Monday, January 23, 2017

जनता क्या है? ....

टूटे हुए दिल का राजनीति शास्त्र ....

दौर चाहे मीर का रहा हो या गालिब का, फिराक का रहा हो या नवाज़ साहब का। गवाह हैं आशिक-ओ-माशूक के वो नखरे, वो अदाएँ , कि दिल पर कुछ भी लिखने का काॅपीराइट इन शायरी लिखने वालों के पास ही रहा है। और इन शायरीबाज़ लोगों ने दिल के साथ बहुत नाइन्साफ़ी की। जिस दिल से सैकड़ों-हज़ारों तरह के और भी काम लिए जा सकते थे, उस दिल से, इन लोगों ने बस मेहबूब की याद में तड़पने का काम लिया। कुछ फारसीदां लोगों ने तो दिल से आहें भी भरवाईं। हालाँकि दिल ने बेरुखी से कहा भी कि - मियाँ! कुछ 'काॅमन सेंस' भी लगा लिया करो ये आहें भरने का काम फेफड़े का होता है, दिल का नहीं। अब कल को हमीं से हाज़त रफ़ा भी न कराने लगना...।
              गुजरते वक्त के साथ आशिकों के तौर-तरीके बदल गए। इधर मुहब्बत ने भी अपने उसूल और मेयआर बदल लिए। अब मुहब्बत की पैमाइश साथ जीने मरने के वादों-इरादों और खून भरे खतूत से नहीं, रिचार्ज कराए गए बैलेंस से होने लगी है। नाज़नीनों की उंगलियाँ गुलाबी कागज़ पर अब मिलन की दुश्वारियाँ, जमाने के सितम और रिवाज़ों की बंदिशें बयां नहीं करतीं बल्कि व्हाट्सऐप पर वाॅइस मेल भेज देतीं हैं।सब कुछ आसान सा हो गया है। इसीलिए अब मुहब्बत में टूटने से दिल ने भी साफ मना कर दिया है। बहुत हुआ तो आशिक ने दो - चार बार म्यूजिक प्लेयर पर वो गाना सुन कर अपना गम गलत कर लिया कि - मुहब्बत अब तिज़ारत (व्यवसाय) बन गई है...।
        लेकिन तिज़ारत भी अब आसां कहाँ रह गई! इधर जबसे जमाना 'कैशलेस' का हुआ है, हर 'लेन-देन' की रसीद माँगी जानी लगी है। कल तक जो लेना-देना बस निगाहों के दो-चार इशारे से मुकम्मल मान लिया जाता था, अब वहाँ भी किसी लैला को मजनू से कहना पड़ रहा है - 'लिख के दो कि अपना दिल मुझे दे रहे हो'।
मुहब्बत के इन नये तौर-तरीकों से नावाकिफ़ मजनू चिढ़ कर कहता है - लिख कर ही क्या, कहो तो 'नाॅमिनी' भी तय कर लें।
अब बड़े नाज़-ओ-अदा से जींस की जेब में हाथ डालते हुए लैला कहती हैं - बड़े नादान हो जी... इतना भी नहीं जानते कि मुहब्बत में कोई नाॅमिनी नहीं होता....।
          अब कस्में वादे तहजीब रवायतें इरादे ही नहीं दिल भी सियासी हो गए हैं। इधर दिल की फितरत ही है टूटना। वो कहा भी है न कि -'शीशा हो या दिल हो आखिर टूट जाता है'। लेकिन मुसीबत यह कि कम्बख्त दिल टूटे तो टूटे कहाँ!  मुहब्बत में टूटने से तो रहा। इसलिए अब दिल सियासत में टूटते हैं। कल रात तक जो बलियाटिक वज़ीर समाजवाद से शदीद मुहब्बत करते थे वही टिकट कट जाने पर 'समाजवादी पार्टी बेवफा है' कह रहे हैं। जो दिल ना कभी मुहब्बत में टूटा था, ना कभी तिज़ारत में। उस मजबूत दिल को इस नामुराद सियासत ने तोड़ दिया। कितनी हसरत थी उन्हें जनता की सेवा करने की। बलिया को स्वर्ग बना देने के लिए कमर कस कर एकदम तैयार थे। तब तक वज़ीरेआला ने टिकट ही काट दिया। उफ़! शीशे का प्लास्टिक का क्या, ग्रेफाइट का भी दिल होता तो कम्बख्त टूट ही जाता।
ऐसे तमाम वज़ीर और उनके साथ सैकड़ों हजारों प्यादे, टूटा हुआ दिल लेकर कभी इस सियासी पार्टी से मुहब्बत कर रहे हैं तो कभी उस सियासी पार्टी से।
जो कल तक दलितों और मुसलमानों के मसीहा बने तकरीरें करते थे, जैसे ही सियासी पार्टी ने टिकट काटा वैसे ही वो किसी भी तरह कुर्सी पाने के लिए गौ और गंगा की आवाज़ बने घूमने लगे। जो दो साल पहले से कमल के फूल पर भँवरा बने मंडरा रहे थे वो टिकट न मिलने पर अपना अलग गुल खिलाने में लग गए। जो नित्य प्रातः स्मरण मंत्र की तरह 'पार्टी के प्रति निष्ठा' का जाप करते थे, वो टिकट न मिलने पर 'निर्दल' ही जनता की सेवा करने के लिए 'व्याकुल भारत' बने हुए हैं। एक सियासतदां बसपा से विधायक रहे पिछली बार। इस बार भाजपा के टिकट की दौड़ में सबसे आगे हैं। क्योंकि बसपा से दिल टूट गया है न!
कल तक मोदी जी को चोर कहते रहे और मायावती जी मुस्कुराती रहीं। अब से मायावती जी को कहने लगेंगे और मोदी जी मुस्कुराएंगे। परसों जैसे ही भाजपा से दिल टूटा कि फिर मायावती जी से मिल कर मुलायम जी को चोर कहेंगे।उधर मोदी जी और मायावती जी दोनों मिलकर मुस्कुराएंगे....
आप सोचते हैं कि क्या है यह? 
जनाब! यही तो 'टूटे हुए दिल का राजनीति शास्त्र' है।
आप पूछेंगे - और जनता?
मैं क्या कहूँ! 'धूमिल' ने तो कहा ही है -

जनता क्या है?
एक भेड़ है
जो दूसरों की ठंड के लिए
अपनी पीठ पर
ऊन की फसल ढो रही है....

असित कुमार मिश्र
बलिया
        

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