Monday, December 12, 2016

जो जरुरी है जिंदगी के लिए : मुखरित संवेदनाएँ...

चार दाने अक्षत के, कुछ दूब की पत्तियाँ और एक हल्दी की गाँठ, आँचल में बाँध कर विदा हो रही बेटी की रुलाई के साथ कुछ अस्फुट राग भी बनते हैं, कुछ स्वर लहरियाँ भी फूट पड़ती हैं, कुछ कविता सी रच जाती है अपने आप... उसे ही 'मुखरित संवेदनाएँ' कहते हैं।
प्रतीक्षारत प्रिया की दो आँखें जब प्रिय के दो कदमों की आहट सुन कर भाव-विह्वल हो उठती हैं तो आँखों की तरलता के साथ वियोग की कसक, सखियों के उलाहने और स्मृतियों में काटे गए पहाड़ जैसे हर क्षण नदी की तरह बह जाने के लिए जिन शब्दों का चुनाव करते हैं उसे ही 'मुखरित संवेदनाएँ' कहते हैं...।
ऐसे ही अनगिनत भावों भावनाओं और मुखरित संवेदनाओं की कवयित्री हैं किरण सिंह और इनके ही कविता संग्रह का नाम है - "मुखरित संवेदनाएँ"।
          इस मुखौटों भरे परिवेश में जहाँ संबंधों से लेकर शब्दों तक आवरण में ही ढंका हो वहाँ 'निरावरण' होना जितने साहस और दु:साहस का काम है उससे भी अधिक कविता के लिए जरूरी भी। जिसने आवरण उतारा ही नहीं वह कवि कैसा! अपनी  कविता में किरण सिंह कहतीं हैं -
हृदय की वेदना शब्दों में बंध
छलक आती है
अश्रुओं की तरह झर-झर कर
फिर चल पड़ती है लेखनी
आवरण उतार
लिखती है व्यथा
मेरी आत्मकथा।
'निरावरण' होने का तात्पर्य उच्छृंखल हो जाना नहीं है,अमर्यादित हो जाना नहीं है, अपने कर्त्तव्यों से मुँह मोड़ना नहीं है,तभी तो एक कविता भी कह पड़ती है -
प्रतिस्पर्धा पुरुषों से कर के
अस्तित्व तेरा कम हो न कहीं
अधिकार के खातिर लड़ो मगर
भूलो न कर्त्तव्य कहीं।
         अगर जन कवि 'धूमिल' की इन पंक्तियों को कविता का मापदंड मान लिया जाए कि- "एक सही कविता पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है" तो कवयित्री ने उस दौर में अपनी सार्थकता सिद्ध की है 'जब लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है'। इसी सार्थकता के साथ सवाल भी करती है किरण सिंह की एक कविता -
कुण्ठित होती प्रतिभा लिखूँ
या बिकती हुई शिक्षा
बचपन का मर्दन लिखूँ
या सड़कों पर भिक्षुक भिक्षा
                      न्याय को तरसते अन्याय लिखूँ
                      या शीर्षक ही लिख दूँ पतिता
                      विषय बहुत हैं लिखने को
                      किस पर लिखूँ मैं कविता?
अपने समय के सरोकारों और रूढ़िवादी परंपराओं से टकराती हुई स्त्री और कविता की आँखों में झाँकना नदी के जल-दर्पण में अपना ही प्रतिबिम्ब देखना है। कविता जब प्रतिबिम्ब बनती है तो इसी तरह सवाल करती है -
आँखों में थे उसके अनेक
प्रश्न
जब बड़े चाव से गई थी वह
हल्दी के रस्म में
और सास ने कहा
रुको
सुहागिनों के लिए है
यह रस्म।
     इस उपभोक्तावादी संस्कृति और महानगरीय जीवन शैली में छूट जाती हैं अक्सर गाँव की पगडंडियाँ, पतंग, हाथों में लगी मेंहदी या चिट्ठीटँगना। विस्मृत हो जाती है चूल्हे की गरम आँच में सेंकी गयी वो नरम रोटियाँ और भूल जाता है बादलों या तितलियों के पीछे दौड़ना... न चाहते हुए भी जिंदगी बड़ा कर ही देती है हमें। लेकिन पटना जैसे महानगर में रह कर भी किरण सिंह ने मझौआँ जैसे गाँव को बखूबी जिया है... बस जिया ही नहीं है, बल्कि स्वाद भी लिया है और बखूबी वर्णन भी किया है जीवन के हर रंग का, हर उस विभाव का, अनुभाव का, संचारी भावों का, डोली का, कँहारो का, झूले का, संदेश लाए हुए कौए का।
इसलिए पढ़ने के साथ साथ जीना जरूरी सा लगता है इनकी कविताओं को...
