Monday, May 30, 2016

ये कौन सा दयार है...

पिछले दिनों बारिश और तूफान के कारण बिजली के कुछ पोल गिर गए हैं। लगभग पूरे बलिया जिले में लाइट नहीं आ रही।ऐसा नहीं कि हम बिजली का रोना रो रहे हैं।कहते हैं कि एशिया का सबसे बड़ा पावर प्लांट इब्राहिम पट्टी बलिया में ही है।सच बताऊँ तो इस पावर प्लांट का इंडीकेटर जलता है बलिया में और बल्ब जलता है बिदेश में। मेरे गांव से तीन किलोमीटर दूर कस्बे में कुछ जेनरेटरधारियों ने जेनरेटर की वैकल्पिक व्यवस्था की है जहाँ एन्ड्रायड मोबाइल चार्ज करने का शुल्क बीस रुपए और साधारण मोबाइल का दस रुपए तय किया गया है। पुलिस विभाग के लिए यह व्यवस्था नि:शुल्क है क्योंकि - जल में रहकर...।
       लेकिन लाइट न आने से अचानक हम अस्सी - नब्बे के दशक वाले गांव में पहुंच गए हैं। कल तक जो लोग अपने कमरों में कैद होकर रिमोट से चैनल बदलते थे वो अब घर से बाहर खटिया निकाल कर बैठने लगे हैं।जबसे गांवो में कूलर लगने लगे तबसे बाग बगीचे कटने लगे। अब छाँह लगती नहीं बस दिखती है।
सावधान इंडिया आज तक और एनडीटीवी में डूबे रहने वाले बिरजू चाचा दुआर पर लगाये गये भिंडी और लौकी में पानी डाल रहे हैं। दिन भर आंखें मोबाइल में गड़ाए चलने वाले लड़के अब सामने भी देखने लगे हैं।
     सबसे दिक्कत हो रही है गांव की भौजाइयों को। ससुराल सिमरन का और सपने सुहाने लड़कपन के टाईप सीरियलों में दुपहरिया बिता देने वाली भौजाईयां काफी मात्रा में अपसेट चल रही हैं। कभी सब्जी में नमक ज्यादा हो रहा है कभी चावल गीला हो जाता है।पिंटुआ के पापा बात बे बात डांट सुन रहे हैं। सीरियल का एपीसोड छूटने का दुख नैहर छूटने के दुख पर भारी पड़ता है।
श्रीमती लालटेन देवी जो अब तक तिरस्कृत और अपमानित होकर किसी कोने में परित्यक्त पड़ी रहती थीं उनकी खोज खबर ली जाने लगी है। लेकिन जबसे इनवर्टर नामक जीव ने घर में प्रवेश किया तबसे मिट्टी का तेल खरीदना बेइज्जती टाइप लगता है। अब रात के आठ बजे तक सबके घर खाना बन कर तैयार हो जा रहा है।मोमबत्ती के अंजोर में खाना खा रहे परभुनाथ चचा के पास पंखा डुला रही चाची पसीना पोंछते हुए कह पड़ती हैं - जो रे अकलेसवा अबकी तुमको वोट नहीं देंगे। परभुनाथ चचा फेसबुक पर हैं। देश दुनिया की खबर रखते हैं। समाजवादी प्रेम में ठेहुना भर डूब कर कहते हैं - तुम हर बात में अकलेस जी को दोस मत दिया करो। अमेरिका में लोग मोमबत्ती के अंजोर में खाने को इंज्वाय करते हैं और इसे 'कैंडिल लाइट डिनर' कहते हैं। अकलेस जी यूपी को अमेरिका बना रहे हैं और तुम गँवार की गँवार ही रह गई।
