Monday, October 31, 2016

मंगल पर भी मंगल नहीं है....


आज सबेरे साते बजे परभुनाथ चाचा दुआर पर हाजिर हो गए। बड़का बैग उनके कमासुत होने की कहानी बता रहा था, और जगह जगह कपड़े की सिलवटें बता रही थीं कि इस दीपावली की भीड़-भाड़ में भी चचा एसी कोच में आराम से सोते आए हैं। मैंने पैर छूने के बाद उनका पेट भी छुआ और हँस कर कहा - कौ महीना का बाबू है चचा ?
चचा गरमाए - ससुर मुँह फोर देंगे फालतू बोले तो।अपनी अम्मा को बुलाओ असीरबाद लें लें। फिर घर जाकर सर-सफाई करना होगा।
मैंने कहा - अरे आराम से यहीं नहाइए खाइए, कहाँ अपने घर जाएंगे?
चाची घर में चलीं गईं और चाचा कुर्ता खोल कर कुर्सी पर बैठ गए। मैं चाचा को गौर से देखने लगा।
चाचा को आप मेरा गाँव समझ सकते हैं,मेरा जिला समझ सकते हैं,मेरा देश समझ सकते हैं और उसके आगे भी कुछ होता होगा तो वो भी समझ सकते हैं।परभुनाथ चचा 'मल्टीटैलेन्टेड' हैं। मने खड़े-खड़े पैसा कमा देंगे।इसी गाँव में घर है इनका भी पुरुब टोले में। तीन बीघा खेत, तीस-चालीस घरों की जजमानी, दो बैल एक गाय ठीक-ठाक घर। और क्या चाहिए एक गंवई आदमी को? लेकिन समस्या तब होने लगी जब इनके बगल में रहने वाले दुवरिका बाबू ने इनके घर के सामने अपना गोबर रखना शुरू किया था। दोनों ओर से दो-दो हाथ लाठी चली और तीन किता मुकद्दमा। बाबू साहब बीस पड़े और उन्होंने अपनी जमीन बाँस से घेर ली तो परभुनाथ चचा को आने-जाने में भी समस्या होने लगी।इधर दूसरा पड़ोसी भी गद्दार निकला। नाली का पानी चचा के दरवाजे पर बहाने लगा।
धीरे-धीरे चचा ऊबते चले गए। पहले एक पड़ोसी से फिर दूसरे से फिर पूरे पुरुब टोले से फिर पूरे गाँव से। अचानक एक दिन सुनाई दिया कि चाचा गाँव में एक बीघा जमीन बेच कर बलिया जीराबस्ती में घर खरीद कर रहने चले गए। हम सब हैरान रह गए। दो साल बाद पता चला कि चचा लखनऊ शिफ्ट हो गए हैं और मार्बल के काम में पैसा पीट रहे हैं। हम लोगों को भी खुशी हुई कि चलो हमारे गाँव का कोई आदमी तरक्की कर रहा है। पिछले जिउतिया को पता चला कि चचा लखनऊ का घर बेच कर दिल्ली रह रहे हैं, और किसी सीमेंट कंपनी में अच्छे पद पर हैं। गाँव घर से जैसे-जैसे दूरी बढ़ती गई वैसे वैसे इनकी जमीनें भी कम होती गईं। अब गाँव में खर-पतवार से ढंका बस एक घर है चचा का। बाकी सब बिक गया। लेकिन चचा ने दिल्ली में ठीक-ठाक प्रापर्टी बना ली है। बैग का वज़न बता रहा है कि सबके लिए कुछ न कुछ लाए हैं।
          चचा अब नहा कर आ गए थे मैं आदत के अनुसार उनके बैग में से अपने लिए लाई चीज़ें चुन रहा था। एक छींटदार साड़ी और चार खद्दर की धोती कुछ मिठाई के डिब्बों के बाद एक नई घड़ी दिखी।
मैंने चाचा से पूछा कि ए चाचा सब ठीक है दिल्ली में? सुना है केजरीवाल सर मुफ्त बिजली पानी हवा सब दे रहे हैं।
चचा फिर गर्मा गए एकदम से चिल्ला कर बोले - हां! सब ठीक है दिल्ली में। साला हमहीं खराब हैं। ईहां गाँव में थे तो दुवरिकवा परेशान करता था, बलिया गए तो वहाँ सोझे शराब का दुकान खुल गया। लखनऊ गए तो वहाँ बिल्डर से झगड़ा होता था दिल्ली गए उहां एगो बनिया बगल में बस गया है रोज सताता है। मँहगाई रोज बढ़ रही है आ ई सरवा केजरीवाल रोजे नया नया डरामा करता है ... हाँ दिल्ली तो ठीके है, हम ही खराब हैं।
मैंने हँस कर कहा - ए चचा निराश मत होइए चाँद पर प्लाटिंग होने ही वाला है कट्ठा भर जमीन खरीद लीजिएगा वहीं। आ आराम से रहिएगा।
तब तक सामने से दुवरिका सिंघ जाते हुए दिखे मैंने थोड़ा जोर से कहा - ए सिंघ चचा आइए चाय पिलाएं।
सिंघ चचा ने चश्मा ठीक किया और मेरी तरफ देख कर कहा - के हऽ मास्टर?
हमने कहा - जी आइए हमहीं हैं।
सिंघ चाचा को कुर्सी पर बैठने में दिक्कत है तो चारपाई निकाली गई। दुवरिका सिंघ जैसे ही बैठे मैंने उनकी बूढ़ी कलाई में वो नई घड़ी बांध दी।
सिंघ चचा बोले - ई का है मास्टर?
मैंने कहा कि - परभुनाथ चचा दिल्ली से कमा कर आए हैं वही आपके लिए घड़ी लाए हैं। सिंघ चचा ना-ना करते हुए घड़ी खोलने लगे, तब तक मैंने बैग में से खद्दर की धोती निकाल कर उनके हाथ में रख दी और कहा कि - धोती भी है आपके लिए। पूरे गाँव में आप ही पहनते हैं खद्दर। अभी चाची के लिए छींट वाली साड़ी भी है।
