हफ्ते भर से रियो में मैडल की तलाश जारी है। मुझसे भी एक दो मित्रों ने पूछा कि असित भाई रियो वाला मैडलवा कहाँ है?
देखिए! खेलों की बहुत समझ नहीं है मेरी, क्योंकि बचपन में मुझे खेलता देख कर बाबूजी दूर से ही गरियाने लगते - खाली खेलऽ ससुर, बइठ के दु अच्छर पढ़िहऽ - लिखिहऽ मत। वही खेलों से जो दूरी बनी वो आज भी है। मेरे जीवन में क्रिकेट का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है सात रन। वो भी बाॅलर ने बैट पर ही गेंद मार दी होगी।
तो मैं नहीं बता सकता कि आपके मैडल कहाँ हैं? वैसे भी मैं छोटी मोटी कथा कहानियों वाला हूँ भाई! मुझे कहाँ इस फील्ड में घुसा रहे हैं। छोड़िए ये मैडल की बातें। अपने गाँव की एक कहानी सुनाता हूँ।
कुछ साल पहले एक लड़का था मेरे गाँव में, नाम था लंगड़ा। मने नाम तो संतोष था उसका, लेकिन उसके एक पैर का पंजा थोड़ा सा टेढ़ा था।तो नाम पड़ गया लंगड़ा। सातवीं में था। हकलाता भी था थोड़ा बहुत। हमारे कस्बे के स्कूल के बहुत बड़े फील्ड में ब्लाक रैली हो रही थी।इलाके के एक से एक दौडने वाले लड़के ट्रैक पर स्पाइस सूज और लाल पीले ड्रेस में रन अप के लिए तैयार हो रहे थे। पता नहीं क्या लंगड़ा के मन में आया कि गेम टीचर से जा कर बोला कि - माट्साब! हमहूँ दौड़ेंगे।
माट्साब ने देखा कि एक फटे कुर्ते, हाफ पैंट और नंगे पैर वाला जमूरा खड़ा है।
उन्होंने डांट कर भगा दिया।
लंगड़ा फिर घुस गया और फिर कहा - माट्साब - हमहूँ दौड़ेंगे।
अबकी माट्साब ने एक दो थप्पड़ धरा कर लंगड़ा के दौड़ने का भूत उतार दिया।
लंगड़ा रोते हुए गाँव में पहुँचा। तुरंत खबर फैल गई कि गाँव की इज्जत पर किसी ने हाथ उठाया है। गाँव कुछ मामलों में बहुत अच्छे होते हैं। भले ही गाँव का लंगड़ा पिछड़े वर्ग में आता हो, लेकिन बाहरी मामले में बाभनों की लाठियां भी उसी के तरफ से चलेंगी। तुरंत आपातकालीन बैठक हुई और आदेश पारित हुआ कि हमारा लंगड़ा उस फील्ड में दौड़ेगा तो दौड़ेगा,अब चाहे गोली चले या भाला।
रेफरी ने अपनी समस्याएं बताईं कि इस लड़के से दो गुने उम्र के धावक हैं ये, और सब पुलिस की तैयारी वाले हैं। फिर लंगड़े के पास जूता भी तो नहीं।
गाँव वालों ने कहा कि - हमारा लंगड़ा ऐसे ही दौड़ेगा। नहीं तो अभी के अभी खेल बंद।
खैर! लंगड़ा दौड़ा उसके फटे कुर्ते के दोनों पल्ले फहराने लगे और दो सौ मीटर की रेस के सभी पुरनके चैंपियन लंगड़ा से लाठी भर पीछे रह गए।
आज पच्चीस साल का हो गया है लंगड़ा। अब उसे हम लोग संतोष कहते हैं और दिल्ली में यही संतोषतवा कहीं दस हजार पर काम करता है। आप पूछ रहे थे न कि कहाँ है मैडल ? पेट की आग में अक्सर सोने जलकर राख हो जाते हैं दोस्त।
मैं यह नहीं कह रहा कि संतोष 'बोल्ट' बन जाता रेसिंग का। लेकिन उसे एक मौका तो मिलना चाहिए था न!