कविता-संग्रह : मुखरित संवेदनाएँ
कवयित्री - किरण सिंह
वातायन मीडिया एण्ड पब्लिकेशन पटना

असित कुमार मिश्र
बलिया

Monday, December 5, 2016

जो चाहते हो दिलों पर हुकूमत करो....

दिसंबर के महीने में जब भोर के छह बज रहे हों, रजाई नामक नायिका आँखों में लाज भरे कह रही हो - प्लीज़ अब तो छोड़ दीजिए न,लोग क्या कहेंगे!इधर तकिया सिर के नीचे से सरक कर चौकी के नीचे 'तरंगों से फेंकी हुई मणि एक'  की तर्ज पर एकांतवास कर रहा हो और उधर बाँह के नीचे दबे दबे 'रेखा' वाले भगवतीचरण वर्मा जी खून के घूंट पी रहे हों। ऐसे में कोइरी टोला गुलज़ार हो उठता है अल्ताफ़ रज़ा के गानों से - तुम तो ठहरे परदेशी साथ क्या निभाओगे... तब पूर्णतः विश्वास हो जाता है कि आज भी देश की मुख्य समस्या 'अविश्वास' ही है। भ्रमर गीत के 'कहत कत परदेशी की बात' हो या 'परदेसियों से ना अँखियाँ मिलाना' हर युग हर काल की मूल समस्या वही अविश्वास।
           हालांकि हमने यह गाना तब सुना था जब 'साथ क्या निभाओगे' का मतलब गणित की काॅपी का आदान-प्रदान होता था और कभी 'इमर्जेंसी' में कलम या रफ के बीच वाले पन्नों का लेन देन।हमारे सरकारी स्कूल में दो हजार से ज्यादा लड़के और हम कुख्यात कक्षा आठ वर्ग ख के माॅनीटर। इसी में 'वो' भी थी 'नील परिधान बीच खुल रहा मृदुल अधखुला अंग' टाइप। हालाँकि तब हम प्यार मुहब्बत से वाकिफ नहीं थे, होते भी तो नहीं करते उससे।क्योंकि उसकी तमामतर खूबियों पर बस एक ही ऐब भारी था, कि वो गणित में तेज़ थी। अब उसकी ख्वाहिश खुदा जानें, लेकिन हमारी ख्वाहिश बस इतनी होती थी कि गणित में कैसे भी तैंतीस नंबर ला दें। लेकिन कमबख्त दशमलव तो उसके गाल पर जाकर बैठा था, हम हिसाब में कहाँ लगाते? और उसके नाम के अलावा रेखा, तृज्या, बिंदु, टाइप लड़कियों के नाम हम अपनी जुबान पर लाते भी नहीं थे। इसीलिए गणित में कमजोर रह गए। लेकिन वो सौ में मनचाहे नंबर ले आती और जो बच जाता उससे, वो हम पा जाते। गणित की क्लास में सबसे पीछे बैठे हम बड़ी मुश्किल से 'ऊंचाई और दूरी' तय करते थे, और वो बड़ी आसानी से 'हाईट एण्ड डिस्टेंस' मेंटेन कर लेती थी।
लेकिन कुछ भी हो दुनियादारी के गणित में तेज़ थे हम। किसी सवाल के गलत होने पर अकेले पिटाए हों, ऐसा हुआ ही नहीं। माट्साहब जैसे ही पहला थप्पड़ लगाते तुरंत हमारे मुँह से निकलता - 'सर जी यही सवलिया मुकेश को भी नहीं आता है' । और साथ-साथ मुकेश, अजीत, और राकेश को मिलाकर दर्जन भर लड़कों का कंधा रोने के लिए आसानी से मिल जाता था।
        वो भी दिसंबर का आखिरी सप्ताह था जब उसने नये साल वाला ग्रीटिंग कार्ड देना चाहा था, लेकिन हमने साफ मना कर दिया। उसकी कजरारी आँखों की बूंदों ने सवाल किया था - क्यों?
