Monday, December 4, 2017

असित - वेंट टू वेंट....

असित - वेंट टू वेंट....

अगर गौ गंगा और गीता की शपथ लेकर कोई बात कहनी हो तो कहना ही पड़ेगा कि मुझे प्यार से नहीं यात्राओं से डर लगता है। हिंदी साहित्य की जितनी भी विधाएँ हैं उनमें 'झूठ - साँच' कुछ ना कुछ लिख ही लूँगा, लेकिन यात्रा वृत्तांत में तो कुछ भी नहीं। यात्रा वृत्तांत से याद आया बरसों पहले साकिन मौजे तरौनी बड़की, थाना बहेड़ा, जिला - दरभंगा बिहार राज्य में छत्रमणि मिसिर के घर एक 'नायालक' पौत्र का जनम हुआ। बाप थे गोकुलानंद मिसिर और माँ थीं उमादेवी। गोकुलानंद मिसिर को पक्का यकीन था कि ये नालायक भी अन्य पुत्रों की तरह असमय ठग कर चल बसेगा इसलिए उसका नाम ही रख दिया ठक्कन मिसिर। लेकिन माँ तो माँ ही होती है उसे पक्का यकीन था कि वैद्यनाथ धाम की मनौती से प्राप्त यह छठवाँ पुत्र जिवित रहेगा इसलिए माँ ने नाम रखा बैजनाथ मिसिर। हालाँकि इस खुशी में खुद माँ ही चल बसी।
'यात्री' के उपनाम से पहली कविता मैथिली में लिखने वाले बैजनाथ मिसिर के अतिरिक्त हिंदी में दूसरा 'जनकवि' हुआ ही नहीं। जनकवि का मतलब है जनता का कवि और 'जनता के कवि' होने का मतलब है कि - एक पोस्टकार्ड पर मात्र पाँच पंक्तियाँ लिखीं आईं थीं एक दिन,बैजनाथ मिसिर के पते पर। लिखा था - बाबा चरण स्पर्श! आपके लिखे को हमेशा पढ़ा है, महसूस किया है। किसी दिन मेरे शहर से गुज़रना हो तो आपको भी देखने का सौभाग्य मिले ...
और अगले हफ़्ते ही बैजनाथ मिसिर उस पोस्ट कार्ड भेजने वाली महिला का दरवाज़ा खटखटाते नज़र आए।
दरवाज़ा खोलने वाली महिला ने देखा कि सफ़ेद गमछे के ऊपर बंदर छाप टोपी, बढ़ी हुई दाढ़ी, धूल - धूसरित कपड़े.... कोई याचक विप्र है।बहुत हुआ तो कुछ आटा - पिसान लेगा और क्या!
लेकिन बूढ़े ने अप्रत्याशित बात कही - अब दरवाज़े से हटोगी भी कि यहीं खड़ी रखोगी मुझे ?
दुर्भाग्य से वो महिला ना फेसबुक पर थी ना व्हाट्स ऐप पर कि उस बूढ़े को पहचान सके।उसने डरते - डरते कहा - घर में कोई नहीं है आप घर में क्यों घुसे चले आ रहे हैं!
बूढ़े ने आँगन की कमसिन धूप में खेल रही छोटी सी बच्ची को गोद में उठाते हुए कहा - ये तो है न घर में! मैं इसी के लिए तो आया हूँ।
महिला ने सोचा होगा कि कोई बच्चा चुराने वाला तो नहीं आ गया? फिर संकोचवश पूछा होगा कि पहले बताइए कौन हैं आप? नाम क्या है आपका?
बूढ़े ने अपने परिचय में कहा होगा - दमा का सनातन मरीज़ /रात को थोड़ा सोने वाला/घुमक्कड़ी का शौकीन /मैं, यानी /अर्जुन नागा... /उर्फ़ बैजनाथ मिसिर /उर्फ़ यात्री जी /साकिन मौजे तरौनी बड़की /थाना बहेड़ा /जिला दरभंगा /बिहार राज्य...
       यह परिचय कोई साधारण परिचय तो था नहीं। अब वो महिला उधर अपनी कज्जलित आँखों में अजश्र धारा लिए गोंइठे की आँच पर पानी गरम करने लगी ताकि अपने प्रिय कवि के पैर पखार सके और उधर जनकवि ने उस छोटी सी बच्ची के गाल सहलाए। बच्चे केवल एक ही भाषा समझते हैं प्यार की भाषा मनुहार की भाषा दुलार की भाषा.... ।
और हँसती हुई उस छोटी सी बच्ची के दो छोटे - छोटे दाँत बाबा नागार्जुन के द्वारा हिंदी साहित्य के इतिहास में ऐसे गड़े जिसे मिटाने का दु:साहस कोई स्वप्न में भी नहीं कर सकता।और यहीं बाबा ने अपनी प्रशंसिका की उस बच्ची पर एक कविता लिखी -
तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान।
