Sunday, January 22, 2017

थोड़ी सी कमी रह जाती है

कुछ दिनों से इलाहाबाद में हूँ। इलाहाबाद के बारे में कुछ भी लिखना जैसे जलते हुए तवे पर उंगलियों से अपनी ही कहानी लिखना है। दो हज़ार से लेकर चार हज़ार रुपये तक के सिंगल से कमरे में सैकड़ों ख्वाब, हज़ारों किताबें और अनगिनत तमाम हो चुके रजिस्टरों के जोड़-तोड़ में कैसे जिंदगी बीतती है, ये यहाँ रहने वाला ही बता सकता है। यहाँ जब घर से भेजे गए पैसे पर इलाहाबाद भारी पड़ने लगता है तो किसी पार्टनर की तलाश की जाती है। अगर एक वाक्य में इलाहाबाद के बारे में कहना हो तो, हम कह सकते हैं कि जिंदगी जहाँ पार्टनरशिप में गुजरती है उस जगह का नाम है इलाहाबाद। हजारों बर्बाद हो चुकी ख्वाहिशात के बीच भी जो एक छोटी सी उम्मीद बची रहती है कि चलो 'यूपीपीएससी ना सही एसएससी ही सही' इसी को इलाहाबाद कहते हैं। और इस सूत्र वचन को समझाने वाला जीव ही पार्टनर होता है। मतलब हर चीज यहाँ पार्टनरशिप पर ही टिकी हुई है। दो साथ में रहने वाले लड़के बस रुम पार्टनर या बेड पार्टनर ही नहीं होते बल्कि वो सब्जी के थैले से लेकर छोटके खाली सिलेंडर को भी दोनों ओर से पार्टनरशिप में पकड़े हुए ही चलते हैं। भले ही सामने से आ रही कोई आंटी जी बीच में पड़ कर टकरा जाएँ लेकिन सिलेंडर वाली यह पार्टनरशिप टूटती नहीं।
समय के साथ-साथ इस पार्टनरशिप की गहराई, लड़कों की लंबाई और घर वालों के उम्मीदों का आयतन बढ़ता जाता है। एक समय ऐसा भी आता है जब रोते हुए छपरा के मुकेश को आजमगढ़ का सोनू चुप कराते हुए कहता है कि - भाई चुप हो जाओ, देख लेना 'वो' कभी खुश नहीं रहेगी...।
हालांकि है तो यह बद्दुआ ही। लेकिन जो सूकून मुकेश को इस बात का असर होते हुए सोचकर मिलता है, वह सूकून तो कभी प्रतिभवा भी उसे न दे सकी थी। उधर सोनू का कलेजा भी कुछ दिनों तक शंकर पान भंडार वाले के यहाँ बजते हुए गाने - 'इक ऐसी लड़की थी जिसे मैं प्यार करता था' को सुन कर आहें भरने लगता है जैसे प्रतिभवा से मुहब्बत में भी उसकी पार्टनरशिप रही हो।
          लेकिन कुछ पार्टनरशिप की उम्र यूपीपीएससी की तैयारी कर रहे लड़कों की जवानी जैसी होती है। कम्बख्त कब ख़त्म हो जाए पता ही नहीं चलता। साथ- साथ खाने वाले, साथ-साथ सोने वाले, दो पार्टनर में से एक कब अल्लापुर से निकल कर छोटा बघाड़ा में किसी और का पार्टनर बन जाता है, यह भी पता नहीं चलता। फिर किसी दिन अचानक अल्लापुर के राजू बुक डिपो पर कोई समसामयिकी खरीदने में दोनों टकराते हैं। साथ बिताई हुई रातों की करवटें और साथ-साथ ढोए गए खाली सिलेंडर की बची हुई थोड़ी सी गैस, एक छोटी सी मुस्कान में तब्दील हो कर होठों पर फैल जाती है। जिसका मतलब होता है कि - का हो ससुर मजा आवत हौ न अब अकेले बर्तन मांजते हुए...।
दूसरी तरफ का लड़का भी उसी अदा से एक रहस्यमयी मुस्कान उछालता है जिसका मतलब है कि - हाँ ससुर तुम्हारे इहाँ से अच्छे हाल में ही हूँ।
इस तरह दो बिछुड़े हुए पार्टनर जिंदगी के किसी मोड़ पर दुबारा मिल कर 'नैनन ही सों बात' कर लेते हैं।
           इलाहाबाद की संस्कृति में अकेले इलाहाबाद नहीं, इसमें बलिया बनारस छपरा आजमगढ़ समेत अनेक जिलों और प्रांतों की बोलियाँ, रूप और ख्वाब ठीक वैसे ही मिले रहते हैं जैसे चावल में कंकड़। जो लाख बीन कर निकालने के बाद भी किसी न किसी दाँत के नीचे आकर बता ही देता है कि- बेटा इलाहाबादी चावल और यूपीपीएससी को थोड़ा ध्यान से... बूझे कि नहीं!
इलाहाबाद में लडकों की आर्थिक स्थिति के बारे में पूछा नहीं जाता। बस उनकी रहने वाली जगहों से अपने आप पता चल जाता है और सीनियर्स इसी आधार पर जूनियर को सलाह भी देते हैं। जैसे एक जगह एक लड़के से सवाल हुआ - कहाँ रहते हो?
