Friday, June 24, 2016

बोतल भी उठा लाया....

कुछ मामलों में गाँव का इतिहास भूगोल राजनीति ही नहीं अर्थशास्त्र और गृहविज्ञान तक अलग होता है।समाचार और हेडलाइंस यहाँ तब आते हैं जब दूसरी जगहों पर लोग उसकी समीक्षा ही नहीं पोस्टमार्टम कर चुके होते हैं। इसी तरह हमारा न्याय शास्त्र भी अलग होता है कई बार 'फैसला आन दि स्पाॅट' करने में गलतियाँ भी हो जाती हैं।
वो हमारे भी खेलने खाने के दिन थे। हमारा मासूम सा चेहरा हमारे गुनाहों को छुपा लेने का बहुत बड़ा हथियार था ही, उस पर भी सबसे सम्मानित परिवार के हम ही ठहरे। यूं गाँव के 'नवयुवक मंगल दल' के प्रथम अध्यक्ष बनाए गए। पहला आक्रमण गाँव के हालावादियों पर करने का प्लान बना। पहले शिकार के रूप में एक वकील साहब का चयन किया गया जो अक्सर हाला की प्याला का पान कर आत्मा का अवैध कनेक्शन परमात्मा से जोड़ने लगते थे। थे तो बड़े योग्य लेकिन पता नहीं कैसे शराब की लत लग लगी। हमारे 'सामाजिक बहिष्कार कार्यक्रम' को वो पहले ही फेल कर चुके थे। क्योंकि शराबियों का अलग ही समाज होता है और उनकी आकांक्षाएं भी अलग। इसीलिए उन पर हमारे इस सामाजिक बहिष्कार रुपी आग्नेयास्त्र का असर नहीं हुआ था। अब हमारे सामने बह्मास्त्र यही था कि जब भी ये शराब पी कर आएं, इन्हें पीट दिया जाए।इन क्रांतिकारियों में उनका खुद का लड़का भी था।
      शाम के समय गाँव, गाँव बन जाता है। चूल्हे से धुआँ उठने लगता है आटा गूंथने वाली चूड़ियाँ खनखनाने लगती हैं, और कोई सास दुआर पर बैठ कर नवकी कनिया को सरापने लगती है - जा ए पुरा पर वाला मामा एइसने लुआठ नियर लइकी खोजलऽ"। लगभग इसी समय वकील साहब मिर्ज़ा असदुल्ला खां गालिब के प्रतिनिधि बने चले आ रहे थे। उन्होंने मिसरा उठाया ही था-" दर्दे दिल भी गमे दौरां के बराबर से उठा..... आग सहरा में लगी और धुआं घर से उठा... तक आते आते उन पर थप्पड़ों की बरसात हो चुकी थी। उस धक्का मुक्की में मैं ही पता नहीं कैसे उनके सामने आ गया और उन्होंने मुझे पहचान लिया। खैर टेंशन नहीं थी क्योंकि लोग गंगा जल में खड़े होकर भी कहते कि मैं मारपीट करता हूँ तो कोई नहीं मानता।
       हम अपने ब्रह्मास्त्र का असर देखना चाहते थे, लेकिन वकील साहब दिख ही नहीं रहे थे।अचानक सड़क पर एक चाय की दुकान से आवाज आई - "आवऽ सोनू बाबू चाय पियाईं"। मैं चौंक गया क्योंकि आवाज हमेशा की तरह वकील साहब की ही थी। मैं अपराध बोध से शर्माते-शर्माते गया। उन्होंने हमेशा की तरह एक दिलफरेब शायरी के बाद चाय की प्याली धराई।
अब मेरे मुँह से निकला - वकील साहब! माफ कीजिएगा उस दिन आपको मारने वालों में मैं भी था।
वकील साहब ने शायरों की तरह ठहाके लगा कर कहा - सोनू बाबू! आप झुट्ठे परेशान हैं चोट हमको थोड़े लगी थी। ऊ जो बोतलवा हम पिए थे वही ससुरा पिटाया।
वकील साहब इस दुनिया में नहीं अब। लेकिन आज भी हम "बोतलवा" को रोज पीटते हैं... खूब पीटते हैं।
एक दिन डा कुमार विश्वास के पेज पर एक बहुत अच्छी शायरी आई। मैं सोच ही रहा था कि उन्हें धन्यवाद कह आऊं। तब तक किसी 'नव युवक मंगल दल' वाले भाई, कुमार विश्वास जी को दस बीस गाढ़ी गाढ़ी गालियां देते हुए अवतरित हुए। मैं असहज हो गया लेकिन चुप रहा।दो मिनट बाद "कुमार विश्वास" पेज की सीनियर एडमिन रुचिका आईं और उन्होंने लिखा कि - भैया, आपको इतने अच्छे संस्कार देने वाले आपके माता-पिता को मेरा प्रणाम।
दो मिनट में रुचिका के इस कमेंट को सात सौ लाइक मिले और सैकड़ों समर्थन भी। दुबारा वो गालियों वाले मुँह नहीं खुल पाए।
       मैं समझ नहीं पाता कि जब हम कुमार विश्वास को शब्दों से पीट नहीं पाएंगे तो फिर गालियाँ हम लिखते ही क्यों हैं? यहाँ शब्दों से पहचान है हमारी। शब्द यहाँ रोते हैं, गाते हैं, हँसते हैं, मुस्कुराते हैं। शब्द ही पीटते हैं शब्द ही पिटाते हैं... मेरे दोस्त! किसी कुमार विश्वास को कभी चोट नहीं लगेगी, उसी वकील साहब की तरह। बस बोतलवे पर फैट मार रहे हैं हम।
