Wednesday, February 1, 2017

खाओ तो विद्या माता की कसम

खाओ तो विद्या माता की कसम....
हो सकता है हम में से किसी ने कान्वेंट में पढ़ा हो, किसी ने विद्या मंदिर में, किसी ने मदरसे में या मेरी तरह सरकारी स्कूल में। हम सभी के स्कूल अलग-अलग, टीचर्स अलग-अलग, पाठ्यक्रम अलग-अलग, किताबें अलग-अलग। लेकिन एक चीज काॅमन थी।यही विद्या माता की कसम। जिसे कड़वी दवाई की तरह सबको घोंटना ही पड़ता था। मेरी जिंदगी में यह कसम आँधी-तूफान की तरह नहीं बसंती हवा के झोंके सा आया था।
       उस दिन हिंदी वाले मास्टर साहब नहीं आए थे। हम सभी क्लास में खाली पीरियड का सबसे महत्वपूर्ण काम कर रहे थे - शोरगुल। अगली घंटी इतिहास की, और जैसे ही अगले मास्टर साहब आए, संगीता ने कागज पर कुछ नाम लिखकर मास्टर साहब को दिया।
मास्टर साहब ने पूछा कि क्या है यह?
संगीता ने बताया - सर ये सभी लोग हल्ला मचा रहे थे।
मास्टर साहब ने नाम पुकारा - सुशील मनोज बंटी राकेश असित...
सहसा वज्रपात हो गया हम पर।हमारा नाम लिख कर देने की हिम्मत! अरे हम माॅनीटर हैं इस क्लास के।
और जब मास्टर साहब ने छड़ी मँगवाई तब एहसास हुआ कि माॅनीटर से बड़ा क्लास टीचर का पद होता है।
हमारी आँखों के सामने दोस्तों के हाथों पर छड़ियाँ गिर रहीं थीं। अगला नंबर हमारा था। हम गणित वाले मास्टर जी को छोड़कर( हमने भी कभी उनको मास्टर जी नहीं माना) सबके प्रिय थे। अपनी मासूमियत को आगे कर हमने कहा - माट्साहब! हम नहीं थे इन लड़कों में।
मास्टर साहब ने पूरी क्लास से पूछा - असितवा हल्ला नहीं कर रहा था जी?
लगभग सभी का जवाब नहीं में था और जिनके साथ मैं हल्ला कर रहा था वो चुप रह कर विरोध जता रहे थे।
यूं हम साफ़ बच कर निकल आने वाले थे, तभी संगीता खड़ी हो गई और उसने कहा - झुट्ठे!! खाओ तो विद्या माता की कसम!
            अजीब स्थिति थी। मन में आया कि कसम खा ही लें वैसे भी हम हल्ला गुल्ला नहीं कर रहे थे, बस बात ही तो कर रहे थे और कितने मेगाहर्ट्ज तक की आवाज़ 'हल्ला-गुल्ला' मानी जाएगी ये किस स्कूल में लिखा रहता है जी? मतलब विद्या माता की कोर्ट में मुझे संदेह का लाभ मिल सकता था। वैसे भी विद्या माता से मेरा संबंध बहुत अच्छा था। क्योंकि हम अपने सभी दोस्तों की तरह हर विषय में विद्या माता को 'तकलीफ' नहीं दिया करते थे। बहुत हुआ तो गणित के दिन एक दो बार सच्चे मन से दिल में ही कह लिया - हे विद्या माता देखना हम त्रिभुज बनाएँ तो वो त्रिभुज ही बने पिछली बार की तरह चतुर्भुज न बन जाए।
अच्छा अगर खा भी लेते झूठी कसम तो मेरा कुछ होता नहीं क्योंकि दोस्तों ने बताया था कि स्कूल के बीचोंबीच जो बरगद का पेड़ है उस पर हनुमानजी रहते हैं और उस पेड़ को सात बार छूने से झूठी कसमों का असर खत्म हो जाता है। इस बात को झूठ मानने का कोई आधार भी नहीं था और जरूरत भी नहीं। मतलब हमारे पास कसमों का बहुत तगड़ा एन्टीबाॅयोटिक था। लेकिन मेन प्राॅब्लम यह थी कि मेरी माँ का नाम भी विद्या था। और दोस्तों ने बता रखा था कि- "माँ की झूठी कसम कभी नहीं खाते। इसका एन्टीबाॅयोटिक है ही नहीं"।