लालटेन की चचेरी बहन ढिबरी देवी अभी भी कुछ झोपड़ियों में अपने वजूद की आखिरी लड़ाई लड़ रही हैं। जिन पक्के घरों के बरामदे में आठ वाट का सीएफएल जलता रहता था और उसके अंजोर में सीरिया सूरीनाम की बातें चलती रहती थीं वहीं अब खूंटी पर लालटेन टांग दी गई है और उसके नीचे गांव टोले और खेती किसानी की बातें चल रही हैं। पता नहीं कैसे सीएफएल की रोशनी हमें हमारे जड़ से काट डालती है। हम गाँव से उठकर अचानक अंतरराष्ट्रीय सोचने लगते हैं।
      इधर मनोजवा का मोबाइल आफ हो गया है। दो दिन हो गए पिंकिया से गुड मॉर्निंग- गुड नाइट बोले हुए। रह रह कर मोबाइल आन करने लगता है लेकिन 'छप्पन इंच वाला' मोबाइल 'समाजवाद' की तरह आंखें बंद करके सोया पड़ा है।आंखों से आंसू गिरने ही वाला है लेकिन क्या करे आंसुओं की कीमत ही कहाँ होती है। अगर आंसुओं के अम्लीय तत्व से मोबाइल चार्जिंग की सुविधा होती तो मनोजवा कब का पिंकी का मोबाइल चार्ज कर दिया होता।
उधर दिन रात व्हाट्स ऐप पर मैसेज टाईप करने वाले पिंकिया के हाथ तरकारी काट रहे हैं। क्या करे दिल को बहलाने के लिए गालिब कुछ तो करना पड़ेगा न!
जिन घरों के छप्पर पर दिन रात घरभरन 'घातक' और चंदन 'चातक' गाते रहते थे उन छप्परों पर अब कोयलें और कौए बोल रहे हैं।
असली दिक्कत में गांव के वो अमरीकी लोग हैं जो फिल्टर्ड पानी से ही नहाते थे। बरसों बाद चंपाकल का पानी जैसे ही मुंह में जाता है वैसे ही हाइड्रोजन के परमाणुओं से लेकर आर्सेनिक पर चर्चा करने लगते हैं।
      कभी कभी तो लगता है कि नेह के धागे से मजबूत तो कमबख्त इयरफोन का तार है। वो धागा भले ही टूट जाए लेकिन इयरफोन नहीं टूटना चाहिए।इधर जबसे दुनिया मुट्ठी में कर लेने के उपाय सर्वसुलभ हो गए हैं तबसे रिश्ते मुट्ठियों से फिसलते जा रहे हैं। कीपैड वालों हाथों ने कागज को कब छुआ था ठीक ठीक याद नहीं।विडियो चैटिंग ने बच्चों से उनकी गर्मी की छुट्टियों वाला नानी दादी का गाँव ही नहीं परंपरा संस्कृति और उन पुरानी कहानियों को भी छीन लिया है जिनसे सबके भीतर एक गाँव जिंदा रहता था। तकनीकी के इस दौर में सबको मोबाइल चार्ज करने के लिए परेशान देख रहा हूँ। आने वाली पीढ़ियों को इस पर विश्वास करना मुश्किल होगा कि पहले लोग बिना मोबाइल के भी जिंदा रह जाते थे....