सिंघ चचा नर्भस होकर बोले - बबवा तो बहरा जाते ही बदल गया। गाँव में था तो बड़ा घमंड में रहता था।
इधर परभुनाथ चचा बाहर निकले तो देख रहे हैं कि उनकी घड़ी दुवरिका सिंघ की कलाई में बंधी है और एक खद्दर वाली धोती उनके गोद में रखी है।
परभुनाथ चाचा धोती छीनने लपके तब तक मैंने कह दिया - दुवरिका चचा को परनाम कहिए आपसे बड़े हैं ये।
जब तक परभुनाथ चचा का परनाम पूरा होता तब तक दुवरिका सिंह ने परभुनाथ चचा को बांहों में भर लिया और बोले - दिवाकर सिंघवा को बारह साल कमाते हो गया लेकिन एक रुमाल नहीं लाया और परभुनाथ बाबा आप एतना झगड़ा के बाद भी हमको भूले नहीं।
मैं इस भरत मिलाप पर चुप क्यों रहता। जोड़ दिया दो लाइन - अरे चचा झगड़ा तो होता रहता है लेकिन खून तो एक ही है गाँव का न!
अब दोनों लोगों ने एक साथ चाय पी। लेकिन किसी ने किसी से कोई बात नहीं की। दुवरिका सिंघ उठकर जाने लगे तो मैंने कहा कि - ए सिंघ चचा परभु चचा के दरवाजे पर बांस वांस रखे होंगे तो हटा लीजिएगा आखिर ई अपने घर में जाएंगे कैसे?
सिंघ चचा रुके और बोले - मास्टर! किरिया खाकर कह रहे हैं खाली धोती पसारने के लिए बाँस गाड़े थे उसी पर बवाल हुआ था अच्छा हटवा रहे हैं अभी। आ परभु बाबा से कह दीजिए कि आज हमरे घरे खाना है।
           तीन घंटे में कितना कुछ बदल जाता है यह दुवरिका सिंघ के दरवाजे पर देखा जा सकता है अब। परभुनाथ चचा खटिया पर पेट फुलाए लेटे हैं और दुवरिका सिंघ की छोटकी नातिन उनके पेट पर खेल रही है। उधर दुवरिका सिंघ परभुनाथ चचा का दुआर साफ करा रहे हैं और छत पर चाची ठकुराइनों के बीच में बैठी मैट्रो ट्रेन में साड़ी फंसने वाली घटना सुना रही हैं।
            फिर कहूंगा परभुनाथ चचा व्यक्ति नहीं गांव हैं, जिला हैं, देश हैं, पूरी मनुष्यता हैं। हर कोई परेशान है अपने पड़ोसी से। मैं भी, आप भी, यहाँ तक कि अपना देश भी। हम गाँव छोड़कर भागते हैं कस्बे में। कस्बे से शहर, शहर से राजधानी, राजधानी से चाँद पर जाने की तैयारी है अब। लिखकर रख लीजिए चाँद पर भी जल्दी ही लोग ऊब जाएंगे अपने पड़ोसी से। फिर मंगल पर जीवन की तलाश होगी। लेकिन जीवन में मंगल की तलाश कोई नहीं करना चाहता। रुकिए थोड़ा सा ठहरिए। धरती पर कहीं स्वर्ग नहीं है आप जहाँ हैं उसके सिवा।जानता हूँ आपका पडोसी नालायक है घमंडी है। लेकिन कभी सोचा है कि वो भी आपको शरीफ नहीं समझता होगा।
कभी होली दीपावली छठ दशहरा के दिन अपने पड़ोसी की खबर ली आपने? अपना दीप जलाते समय पड़ोसी के घर का अंधेरा कोना देखा आपने? कभी सोचा है कि आपके पिंटू के साथ बगल के सनी के हाथ में भी वही घड़ी हो? पांच सौ के नोट का खुदरा तो देते ही नहीं आप, उसके संकट में काम क्या आएंगे? है न!
तो परभुनाथ चचा की तरह आपको कभी कहीं सूकून नहीं मिलेगा। आप सैकड़ों सालों तक भागते ही रहेंगे पडोसी से। गांव से जिला तक, जिला से लखनऊ, फिर दिल्ली, फिर चाँद, फिर मंगल और कुछ बदलेगा नहीं। गाँव में रहकर पड़ोसी अच्छा नहीं लगेगा और बलिया की जिंदगी को अच्छा बताएंगे। बलिया में रहकर लखनऊ को अच्छा बताएंगे और लखनऊ जाकर दिल्ली को अच्छा बताएंगे। दिल्ली जाते ही चाँद अच्छा लगेगा। हमेशा बाहर स्वर्ग की कल्पना करेंगे लेकिन जहाँ रहेंगे उसे स्वर्ग बनाने की कोशिश नहीं करेंगे। और लगेगा क्या इसमें?
मैं जानता हूँ दुवरिका सिंघ आदमी नहीं पहचान पाते घड़ी में समय क्या देखेंगे? सीधा खड़ा होने में दस मिनट लगाते हैं खद्दर की भारी धोती क्या संभालेंगे? लेकिन वो घड़ी और वो धोती जीवन में मंगल का माध्यम है।
चलिए इस बार की दीपावली अकेले नहीं सबके साथ मिलकर मनाते हैं मंगल पर जीवन के लिए नहीं जीवन में मंगल के लिए। आप सबको दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ।
अच्छा उधर अम्मा मेरे बारे में कह रही हैं - बिना कुछ खिलाए पिलाए परभुनाथ बाबू को भेज दिया। थोड़ी सी भी बुद्धि नहीं है... भगवाने मालिक है इस नालायक का...
असित कुमार मिश्र
बलिया

