Monday, January 30, 2017

पर्दे के पीछे का कालिदास

परभुनाथ चचा परसों एकदम खिसियाए हुए आए थे दुआर पर। देखते ही कहने लगे - तुमको कुछ खबर है भी? हमारे इतिहास और संस्कृति के साथ छेड़छाड़ किया जा रहा है? कुछ लिखोगे इस पर?
मैंने अपनी मजबूरी बताई कि चचा मैं इतिहास का विद्यार्थी कभी नहीं रहा। कुछ संदर्भ, व्याख्या, वृत्तांत गलत हो जाएगा। प्लीज़ माफ कीजिए। मैं बस हिंदी जानता हूँ वो भी थोड़ा-बहुत।
चचा एकदम फायर हो गए - जो रे असितवा! याद है कि नहीं "कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा"
मैंने बात बदलने की गरज से कहा था - ए चचा कल बलिया में 'आषाढ़ का एक दिन' नाटक का मंचन होना है। चलिए न बलिया घुमा लाएँ।
चचा ने बुरा सा मुँह बनाकर कहा - भक्क्! नाटक-रामलीला देखने का जमाना है अब? मोबाइल में "प्रेम रतन धन पायो" डाउनलोड कर रहे हैं उहे देखा जाएगा।
        अच्छा प्रेम रतन धन पायो से एक बात आ गयी। कुछ दिनों पहले बनारस गया था। स्टेशन पर अपने आप चलने वाली सीढ़ियों पर छह सात बार चढ़ने उतरने के बाद मैंने जैसे ही बैग उठाया था वैसे ही एक बहन जी ने पकड़ लिया। पहले तो थोड़ा डरे हम कि कहीं सीढ़ी पर चढ़ने उतरने का पैसा तो नहीं लग रहा था न!
लेकिन बहन जी ने पूछा कि असित कुमार मिश्र हो न? मुझे तो 'बाई गाॅड' तुम्हारा लिखा बहुत पसंद है। घर चलो न! यहीं पास ही में है। मेरी बेटी से मिल लो बहुत अच्छा गाती है। प्लीज चलो न....
दस मिनट बाद उनके घर में थे हम। उनकी आठ साल की बच्ची तो एकदम गुड़िया सी प्यारी और आवाज तो उसकी ऐसी कि बस प्यार हो जाए उससे। उसने जब गीत गाया - सैंया तू कमाल का, बातें भी कमाल की। लागा रंग जो तेरा, हुई मैं कमाल की। पायो रे पायो रे पायो रे प्रेम रतन धन पायो... बस सम्मोहित हुए बिना नहीं रह सका।
मैंने पूछा कि ऐसा ही एक भजन मीरा का भी है न? पायो जी मैंने राम रतन धन पायो। बच्ची ने हँसते हुए बताया कि नहीं अंकल जी ये 'प्रेम रतन धन पायो' मूवी का गाना है। सलमान और सोनम हैं इसमें।
मैं असमंजस में था मैंने बच्ची के पापा से पूछा कि मीरा वाला भजन याद है आपको? उन्होंने हँसते हुए कहा असित बाबू आप हिंदी वाले लोग भी न... अरे अब कहाँ वो भजन-कीर्तन का जमाना है! छोड़िए इन बातों को...
         हाँ! सच में छोड़िए इन बातों को।तो कल मैं पहुँच ही गया बापू भवन बलिया। जहाँ आषाढ़ के निगोड़े बादल बरस रहे थे और मतवाली हवा सर से पाँव तक भीग चुकी मल्लिका को जैसे उड़ा ले जाना चाहती थी लेकिन कालिदास के प्रेम में डूबती हुई आवाज उभरी - "मैंने भावना में एक भाव का वरण किया है"!