असित कुमार मिश्र
बलिया

Saturday, May 7, 2016

सरहद          ( कहानी)
कहते हैं कौशिला फुआ जैसी जिंदादिल औरत कुतुबपुर गांव में क्या पूरे बलिया जिले में नहीं होगी। गांव के किसी भी शादी बियाह में सबसे आगे आगे ।बियाह के दिन लड़कियों के हाथ पर मेंहदी धरने से लेकर आंखों में काजर लगाने का काम फुआ से बढिया कोई नहीं करता था। यही नहीं तिलकहरुओं को गाली देने वाली और कौन खाया कौन कहां सोया इन सबकी चिंता करने वाली वही तो थीं।आवाज तो जैसे एकदम शारदा सिन्हा वाला। कहतीं भी थीं कौशिला फुआ कि- 'हमरा और शारदा बहिनी का जनम एक्के दिन का है'। राग तो ऐसा था कि गीत के गालियों को सुनने वाले तिलकहरु भी वाह वाह कह उठते थे। बस एक ही कमी थी फुआ में कि वो विधवा थीं।
        ऐसा नहीं कि फुआ का बियाह आन्हर- लंगड़ से हुआ था। लोग बताते हैं कि परमेसर फूफा जैसा जवान मलेटरी में भी नहीं था। अंगना में मिले एच एम टी घड़ी कलाई में बांध कर और तीन सेलवा टार्च हाथ में लेकर वो जब चलते थे तो दरोगा जी का भी सर झुक जाता था। लेकिन भगवान की मर्जी ही थी कि वैसा पहलवानी का देह टीबी से लड़ाई हार गया। बियाह के तीन साल बाद ही कौशिला फुआ विधवा हो गईं।बाल बच्चा हुआ नहीं था कि उनका मुंह देखतीं। महीनों तक उनके रोने से गांव का करेजा फटता रहा और बादल बरसते रहे। भादो का महीना बीतते ही फुआ को उनके गांव भेज दिया गया, क्योंकि वो रात को अब हंसने भी लगीं थीं। शायद फूफा के मरने का चोट उनके दिमाग पर भी असर कर रहा था।गांव में आकर तो जैसे पूरे गांव के घर उनके अपने हो गए थे। गांव की कनिया - पतुरिया को सलाह देने से लेकर किसी के कथा पूजा का भंडारा देखना सब उनके जिम्मे लग गया।धीरे-धीरे फुआ अपना दुख भूल कर बच्चों के साथ बच्चा और पुरनियों के साथ पुरनियां बनतीं चली गईं।
            बैसाख के दुपहिया की धूप सीधे कपार पर लगती है।बचे खुचे महुए भी पक कर चूने लगते हैं कोयल कहीं अमराइयों में लुका कर कूऽ कूऽऽ करती रहती है। हवा भी ठंडक नहीं देती। पसीना पोछते हुए कौशिला फुआ ने बगल में सोई मस्टराईन से पूछा - कमला के बियाह में अभी केतना दिन है दुलहिन?
मस्टराईन ने जोड़ कर बताया कि अभी तीन महिना है।
फुआ ने जैसे बिनती करते हुए कहा - ए दुलहिन कमला का विदाई दिखा देना बस हमको।
मस्टराईन ने खिसिया कर कहा - जीजी, जबसे कमलवा का बियाह तय हुआ है तबसे आप यही जिद पकड़े हुए हैं। केतना बार कहें कि दुलहिन को विदा होते समय विधवा औरत का मुंह नहीं देखना चाहिए। अपशगुन होता है।
फुआ ने आंखों से गंगा जमुना बहाते हुए कहा - कमलवा हमरी गोदी में पली बढ़ी है, बस एक बार विदाई के समय बांह में भरकर हमहूँ रो लेंगे तो कौन सा अपशगुन हो जाएगा।
मस्टराईन ने कहा - फुआ हम क्या कहें। आप मास्टर साहब से खुदे बतिया लीजिएगा।
लल्लन मिसिर जैसे ही रात का खाना खाकर खटिया उठाकर चलने को हुए कौशिला फुआ ने टोक ही दिया - ए मास्टर कुछ हां - ना तो कहो।