Friday, October 14, 2016

मौत (कहानी)

मौत                 (कहानी)          
बलिया अब भी वही है, चौबेपुर गाँव भी अब भी वही है, यही नहीं रघुनाथ चौबे का घर भी बिल्कुल वही है। नहर के किनारे एकदम पूरब कोने पर। घर के सामने सुरुजकली भौजी का लगाया केले का पौधा, और पीछे दीवार पर खिड़कियों के नीचे उनके हाथों की गहरी छाप लिए गोबर के चिपड़े भी अब भी वहीं हैं। लगता है जैसे अभी भौजी बखरी के आसपास से पियरी पहने निकलेगी और नहर पर आते जाते किसी चचिया ससुर को देखते ही हाथ भर का घूंघट निकाल लेंगी। या किसी नौसिखिया साइकिल चलाते बच्चे को देखकर कहेगी कि नहर में साइकिल लेकर मत चले जाना। या किसी स्कूल जाने वाले बच्चे को बुलाकर उसके ऊपरी जेब में टटका चिऊरा गुड़ रखकर उसे नसीहत देते दिख जाएगी - 'देखो बबुआ मन लगाकर पढ़ा जाता है' ।
शायद ही चौबेपुर का कोई लड़का हो जिसके कुर्ते की जेब में भौजी के गुड़ का दाग न लगा हो।
             भौजी आज से छह बरिस पहले अगहन के महीने में इसी नहर के पतले रास्ते से होते हुए, एक सुंदर सी डोली में चार कंहारो के कंधे पर डोलते हुए आई थी। और जब भौजी के ललके महावर लगे एड़ियों वाले दो गोरे पाँव धरती पर टिके थे तब सबने माना था कि सुरुजकली भौजी से सुंदर दुलहिन चौबेपुर में क्या पूरे बलिया जिले में नहीं उतरी होगी। रघुनाथ चौबे ने तो खुलेआम ऐलान कर दिया था कि सुरुजकली से सुघर दुलहिन कोई दिखा दे तो एक झटके में अपनी पछाही गाय हार जाएं। पूरे महीने  गाँव भर की औरतें दुलहिन देखने आतीं रहीं। मनोहर तो किसी न किसी बहाने बस अंगना में आने का बहाना ढूंढते थे, और तुलसी चौरा लीपती हुई कलाइयों की खनक से घायल होते रहते थे। घर के पीछे बाँसों के झुरमुट में दिन भर कोइलर की आवाज सुनाई देती और घर के अंदर दिन भर भौजी के पायलों की रुनझुन। कभी घर के इस कोने को सजाती कभी ओरियानी के नीचे शीत में सिहर रहे छोटका फुफा के पोस्टकार्ड को चिट्ठीटंगना में रखते हुए भौजी के पैर चलते ही रहते थे। मुँह अन्हारे उठने वाली भौजी नहा धोकर तुलसी चौरा लीपती और सुरुज भगवान को, पूरब वाले कोने में दिखते ही जलधार चढ़ा कर पूजा करती। भौजी को दुनिया जहान के धन दौलत से कोई मतलब तो था नहीं, बस एक गोदी का खिलौना चाहती थी। और उसे पूरा भरोसा था कि एक न एक दिन सुरुज भगवान भौजी की सुन ही लेंगे। फिर अंगना के बीचोंबीच चूल्हा जलाकर रघुनाथ चौबे के लिए काढा बनाती। देवांती चाची के लिए खिचड़ी और अपने सास के लिए पानी गरम करने से लेकर साँझ के दियाबरान तक साँस लेने की फुर्सत नहीं।
         कहते हैं कि अंजोरिया का समय ढेर दिन नहीं टिकता। भौजी के जीवन में भी अंधेरा आने वाला था और भौजी अनजान बने अपने कामों में व्यस्त थी। शायद अमवसा था उस दिन जब भौजी रोज की तरह तुलसी चौरा में खड़े होकर सुरुज भगवान को जलधार दे रही थी तभी देवांती चाची ने कहा था - ए दुलहिन! खाली पूजा पाठ ही करती हो, कुछ असीरबाद नहीं मांगती क्या?
भौजी ने मुस्कराते हुए कहा था - चाची जी, आप लोग कुसल से रहें इससे ज्यादे हमको कुछ नहीं चाहिए।
चाची ने ऐंठ कर कहा - अरे, ए अगहन में चार बरिस हो जाएगा बियाह को। एतने में कुसुमवा के तीन बच्चे हो गए।
भौजी ने कुछ नहीं कहा। कहती भी क्या! सबके बदलते चेहरे देखने की आदत सी हो रही थी अब। जिस मनोहर के साथ सात फेरे लिए थे उसे बोले हुए तो तीन महीना हो गया था। लेकिन भौजी हर गम को सहने में माहिर थी।
