चार दाने अक्षत के, कुछ दूब की पत्तियाँ और एक हल्दी की गाँठ, आँचल में बाँध कर विदा हो रही बेटी की रुलाई के साथ कुछ अस्फुट राग भी बनते हैं, कुछ स्वर लहरियाँ भी फूट पड़ती हैं, कुछ कविता सी रच जाती है अपने आप... उसे ही 'मुखरित संवेदनाएँ' कहते हैं।
प्रतीक्षारत प्रिया की दो आँखें जब प्रिय के दो कदमों की आहट सुन कर भाव-विह्वल हो उठती हैं तो आँखों की तरलता के साथ वियोग की कसक, सखियों के उलाहने और स्मृतियों में काटे गए पहाड़ जैसे हर क्षण नदी की तरह बह जाने के लिए जिन शब्दों का चुनाव करते हैं उसे ही 'मुखरित संवेदनाएँ' कहते हैं...।
ऐसे ही अनगिनत भावों भावनाओं और मुखरित संवेदनाओं की कवयित्री हैं किरण सिंह और इनके ही कविता संग्रह का नाम है - "मुखरित संवेदनाएँ"।
इस मुखौटों भरे परिवेश में जहाँ संबंधों से लेकर शब्दों तक आवरण में ही ढंका हो वहाँ 'निरावरण' होना जितने साहस और दु:साहस का काम है उससे भी अधिक कविता के लिए जरूरी भी। जिसने आवरण उतारा ही नहीं वह कवि कैसा! अपनी कविता में किरण सिंह कहतीं हैं -
हृदय की वेदना शब्दों में बंध
छलक आती है
अश्रुओं की तरह झर-झर कर
फिर चल पड़ती है लेखनी
आवरण उतार
लिखती है व्यथा
मेरी आत्मकथा।
'निरावरण' होने का तात्पर्य उच्छृंखल हो जाना नहीं है,अमर्यादित हो जाना नहीं है, अपने कर्त्तव्यों से मुँह मोड़ना नहीं है,तभी तो एक कविता भी कह पड़ती है -
प्रतिस्पर्धा पुरुषों से कर के
अस्तित्व तेरा कम हो न कहीं
अधिकार के खातिर लड़ो मगर
भूलो न कर्त्तव्य कहीं।
अगर जन कवि 'धूमिल' की इन पंक्तियों को कविता का मापदंड मान लिया जाए कि- "एक सही कविता पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है" तो कवयित्री ने उस दौर में अपनी सार्थकता सिद्ध की है 'जब लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है'। इसी सार्थकता के साथ सवाल भी करती है किरण सिंह की एक कविता -
कुण्ठित होती प्रतिभा लिखूँ
या बिकती हुई शिक्षा
बचपन का मर्दन लिखूँ
या सड़कों पर भिक्षुक भिक्षा
न्याय को तरसते अन्याय लिखूँ
या शीर्षक ही लिख दूँ पतिता
विषय बहुत हैं लिखने को
किस पर लिखूँ मैं कविता?
अपने समय के सरोकारों और रूढ़िवादी परंपराओं से टकराती हुई स्त्री और कविता की आँखों में झाँकना नदी के जल-दर्पण में अपना ही प्रतिबिम्ब देखना है। कविता जब प्रतिबिम्ब बनती है तो इसी तरह सवाल करती है -
आँखों में थे उसके अनेक
प्रश्न
जब बड़े चाव से गई थी वह
हल्दी के रस्म में
और सास ने कहा
रुको
सुहागिनों के लिए है
यह रस्म।
इस उपभोक्तावादी संस्कृति और महानगरीय जीवन शैली में छूट जाती हैं अक्सर गाँव की पगडंडियाँ, पतंग, हाथों में लगी मेंहदी या चिट्ठीटँगना। विस्मृत हो जाती है चूल्हे की गरम आँच में सेंकी गयी वो नरम रोटियाँ और भूल जाता है बादलों या तितलियों के पीछे दौड़ना... न चाहते हुए भी जिंदगी बड़ा कर ही देती है हमें। लेकिन पटना जैसे महानगर में रह कर भी किरण सिंह ने मझौआँ जैसे गाँव को बखूबी जिया है... बस जिया ही नहीं है, बल्कि स्वाद भी लिया है और बखूबी वर्णन भी किया है जीवन के हर रंग का, हर उस विभाव का, अनुभाव का, संचारी भावों का, डोली का, कँहारो का, झूले का, संदेश लाए हुए कौए का।
इसलिए पढ़ने के साथ साथ जीना जरूरी सा लगता है इनकी कविताओं को...
कविता-संग्रह : मुखरित संवेदनाएँ
कवयित्री - किरण सिंह
वातायन मीडिया एण्ड पब्लिकेशन पटना
असित कुमार मिश्र
बलिया
No comments:
Post a Comment