आह! मैं कह पाता मल्लिका से तो कहता कि, नहीं मल्लिका भावनाओं से खेलने वाले कवि भावनाओं को समझें भी यह जरूरी नहीं। कवि हृदय अतृप्त होता है और प्रेम चाहता है पूर्णता। तुम दो विपरीत ध्रुवों को मिलाना चाहती हो?
तभी अंबिका का प्रत्युत्तर - तुम जिसे भावना कहती हो वह केवल छलना और आत्मप्रवञ्चना है। भावना से जीवन की आवश्यकताएँ किस तरह पूरी होती हैं?
अद्भुत अभिनय! सच कहा अंबिके। आषाढ़ की वर्षा में इन उपत्यकाओं में दौड़ने वाली यह बावली अब प्रेम मार्ग पर दौड़ना चाहती है। मंदबुद्धि, नहीं जानती कि वन प्रांतरों और गहन उपत्यकाओं से भी पथरीला है प्रेम मार्ग। देखना कालिदास के प्रेम में सर्वस्व न्योछावर करने के बाद भी इसे कुछ प्रतिदान न मिलेगा...।
      सब कुछ जैसे मेरे भीतर ही घटता हुआ सा बीत रहा था।कहीं अनुस्वार और अनुनासिक के हास्य व्यापार पर न चाहते हुए भी हँसी आ गई तो विलोम ने अभिनय का शिखर छू लिया। जब अंत में कालिदास ने कहा कि - विलोम यहाँ से चले जाओ! तो जिस उपहास से विलोम ने पूछा - क्यों चला जाऊँ? इसलिए कि तुम आ गए हो... मन हुआ कि दौड़ कर गले लगा लूँ। आखिर विलोम है तो एक असफल कालिदास ही...।
            जा रहे हैं कालिदास। हताश! निराश! मल्लिका गोद में अपने शिशु को लेकर सिसक रही है। धीरे धीरे पर्दा गिर रह है मेरे आँसुओं के साथ साथ। कालिदास! मैंने पढ़ा है तुमको। आज साहित्य के नियमों से बद्ध नहीं होता तो तुम्हारे समग्र साहित्य पर मैं मल्लिका के उस ग्रंथ को प्रतिष्ठित कर देता जो श्वेत ही रह गया।जिस पर मल्लिका के अनगिनत आँसुओं की बूंदें गिरी हैं जिस पर मल्लिका ने तुम्हारी स्मृतियों में नाखून गड़ाए हैं। भाव विह्वल होकर जिसे दाँतों से काटा है... हाँ कालिदास तुम्हारे कुमारसंभवम् और रघुवंशमहाकाव्यम् पर मल्लिका के कोरे पन्नों वाला एक ही महाकाव्य भारी पड़ गया।हाँ कालिदास मल्लिका के उस महकाव्य को समझने के लिए काव्यशास्त्र और निघण्टु की आवश्यकता नहीं भावना का भाव से वरण करना होगा।जो तुमसे नहीं हो पाएगा... जाओ तुमसे नहीं हो पाएगा यह।
     पर्दा फिर उठ रहा है। क्या फिर आएंगे कालिदास? या विलोम के अभी व्यंग्य बाण शेष हैं? क्या होगा अब?  ओह! अब सभी कतारबद्ध होकर खड़े हैं। निर्देशक आशीष त्रिवेदी पात्र-परिचय करा रहे हैं - ये हैं कालिदास - अमित कुमार पाण्डेय। मल्लिका - स्मृति निधि। अंबिका - ट्विंकल गुप्ता। प्रियंगुमंजरी - सोनी। विलोम - आनंद कुमार चौहान। मातुल - सुनील। निक्षेप - चंदन भारद्वाज। अनुस्वार - अमित अनुनासिक - बसंत। संगीत - ओमप्रकाश और मंच परिकल्पना तथा निर्देशन - आशीष त्रिवेदी।
मैं अपने पात्रों को गौर से देख रहा हूँ। अचानक निर्देशक ने फीकी हँसी हँसते हुए कहा कि - '' यही कालिदास और मल्लिका अंबिका और विलोम जब इस मंचन के लिए लोगों से कुछ आर्थिक सहायता माँगने जाते हैं तो लोग तिरस्कृत और अपमानित करते हैं"।
         आह! तो ये है पर्दे के पीछे का कालिदास! जिसकी विद्वत्ता पर इन्हें कश्मीर की व्यवस्था का भार दिया जा रहा था? ये है मल्लिका की सच्चाई जिसके रूप सौंदर्य पर मैं कुछ क्षणों पूर्व मोहित था। यह है विलोम की सच्चाई जिसके सुस्पष्ट उच्चारण और तर्कों पर मैं इसे हृदय से लगा लेना चाहता था। ये अंबिका हैं जिनकी चरण धूलि माथे पर लगाना चाहता था...। यह मैं किसी दुनिया में हूँ?