          सावन का महीना उमंग का महीना होता है, रिमझिम फुहारों का महीना होता है।तन बदन के साथ साथ मन का कोना अंतरा तक भीगने लगता है।लेकिन भौजी के लिए तो बारहो महीने जेठ आसाढ के थे। सबका व्यवहार धीरे-धीरे बदल रहा था। भौजी भी धीरे-धीरे बदल रही थी। अब वो चीजें रखकर भूलने लगी थी। कभी दाल में नमक तेज हो जाता था तो कभी दूध फफा कर गिरता रहता था और भौजी चुपचाप जाने कहाँ देखती रहती थी। चंपई रंग अब झुराने लगा था। सुबह सुबह का नहाना धोना भी अब भौजी को भारी सा लगता था। उस दिन भी गोबर के उपले थापने में दुपहरिया हो गया था, जल्दी जल्दी नहा धोकर भौजी शीशे के सामने खड़ी होकर माथे पर टिकुली लगा रही थी। तभी देवांती चाची ने मनोहर की माँ से कहा - ए जीजी!  कह दो कि हई सिंगार पटार करने से क्या फायदा है। परती जमीन पर हल चलाने से फसल थोड़े होने लगेगी। आ औरत अगर बांझ हो तो.... ।
आगे की बात भौजी से सुनी न गई। हाथों की टिकुली जाने कहाँ गिरी। भौजी ने साड़ी का अंचरा मुँह में ठूंसा और रोआई रोकते हुए किसी तरह अपने कमरे में आकर गिर गई।उस दिन भौजी ने खाना नहीं खाया न ही किसी ने खाने को पूछा ही।
        दिन था कि अपने हिसाब से बीतता जाता था। भौजी रोज चौखट पर बैठकर नहर से जाते हुए स्कूली बच्चों को देखती रहती। कभी-कभी किसी को पास भी बुलाती और उसके शर्ट की उपरी जेब में कभी चने के भूजे रख देती तो कभी टटका चिऊरा। कभी लड़कियों को स्याही खरीदने के लिए आठ आने का सिक्का थमा देतीं तो कभी अपना रीबन किसी को दे देतीं। कुछ भाव था उनके अंदर जो निकलना चाहता था। एक माँ बनने की चाह थी जिसे उपादान नहीं मिल रहा था।
सांझ का समय था। रघुनाथ चौबे दुआर पर बैठे रेडियो सुन रहे थे। विविध भारती का गीत संगीत कार्यक्रम आ रहा था। गाय बैठी पगुरी कर रही थी रेडियो पर खनकती आवाज में सोहर सुनाई दे रहा था - जुग जुग जियसु ललनवां भवनवां के भाग जागल होऽऽ... ।
भौजी उबलता दूध छोड़कर भागी आई और चौखट से सटकर गीत सुनने लगी। हेमलता का यह गीत भौजी को शुरू से ही बहुत पसंद था। तभी भौजी ने सुना  रघुनाथ चौबे से भौजी की अम्मा जी कह रही थी - ए मनोहर के बाबूजी! आप सोमार को जाकर फूलचंद की बेटी को देख आइए। मनोहर ने बियाह के लिए हां कह दी है। आखिर वंश चलाने के लिए हमें कोई उपाय करना होगा न कि नहीं...
बस भौजी अपना मन पसंद गाना आधा अधूरा छोड़ कर अपने कमरे में चली आई। उस दिन भौजी आखिरी बार जी भर कर रो लेना चाहती थी। रघुनाथ चौबे के लिए जिन्हें वो बाबूजी कहती थी। सुशीला के लिए जिन्हें वो अम्मा जी कहती थी। देवांती के लिए जिन्हें वो चाची जी कहती थी। और... और मनोहर के लिए जिसके साथ सात जनम के फेरे लिए थे।
अगले दिन भौजी ने गेहूँ के बखरी में रखने वाला सल्फास खा कर पूरे घर का काम आसान कर दिया। और आगे आने वाले वंश की नींव रखी।
भौजी का मरना कोई बड़ी बात तो थी नहीं सबको बता दिया गया कि रात को अचानक भौजी के पेट में दर्द हुआ था बड़का अस्पताल ले जाते ले जाते रास्ते में ही भौजी का दम टूट गया।
       आज भी बलिया वही है चौबेपुर गाँव भी अब भी वही है लेकिन अब किसी स्कूली बच्चे के शर्ट की ऊपरी जेब पर टटका गुड़ के दाग नहीं दिखते। रघुनाथ चौबे का घर भी वही है लेकिन वो रौनक नहीं दिखती।केले का पौधा, बखरी, बांस के झुरमुट सब वैसे ही हैं, लेकिन हर चीज़ जैसे बेजान... मरी हुई सी।
नहर में पानी अब भी आता है, लेकिन कभी फफा कर नहीं बहता। भौजी आज अगर होती तो देखती कि सब कुछ मर गया है। हाँ, पूरे चौबेपुर गाँव की मौत हो गई है....