ऐसे ही एक बार हमारे खेत में गेहूँ की कटाई हो रही थी। पंद्रह बोझे हमारे होते हैं और सोलहवाँ बोझा काटने वाली मजदूरिन लड़की का। यही सोरहिया सिस्टम है। मजदूरिनें पंद्रह बोझे छोटे छोटे बाँधती हैं और सोलहवाँ खूब बड़ा। इसी पर एक दिन बाबूजी चिढ़ गए और एक बहुत बड़े बोझे को देखकर बोले कि इसे अकेले उठाकर घर लेकर चली जाओ सौ रुपए इनाम दे दूंगा। अचानक एक सांवली सी गठे बदन वाली लड़की आई, साँस अंदर खींचा, और बोझा उठाकर कपार पर रखकर चल दी। बाबूजी हैरान रह गए। मैंने कहा कि - ए बाबूजी सौ रुपियवा दीजिए उसे देते आएं...।
बाबू जी मुझी पर भड़क गए - भाग!! ससुरा एहिजा से।
जानते हैं भारी बोझा लेकर चल रही किसी लड़की के कमर का लचीलापन देखिएगा कभी, और किसी वेट लिफ्टर से पता कीजिएगा कि शरीर में यह लचक कितने मेहनत से आती है? जिसे भारत की गरीबी यूं ही सिखा देती है। आप पूछ रहे थे न कि मैडलवा कहाँ है? आज वो लड़की कहीं औरत होकर कटिया पिटिया कर रही होगी। मैं यह नहीं कह रहा कि वो लड़की 'कर्णम मल्लेश्वरी' ही बन जाती। लेकिन एक मौका तो उसे भी मिलना चाहिए था न! ऐसी सौ मजदूरिन लड़कियों में एक वेट लिफ्टर बन सकती है। और ऐसा संतोषवा तथा लड़कियां भारत के हर गाँव कस्बों में पाए जाते हैं।
बहुत बड़ा हो जाएगा अगर ज्यादा उदाहरण दिया तो। लगभग दस दिन पहले आजमगढ़ की एक खबर छपी थी कि कोई यादव लड़का देश स्तर का धावक होकर भी खेतों में काम कर रहा है। वो भी वही मैडल है, जिसे आप रियो में ढूंढ रहे थे। ये मैडल यहाँ से चले ही नहीं, तब तक आप रियो पहुँच गए और इन्हें ढूंढने लगे। आपने पीछे मुड़कर कभी देखा ही नहीं कि ये मैडल रास्ते में कहाँ अटक गए।
दरअसल भारत क्लर्को का और नेताओं का देश है। मेरे बाबूजी भारत के वही टिपिकल पिता हैं जो अपने बच्चे को खेलता नहीं देख सकता।और भारत का हर पिता दयाशंकर मिसिर ही होता है। उन्हें मेरे पढ़ लिख कर क्लर्क बना देने में ही खुशी होगी असित कुमार तेंदुलकर उन्होंने कभी सोचा भी नहीं।
नीतियाँ भी कुछ ऐसी ही दोषपूर्ण हैं। सचिन तेंदुलकर जी पर हम खुश हुए तो उन्हें भारतीय वायुसेना में कैप्टन बना देंगे मनोनीत सांसद बना देंगे। लेकिन उन्हें कोई अत्याधुनिक क्रिकेट स्कूल खोलकर नहीं दे सकते कि - लो भाई अपने जैसे बच्चे तैयार करो।
साइना नेहवाल जी पर बहुत खुश होंगे तो उनके हाथों में कैंट आर ओ का डब्बा थमा कर विज्ञापन की दुनिया में घसीट देंगे, लेकिन उन्हें किसी बैडमिंटन स्कूल में दो घंटे देने के लिए नहीं कहेंगे।
आप देख सकते हैं हर गली मुहल्ले में क्लर्क बनाने वाले हाईस्कूल इंटर कॉलेज। डाक्टर इंजीनियर बनाने वाले वो चमकदार बिल्डिंग्स और होल्डिंग। लेकिन पूरा बलिया जिला घूम लीजिए एक भी न कोच मिलेगा न स्पोर्ट्स कालेज। और लगभग पूरे भारत का यही हाल है। हर गाँव में दो चार असफल बीटेक और चार छह असफल बी एड धारी जरुर हैं लेकिन एक सफल सचिन नहीं मिलेगा आपको।
जाति वर्ग संप्रदाय गलत चयन की लड़ाई लड़ कर, पेट की आग को दबा कर कोई ललिता कोई दीपा करमाकर रियो में पहुँचती हैं। और इस हाल में भी अगर आपकी शिकायत है कि दीपा सोना नहीं ला सकी तो आपको बता दूँ कि उतने सोने का तो झुमका पहन कर हमारे गाँव की औरतें किरासन तेल की लाइन में खड़ी होती हैं।करना है तो गर्व कीजिए इस बात के लिए, कि ललिता और दीपा इस कुपोषित और संक्रमित हाल में भी अकेले भारत के लिए लड़ने पहुँच गईं।अगर मैडल चाहिए तो हर ललिता और दीपा के कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होना होगा। उन्हें भरोसा दिलाना होगा कि दीपा, भारत भूखा रह जाएगा लेकिन तुम नहीं।पहले हम रियो नहीं पहुंचेंगे। तुम्हें अपने साथ लेकर चलेंगे... क्योंकि कोई भी मैडल दीपा को नहीं मिलता....देश को मिलता है।
असित कुमार मिश्र
बलिया
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