इधर बसंत आया और उधर वेदप्रकाश शर्मा चले गए।बचपन में जितनी भी मार खाई उसमें पचास प्रतिशत के कारण यही थे। फौजी नियमों के अनुसार पापा दोपहर में साढ़े तीन घंटे के लिए सोते थे और उतनी ही देर में मुझे वो मोटी सी तीन सौ पन्नों की किताब उनके तकिए के नीचे से चुरा कर खतम कर देनी होती थी।एक पुलिस अधिकारी से चोरी करना हँसी मजाक नहीं होता।पूरी पी एचडी करनी होती है। पहले नीम की सींक लेकर पापा के दाहिने कान के पास हल्के हल्के गड़ाना ताकि वो बायें करवट हो सकें और हम उनके तकिए के नीचे से शर्मा जी के उपन्यास सरका सकें। फिर किसी लंबी सी काॅपी के बीच में उसे छुपा कर जल्दी जल्दी पढ़ना। इसी में कभी पकड़े भी जाते थे फिर क्या! अरुणांचल प्रदेश में पापा की कैद से भागे दो उग्रवादियों का गुस्सा भी मुझी को झेलना पड़ना था। शायद वो नशा था,कोई दीवानगी थी कि महीनों तक उनके 'कारीगर' उपन्यास का संवाद - 'नफरत ही मुहब्बत की पहली सीढ़ी होती है' गूँजते रहे। कोई जूनून ही था जो 'कानून का बेटा' के दर्जनों पन्ने जबानी आज भी याद हैं। और इस नशे की गिरफ्त में मैं अकेला नहीं लाखों लोग थे। मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूँ जिन्हें उतरना था पिछले रेलवे स्टेशन पर लेकिन एक हाथ में अटैची और दूसरे हाथ में 'वो साला खद्दर वाला' लिए उतरे अगले स्टेशन पर। 'वर्दी वाला गुंडा' आठ करोड़ प्रतियों में बिकी। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि अगर कोई उपन्यास दो भागों में आया तो पहला भाग पढ़ चुके लोग शर्मा जी को चिट्ठियाँ लिख देते थे कि जल्दी दूसरा भाग लाइए...
आज जितनी भी मेरी साहित्यिक समझ है उसमें नि:संकोच कहूंगा कि मुझे इस तरह बाँध देने वाला, एक मटमैली सी पन्नों वाली किताब में खाने पीने की सुध बुध भुला देने वाले दूसरे किसी लेखक को नहीं जानता मैं।
सभ्य साहित्य अक्सर ऐसे लेखकों और उनकी रचनाओं को लुगदी साहित्य कहता रहा है और मुझ जैसे लाखों पाठकों को अधकचरी समझ का पाठक। कहने को तो फेसबुक पर लिखी जा रही कविता कहानी को भी मुख्य धारा का साहित्य दोयम दर्जे का ही मानता है और मज़े की बात यह कि वो यह लिखने के लिए फेसबुक पर ही आता है। यह मुख्य साहित्य जो विमोचन की मेज से लाइब्रेरी की दराज़ तक दम तोड़ देता है उसकी मान्यता है कि - "वेद प्रकाश शर्मा के दौर में निराला कहाँ से होंगे?
अधकचरी समझ वाले पाठकों के बीच उदय प्रकाश कैसे समझे जाएंगे?
बड़े आश्चर्य का विषय है कि यह सवाल करने वाले उसी खत्री जी की विरासत संभाल रहे हैं जिन्होंने फारसीदां को हिंदी पढ़ना सिखा दिया। पहली बात तो यह कि निराला और वेद प्रकाश शर्मा में कोई तुलना ही नहीं। हिन्दी की यह दशा! कल को सुपर कमांडो ध्रुव और नागराज के काॅमिक्स से कामायनी की तुलना करने लगिएगा क्या?
दरअसल वेदप्रकाश शर्मा या लुगदी साहित्य के कवियों से मुख्य धारा का साहित्य प्रभावित नहीं होता बल्कि मुख्य धारा का साहित्य संक्रमित है इसलिए लुगदी साहित्य है। आज के मुख्य धारा की हिंदी आत्मकेंद्रित आत्ममुग्ध और मठों की स्थापना में व्यस्त है। पुराने पैर फैलाए हैं और नये वंदन में संलग्न।
पूछ तो रहा हूँ कि हरिऔध को जन्मने के बाद आजमगढ़ की धरती बाँझ हो गई क्या जो आज कोई हरिऔध नहीं होता? बलिया की धरती एक हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद बंजर हो गई जो आज पंडित जी की धारा का साहित्यकार नहीं होता? फर्रुखाबाद की पवित्र धरती के कोख से एक महादेवी ही हुईं उसके बाद कोई नहीं? सिमरिया घाट बिहार की स्वर्णिम भूमि दिनकर के बाद मौन क्यों हो गयी? इस सबका दोषी लुगदी साहित्य और अधकचरे पाठकों पर मढ़ने वाले हिंदी के भाग्यविधाताओं यह आत्मचिंतन का समय है आपके लिए।
पिछले दिनों संजय लीला भंसाली और पद्मावती प्रकरण पर 'जौहर' खंडकाव्य इतने लोगों ने शेयर किया कि फेसबुक व्हाट्स ऐप सब भर गया। 'जौहर' या 'चेतक' की गाथा ही नहीं पूरे वीरभूमि राजस्थान के गौरवपूर्ण इतिहास के रचयिता श्यामनारायण पांडेय मेरे पड़ोसी जिले मऊ के थे और पिछले हफ्ते विज्ञापनों के बीच जितनी साहित्य की औकात होती है उतने में ही पांडेय जी की विधवा समाजवादी पेंशन के परेशान खड़ी दिख रही हैं। जाइए उनके पास और पूछिए कि आपके पति ओज वीरता और ऊर्जा के कवि थे आप अपने पोते को हिंदी का साहित्यकार बनाइए न!