असित कुमार मिश्र
बलिया

Wednesday, October 12, 2016

आई लव यू संगीता यादव... (कहानी)

आई लव यू संगीता यादव...

डा०अंजना त्यागी मैम मेरे शहर में स्त्रीरोग विशेषज्ञ हैं। बनारस की हैं। मेरी फेसबुक फ्रेंड भी हैं। आज बहुत दिनों बाद इनके घर आया हूँ। अंजना मैम चाय का कप मुझे देते हुए, बनारसी लहज़े में बोलती हैं-'तो रजा शादी कर ले मुझसे और घर ले चल अपने।' मैं बोलने ही वाला हूँ कि- 'क्या मैम आप भी न!' तब तक बगल वाले कमरे से डा०सौरभ त्यागी सर की आवाज आती है-भाई असित गाड़ी की चाभी मेज़ पर ही है...। बंटी भी कहीं जाने की बात पर दौड़ कर आ गया है-मम्मा मैं भी चलूँगा। हम तीनों खूब हँसते हैं। बहुत प्यार है इस फैमली में। थोड़े बहुत छींटे मुझ तक भी आते रहते हैं।
      तभी कालबेल बजती है। अंजना मैम खीझ उठती हैं। मेरे साथ के समय में कोई पेशेन्ट नहीं देखना चाहती हैं। बेमन से बोलती हैं-कौन है? आ जाओ। एक औरत दो बच्चों के साथ आई है। उम्र से ज्यादा अनुभव और निस्तेज चेहरा उसकी कहानी बयां कर रहे हैं। उसकी थकी सी आवाज़-नमस्ते डाक्टर साहब। अरे!ये आवाज़ तो सुनी सुनी सी लगती है। ध्यान से देखता हूँ उसे। अरे संगीता यादव है ये तो। मेरी जान की दुश्मन। आठवीं में साथ पढ़ती थी। बस दो लोगों से मुझे बहुत डर लगता था। एक गणित के माट्साब से और दूसरा संगीता से। वो मेरे बाल पकड़ कर खींचते थे और ये गाल। न जाने कितनी कोमल छड़ियाँ टूटी होंगी इस वज्र देह पर लेकिन आँसू हर बार इसी की आँख में होते थे। बहुत तेज बोलती थी ये। मेरी रुचि संगीत और अभिनय में होने के कारण कहती थी-'ई असितवा एक दिन अम्ता बच्चन बनेगा'।थोड़ा मौका पाते ही मेरे गाल खूब जोर से खींचती थी। मैंने कई बार माट्साब से शिकायत भी की पर हर बार वो इतनी मासूमियत से कहती थी -"नहीं जी ई झूठ बोल रहा है" और मुझे ही डांट सुनकर बैठना पड़ता था।
      'संगीता तुम मर जाओगी यही हाल रहा तो।प्रोथाम्बिन का लेबल बहुत कम हो रहा है। जाओ ये टेस्ट करा आओ'-अंजना मैम की व्यावसायिक आवाज़ पर चौंक सा जाता हूँ। कितना आसान होता है डाक्टर के लिये किसी आदमी का मर जाना। ओह!कितनी बदल गई है संगीता। मैं तो चाहता ही था कि संगीता मर जाए।क्लास में आलमारी पर एक छोटी सी छुरी रखी रहती थी। एक दिन जैसे ही संगीता पास आई मैंने वो छुरी निकालते हुए कहा-देखो संगीता, जान से मार दूंगा। वो हँसने लगी...छुरी भी छीन ली,खूब जोर से गाल खींचते हुए बोली-'मैं मरने वाली नहीं हूँ बच्चू।'
     सीढ़ियों से उतरती हुई संगीता के पास दौड़कर जाता हूँ।और बोलता हूँ-संगीता पहचाना? आज गाल नहीं खींचोगी?क्या हाल बनाया है यह?कैसी हो कहां रहती हो आजकल....।फिर दस मिनट बातें हुई हैं संगीता से। पता चला कि इन्टर के बाद उसकी शादी हो गई थी। उसके पति की नौकरी आर्मी में लगते ही उसने मेरठ छावनी में नियुक्त एक महिला सिपाही से शादी कर ली।और संगीता तभी से परित्यक्त गांव में पड़ी है।भाई-भौजाई के प्रेम से भी तलाकशुदा। मां-बाप इसी सदमे में गुजर गए।
अचानक संगीता पूछती है-तुम क्या कर रहे हो असित?
'रिसर्च कर रहा हूँ स्त्रीविमर्श पर'-मैं बताता हूँ।
वो मुस्कुरा देती है...मेरा स्त्री विमर्श रो उठता है। मैं उसकी साड़ी पकड़े बच्चे का गाल सहलाते हुए पूछता हूँ-क्या नाम है इसका?
बच्चा खुद बोल उठता है-"सोनू" नाम ह हमार।
ऊफ्फ! सोनू तो मेरा नाम है घर वाला। मतलब जिसे प्रेमी के रुप में न पा सकी उसे पुत्र के रुप में पा लिया! मैं अब दूसरी ओर देख रहा हूँ। वो सीढ़ियाँ उतर कर चली गई।
    मैं अंजना मैम के कमरे में आकर सोफे पर गिर सा जाता हूँ। मैम पूछ रही हैं-अरे तुम गए नहीं!
मैं कहता हूँ-मैम इसकी जान बहुत कीमती है। थोड़ा देख लीजिएगा प्लीज़। और आने को मुड़ता हूँ। तभी मैम की आवाज-अरे हां,असित!तुम बहुत अच्छा लिखते हो। कोई 'प्रेम-कहानी' लिखो न।क्या बोरिंग टाईप लिखते हो।
मैं जेब से कलम निकालता हूँ और उसकी पर्ची पर 'पेशेंट नेम' और 'संगीता यादव' के बीच जो खाली जगह है वहां "आई लव यू" लिख देता हूँ।
दरवाजे से मुड़कर देखता हूँ,अंजना मैम के आँसू उस कागज़ पर गिर कर मेरी अधूरी प्रेमकहानी को पूरा कर रहे थे।
असित कुमार मिश्र
बलिया