हमने भी कह ही दिया - देख भाई तुम ठहरी गणित में तेज़ और हम दोस्ती या दुश्मनी बराबरी वालों से ही करते हैं।
वो ग्रीटिंग कार्ड लेकर चली गई और उस दिन पहली बार उस नाजुक सी लड़की से कोई सवाल गलत हुआ था।और उसकी कोमल हथेलियों पर पहली बार ही दो छड़ियों की मार पड़ी थी। वो कहते हैं न कि - 'आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक' ... हाँ ! उसने तब तक गणित में सवाल गलत किए और मार खाती रही, जब तक हमने ग्रीटिंग कार्ड ले नहीं लिया। वो संगीत का स्वर्ण युग था और शायद मुहब्बत का भी।
लड़के लड़कियाँ आज भी वही हैं सीने में कमबख्त दिल आज भी वही है लेकिन मेयआर बदल गए हैं संगीत के भी और मुहब्बत के भी। तब गाने के एक-एक उतार-चढ़ाव पर हृदय की गति बढ़ती-घटती थी। अब पता ही नहीं चलता कि गाने वाला मर्दाना है या जनाना... या बाखुदा कोई दरमयाना। तब मुहब्बत में टूटे हुए लोग शाइर होते थे और उनका ग़म, ग़मे जानां से ग़मे दौरां तक गमगीन कर देता था । अब के मुहब्बत में टूटे हुए लोग ब्रेकअप पार्टी सेलिब्रेट करते हैं।
तब मुहब्बत में आशना हुआ दिल कयामत तक खत के जवाब का इंतजार करता था और आज फोर जी के जमाने में इतनी फुरसत कहाँ? और भी गम हैं न, जमाने में मुहब्बत के सिवा। तब लगता था कि 'हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह' ... सुनते हुए जैसे वक्त ठहर गया हो।अब न कोई शहर अनजान है न कोई मुसाफिर। आज व्हाट्स ऐप और फेसबुक ने शहरों की दूरियाँ घटा दी हैं, लेकिन दिलों का फासला बढ़ता जा रहा है। अब लोग खुद के वजूद को खुद में ढूंढते हैं मुसाफिर की तरह।
      कुछ दिनों पहले हमारे एक प्राध्यापक मित्र का फोन आया था - असित भाई मेरा लड़का फ्रस्ट्रेशन में है थालियाँ गिलास पटकता है, चिल्लाता है छोटी सी बात पर उसका धैर्य जवाब दे जाता है। छोटी को पीट देता है कल तो एलसीडी टीवी ही तोड़ दिया उसने। डॉक्टर ने अल्प्राॅजोलिएम टैब्लेट दिया है। क्या किया जाए?