मैंने माँ से कई बार कहा भी कि तुमको दुनिया में यही एक नाम मिला था। अरे लीलावती कलावती विमलावती कुछ भी रख लेती... नाम रखा भी तो विद्यावती हुँह! यूं जीवन के भवसागर में बहुत बार जहाँ मेरे दोस्त आसानी से विद्या माता की कसम खा कर पार हो जाते थे,वहीं डूब जाते थे हम। इस मामले में बड़े बदनसीब रहे। और इस दुख को व्यक्त करने के लिए हमने एक शायरी भी रखी थी -
हमें तो सुरती ने लूटा दारू में कहाँ दम था।
चिलम भी वहीं फूटी जहाँ गांजा कम था।।
          लेकिन दोपहर की छुट्टी में संगीता पास आई और उसने कहा - कि राकेश तो झूठी कसम खा कर बच गया तुम क्यों नहीं कसम खाए?
हमने पी वी नरसिम्हा राव की तरह मुँह बनाकर कर कहा - हम झूठी कसम नहीं खाते। और जब एतना ही मोह था हमारा, तो हमको पिटवाई कांहे? जानती तो हो गणित को छोड़कर आज तक हम किसी घंटी में पिटाए नहीं थे।
संगीता ने मासूमियत से कहा - अच्छा माफ़ कर दो हमको...
हमने संगीता की आँखों में देखा। कुछ गहरी सी, कुछ भरी भरी सी और मासूम तो एकदम हमारी ही तरह। हाँ! दोस्तों ने बता रखा था कि सच जानना हो तो सामने वाले की आँखों में देखना।
हमने माफ कर ही दिया दूसरा उपाय भी तो नहीं था।
       अगले हफ्ते से परीक्षा शुरू हुई। हमने विद्या माता को याद किया - विद्या माता जी गणित में सत्रह नंबर आ जाए बस!!
एक दिन की छुट्टी के बाद सबका रिजल्ट आना था।सबकी तरह मेरा भी अंक पत्र मेरे सामने था - असित कुमार मिश्र। हिंदी 50/50 संस्कृत 50/49 गणित 50/ 15.... अब आगे देखते कैसे! फेल हो चुके थे हम। विद्या माता की अदालत में हमारी सुनवाई नहीं हुई।
गणित वाले मास्टर साहब आए और मेरी तरफ मेरी कापी फेकते हुए बोले तुमको त्रिभुज तक बनाने नहीं आता... हद है!
कापी मेरे पास तक उड़ती फड़फड़ाती आ रही थी लेकिन संगीता ने पकड़ लिया और पूरी कापी चेक की। अचानक उठी और गणित वाले मास्टर जी के पास जाकर कुछ कहा। मास्टर जी चौंके फिर चश्मा लगाया, फिर लाल कलम निकाली और मेरी कापी पर कुछ लिखा।
इधर हम आत्महत्या की सबसे आसान विधि ढूंढ रहे थे उधर मेरा दूसरा अंक पत्र बन कर आया उस पर लिखा था - असित कुमार मिश्र। हिंदी 50/50 संस्कृत 50/49 गणित 50/17... खुशी के मारे आँखों से आँसू आ गए।
हमने संगीता के पास जाकर पूछा कि ऐसा क्या कहा था तुमने मास्टर जी से?
संगीता ने बताया - अरे कुछ नहीं। एक चार नंबर के सवाल में तुमको दो नंबर मिल गए थे गलती से।
मैं आने लगा तो उसने कहा - अच्छा! त्रिभुज वैसे ही बनाते हैं? तुमको त्रिभुज तक बनाने नहीं आता?
हमारे मुँह से निकला - देखो बनाए तो थे हम त्रिभुज ही, अब कम्बख्त वो तुम्हारी आँख बन गई तो हम क्या करें?
सं ने लजा कर कहा - झुट्ठे! खाओ तो विद्या माता की कसम...
नहीं! अबकी झूठी कसम नहीं खाई हमने।
असित कुमार मिश्र
बलिया

         

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