Thursday, October 6, 2016

निराश और नाकाम रोगी मिलें

निराश और नाकाम रोगी मिलें...
       कहते हैं जिंदगी की सबसे अच्छी कीमत वही लगा सकता है, जो रोज मरता है। जब भी मेरा कोई दोस्त, विद्यार्थी या कोई भी उदासी निराशा नाकामी और मरने की बातें करता है तो हँसी आ जाती है।
जीवन की परीक्षाओं में अक्सर सफलता के मैसेज आते रहते हैं इधर कुछ दिनों से उदासियों के मैसेज भी मिल रहे हैं। राजस्थान के एक मित्र हैं प्रवक्ता की परीक्षा में असफल हो गए। एक लड़का है जिसे एक लड़की ने धोखा दे दिया है वहीं एक लड़की भी है जिसे एक लड़का धोखा दे गया। एक व्यवसायी मित्र हैं जिनकी कंपनी घाटे में जा रही है... कुछ लोग और भी होंगे ऐसे ही। ऐसे सभी लोगों से आग्रह है कि बस दस मिनट के लिए मेरे साथ मेरे बलिया जिले में घूम लीजिए फिर मन में आए तो संन्यास ले लीजिएगा या फाँसी लगा लीजिएगा आपकी मर्जी। जिंदगी आपकी ही है मैं कौन हूँ आपको रोकने वाला!
       मेरे गाँव से थोड़ी दूर के हैं रविचंद भाई।सूरत की किसी कंपनी में बिजली का काम करते थे एक दिन सीढ़ियों से फिसल कर बिजली के नंगे तार पर गिर गए। डाक्टरों ने दोनों बाँहें काट दी। आठ हजार रुपए में आराम से चल रही जिंदगी ने बिस्तर पकड़ लिया। पत्नी और बच्चे भूखे मरने लगे तो रविचंद भाई ने चार महीने से कोने में फेंकी साइकिल कपार पर उठाई और चल दिए बाजार। साइकिल के हैंडल में लोहे का ऐसा कब्जा लगवाया जिसमें वो अपने हाथ फंसा सकें और ब्रेक को पैरों की जगह लगवाया ताकि उन्हें ब्रेक लगाने में सुविधा रहे। अगले दिन से रोज सुबह नौ बजे बड़ी दुकानों से छोटी दुकानों तक माल पहुंचाने का उनका काम चल निकला और जिंदगी फिर पटरी पर आ गई। हमेशा एक बड़ा थैला आगे और चार बड़े थैले पीछे लेकर चलने वाले रविचंद भाई को जब देखता हूँ एक आग सी लग जाती है मेरे अंदर - हौसले की आग जोश और जुनून की आग। हर कीमत पर जिंदा रहने की आग।
पांच साल पहले भी जब राजनीतिक बिसातें बिछ गई थीं एक एक वोट के लिए साइकिल मोबाइल लैपटॉप देने के वादे हो रहे थे तभी एक नेताजी की नज़र हमारे रविचंद भाई पर पड़ी और उन्होंने रविचंद भाई को 'विकलांग' घोषित करते हुए बैट्री वाला रिक्शा देने की घोषणा कर दी। मैं भी वहीं था समझ गया कि आज नेताजी गए। हुआ भी यही। रविचंद भाई ने बलियाटिक पगड़ी बांधी और लपक कर नेताजी के पास जाकर उनकी आँखों में देखकर बोले - ए नेताजी! फेर विकलांग कहे न तो यहीं लथार कर बैलेट बाक्स बना देंगे। आइए न साइकिल रेस कर लीजिए देखिए तो कौन जीतता है...।
हालांकि रेस के पहले ही नेताजी हार गए वैसे रेस होता भी तो मैं जानता हूँ कि कौन जीतता! क्योंकि जिंदगी की रेस के विनर हैं रविचंद भाई।