मुझे कुछ दिनों पहले की बात याद आई हमारे एक मित्र ने कान में इयर फोन ठूंस कर कहा था असित भाई इस गाने को पूरा सुनिए।
गाना क्या था बस लोगों की भीड़ चिल्ला रही थी उसमें एक पतली सी आवाज सबसे तेज़। थालियों और गिलास पटकने जैसी आवाज में वाद्य यंत्र। सब कुछ जैसे बहुत तेज़ी से भागा जा रहा हो गायिका भी उसकी आवाज़ भी। हाई वे पर दौड़ रहे सैकड़ों ट्रकों के बीच में जैसे हम अकेले हो गए हों। घबराहट और बेचैनी होने लगी। दो मिनट में ही पसीने-पसीने होकर हमने इयर फोन निकाल दिया।
दरअसल हमने संगीत और साहित्य की ताकत को समझा ही नहीं। जिस तरह का पाॅप व राॅक्स संगीत और यूरोपियन साहित्य बात-बात पर हमें सुनाया और पढ़ाया जा रहा है, वह दिन दूर नहीं जब पश्चिमी देशों की तरह हम भी पागल और फ्रस्ट्रेड संतानों को जन्म देने लगेंगे। मैं पश्चिमीकरण के खिलाफ नहीं रहन सहन वेशभूषा तकनीकी जो चाहे वह पश्चिम का लागू कर दिया जाए लेकिन बस संगीत और साहित्य भारतीय रहे।
हमने उन प्राध्यापक मित्र से पूछा - सर प्रसाद जी को जानते हैं?
उन्होंने कहा - डाॅक्टर प्रसाद न? हाँ, हाँ उनकी फीस बहुत मंहगी है। ठीक है उन्हें ही दिखाता हूँ।
हमें हँसी आई और हमने कहा - सर प्रसाद जी को डाॅक्टरेट देने वाली यूनिवर्सिटी अभी तक खुली ही नहीं और उनकी सबसे मंहगी दवाई 'कामायनी' आज भी तीस रुपये की मिलती है।
सर ने कहा - कमाल है यार मैं डाॅक्टरों और दवाइयों की बात कर रहा हूँ और तुम साहित्यकारों और कविता कहानियों की बात कर रहे हो।
          देखिए हमें यह समझना होगा कि दवाइयाँ सुस्त करती हैं और संगीत या साहित्य शान्त। अब तय यह करना है कि हमें सुस्ती की तलाश है या शान्ति की? हम जानना ही नहीं चाहते भारतीय संगीत का उज्ज्वलतम पक्ष है उसका राग। उसकी गीतात्मकता और उसकी छंदबद्धता। दीपक राग पर बुझे दीपक जल जाते थे राग मल्हार पर बादल भी आकाश में उमड़ पड़ते थे। यह कहानी जैसा लगता है सुनने में। आज भी हमारे यहाँ मृतक के सिरहाने बैठ कर श्रीमद्भगवद्गीता या रामचरित मानस का पाठ किया जाता है। मेरी मत मानिए! आप किसी डॉक्टर से पूछिएगा मृत्यु के बाद आठ घंटे तक आँखें जीवित रहती हैं और बारह घंटे तक मृतक शरीर ध्वनि ग्रहण कर सकता है। लेकिन सामान्य ध्वनि नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ राग। इसीलिए सनातन धर्म में मृतकों को गीता रामायण गाकर सुनाए जाते हैं। संभव है हमारे शब्द उस मृतक के हृदय तक न पहुँच पाते हों लेकिन राग तो जरुर पहुंचते होंगे क्योंकि राग शब्द रहित है।
             एक घटना याद आती है तीन साल पहले सारनाथ जाना हुआ था वहाँ बेल्जियम देश की एक लड़की घूम रही थी और इधर उधर दौड़ रहे बच्चों की फोटो शूट कर रही थी। वो चहकती हुई नवयौवना पहली नजर में ही बहुत अच्छी लगी। सारनाथ के स्तूप पर लोग सफेद रुमाल में सिक्के बाँधकर फेंकते हैं। उसके फेंके हुए सिक्के थोड़ी ऊंचाई से ही लौट आते थे और उसका पुरुष मित्र बड़ी ऊंचाई तक रुमाल फेंक कर हँस रहा था।
इधर हम ठहरे शत प्रतिशत गंवई होमोसेपीयंस। हमारे गाँव में कोई आम इमली का ऐसा पेड़ नहीं जिसकी ऊंची डाल तक हमारे पत्थर न पहुंचे हों। हमने उस विदेशी बाला के हाथों का रुमाल पहली बार में ही उस ऊंचाई तक फेंका जहाँ तक फेंकने के लिए उसके पुरुष मित्र को बलिया में जन्म लेना पड़ता।