मास्टर साहब ने कहा - दीदी हम जानते हैं कि कमलवा मेरी ही नहीं तुम्हारी भी बेटी है। हम दोनों मरद मेहरारू तो पढाने चले जाते थे सारा दिन कमलवा तुम्हारे पास ही रहती थी। लेकिन बस ई जिद मत करो। आखिर सब रसम रिवाज में तो रहोगी ही बस विदाई के समय हट जाना।
कौशिला फुआ को अपने सगे भाई से बहुत उम्मीद थी। आखिर उम्मीद कोई अपनों से ही तो करता है न। इतने साल के जीवन में उन्हें किसी भी लड़की की विदाई नहीं देखने दी गई। खैर फुआ ने कभी बुरा भी नहीं माना। लेकिन यह तो उनकी अपनी भतीजी कमला का विवाह था। बस दूध पिला देने से मस्टराईन मां हो गईं?फिर उनके विधवा होने में उनका क्या दोष? वो खुशी खुशी विधवा तो हुई नहीं...।
अचानक कमला ने उनके कमरे में आकर टोका - ए फुआ खाना खा लो।
फुआ ने अनमने भाव से कहा - भूख नहीं है।
कमला ने थाली रख दी और फुआ का हाथ पकड़कर कहा - ए फुआ आप चिंता मत कीजिए। हम ई सब फालतू के रीति रिवाज नहीं मानते। हम इस जमाने के हैं बी ए- एम ए पास हैं। बिना आपका पैर छुए घर से कदम बहरा नहीं निकालेंगे।
फुआ की रुलाई फूट पड़ी। दोनों हथेलियों में कमला का चेहरा पकड़ लिया और बोलीं - कमलवा तू पगला गई क्या! कहीं कुछ अशुभ हो गया तो। नहीं! नहीं!! तू रात में ही एक बार मुझसे मिल लेना। और जानती हो औरतों के बी ए- एम ए पढ लेने से कुछ नहीं होता, रहती वो औरत ही है।
          गोद भराई से लेकर सिंदूर दान तक के रस्म रिवाज हो गए। आज कमला के विवाह में भी फुआ के कदम सबसे आगे थे, और फुआ के ही गीत गालियाँ सबसे चटकार। लेकिन पता नहीं क्यों तिलकहरुओं ने तारीफ नहीं की। जब भी फुआ शारदा सिन्हा वाला लय उठातीं तो कहीं न कहीं जरुर गड़बड़ा जाता। फुआ चुपचाप अपने कमरे में आकर खटिया पर लेट गईं।अचानक उन्हें मस्टराईन के पायलों की आवाज सुनाई दी, फिर लगा जैसे बाहर से दरवाजा बंद कर के सिकड़ी चढाई गई हो। पहले तो फुआ की आंखों से थोड़े से आंसू गिरे उसके बाद तो जैसे बांध ही टूट गया। इधर एक के बाद एक रस्म पूरा करते करते भोर का चार बज गया। सुबह की पहली किरन निकलने से पहले ही कमला की विदाई कर देनी थी। चाचा चाची मौसी से गले मिलकर रो लेने के बाद कमला ने जिद पकड़ लिया कि फुआ से भी मिलेंगे।हालांकि मस्टराईन ने खूब समझाया कि हम लोग फुआ के दुश्मन थोड़े हैं। लेकिन जोग टोक मानना चाहिए। वेद पुरान सब झूठ तो है नहीं।
            कमला फूलों से सजी डोली में बैठ चुकी थी। पियरी का पीलापन उसकी गोराई में मिलकर उसे और भी सुंदर बना रहा था। गांव भर के औरतों की भीड़ आंखों में आंसू भरे कमला को विदा कर रही थी। कमला ने आखिरी नज़र उठाकर सबको देखा। भीड़ में बस एक चेहरा नहीं था - फुआ का।
कमला के पैर डोली से बाहर निकले धरती पर टिके और दौड़ती हुई कमला फुआ के कमरे तक पहुंच गई। उसके हाथ सिकड़ी तक पहुंचने ही वाले थे कि मस्टराईन ने उसके हाथ पकड़ लिए और रोते हुए कहा - कमलवा हमरे जान की किरिया है जो सिकड़ी खोली तो।
कमला के हाथों की मजबूत पकड़ से सिकड़ी छूट गई और बेबसी में उसने दरवाजे पर अपना कपार पटक दिया और चिल्ला कर बोली - फुआऽऽ ए फुआऽऽऽ। हम जा रहे हैं हो। सुन रही हो?