मृतक में भी डाल देगी जान
.......
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज
मैं न सकता देख
मैं न पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान।
          आज फेसबुक पर दस बीस लोगों के द्वारा चीन्हने-पहचानने पर खुद को 'सेलेब्रिटी' समझने के इस दौर में सोचता हूँ कि वो  हमारे वो पूर्वज किस मिट्टी के बने होंगे और उनके प्रशंसक - प्रशंसिकाओं का हृदय कितना विशाल रहा होगा...। जीवन - सरिता के इस कंटक प्रवाह में जहाँ रोज़ सैकड़ों - हज़ारों समस्याएँ जन्म लेतीं हैं और उन दुष्चक्रों के बीच भी अपनी हिंदी के लेखक कवि के लिए मुस्कुराते हुए समय निकाल लेना कितने उदार हृदय का परिचायक है, यह बताने के लिए शब्द नहीं है।
          खैर! मेरे जीवन में यात्रा के जो भी संयोग - दुर्योग बने वो या तो आयोगों के द्वारा परीक्षा और साक्षात्कारों के बीच बने या फिर किसी सेमिनाॅर या साहित्यिक कार्यक्रमों के लिए। इधर उत्तर प्रदेश के आयोग रूपी हाँडी में जब अपनी दाल नहीं गली तो तय हुआ कि अब जिस भी राज्य से विज्ञापन निकले वहीं धूनी रमा देनी चाहिए। इस क्रम में पड़ोसी राज्य बिहार ने सबसे पहले अवसर दिया। वहाँ लिखित परीक्षा पास करने के बाद पता चला कि कुछ दसेक सवाल ग़लत होने के कारण मामला कोर्ट में गया है।
इधर हम उत्तर प्रदेश वाले पहले से ही जानते हैं कि यूपी की भर्ती में कुल छह चरण होते हैं - प्री ,मेन, इंटरव्यू, हाईकोर्ट, सुप्रीमकोर्ट फिर सीबीआई जाँच तब नियुक्ति। लेकिन यही बीमारी पड़ोसी राज्य बिहार को भी लग जाएगी, ऐसा तो सोचा भी नहीं था।
यूँ तो निज़ी तौर पर मैं शरिया कानूनों के ख़िलाफ़ हूँ लेकिन केवल एक मामले में ऐसा ही कोई कानून चाहता हूँ जिससे जम्बू द्वीप के ऐसे विषय विशेषज्ञों को तत्काल पकड़ कर उनके नितम्ब द्वीप पर पाँच सौ कोड़े लगाए जाएँ जिन्हें जवाब तो छोड़िए सवाल तक करने नहीं आता। और ऐसे ही नालायकों की वज़ह से परीक्षा और मज़ाक दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए हैं।
लेकिन जब तक मैं विचारों से उग्रवादी होकर कोई ऐसा - वैसा संगठन बनाता इसके पहले ही झारखंड ने टीजीटी के परीक्षा की तिथि घोषित कर दी। और परीक्षा - केन्द्र निर्धारित किया था - हजारीबाग। परीक्षा हमें बस एक बात सिखाती है - सबसे पहले रहना। अतः सबसे पहले हमने बनारस से हजारीबाग की टिकटें बुक कराईं। संयोग से रिजर्वेशन मिल भी गया। वर्तमान काल में ट्रेन में रिजर्वेशन मिलने मात्र से मनुष्य, मनुष्येतर हो जाता है। लेकिन पिछले कुछ दिनों का रिकॉर्ड देखने से पता चला कि हमारी वो रिजर्व ट्रेन वामपंथ की तरह पथभ्रष्ट हो चुकी है और 'अच्छे दिनों' की तरह कब आयेगी इसका भी भरोसा नहीं है। अब एक तरफ़ परीक्षा छूटने का भय और दूसरी तरफ़ अपनी रिज़र्व सीट की गद्देदार स्लीपर सीट छूटने का मोह न दीन का होने दे रहा था न दुनिया का। अंतत: दिल को मजबूत करके कड़ा फैसला लेना ही पड़ा और साथ जाने वाले एक वरिष्ठ आचार्य मित्र की संस्तुति मिलने पर तय किया गया कि बलिया से पटना और पटना से गया और तब हजारीबाग पहुँचा जाए। हालाँकि इस तरह दूरी तो थोड़ी बढ़ जाती और समय भी ज्यादा लगता लेकिन इससे शरीर और साहित्य दोनों के बचे रहने का अवसर भी ज्यादा था। तय यह भी हुआ कि पटना में रह रहे 'कायस्थ कुल - कुलांगार' श्री नरेन्द्र नाथ श्रीवास्तव जी के यहाँ रात्रि विश्राम किया जाए। श्रीवास्तव जी का व्यक्तित्व बहुत ऊँचा है और उससे भी ऊँचा है उनका घर। तकरीबन 'चार बाँस चौबीस गज़ अंगुल अष्ट प्रमाण' चढ़ने के बाद मोटी - मोटी हिंदी अंग्रेज़ी की किताबों के बीच थोड़ी सी जगह मिली जहाँ बैठा जा सके।