       अचानक परभुनाथ चचा का फोन आ गया। मैंने पूछा - हाँ चचा बताइए।
चचा बोले - देखो बबुआ एगो फिल्म में कुछ बवाल की बात सुनाई दे रही है। थोड़ा फेसबुक पर आओ तो।
मैंने फेसबुक खोला पहली ही पोस्ट दिखी बनारस वाले भाई साहब की जिनकी लड़की गा रही थी प्रेम रतन धन पायो। 'वो तन चितउर मन राजा' बने पद्मावत के चौपाई पर चौपाई पोस्ट कर रहे थे। मैंने परभुनाथ चचा की पोस्ट देखी उन्होंने लिखा है कि अब एक "संस्कृति रक्षा व्हाटस ऐप ग्रुप" की सख्त जरूरत है।
मुझे हँसी आ गई। चचा ने खिसिया कर पूछा - 'मो पर हँसहू कि हँसो कुम्हारा'।
           मैं कैसे कहूँ कि किस पर हँसी आई। परसों चचा ने जो कहा था' कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी' इसमें "कुछ बात" क्या है? निश्चित ही हमारी संस्कृति हमारी भारतीयता। न जाने कितने लोग आए और हमारी संस्कृति में रच बस गए। हमारी परंपरा जो फिजी,मारीशस,सूरीनाम,त्रिनिदाद ही नहीं, अमेरिका में भी जाती है तो एक हिंदुस्तान बना देती है। तीन दिन किसी अंग्रेज़ के साथ एक बलिया वाले को रख दीजिए। बलिया वाले को अंग्रेजी आएगी कि नहीं इसकी गारंटी नहीं है लेकिन वो अंग्रेज़ जरूर सीख जाएगा कि - ए मरदे टेक युअर सीट।
ऐसी मीठी संस्कृति में जहर बोने वाले लोग हर क्षेत्र में हैं। फिल्म और मीडिया में तो अत्यधिक। जो लोग फिल्म को समाज का आइना कहते हैं वो भूल रहे हैं कि अब समाज फिल्मों का आइना बन गया है। चलिए आपसे पूछता हूँ कि 'प्रेम रतन धन पायो' कहते ही मीरा की स्मृति आई थी कि सोनम कपूर जी की? क्या हुआ मीरा गौण हो गईं और सोनम प्रधान। आश्चर्य कि हमें पता तक नहीं चला। कुछ दिनों पहले एक फिल्म आई थी गोलियों की रासलीला। आज भी समाचार पत्रों में खबर बनती है - खेत में 'रासलीला' करते दो धराए।
चलिए आपसे पूछता हूँ कि 'रासलीला' कहते ही मन में क्या आया? देखा आपने रासलीला जैसे शुद्ध आध्यात्मिक शब्द को जिसके बारे में श्री शुकदेवजी कहते हैं कि यह चिंतन प्रधान है अनुकरण प्रधान नहीं। इसे दैहिक वासना की पूर्ति से जोड़ दिया गया और हमें आभास तक नहीं हुआ।
चलिए आपसे पूछता हूँ कि पहले मैंने आपने(समाज ने) गजनी कट-तेरे नाम कट बाल रखे या आमिर-सलमान ने? पहले ये अजीब-अजीब ढंग के कटे फटे जींस मैंने पहने या किसी हीरो हीरोइन ने? जाहिर है आज के समाज को फिल्म ही बना रहा है। तब क्या उन पर नियंत्रण नहीं होना चाहिए? नियंत्रण छोड़िए आत्मबोध नहीं होना चाहिए! आखिर "लौंडिया पटाएंगें हम फेवीकोल से " में कौन सा दर्शन है मुझे जानना है। स्त्री की कौन सी छवि को दिखाने की कोशिश है यह?