उधर खटिया के पार पकड़े रो रही बूढ़ी आंखों में जैसे जल धारा समा गई थी। फुआ ने उठकर कमजोर बांहों से दरवाजे को पकड़ लिया और दरवाजे पर सिर पटक दिया। उधर कमला की चींखे गूंज रही थीं इधर एक बूढ़ा सिर दरवाजे से टकरा रहा था। लकड़ी का एक दरवाजा उन दो औरतों के लिए सरहद था। फुआ के माथे से खून बहने लगा। फुआ ने फिर अपने माथे की भरपूर चोट दरवाजे पर मारी। इस बार की चोट से दरवाजे की एक किल्ली थोड़ी सरक गई और दो बूढ़ी आंखों ने दरार में से जमीन पर गिरने से पहले आंख भर देख लिया था एक दुलहिन की विदाई... अपनी कमलवा की विदाई। और बंद होते हुए दिल की गहराई से आशीर्वाद निकला - सदा सुहागन रहो।
कमलवा की विदाई के साथ साथ फुआ भी विदा हो चुकीं थीं। उन दोनों के चेहरे खून और आंसुओं से भरे हुए। लेकिन संतोष यही कि एक सरहद टूट चुकी थी...।

असित कुमार मिश्र
ग्राम मिश्र चक
पोस्ट सिकन्दर पुर
जिला बलिया
पिन - 277303
उत्तर प्रदेश
मोबाइल - 07897176716

Thursday, May 5, 2016

अप्रासंगिक विषय की प्रासंगिकता

इधर कुछ दिनों से छत्तीसगढ़ के एक प्रशासनिक अधिकारी डाक्टर जगदीश सोनकर जी का फोटो दिख रहा है जिसमें वो किसी बीमार बच्चे की माँ से बात करते हुए जूते उसके बेड पर रखे हुए हैं। जो प्रथम दृष्टया ही आपत्तिजनक है।इस पर लगातार प्रतिक्रियाएं आ रही हैं।कुछ लोग सहमत हैं कुछ लोग असहमत। मेरा मानना है कि असहमति दर्ज कराने के लिए असभ्य बन जाना उचित नहीं है। हालांकि छत्तीसगढ़ के किसी समाचार पत्र में यह फोटो प्रकाशित होने पर उन्होंने क्षमा मांग ली। इसलिए इस पर अब कुछ लिखना अप्रासंगिक है।
       अगर हम केन्द्रीय सिविल सेवा (आचरण) नियमावली 1964 का नियम 3(क) देखें तो साफ लिखा है कि कोई भी सरकारी कर्मचारी अपने सरकारी कर्तव्यों के निष्पादन में अशिष्ट व्यवहार नहीं करेगा। अथवा नियम 3(ग) महिलाओं के यौन उत्पीड़न के संबंध में अन्य कोई भी अशोभनीय आचरण नहीं करेगा।
लेकिन छोड़िए इन बड़ी बड़ी बातों को। आपको याद होगा जब श्री सचिन तेंदुलकर को संसद का सदस्य मनोनीत किया गया तो अखबारों में बड़ी बड़ी बधाईयाँ छपी थी। हर क्रिकेट प्रेमी खुश थे। मेरे साथ के क्रिकेटीय मित्र तो बहुत खुश। मैंने इसका विरोध किया तो मित्रों ने कहा था कि जीवन में एक चौका तो लगा नहीं आपसे। आप क्या जानिएगा तेंदुलकर मतलब क्या होता है?