लड़की खुशी से चिल्लाने लगी इधर हमने बलियाटिक परंपरानुसार बच्चों के नाम तक सोच डाले। वो लड़की कुछ देर तक हमारे साथ रही। उसकी हिंदी माशाअल्लाह थी और हम अंग्रेज़ी उतनी ही जानते थे जितने में बैंक, रेलवे, और स्कूल आदि का फार्म भर सकें। उसने मेरे साथ बैठकर गाना भी सुना एक इयर फोन उसके कान में एक मेरे कान में। मैंने कहा उससे कि अपनी आँखें बंद कर ले और सोचे कि कि किसी नदी के किनारे अकेले में बैठी है। फिर उसने मेरा गाना सुना चुपचाप। गाना खत्म हो गया वो शांत बैठी रही। कुछ था जो शब्दातीत वर्णनातीत होकर पिघल गया था उसके अंदर। फिर उसने ब्ल्यू ट्रुथ डिवाइस से मेरा गाना अपने मोबाइल फोन में ट्रांसफर किया और हाथ मिलाकर चली गई।उसका पुरुष मित्र तो गले मिलकर गया। मैंने देखा उस चहकती फुदकती लड़की की चाल में अब गंभीरता थी, एक अजीब सी शांति थी और गाना कौन सा था बता दें तो आप हँसने लगेंगे - तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो। क्या गम है जिसको छुपा रहे हो... जगजीत सिंह वाला।
बेल्जियम की लड़की के लिए उस गाने की भाषा, पंक्तियाँ, अलंकार मायने नहीं रखते थे वह तो उस राग पर शांत और निर्वेद हो गई जो ग़ज़लों और खास तौर पर जगजीत सिंह का प्राण तत्त्व है। यह राग और लय की शक्ति है जहाँ भाषा महत्त्व नहीं रखती। वैसे भी सबसे बलवती भाषा मौन की ही होती है यह अक्षर तो हमारे आपके बनाए हुए हैं।
हमने सोचने की जरूरत नहीं समझी कि ब्रह्म मुहूर्त में मद्धम आवाज में वीणा और सितार की ध्वनि कैसे एक शांत वातावरण तैयार कर देती है। राग भैरवी और राग केदारा चित्त की अस्थिरता को नियंत्रित करते हैं हमने जाना ही नहीं। कामायनी का अद्वैत दर्शन हमें कैसे नफरत के माहौल में प्रेम सिखाता है। महादेवी की काव्य पंक्तियाँ - "रहने दो अरे देव मेरे मिटने का अधिकार " पढ़ने वाला खुद को मिटा सकता है लेकिन दूसरों को... कभी नहीं।
मीरा की पंक्तियाँ 'सूली ऊपर सेज पिया की किस विधि मिलणा होए' कैसे हमारे अंदर मिलन की चाह भर देता है।
हम कब समझेंगे कि कूलर, फ्रिज, टीवी, मोटरकार, एसी और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की तरह ही जरूरी हैं पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, जाकिर हुसैन, पंत, प्रसाद, प्रेमचंद, मीरा, राबिया और निराला।
पहले की पढ़ी दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं -
जो चाहते हो दिलों पर हुकूमत करो।
मुहब्बत मुहब्बत बस मुहब्बत करो।।
       और मुहब्बत का रास्ता या तो संगीत से होकर जाता है या साहित्य से। इसलिए इस भौतिकवादी युग में कुछ समय मुहब्बत के लिए भी निकालिए। साहित्य और संगीत के लिए भी निकालिए। पढ़ा ही होगा आपने जायसी के पदमावत का उपसंहार खंड - मानुष प्रेम भयहुँ बैकुंठी। नाहीं त काह छार भई मूठी।।
मनुष्य का मनुष्य से प्रेम ही बैकुंठ है। नहीं तो एक न एक दिन 'मुट्ठी की राख' बनना ही है...।

असित कुमार मिश्र
बलिया

          

Monday, November 28, 2016

तन मोरा अदहन मन मोरा चाउर....

