Tuesday, February 21, 2017

मेरे प्रत्याशी को वोट दीजिए!

मेरे प्रत्याशी को वोट दीजिए...

आजकल शहरों, कस्बों और गाँवों की गलियों में दौड़ रही चमचमाती गाड़ियों में बज रहे बाजारू नारों ने बलिया और बनारस को ही नहीं पूरे फेसबुक व्हाट्स ऐप से लेकर हर घर-आँगन तक को ढंक लिया है। राजनीतिक चालों घातों - प्रतिघातों के इस समय में प्लेटो,अरस्तू, मैकियावेली, जाॅन, लाॅक, अरविंदो और गाँधी के राजनीतिक विचारों पर एक स्मार्ट फोन या फिर एक पायल भी भारी पड़ सकती है। बाहुबलियों की द्यूत सभा में राजनीति रुपी द्रौपदी का चीरहरण रोज होता है। यही नहीं इंसान की बस्तियों में अब कोई इंसान भी नहीं रहता। सामने दिख रहा चेहरा या तो भाजपाई होगा या कांग्रेसी। समाजवादी होगा या बसपाई। परिचय के क्रम में पहले नाम नहीं पूछा जाता। यह पूछा जाता है कि आपके यहाँ से कौन सी पार्टी जीत रही है? बड़े अजीब खौफनाक माहौल में जी रहे हैं हम। जहाँ भरोसा किताबी, रिश्ते हिसाबी, जीवन शैली नवाबी और बाल खिजाबी होकर रह गए हैं।मौसम भी अब बारिश का नहीं होता, पतझड़ का नहीं होता, बस चुनाव का होता है। जहाँ देखिए तनाव, द्वेष, जीत हार हिंदू मुसलमान जाति संप्रदाय के चर्चे। अखबार से लेकर टीवी तक फेसबुक से लेकर चाय के चौपाल तक बस एक ही मुद्दा - पार्टी चुनाव।
दोष किसी और का नहीं है, हमारी आँखों का है। हमारी आँखों को वही दिखाई दे रहा है जो सियासत हमें दिखा रही है। हमारे कानों को सुनाई भी वही देता है, जो राजनीति के माहिर खिलाड़ी हमें सुनाना चाहते हैं।
          चलिए! जब चारों ओर वादों इरादों नारों विकास से लेकर कब्रिस्तान - श्मशान, गदहे-घोड़ों तक की चर्चा हो ही रही है,तो हम भी बता ही दें कि इसी चुनावी माहौल में हमारा भी प्रत्याशी मैदान में है। हर विधानसभा क्षेत्र में गया भी है लेकिन अफसोस कहीं भी किसी ईवीएम मशीन में उसका कोई नाम नहीं, कोई चिह्न नहीं। लेकिन लड़ रहा है वो, अपने पूरे शवाब और जोश-ओ-ख़रोश के साथ।जी हाँ! पेड़ों पर नई निकलने वाली कोंपलों के 'पोस्टर्स' लेकर आया है वो, और सरसों के खेत में फैली पियरी रंगत उसी के तो हैं।सुबह की पहली किरन में आलस भर देने वाला निगोड़ा वही है। वही है, जो शराब नहीं बाँटता लेकिन जीवन में मादकता भर देता है। पायल नहीं बाँटता लेकिन अपनी खनक से वो नई दुलहिन को भी लजा देता है। चिड़ियों की चहचहाहट उसके नारे हैं, और जीवन में खुशियाँ लाना उसके वादे।
बसंत ही नाम है उसका। ढूंढिए! आपके दिल के विधानसभा क्षेत्र में 'बसंत' भी आया है प्रत्याशी बन कर। बसंत राजनीति का प्रत्याशी नहीं है वो 'जीवन का प्रत्याशी' है। वही हमारा प्रत्याशी है। और हम उसी के लिए वोट माँग रहे हैं। बसंत को चुनना व्यक्ति या समाज के लिए ही नहीं बल्कि पूरी मानवता के लिए जरूरी है। क्योंकि बसंत का अर्थ मौसम नहीं प्रकृति होता है। और आज हम प्रकृति से इतने दूर हो गए हैं जितना आज के पहले कभी नहीं थे।
सोचिए! कितने दिन हुए जब आपने सूरज की पहली किरन की ओर मुस्कुरा के देखा था?
याद कीजिए कब डूबते हुए सूरज को देखकर आप अपने जीवन के दुख दर्द पर आखिरी बार उदास हुए थे?
सोचिए! कोयल आज भी कूकती है लेकिन कितने साल बीत गए किसी विरहन कोयल की कूक पर आपने कूऽऽ कूऽऽ बोल कर उसे चिढ़ाया नहीं!
बताइए बरगद के पत्तों को गोल कर के आखिरी बार सीटीयाँ कब बजाईं थीं आपके होठों ने?
याद कीजिए बरगद के पत्तों के बैल कब बनाए थे और पीपल की पत्तियों के ताले कब बनाए थे!
सोचिए! सब्जियों के खेत में एक डंडे पर टांगी गई हांडी, उसे जबरदस्ती पहनाए गए बड़े से कुर्ते और उसकी दोनों फैली हुई बाँहें! अब बताइए बिजूके को भूत समझ कर डरे हुए कितने साल बीत गए?