आज हर कालेजिएट लड़की, लड़की नहीं आइटम और लौंडिया हो गई है। किसने बनाया - फिल्मी हीरो ने। जब वो कालेज के बाहर मोटर साइकिल पर उल्टा बैठे चार अजीब शक्ल वाले दोस्तों के साथ यही डायलॉग सुनाता है तो हमारी युवा पीढ़ी अनुकरण करती है।
बड़ी तेजी से हमारी संस्कृति और तहजीब को दूषित किया जा रहा है। दोष किसका है? मेरा आपका हमारा। वो कैसे? उनका काम है अंधकार फैलाना। तो हमको किसने रोक रखा है उजाला करने से। जिस तरह छोटी छोटी बातों से हमारी संस्कृति दूषित हो रही है उसी तरह छोटी छोटी बातों से ठीक भी हो सकती है। कुछ दिनों पहले मैं आजमगढ़ गया था श्रीमती अनीता सिंह जी से मिलना हुआ। मैंने उन्हें अपने कस्बे का बना हुआ गुलाब जल दिया था। उन्होंने पूछा था कि असित इसकी क्या जरूरत थी क्यों लाए इसे?
आज बता ही देता हूँ अब जब भी वो भी किसी सांप्रदायिक घटना पर पूरे मुसलमानों को कोसेंगी तो उन्हें याद आएगा कि असित ने जो गुलाब जल दिया था उसमें सिकन्दरपुर के मुसलमानों की खुश्बू है जो हमें मुहब्बत और अदब सिखाती है। अब आपसे पूछता हूँ कितने ऐसे लोग होंगे जो अपने जनपद की विशेष चीजें किताबें दूसरे जनपदों के लोगों को देते होंगे। कब समझेंगे हम कि यह वस्तु विनियम नहीं संस्कृति का आदान प्रदान है। हमारी संस्कृति ऐसे ही बढ़ी है और ऐसे ही बढ़ेगी।सैकड़ों हजारों तरीके हैं ऐसे ही जिनसे हमारी परंपरा समृद्ध हो सकती है।
        पता है आपको हमारी संस्कृति के सच्चे वाहक कौन होते हैं? रंगकर्मी। और वो किस हाल में हैं सोचा है कभी आपने? जिस 'आषाढ़ का एक दिन' नाटक का मंचन हुआ उसके निर्देशक की पीड़ा समझी आपने? आपकी गौरव गाथा के ध्वजवाहक कालिदास, आपकी मल्लिका किस हाल में हैं सोचा है कभी? नहीं न! तो संस्कृति और साहित्य पर व्याख्यान देने का अधिकार नहीं है आपको। आपके जनपद के साहित्यकार कौन है? रंगकर्मी कौन है? आपको पता ही नहीं। नाटकों रामलीलाओं के मंचन में आपकी रुचि ही नहीं और संस्कृति बचाने के लिए व्हाटस ऐप ग्रुप बना लिया! पर्दे के पीछे के कालिदास को गौर से देखिए उसके साथ खड़े होइए। मेरा दावा है कि हजारों दूषित मानसिकता वाली फिल्में और गाने भी हमारी संस्कृति को नष्ट नहीं कर सकते।
असित कुमार मिश्र
बलिया
         
          

       

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