मैं चुप हो गया।कुछ ही दिनों पहले उन्हीं अखबारों में खबर आई थी कि सचिन तेंदुलकर संसद में नहीं आते। सांसद के रुप में एकदम अयोग्य हो गए वगैरह वगैरह। निश्चित ही मैं सचिन तेंदुलकर के बारे में नहीं जानता। लेकिन जो जानते हैं वो क्यों नहीं बताते कि क्रिकेट का भगवान संसद में क्लीन बोल्ड कैसे हो गया? बहुत छोटा सा कारण है सचिन तेंदुलकर की रुचि उनकी अलग विशिष्टता।और उसके सापेक्ष गलत पद का चयन। जिस तेंदुलकर को किसी क्रिकेट क्लब का कोच बन कर पिच की सख्त धूप में पसीना बहाना था उन्हें जबरदस्ती वातानुकूलित कक्ष में अपराधियों के बीच साॅरी संसद में बैठा दिया गया। अब हम चाहते हैं कि सचिन जी रोज सुबह शाम संसद में आएं। याद रखिए कभी नहीं होगा ऐसा। बहुत हुआ तो दो चार सांसद बुढ़ौती में चौका छक्का मारना जरुर सीख जाएंगे। क्योंकि सचिन की विशेषता यही है कि वो क्रिकेट के भगवान हैं। उनका जन्म उनकी रुचि क्रिकेट के लिए है।
मान लीजिए अभी माननीय मुख्यमंत्री जी उठें और कहें कि असित बाबू आप पक्के समाजवादी हैं आपको बलिया में एस डी एम बना देता हूँ मैं। ठीक है लीजिए मैं बन गया एसडीएम। लेकिन करुंगा क्या मैं? मेरी रुचि तो मास्टरी में है। मैं अपना कार्यालय छोड़कर किसी इंटर कॉलेज डिग्री कालेज या प्रायमरी में बच्चों को पढाता पीटता हंसाता मिलूंगा। मुझे क्या मतलब की चौराहे पर अतिक्रमण किया गया है कि नहीं? मैं अपनी साइकिल कहीं से निकाल लूंगा। क्योंकि मेरा जीवन मेरी रुचि अध्यापन के लिए है।
अब आइए डाक्टर जगदीश सोनकर जी के बारे में बात करते हैं। मात्र एक चित्र अमर्यादित आया कि उन्हें क्षमा मांगनी पड़ी। लेकिन उनके वो चित्र सामने नहीं आए जिसमें वो प्रशासनिक अधिकारी होते हुए भी डाक्टर होने के कारण अपनी सेवाएं नि:शुल्क दे रहे हैं। यह सोचने की जरूरत ही नहीं समझी किसी ने कि एस डी एम से पहले वो डाक्टर हैं। उनकी रुचि उनका जीवन चिकित्सा के लिए है। अपनी योग्यता या घर परिवार के दबाव (बेटा मैं तुम्हें डी एम देखना चाहता हूं) से वो एसडीएम बन तो गए लेकिन हैं वो अभी भी एक डाक्टर ही।आज तो उन्होंने माफी मांग ली है लेकिन ध्यान रखिएगा कि कल फिर तहसील दिवस के दिन किसी फरियादी के गंदे दांत देखकर वो डांटेंगे। हो सकता है दो चार टूथपेस्ट भी दे दें अपने पैसे से। क्योंकि हैं वो डाक्टर ही। मेरा मानना है कि उन्हें इसी रुप में लिया जाए। पैसे और प्रतिष्ठा की बात होती तो एक डाक्टर भी कम नहीं कमाता।
     ऊपर मैंने जिस सिविल सेवा आचरण नियमावली की बात कही है। उसे उन्हें परवीक्षा काल में ही पढाया बताया समझाया गया होगा। ऐसा नहीं कि वो नहीं जानते दुनिया में एकलौता मैं ही जानकार हूँ। इसे सिविल सेवा परीक्षा देने वाला जागरूक हर परीक्षार्थी जानता है। फिर भी वो गलती कर गए।
         अपनी बात करुं तो पढाते समय बड़ी लड़कियों को भी बुरी तरह डांट बैठता हूँ। पीट भी देता हूँ। अब कल को महिला मोर्चा मेरा फोटो विडियो शूट कर ले और हाय असितवा हाय असितवा का अखंड कीर्तन फैल जाए तो पता है मैं क्या करुंगा? तुरंत कान पकड़ कर माफी मांग लूंगा और अगले दिन से वही सब फिर शुरू। परसों फिर हाय तौबा होगा तो फिर माफी फिर वही सब स्टार्ट।क्या लगता है कि मैं अध्यापक सेवा नियमावली नहीं जानता।जानता हूँ लेकिन मैं नियमावली से नहीं अंत: प्रेरणा से पढ़ाता हूँ।