        पटना तक की यात्रा के बाद अगली यात्रा करनी थी गया की। धार्मिक दृष्टि से गया की भूमि अत्यंत पवित्र है। ऐसा माना जाता है कि गया ही वह भूमि है जहाँ पिण्डदान करने से पितरों की आत्मा मोक्ष प्राप्त करती है। हालाँकि मेरी आत्मा को सबसे ज्यादा कष्ट 'गया' के नाम पर ही मिला है। पटना से गया की यात्रा बस से सुविधाजनक होगी या ट्रेन से यह जानने के लिए पटना में अध्यापक मित्र श्री साहब लाल सिंह जी की सेवा ली गई। साहब सर और श्रीमती उषा सिंह जी बड़े ही सहृदय और साहित्यिक अभिरुचि के हैं। दोनों लोग न सिर्फ़ मिलने आए बल्कि पथ भी बताया और पाथेय की भी व्यवस्था की।
साहब सर ने पूर्णतया बिहार की लय में बताया - हम लोगों को जब जाना रहता है न ऽऽ तो हम लोग ट्रेनवे से गया जाते हैं।
हमने भी 'मनाजन: येन गता स: पंथा' का अनुसरण ठीक समझा और सुबह नौ बजे ट्रेन की राह पकड़ी।
            'पटना - गया पैसेंजर' की सीट पर बैठते ही गया को लेकर बचपन की जो स्मृतियाँ थीं वो 'चेन-पुलिंग' करने लगीं। हमारे ज़माने में ट्रांसलेशन ज्ञान के लिए कम विद्यार्थियों को कूटने के लिए ज्यादा पूछे जाते थे। एक तो अंग्रेज़ी शुरू ही होती थी कक्षा छह से। मतलब अभी ए बी सी डी ठीक से आई नहीं तब तक अंग्रेज़ी के मास्टर साहब अनुवाद का लेसन शुरू कर देते थे। साथ ही साथ राइटिंग भी सुधरती रहे इसके लिए वो अक़्सर ब्लैक - बोर्ड पर हिंदी में वाक्य लिख देते थे और उसके नीचे हमें अंग्रेज़ी में अनुवाद लिखना होता था। पाठ को जीवंत और प्रभावी बनाने के लिए उन्होंने एक अद्भुत विधि भी विकसित की थी। वो अनुवाद पूछते समय हमेशा क्लास के लड़के - लड़कियों का नाम बीच में घुसा देते थे। जैसे राजेश के लिए लिखते थे - राजेश आम खाता है...अंग्रेज़ी में अनुवाद लिखो।
स्वाति के लिए लिखते थे कि- स्वाति दूध पीती है...इसका अंग्रेज़ी में अनुवाद लिखो। अच्छा! एक दुर्भाग्य मेरे साथ शुरू से रहा। ये खाने - पीने वाले जितने भी अनुवाद रहे, सब के सब मेरे दोस्तों के हिस्से में आते थे और मेरे हिस्से में वही रूखा सूखा, आना - जाना।
मास्टर साहब मजबूत कदमों से मुझ कमजोर विद्यार्थी के पास आते और कहते - चलो तुम लिख कर दिखाओ! असित, गया गया।इसका अंग्रेज़ी अनुवाद क्या होगा? हम छोटे से दिमाग पर आवश्यकता से अधिक जोर लगाकर लिखते - असित, वेंट टू वेंट...। अब इसके बाद जो थप्पड़ों का निनाद हमारी सिसकियों के स्वर में एकाकार हो रहा होता तभी मास्टर साहब गरज़ते - ससुर एक ही बात कौ बार बताएँ कि- गया इज़ अॅ नेम अॅ प्लेस...।
तब उस बाल मन में जो पहली भीष्म प्रतिज्ञा उभरी थी वो यही थी कि जीवन में भले ही कभी असित- वेंट टू पेरिस लिखूँगा या नहीं, भले ही मेरी जिंदगी में असित- वेंट टू माॅरीशस लिखा जाएगा या नहीं लेकिन एक बार असित - वेंट टू वेंट मतलब असित, गया - गया। लिखकर जरुर दिखाना है...।
(शेष अगले भाग में)

असित कुमार मिश्र
बलिया

        

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