जवाब मिलता है अल्लापुर में।
तुरंत धमकी मिलती है - मेहनत करो बेटा ये जो कप में चाय लिए स्टाइल मार रहे हो न, इसकी कीमत घरवाले जानते होंगे तुम नहीं।
दूसरी जगह दूसरे लड़के से वही सवाल - कहाँ रहते हो?
जवाब मिलता है- सलोरी में।
धमकी की जगह तुरंत सलाह आ जाती है - चाय के साथ-साथ पढ़ना भी जरूरी है दोस्त।
तीसरी जगह तीसरे लड़के से वही सवाल - कहाँ रहते हो?
जवाब मिलता है - कटरा में।
सलाह तुरंत फीकी हँसी में बदल जाती है और कहा जाता है कि भाई आप अरबपति लोग न भी पढ़ो तो क्या फर्क पड़ता है। है कि नहीं...।
          इस तरह बिना बताए ही पता चल जाता है कि कौन गरीबी रेखा से नीचे वाला है और कौन मध्यमवर्गीय तथा कौन अमीर परिवार का।
         सांस्कृतिक रूप से इलाहाबाद का सबसे पवित्र महीना है माघ। लेकिन यूपी-बिहार की संस्कृति से लड़कर यूपीपीएससी से दो-दो हाथ करने आए लड़कों के लिए सबसे दुर्दिन का महीना यही है। इसी महीने में गाँव के किसी चाचा या काका का अनचाहा फोन आता है - हैलो.... हैलो!! दीनानाथ बाबू बोल रहे हो न?
दीनानाथ ने इलाहाबाद उतरते ही जो पहला काम किया था वो यही कि इस गँवई और ओल्ड माॅडल नाम दीनानाथ से 'डिनो' हो गए थे। लेकिन ये गाँव-घर वाले आज भी दीनानाथ ही कहते थे।
इतनी ही देर में पाँच बार 'हैलो-हैलो' हो गया। खीझ कर कहते हैं दीनानाथ - हाँ कहिए कौन सर बोल रहे हैं आप?
उधर से खुशी भरी आवाज़ आती है - एकदम अफसर जैसा बोलने लगे हो बबुआ। अरे हम रामाशंकर शुकुल बोल रहे हैं। पहचाने कि नहीं! अरे आचार्य जी हैं न हम। ना चाहते हुए भी दीनानाथ के मुँह से निकलता है - चाचा जी परनाम।
अब आचार्य जी व्यग्रता से पूछते हैं - इलाहाबाद में कहाँ रहते हो बबुआ?
दीनानाथ का मन हुआ कि कह दें हम एमपीपीएससी देने आए हैं लेकिन कसमसा कर कहते हैं - प्रयाग में रहता हूँ।
अब भक्ति-भावना में नासिका तक डूबकर आचार्य जी गदगद स्वर में कहते हैं - आ हा हा हा! जानते हो बबुआ, प्रयाग का नाम प्रयाग क्यों पड़ा था?
लीजिए! यह सवाल तो यूपीपीएससी के सेलेबस में है ही नहीं....
लेकिन आचार्य जी खुद ही बोल पड़ते हैं, अत्र ब्रह्मण प्रकृष्टयागकरणात् अस्य नाम प्रयाग: अभवत्।
दीनानाथ कहते हैं - चाचा जी साफ साफ कहिए बात क्या है?
आचार्य जी कहते हैं - बबुआ अबकी माघ में स्नान करने के लिए आ रहे हैं हम। तुम्हारी चाची भी हैं साथ में। बस सुबह स्नान करा देना। जानते हो बबुआ गंगा यमुनयो: संगमे सितासितजले स्नात्वा जना: विगतकल्मषा भवन्ति.... ।
दीनानाथ बाबू कपार पीट लेते हैं। इनका बस चलता तो संगम को ले जाकर बिहार बार्डर पर कर आते और कहते कि लीजिए चचा 'विगतकल्मषा' होते रहिए।
        रुम कहे जाने वाले बारह बाई चौदह साइज़ के कैदखाने की आठ वाॅट के सीएफएल की दूधिया रोशनी से निकलकर इस कोचिंग से उस कोचिंग तक ही दिन कब बीत जाता है, कुछ पता ही नहीं चलता। हाँ! रात होने से पहले शाम को एक बार मोबाइल के एफ एम पर एक प्यारी सी नज़्म उभरती है, निदा फाज़ली की। जिसे सुनकर अल्लापुर के किसी रुम में बैठे मुकेश-सोनू या प्रयाग में चाचा चाची के लिए सब्जी काट रहे दीनानाथ शुकुल हों या फिर किसी गर्ल्स हाॅस्टल के कमरे में अधलेटी प्रतिभवा ही नहीं आधा इलाहाबाद उदास हो उठता है -
हर कविता मुकम्मल होती है
लेकिन वो कलम से, कागज़ पर जब आती है
थोड़ी सी कमी रह जाती है।
हर प्रीत मुकम्मल होती है
लेकिन वो गगन से, धरती पर जब आती है
थोड़ी सी कमी रह जाती है।
हर जीत मुकम्मल होती है
सरहद से वो लेकिन, आँगन में जब आती है
थोड़ी सी कमी रह जाती है।
फिर कविता नई
फिर प्रीत नई
फिर जीत नई.... बहलाती है
हर बार मगर लगता है यूं ही
थोड़ी सी कमी रह जाती है....

असित कुमार मिश्र
बलिया

No comments:

Post a Comment