सोचिए! महुए की गंध आम के मोजरों की महक या बत्तखों का पानी में शोर करते हुए आपस में धक्का मुक्की करते कब महसूस किया था?
सोचिए! बसंत ऋतु की पियरी साड़ी में से कुछ पीले सरसों के फूल तोड़ कर कब आपने अपने कानों में गहने की तरह पहना था?
सोचिए! कितने साल यूँ ही गुजर गए और आपने अपने कानों के पास गेंदे के फूल लगाकर आइने में खुद को नहीं देखा।
सच बताइए तब खुद से मुहब्बत नहीं हुई जाती थी? सच बताइए दिल मचलने की बेपनाह जिद नहीं किया करता था?
सूनी सी दोपहरी में जब सारा जहाँ सोता था, तब आपने घर के भीतरी आलमारी में से चुरा कर अपने गालों पर पाउडर लगाए थे, कानों में नीम के फलियों के टाप्स पहने थे और पुराने से दुपट्टे की साड़ी पहनी थी। दूल्हा दुल्हन के खेलों से लेकर रूठना, मनाना, नाचना, गाना सब जैसे न जाने कहाँ चला गया!
सोचिए! मधुमक्खियों के टंगे हुए छत्तों की ओर एक कंकर फेंकने का मन किए कितना अरसा बीत गया!
बंदरों को किसिम किसिम से मुँह बनाकर चिढ़ाए कितने युग बीते हैं!
          हो सकता है आप कहें कि असित भाई अब हम बड़े हो गए हैं न! जानते हैं यह बड़े होने का अभिशाप हमें हमारी जड़ से काट देता है। हमें वास्तविक नहीं रहते देता,आभासी बना देता है। हमें भौतिक और वैज्ञानिक बना कर हमारे भीतर के जीवन और रस को चूस लेता है।
नहीं! हम सूर्य चंद्र हिमालय और धरती से बड़े नहीं।अपने आगोश में इन्होंने न जाने कितने मानव वंश का उदय और पतन देखा होगा। हम बहुत छोटे हैं आज भी एकदम बच्चे से...
बताइए! हम होली के रंगों में खुलकर डूब नहीं सकते।भर मुट्ठी अबीर से किसी को नहला कर ठहाके नहीं लगा सकते। पलाश के ललके फूलों को हाथों में रगड़ कर हाथ कट जाने का बहाना नहीं कर सकते। खुशी के क्षण में चिल्ला चिल्ला कर आसमान सर पर नहीं उठा सकते। दुख के अनचाहे मौसम में किसी के कंधों पर सर टिका कर रो नहीं सकते... इसे आप 'बड़ा होना' कहते हैं और मैं इसे 'संकुचित होना' कहता हूँ।
बसंत को जरा भी फर्क नहीं पड़ता कि आपकी अवस्था क्या है! आप अब भी कहीं खेतों की क्यारियों में लगाए धनिये की पत्तियों के ऊपर खिले फूलों को कानों में पहन सकती हैं। आप अब भी दूर तक फैली हुई सरसों की पियरी चुनरी के बीच लाल साड़ी में खड़ी होकर घूँघट की आड़ में शरमा सकती हैं। आप अब भी तितलियों के लिए भर दोपहर दौड़ते भागते रह सकते हैं। आप अब भी पीपल की पत्तियों पर डाॅट पेन से 'उसकी' यादों वाली शायरी लिखकर अपने दीवानगी पर ठहाके लगा सकते हैं...।
बसंत तो चिर युवा है, छलिया है, रूप ग्राही है उसे आपकी उम्र से क्या मतलब!
          बसंत को चुनना प्रकृति को चुनना है, उमंग, उत्सव, हरियाली और मादकता को चुनना है।बसंत को चुनना मतलब जीवन की सहजता को चुनना है। बसंत को चुनना मतलब जीवन में वास्तविक जीवन को चुनना है। लेकिन यह ईवीएम के बटन दबाने जैसा आसान नहीं है। यह विधायक और सांसद चुनने जैसा आसान नहीं है।
क्योंकि जैसे ही आपने बसंत को चुना आपको कोयल की कूक सुनने के लिए पेड़ लगाने होंगे। क्योंकि पेड़ ही वो जगह होती है जहाँ  बसंत अपने पोस्टर्स लगा कर अपने आगमन की सूचना देता है। आपने जैसे ही सरसों के फूल चुने आपको गाँवों को संरक्षित करने की जरूरत पड़ेगी। जैसे ही आपने बत्तख का तैरना चुना आपको तालाब संरक्षित करने पड़ेंगे। जैसे ही आपने सूर्योदय देखना चाहा वैसे ही आपको ब्रह्म मुहूर्त में उठना होगा।
सोचिए चुनाव के इस शोर में बसंत का आगमन भी हुआ है। जिस पर किसी की नज़र नहीं। इतना भी मुश्किल नहीं है बसंत को चुनना। आइए बसंत को वोट दीजिए! मेरे प्रत्याशी को वोट दीजिए...

असित कुमार मिश्र
बलिया

No comments:

Post a Comment