। मोतिया को सजाते हुए चिरइया बोल रही थी - "पहिन लो सरसों तो गाँव का सिंगार होता है ..." ।
उधर रजेसवा ने यू-ट्यूब पर प्रधानमंत्री का "परीक्षा पर कार्यक्रम" लगा दिया है जिसमें वो कह रहे हैं कि - दिन में कुछ ऐसा समय होना चाहिए कि आप खुद को तकनीकी से दूर रखें। तकनीकी से थोड़ी दूर रहना अपने थोड़े पास हो जाना है....
असित कुमार मिश्र
बलिया