       तीन दिन पहले भी मिले थे अपनी उसी ऊर्जा के साथ। कहने लगे कि माट्साहब! सुने हैं कि आप कथा कहानी भी लिखते हैं हमारी भी कहानी लिखिए न! मैंने कहा जरुर लिखूँगा। लेकिन बताइए तो कैसी कहानी लिखूं?
उन्होंने कहा कि एकदम बरियार लभ स्टोरी होनी चाहिए।
अब मैं कैसे कहता उनसे कि रवि भाई आप पर जिंदगी की कहानी लिखूंगा प्यार मुहब्बत की नहीं।फिर रविचंद भाई ने बलियाटिक पगड़ी बाँधी और नंगे पैरों वाला मेरा यह हीरो फोटोजेनिक मोड में आ गया।
अक्सर इनकी इस फोटो को देखता हूँ, इनके चेहरे के गर्व को देखता हूँ इनकी मुस्कान देखता हूँ इनकी बलियाटिक पगड़ी को देखता हूँ और इनके कटे हाथों को देखता हूँ फिर जोर से हँस देता हूँ मौत की नाकामी पर।
एक दिन मैंने इनसे एक अशिष्ट सवाल पूछा था - अच्छा रवि भाई! अगर आपके दोनों पैर भी कट गए होते तब?
रवि भाई ने बिलकुल उसी तरह जवाब दिया था - तब तो हाफ पैंट से ही काम चल जाता। हई फुल पैंट मोड़ कर चलने में दिक्कत तो नहीं होती।
मैं हतप्रभ रह गया उनके जवाब पर, उनकी जिजीविषा पर। इसीलिए निराश हताश और आत्महत्या करने वालों पर हँसी आती है मुझे।
      एक छोटी सी कहानी और है। बलिया में आज से तीस साल पहले एक लड़का था। दिन भर बस क्रिकेट। पढ़ाई लिखाई कुछ नहीं। माँ मर गई पिता ने दूसरी शादी की। और लड़के की जिंदगी और क्रिकेट के बीच समस्या आने लगी। लड़का दिन भर बैट से बाॅल को पीटता था और रात को विमाता उसी बैट से लड़के को। हाईस्कूल की उम्र में लड़का घर से भाग गया। भूख लगी तो बनारस में मूंगफली से लेकर सत्तू तक बेचा। मुम्बई की सड़कों को अपने सवारी गाड़ी से रौंदता रहा लेकिन क्रिकेट नहीं छोड़ा। कड़ी से कड़ी धूप में भी हार नहीं मानी सड़कों पर और रेलवे प्लेटफॉर्म पर अपनी की रातें रंगीन करने वाला वही लड़का आज रेलवे में सरकारी नौकरी करता है खेल कोटे के अंतर्गत।और देश के बड़े बड़े अंपायरों के साथ टीवी पर भी दिखता है। उसी का नाम है नरेन जी गुप्ता।
मैंने पूछा था एक दिन कि - नरेन भाई आप हाथों की लकीरों को मानते हैं कि नहीं? नरेन भाई ने हँस कर कहा था - बाबा! मूंगफली भूजने में हाथों की लकीरें कब की जल गईं। इसीलिए मुझे फिर से लकीरें बनानीं पड़ीं।
       बिना एक पूजा नाम की लड़की का जिक्र किए हुए लेख खत्म करना नहीं चाहता। एक दिन इनबॉक्स में मैसेज आया था - असित भइया। मैं भी बलिया की हूँ डाक्टर ने कहा है कि मुझे मनोचिकित्सक से मिलना चाहिए। बताइए मैं पागल हूँ? मैं सुसाइड करने जा रही हूँ बस लटकने जा रही हूँ पंखे से।
मैंने पूछा कि- हुआ क्या है ये तो बताती जा।
उसने लिखा कि - मैं बहुत प्यार करती हूँ उससे लाखों रुपये दिए उसके माँगने पर। और अब वो कहता है कि मुझसे कोई मतलब ही नहीं।
पता नहीं कैसे राजेश रेड्डी साहब का यह शेर याद आ गया उसी समय -
जिन्दगी बख्शेगी मर जाने के बेहतर मौक़े।
उससे कहिए अभी मर जाने का इरादा न करे।।