कहने का मतलब यह है कि अगर आप भी किसी असित के मां बाप भाई बहन पापा-पापी हों तो याद रखिएगा यह अप्रासंगिक विषय पर प्रासंगिक लेख। और अपनी रुचि अपना दबाव अपनी इच्छा मत थोपिए बच्चों पर। उसे उसकी रुचि से आगे बढाइए। ऐसा न हो कि वो डाक्टर बनना चाहे और आपकी इच्छाएं उसे डीएम बना दें। उसकी रुचि अध्यापन में हो और आप उसे दरोगा बना दें तो वह अपने कैदियों से यमक अलंकार का उदाहरण ही पूछेगा घटना स्थल के बजाय।
          

       

Tuesday, May 3, 2016

खुला पत्र मुख्यमंत्री जी के नाम

माननीय मुख्यमंत्री जी
(उत्तर प्रदेश सरकार)
समाचार पत्रों से पता चला कि आप कल मेरे जिले बलिया में आए थे। हार्दिक स्वागत आपका। यह भी पता चला कि आपने एक विश्वविद्यालय प्रदान किया है हमें। हम सभी के लिए गौरव और अभिमान का विषय है यह।
आपको ज्ञात होगा बहुत पहले स्व0 इन्दिरा गांधी भी हमें एक विश्वविद्यालय दे गईं थीं जिसका शिलालेख आज भी बलत्कृत और अपमानित बलिया के गौरव में श्री वृद्धि कर रहा है।
थोड़ा साफ साफ कहूँ तो उत्तर प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त करने में जो योगदान आपकी समाजवादी सरकार का है वह किसी भी अन्य सरकार को नहीं दिया जा सकता।
जैसे कि प्राथमिक शिक्षा की बात करुं तो 72825 शिक्षकों की भर्ती आपके आते ही शुरू हुई थी। जिसमें मेरे जिले में मात्र 12 सीटें दी गई जबकि तत्कालीन बेसिक शिक्षा मंत्री श्री रामगोविंद चौधरी जी इसी जिले के थे।और लगभग पच्चीस हजार अध्यापकों की आवश्यकता आज भी है जिले में। आश्चर्य यह कि उन बारह सीटों पर चयनित नौ अभ्यर्थी फर्जी दस्तावेज लगाने के कारण बाहर हो गए और शेष तीन पर जांच जारी है...
जूनियर शिक्षा की बात करुं तो उर्दू टीईटी पास सभी छात्रों को नियुक्ति मिल गई। लेकिन वहीं संस्कृत और अंग्रेजी से टीईटी पास अभ्यर्थी आज भी दर दर भटक रहे हैं। सामान्यतया लोग इसे ही तुष्टिकरण की राजनीति कहते हैं (मैं नहीं कहता)। 29 हजार जूनियर शिक्षकों की भर्ती कोर्ट में है ही।
माध्यमिक शिक्षा की बात करुं तो 2011 में टीजीटी पीजीटी की भर्ती आई उसकी परीक्षा अब तक नहीं हुई। 2013 में जो परीक्षा हुई उसमें दर्जन भर सवाल गलत पूछे गए। अब सुनने में आ रहा है कि नई भर्ती भी आ रही है। मतलब पांच साल में आप माध्यमिक शिक्षा में एक भी अध्यापक नहीं दे सके।
उच्चतर शिक्षा की बात करुं तो वर्षों से लेक्चरर्स की भर्ती नहीं हुई। यूजीसी के रिपोर्ट के अनुसार राजकीय विश्वविद्यालयों में साठ प्रतिशत अध्यापकों के पद रिक्त हैं और यहां से निकले छात्र हाईस्कूल की योग्यता भी नहीं रखते।
ऐसे में आपका यह विश्वविद्यालय दे जाना पूर्णतः हमारे लिए हमारा मजाक बनाया जाना है। क्योंकि एक तो यह विश्वविद्यालय बनेगा नहीं अगर बन भी गया तो योग्य अध्यापकों की नियुक्ति होगी नहीं और उसमें से निकले छात्र हाईस्कूल की योग्यता भी नहीं रखेंगे (यूजीसी के अनुसार)।
शोध के नाम पर वर्ष 2009 के बाद राज्य विश्वविद्यालयों में एक भी नामांकन नहीं हुआ। ऐसे में आपका यह विश्वविद्यालयी झुनझुना कैसे पकड़ें हम, आप ही बताइए?