उर्दू अदब के किसी बुजुर्ग मोहतरम से पूछिएगा कि गालिब बल्लीमारां के गली के आखिरी छोर पर नंगे पाँव किसे छोड़ने आते थे? जवाब होगा - सोज़ सिकन्दरपुरी को।
अब उसी सोज़ सिकन्दरपुरी के वारिस साइकिलों की मरम्मत का काम करते हैं। आइए पूछिए न सोज़ सिकन्दरपुरी दोबारा क्यों नहीं हुए?
इसलिए नहीं हुए कि ये हिन्दी उर्दू भोजपुरी की आलीशान अकादमियाँ बंजर और बांझ हो चुकी हैं। और दोष मिट्टी के माथे मढ़ रही हैं।आज भी आजमगढ़ की धरती हजारों हरिऔध पैदा करती है बलिया की धरती हजारी प्रसाद द्विवेदी पैदा करती हैं लेकिन मुख्य धारा का अहंकार उनकी मठाधीशी उनके पुरस्कार इनकी भ्रूण हत्या कर देते हैं।
एक व्यक्ति पांच साल जनता की सेवा करने का ढोंग करता है और विधायक सांसद बनता है। मात्र पांच साल के कार्यकाल के बाद उसे पेंशन मिलने लगती है। एक 'कामायनी' रचने में चौदह साल लगते हैं और बदले में...
पिछले पांच सालों में बुद्धिनाथ मिश्र के अलावा कोई रामावती देवी का हालचाल लेने नहीं गया। अब तक किसी अकादमी ने सोज़ की खबर नहीं ली और हिंदी की फिक्र में दुबले हुए जा रहे हैं।
एक और बात 'अधकचरी समझ' वाले पाठकों की 'रुचियों का परिष्कार' आपकी भाषा में 'सहृदय बनाना' किसका काम था? इन्हीं मुख्य धारा के लेखकों और अकादमियों का काम था। आज सैकड़ों पत्रिकाएँ और हजारों अकादमिक किताबें छप रही हैं। लाइए यहाँ किसी एक को भी जो कह दे कि मैंने आपकी पत्रिका या आपकी किताब पढ़ने के लिए हिंदी सीखी है।
लेकिन मेरी तरह हजारों की संख्या में लोग हैं जो वेद प्रकाश शर्मा को पढ़ कर ही मुख्य धारा में आए।
मैंने सभ्य लोगों के दर्जनों किताबों का मूल्य तीन सौ चार सौ देखकर रख दिया। इच्छा होते हुए भी नहीं पढ़ पाया। अब आप कहेंगे कि - चल भाग यहाँ से गरीब निर्धन भिखारी...
और मैं देख कर हैरत में हूँ कि उस चार सौ रुपए वाली किताब में गरीबों की ही करुण और मार्मिक गाथा छपी है।
एक तो इतनी मँहगी दूसरे लगभग अप्राप्य किताबें मुझ तक नहीं आतीं तो किसी वेद प्रकाश शर्मा पर कुंठा और जलन मत निकालिए यह सोचिए कि वह तीस रुपए में तीन सौ पन्ने कैसे दे देता था?
आज श्रीमती मधु शर्मा 'तुलसी पाकेट बुक्स' के सहारे आराम से जीवनयापन कर सकती हैं। श्यामनारायण पांडेय की पत्नी रामावती देवी की तरह लाइन में नहीं खड़ी होंगी। पूछते क्यों नहीं मुझसे कि असित तुम किसकी मौत चाहोगे? श्यामनारायण पांडेय की या वेदप्रकाश शर्मा की मौत?
जो अकादमियाँ अपने लेखकों को इज्ज़त की दो रोटी नहीं सकती उसे इस बात पर खुश होना चाहिए था कि शर्मा जी कम से कम देवनागरी लिपि में तो लिखते थे। सुनीति कुमार चटर्जी की तरह रोमन लिपि की वकालत तो नहीं की।
फेसबुक पर भी ये कथित सभ्य लेखक आते हैं हिंदी की चिंता में डूबे अपने नये उपन्यास, कहानी संग्रह का रंगीन फोटो टांग कर चले जाते हैं। कुछ लोग हिन्दी के उत्थान में चार पंक्तियाँ घसीट कर चले जाते हैं। इससे अच्छी हिंदी की सेवा होती अगर आप फेसबुक पर लिख रहे किसी नवोदित लेखक की रचना को शेयर कर देते अपनी वाल पर।
Monday, February 20, 2017
हिन्दी साहित्य का अजीब काल
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