मैंने कहा कि - सुन भाई,पंखा तेरा ही है न? रस्सी तेरी ही है न?  दस मिनट बात कर ले फिर आराम से मर जाना। कौन सी तेजी है!
लड़की ने बात की। घंटे भर बात की, रोई भी, सिसकी भी, मुझ पर भी चीखी चिल्लाई। मैं हैरान रह गया एक सुपर ब्रेन, पचासों हजार रुपये महीना कमाने वाली, बड़े शहर में रह रही इस लड़की की कहानी पर।
अगले दिन उसने मैसेज किया। बस एक लाइन में- असित भइया मुझे जीना है... मैं जीना चाहती हूँ।
      आज भी वह पूजा हजारों रुपए खर्च करती है लेकिन गरीब लड़कियों और बेसहारों पर। अब उसे किसी इलाज की जरूरत ही नहीं वो जिंदगी है बहुत से लोगों की।फोटो भी लगाती है अब अपनी मुस्कुराते हुए। यहाँ भी आएगी और हँसी बिखेर जाएगी। और मैं हमेशा की तरह कहूँगा सुन भाई! पंखा तेरा ही है न? रस्सी तेरी ही है?
       मैं नहीं जानता कि यहाँ तक आने पर आपके मन में क्या भाव आ रहे होंगे। लेकिन एक बात कहूँगा कि नौकरी व्यवसाय या कोई भी चीज आपकी जिंदगी से बढ़कर नहीं। अगर आपके दोनों हाथ - पैर सलामत हैं तो आपको निराश होने की जरूरत नहीं। अगर एक हाथ नहीं है तब भी उदास होने की जरूरत नहीं। अगर दोनों हाथ नहीं है तब भी हताश होने की जरूरत नहीं। अगर दोनों हाथ - पैर नहीं है तो याद है न रवि भाई का जवाब।
उठिए! सोचिए मत नरेन जी गुप्ता की तरह अपनी किस्मत खुद लिखनी है आपको। किसी पूजा नाम की लड़की की तरह औरों की खुशी बनिए औरों की जिंदगी बनिए। हताशा में या निराशा में या प्यार मुहब्बत में मरने वाले कहानी बन सकते हैं जिंदगी नहीं।
पूजा ने कहा था एक दिन कि- असित भइया आपकी जीवनी लिखनी है मुझे।
पूजा! मैं नहीं जानता कि जीवनी लिखने लायक मैं बन भी सकूंगा या नहीं। लेकिन फिर भी मेरी जीवनी लिखना तुम। और पूरे दो सौ पन्ने की जीवनी।लेकिन एक सौ निन्यानवे पन्ने खाली छोड़ देना और आखिरी पन्ने पर बस एक लाइन लिखना कि - असित कुमार मिश्र ने कभी हार नहीं मानी।

असित कुमार मिश्र
बलिया