आपके पूरे कार्यकाल में माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड और उच्चतर शिक्षा आयोग अपने ही वजूद की लड़ाई लड़ता रहा। इतने बड़े प्रदेश से आपकी समाजवादी सरकार बोर्ड के दस सदस्यों का चयन नहीं कर पाई।
          आप कहते हैं कि युवाओं के दम पर सरकार बनाएंगे। मैं बताना चाहता हूं कि यह पत्र लिखते समय इलाहाबाद में छात्रों का एक समूह जो टीईटी पास है वो अपने समायोजन के लिए अनशन कर रहा है दूसरी ओर पीसीएस की परीक्षा में लगभग दस सवाल गलत पूछे गए हैं। प्रभावित छात्र कोर्ट जाने की तैयारी में हैं। मैं जानना चाहता हूं कि वो कौन लोग हैं जो सवाल बनाने वाली कमेटी में हैं? उन्हें जरा भी शर्म नहीं आती? क्या आयोगों में बैठे रक्तपिपासु लोग सौ सवाल भी ढंग का नहीं पूछ सकते?
हाँ! एक मामला ऐसा है श्रीमान जिसमें मैं आपके एकनिष्ठ और प्रतिज्ञ रहने का कायल हूँ। वो है शिक्षा मित्रों का समायोजन। आपकी सरकार पूरे पांच साल इसी एक मुद्दे में लगी रही। अन्य राजनीतिक दलों को सीख लेनी चाहिए इससे। हालांकि शिक्षामित्र प्रकरण कोर्ट में है लेकिन मैं दावे से कहता हूँ कि चाहे सुप्रीम कोर्ट भी इन्हें हटा दे लेकिन आप इनका समायोजन करके ही रहेंगे। नमन है आपकी इस प्रतिज्ञा को।
पुनः साफ साफ कहूंगा कि हमें नये कालेज से ज्यादा आवश्यकता इस बात की है कि जो कालेज हैं उनमें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले और योग्य छात्र समाज में आएं। हमारे यहाँ से मात्र सौ किलोमीटर दूर संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ तथा दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय हैं ही। हमें विश्वविद्यालय नहीं अपने कालेजों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा चाहिए। हर पांच किमी पर एक महाविद्यालय है जिले में। उन्हें यूजीसी के नियमानुसार संचालित किया जाए। उनमें योग्यतम शिक्षकों की नियुक्ति हो। पुस्तकालयों का आधुनिकीकरण हो। ऐसा नहीं कि मैं विरोध में हूँ विश्वविद्यालय के, लेकिन स्व0 चंद्रशेखर सिंह विश्वविद्यालय से एम ए (स्वर्ण पदक प्राप्त)होकर रिक्शा चलाने से बेहतर मैं अनपढ़ होकर ही रिक्शा चलाना पसंद करुंगा।
निवेदक -
समाजवाद में आस्था रखने वाला आपका एक मतदाता -
असित कुमार मिश्र
बलिया