इधर दिन, दिन पर दिन समाजवाद की तरह सिमटता जा रहा है,और रातें तो कमबख्त वामपंथ की तरह बदनाम हैं ही। इसलिए हम शाम की चर्चा करने लगे हैं आजकल। हालांकि शाम को भी शायरों ने कहीं का नहीं छोड़ा। ऐसे ही परसों की शाम अचानक प्रेमप्रकाश सर का फोन आया था उन्होंने बताया कि देवरिया आ रहा हूँ 'पूरब की माटी' वाले कार्यक्रम में।प्रेमप्रकाश सर बड़े संपादक हैं। बड़ा संपादक वह होता है जो तय कर ले कि भले ही पत्रिका में दस बीस पन्ने सादे रह जाएं, लेकिन बबुआ तुमको तो नहिए छापेंगे। इसीलिये युग चाहे भारतेन्दु का रहा हो या द्विवेदी जी का संपादकों और लेखकों में तलवारें चलती रहीं। वो तो भला हो साहित्य की कोमलता का कि ये तलवारें शाब्दिक ही होती हैं वर्ना हिंदी के लेखक संपादक 'मोहि पे हंसहुँ कि हंसहुँ कुम्हारा' की तर्ज पर कहीं न कहीं से दिव्यांग ही दिखते। हमने आश्चर्य से पूछा कि सर इस टाइल्स और संगमरमर के जमाने में भी माटी जिंदा है?
सर ने कहा - असित मालिनी अवस्थी को कभी सुना नहीं न! सुन लो एकबार।फिर बात होगी।
प्रस्ताव बुरा नहीं था लेकिन आदतन विरोध किया- श्रोता बनकर क्यों आऊं वक्ता बनकर क्यों नहीं आ सकता?
सर ने कहा - असित श्रोता बनना कठिन है वक्ता बनना आसान...।
वाह! क्या गजब की बात कही थी सर ने।मन ही मन प्रेम सर के कमलवत चरणों, चरणों पर चढ़े जूते - मोजे तक को प्रणाम किया। और तय किया कि इस कार्यक्रम में विशुद्ध श्रोता बनकर चलना है।
अब समस्या आई कि बलिया से देवरिया की इस यात्रा में सहचर किसे बनाया जाय ? अजीब विडंबना है 'जीवन-यात्रा' में सैकड़ों लोग शामिल होते हैं लेकिन 'माटी-यात्रा' में...। खैर गाँव के ही हिंदी-अध्यापक अशोक जी सहचर सिद्ध हुए। तय हुआ कि देवरिया में मात्र अध्यापक भाई शैलेंद्र द्विवेदी जी को सूचित किया जाए। चूंकि मैं श्रोता के रूप में आ रहा था इसलिए अन्य मित्रों को तकलीफ न दे सका।
       बलिया की सीमा पार करते ही मन बिदा हो रही बेटी की तरह बोझिल हो जाता है। लेकिन देवरिया पहुंचने की खुशी इस दुख पर भारी पड़ी। देवरिया,  देवरहवा बाबा की भूमि है, बाबा राघवदास की भूमि है। देवरिया कुट्टीचातन 'अज्ञेय' की भूमि है। मैंने मन ही मन दोनों देवर्षियों को प्रणाम किया। तथा प्रयोगवादी कवि अज्ञेय का स्मरण। अज्ञेय जी ने तीन शादियाँ की थीं संतोषी जी से, कपिला मलिक से फिर प्रसिद्ध उद्योगपति डालमिया की पुत्री इला डालमिया से।और इधर एक हमारी जिंदगी है एकदम से 'पंत' टाइप।
देवरिया पहुँचते ही पहली नजर पड़ी दर्शक-दीर्घा में पंडित तारकेश्वर मिश्र 'राही जी' पर। भोजपुरी में लव कुश खंडकाव्य लिखने वाले पंडित जी जिन्हें प्रोफेसर नामवर सिंह ने 'भोजपुरी का तुलसी' कहा है। मैंने पैर छूकर कहा - गुरुजी प्रणाम। पंडित जी ने कहा - ओ हो हो हो। आवऽ आवऽ बइठऽ। का हालचाल बा?