बात यहाँ किसी कुमार विश्वास जी की नहीं है बात यहाँ हमारी आपकी सबकी है। कल किसी चर्चित कवि श्री शायक आलोक जी ने श्री वीरू सोनकर के लिए एक वाक्य लिखा - "वीर बेटा! मेरा यौनांग तुम्हारे मुख से सुंदर है "।
संभव है इन दोनों कवियों में कुछ वाद विवाद हो। मैं बहुत नहीं जानता इन लोगों के बारे में। और मनुस्मृति भी मैंने थोड़ी बहुत पढ़ी है पर, इससे पतित, निकृष्ट और गंगा वाक्य जीवन में मैंने पढ़ा न सुना।
कविता के बारे में मेरी समझ बहुत अच्छी नहीं। एम ए का वाइवा था परीक्षक महोदय ने सवाल किया था - तुम्हारा प्रिय कवि?
मैंने कहा था - धूमिल।
उन्होंने अगला सवाल किया - साठोत्तरी कविता के बाद बताओ?
मैंने कहा - सर! साठोत्तरी कविता के बाद भी कवि हुए क्या!
पता नहीं क्या हुआ परीक्षक महोदय मेरे उत्तर पर तालियाँ बजाने लगे। सच कहता हूँ मैं नहीं जानता कि आजकल कैसी कविता आ रही हैं, कौन कौन लिख रहे हैं! लेकिन दोस्त! धूमिल जैसा भदेस, धृष्टता की हद तक, और आक्रोश की भाषा में ही लिखने वाला जब कहता है कि - "कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है"।
तो जरूर एक बार हम सभी को सोचना चाहिए कि अपने पाठकों के प्रति हमारा कोई दायित्व है कि नहीं? जिस दिन पहला फॉलोअर बनता है हमारा, उस दिन बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ जाती है हम पर। हम कौन सी दिशा, भाषा और चिंतन दे रहे हैं समाज को अपने इस साहित्य से?
         कल मेरे "इंजीनियरिंग वाले" पोस्ट पर एक इंजीनियर साहब मुझे "बलियाटिक चुनौती" दे गए साहित्य में दो-चार हाथ करने की। और साहित्य के नाम पर मैं डर जाता हूँ क्योंकि एक पंक्ति ही आती है मुझे साहित्य के नाम पर -
मानुष प्रेम भयहुं बैकुंठी। नाहीं त काह छार भई मूठी।।
मैंने उनसे खूब हंसी मजाक किया। मेरे पास सैकड़ों कारण थे कि उनको गालियाँ देता, भगा देता, दुराचार करता। लेकिन मैंने देखा कि वो साधारण पाठक ही थे। बस भ्रम हो गया था उन्हें कि मैं इंजीनियरिंग की शिकायत कर रहा हूँ।
गलत मत समझिएगा, संत नहीं हूँ मैं। ईंट का जवाब पत्थर से नहीं परमाणु बम से देता हूँ। लेकिन भाषिक अभद्रता नहीं करता। आक्रोश और अभद्रता में अंतर होता है।
एक बार फेसबुक के महारथी कहे जाने वाले श्री अजीत सिंह सर मुझसे अभद्रता कर बैठे। सीधे उनके इनबॉक्स में समझा आया कि- सर! बलिया का हूँ कलम कुदाल और कट्टा तीनों चलाता हूँ। तब मैं पच्चीस लाइक पाता था और अजीत सर पच्चीस सौ। लेकिन लड़ गया उनसे।और एक दिन उन्होंने पश्चाताप करते हुए मेरी एक पोस्ट तारीफ के साथ शेयर की। आज भी फेसबुक पर मैं छोटे-मोटे लोगों को दुश्मन नहीं बनाता क्योंकि मेरे एकमात्र दुश्मन अजीत सिंह सर हैं।
लेकिन मैंने बेहतर लिख कर जवाब दिया उन्हें। गालियाँ नहीं दी ब्लाक नहीं किया अनफ्रेंड नहीं किया। जबकि सैकड़ों कारण थे मेरे पास। और उनकी कोई आवश्यकता भी नहीं थी मेरे जीवन में। कहीं मेरा जिक्र आने पर अजीत सर कहते हैं कि नहीं मैं असित को नहीं जानता। मैं भी कहता हूँ कि मैं किसी अजीत सिंह सर को नहीं जानता। दुश्मनी अपनी जगह है इसमें अभद्रता अश्लीलता जातिगत टिप्पणी अमर्यादा कहां से आई?
            आज फेसबुक पर अमर्यादित आचरण टिप्पणियाँ लेख बढ़ते जा रहे हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि दुश्मनी मत कीजिए। कीजिए। खूब कीजिए। लेकिन इतनी गुंजाइश बची रहनी चाहिए कि, अगर कभी मिलें तो शर्मिंदा न हों।
इसीलिये जब भी आक्रोश में आकर गालियाँ लिख रहे हों, अभद्रता करने जा रहे हों तो याद कीजिएगा मेरी बात - चोट 'वकील साहब' को लगेगी नहीं, और 'बोतलवा' पर फैट मारने से कोई फायदा नहीं :)
असित कुमार मिश्र
बलिया

       

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