हम लोग भोजपुरी में एक दो कहानियाँ - गीत लिखकर सीधे भिखारी ठाकुर से अपनी तुलना करने लगते हैं और यह भोजपुरी का वाहक इतना विनम्र इतनी सहजता! कहाँ से आई? जैसे प्रेमप्रकाश सर ने कानों में कहा हो - असित माटी से जीवनी लेना। मैंने देखा पंडित जी दोनों पैर माटी पर टिकाए मुझसे बात कर रहे हैं। अच्छा तो माटी का यह गुण है और पंडित जी माटी से जुड़े हैं।
         दूसरे दौर में प्रेम सर से मिलना हुआ। बड़े प्रेम से मिलते हैं प्रेम सर एकदम बाँहों में भर लेते हैं जैसे "रेलिया बैरन पिया को लियो आए रे" और प्लेटफॉर्म पर उतरते ही विरहिणी नायिका, नायक को बाँहों में भर ले। सच कहूँ तो प्रेम सर से मिलने के बाद ही जाना जा सकता है कि चिर युवा श्री सलमान खान जी का नाम फिल्मों में अक्सर प्रेम ही क्यों होता है।
इधर दर्शक दीर्घा में जिलाधिकारी महोदया अनीता श्रीवास्तव जी भी आ गईं थीं और मंच पर कोई मखमली आवाज तैर रही थी - ऐ मेरे वतन के लोगों... गजब की जादुई और सम्मोहित करने वाली आवाज थी उन गायिका की। लेकिन डेढ़ घंटे बाद भी मालिनी अवस्थी जी की कोई सूचना नहीं मिल रही थी। हार थक कर मैंने फोन किया लेकिन मालिनी अवस्थी जी ने फोन उठाया ही नहीं।
मन ही मन तय कर लिया कि कल से उन्हें मैसेंजर और व्हाट्स ऐप पर 'हर-हर महादेव, जय महाकाल, सुप्रभात, वाले मैसेजेज भेज-भेज कर परेशान करुंगा। लेकिन दूसरी बार तुरंत फोन उठा मैंने गुस्से में कहा - नाम भी बताना पड़ेगा? अब तो फोन भी नहीं उठता!
उधर से आवाज आई- अरे ना हो। मुंबई से आवत बानीं देवरिया। सुनाइल हऽ ना। तूं बतावऽ? का हालचाल बा?
मैंने कहा कि - दीदी मैं भी आया हूँ देवरिया।
मालिनी दीदी ने कहा - अच्छा आयोजकों को बताया क्यों नहीं कि तुम आ रहे हो? कहाँ हो? बाहर बहुत ठंड है स्वेटर पहने हो न? कार्यक्रम के बाद खाना साथ ही खाया जाएगा ठीक न?
मुझे समझ में नहीं आया कि कहूँ क्या? मैंने कहा - दीदी आज मैं श्रोता हूँ बस आपका। इधर प्रेम सर हँस रहे थे - बेटा माटी है यह। माँ की तरह ही ख्याल रखेगी अपने छोटे से छोटे बच्चों का।
      धीरे-धीरे संगीत संध्या का कार्यक्रम चरम पर पहुंचा जब मालिनी दीदी ने प्रसंग छेड़ा - एक चरवाहा दिन भर चार सूखी रोटियाँ खाकर दिन बिता रहा है जंगल से लौटते समय एक यौवनावस्था नायिका को देखकर शरारती हो उठता है और कहता है -
भुखिया के मारी विरहा बिसरिगा भूलि गई कजरी कबीर।
देखि के गोरी के मोहनी मुरतिया उठे ला करेजवा में पीर।।
नायिका भी कम चतुर और रसिक नहीं है वो बड़ी अदा से कहती है - मुझे क्या तुम बिना खाए पिए रहो। मैंने अपने प्रिय के भोजन के लिए ऐसा उपाय किया है जो कोई सोच भी नहीं सकता-
तन मोरा अदहन, मन मोरा चाउर
नयनवां मूँग के दाल
अपने बलम के जेवना जेंवइबे बिनु अदहन बिनु आग।
यही लोकगीत है। जिसका भाव समर्पण है और भूख प्रेम। इस अवस्था में नायक, नायक नहीं होता नायिका, नायिका नहीं होती। आत्मा-परमात्मा में भेद नहीं होता। कोई द्वैत नहीं बस एक, एकाकार, एकमेव। तन ही अदहन बन जाता है और मन ही चावल। जब तक 'लाली' को खोजने वाला 'लाल' खुद लाली न हो जाए, तब तक समर्पण कैसा! मुहब्बत कैसी! चाहना कैसी!
मैंने देखा मालिनी दीदी मंच से उतर कर दर्शक दीर्घा में आ गई हैं गाते-गाते। माथे की टिकुली कहीं गिर गई है, हाथ लय के उतार-चढ़ाव पर काँप रहे हैं...
अब कोई अंतर ही नहीं है मंच और दर्शक दीर्घा में। नायक-नायिका में आत्मा परमात्मा में। लोक ही मंच बन गया है गायिका श्रोता बन गई है श्रोता गायक। जरुर ऐसी ही परिस्थितियों में तुलसी ने रचा होगा - सियाराममय सब जग जानी। पूरा जगत ही सियाराममय हो गया है पूरी सभा ही मालिनी अवस्थी बन गई है और मालिनी अवस्थी ही पूरी सभा। मैंने बगल में बैठे त्रिपाठी सूर्य प्रकाश सर को देखा फिर प्रेम सर को देखा। दोनों लोग जैसे सम्मोहित! यही क्या सभी सम्मोहित।
मैंने प्रेम सर से पूछा - सर क्या है यह?
प्रेम सर ने कहा - माटी। यही तो है माटी जो हमें जोड़े रखती है लोक से लोकगीत से लोकमंच से और आखिर में लोकमंगल से।
           अंत में पुष्कर भैया दिखे। एकदम सद्यस्नात नायक की तरह (जब सद्यस्नात नायिका हो सकती है तो नायक क्यों नहीं) गोरे इतने कि फोटो में उतनी जगह सफेद ही आए जितने में भइया खड़े हो जाएं। देखते ही बोले - अरे तुम कहाँ थे असित? मेरे मुँह से निकला मंच पर... नहीं नहीं दर्शक दीर्घा में। खैर दोनों तो एक ही है।
प्रेम सर हँस रहे हैं - लो बेटा चढ़ गया है रंग माटी का।
सीढ़ियाँ उतरते ही भीड़ ने घेर लिया है अपनी गायिका को। कोई फोटो कोई आटोग्राफ कोई कुछ। सबसे मिलने जुलने के क्रम में भी मेरा ख्याल अपनी जगह। मुझे दिखा कर किसी से कहा - उसे गाड़ी में बैठाकर मेरे साथ ले चलना।
आखिरी मुलाकात जिसे व्यक्तिगत कहना ही ठीक होगा।संगमरमरी फर्श वाले मंहगे से कमरे में एक तरफ बलिया के पंडित तारकेश्वर मिश्र राही जी दूसरी तरफ मैं और बलिया के बीच में मालिनी दीदी। राही जी कोई गीत सुना रहे थे हम सभी मंत्रमुग्ध सुन रहे थे। राही जी को विदा करते हुए मालिनी दीदी ने झुककर उनके पाँव की माटी को छुआ माथे से लगाया।यह एक कलाकार के द्वारा कलाकार का सम्मान है। यह एक तरफ पिता जैसे होने का मान है तो दूसरी तरफ़ पुत्री जैसी होने का गौरव। और बीच में मैं सोच रहा हूँ कि क्या हमारी पीढ़ी पाँव की इस माटी को माथे पर लगा सकेगी? या हमारे हिस्से में टाइल्स और संगमरमर ही आएंगे?
असित कुमार मिश्र
बलिया