Friday, October 14, 2016

मौत (कहानी)

मौत                 (कहानी)          
बलिया अब भी वही है, चौबेपुर गाँव भी अब भी वही है, यही नहीं रघुनाथ चौबे का घर भी बिल्कुल वही है। नहर के किनारे एकदम पूरब कोने पर। घर के सामने सुरुजकली भौजी का लगाया केले का पौधा, और पीछे दीवार पर खिड़कियों के नीचे उनके हाथों की गहरी छाप लिए गोबर के चिपड़े भी अब भी वहीं हैं। लगता है जैसे अभी भौजी बखरी के आसपास से पियरी पहने निकलेगी और नहर पर आते जाते किसी चचिया ससुर को देखते ही हाथ भर का घूंघट निकाल लेंगी। या किसी नौसिखिया साइकिल चलाते बच्चे को देखकर कहेगी कि नहर में साइकिल लेकर मत चले जाना। या किसी स्कूल जाने वाले बच्चे को बुलाकर उसके ऊपरी जेब में टटका चिऊरा गुड़ रखकर उसे नसीहत देते दिख जाएगी - 'देखो बबुआ मन लगाकर पढ़ा जाता है' ।
शायद ही चौबेपुर का कोई लड़का हो जिसके कुर्ते की जेब में भौजी के गुड़ का दाग न लगा हो।
             भौजी आज से छह बरिस पहले अगहन के महीने में इसी नहर के पतले रास्ते से होते हुए, एक सुंदर सी डोली में चार कंहारो के कंधे पर डोलते हुए आई थी। और जब भौजी के ललके महावर लगे एड़ियों वाले दो गोरे पाँव धरती पर टिके थे तब सबने माना था कि सुरुजकली भौजी से सुंदर दुलहिन चौबेपुर में क्या पूरे बलिया जिले में नहीं उतरी होगी। रघुनाथ चौबे ने तो खुलेआम ऐलान कर दिया था कि सुरुजकली से सुघर दुलहिन कोई दिखा दे तो एक झटके में अपनी पछाही गाय हार जाएं। पूरे महीने  गाँव भर की औरतें दुलहिन देखने आतीं रहीं। मनोहर तो किसी न किसी बहाने बस अंगना में आने का बहाना ढूंढते थे, और तुलसी चौरा लीपती हुई कलाइयों की खनक से घायल होते रहते थे। घर के पीछे बाँसों के झुरमुट में दिन भर कोइलर की आवाज सुनाई देती और घर के अंदर दिन भर भौजी के पायलों की रुनझुन। कभी घर के इस कोने को सजाती कभी ओरियानी के नीचे शीत में सिहर रहे छोटका फुफा के पोस्टकार्ड को चिट्ठीटंगना में रखते हुए भौजी के पैर चलते ही रहते थे। मुँह अन्हारे उठने वाली भौजी नहा धोकर तुलसी चौरा लीपती और सुरुज भगवान को, पूरब वाले कोने में दिखते ही जलधार चढ़ा कर पूजा करती। भौजी को दुनिया जहान के धन दौलत से कोई मतलब तो था नहीं, बस एक गोदी का खिलौना चाहती थी। और उसे पूरा भरोसा था कि एक न एक दिन सुरुज भगवान भौजी की सुन ही लेंगे। फिर अंगना के बीचोंबीच चूल्हा जलाकर रघुनाथ चौबे के लिए काढा बनाती। देवांती चाची के लिए खिचड़ी और अपने सास के लिए पानी गरम करने से लेकर साँझ के दियाबरान तक साँस लेने की फुर्सत नहीं।
         कहते हैं कि अंजोरिया का समय ढेर दिन नहीं टिकता। भौजी के जीवन में भी अंधेरा आने वाला था और भौजी अनजान बने अपने कामों में व्यस्त थी। शायद अमवसा था उस दिन जब भौजी रोज की तरह तुलसी चौरा में खड़े होकर सुरुज भगवान को जलधार दे रही थी तभी देवांती चाची ने कहा था - ए दुलहिन! खाली पूजा पाठ ही करती हो, कुछ असीरबाद नहीं मांगती क्या?
भौजी ने मुस्कराते हुए कहा था - चाची जी, आप लोग कुसल से रहें इससे ज्यादे हमको कुछ नहीं चाहिए।
चाची ने ऐंठ कर कहा - अरे, ए अगहन में चार बरिस हो जाएगा बियाह को। एतने में कुसुमवा के तीन बच्चे हो गए।
भौजी ने कुछ नहीं कहा। कहती भी क्या! सबके बदलते चेहरे देखने की आदत सी हो रही थी अब। जिस मनोहर के साथ सात फेरे लिए थे उसे बोले हुए तो तीन महीना हो गया था। लेकिन भौजी हर गम को सहने में माहिर थी।
          सावन का महीना उमंग का महीना होता है, रिमझिम फुहारों का महीना होता है।तन बदन के साथ साथ मन का कोना अंतरा तक भीगने लगता है।लेकिन भौजी के लिए तो बारहो महीने जेठ आसाढ के थे। सबका व्यवहार धीरे-धीरे बदल रहा था। भौजी भी धीरे-धीरे बदल रही थी। अब वो चीजें रखकर भूलने लगी थी। कभी दाल में नमक तेज हो जाता था तो कभी दूध फफा कर गिरता रहता था और भौजी चुपचाप जाने कहाँ देखती रहती थी। चंपई रंग अब झुराने लगा था। सुबह सुबह का नहाना धोना भी अब भौजी को भारी सा लगता था। उस दिन भी गोबर के उपले थापने में दुपहरिया हो गया था, जल्दी जल्दी नहा धोकर भौजी शीशे के सामने खड़ी होकर माथे पर टिकुली लगा रही थी। तभी देवांती चाची ने मनोहर की माँ से कहा - ए जीजी!  कह दो कि हई सिंगार पटार करने से क्या फायदा है। परती जमीन पर हल चलाने से फसल थोड़े होने लगेगी। आ औरत अगर बांझ हो तो.... ।
आगे की बात भौजी से सुनी न गई। हाथों की टिकुली जाने कहाँ गिरी। भौजी ने साड़ी का अंचरा मुँह में ठूंसा और रोआई रोकते हुए किसी तरह अपने कमरे में आकर गिर गई।उस दिन भौजी ने खाना नहीं खाया न ही किसी ने खाने को पूछा ही।
        दिन था कि अपने हिसाब से बीतता जाता था। भौजी रोज चौखट पर बैठकर नहर से जाते हुए स्कूली बच्चों को देखती रहती। कभी-कभी किसी को पास भी बुलाती और उसके शर्ट की उपरी जेब में कभी चने के भूजे रख देती तो कभी टटका चिऊरा। कभी लड़कियों को स्याही खरीदने के लिए आठ आने का सिक्का थमा देतीं तो कभी अपना रीबन किसी को दे देतीं। कुछ भाव था उनके अंदर जो निकलना चाहता था। एक माँ बनने की चाह थी जिसे उपादान नहीं मिल रहा था।
सांझ का समय था। रघुनाथ चौबे दुआर पर बैठे रेडियो सुन रहे थे। विविध भारती का गीत संगीत कार्यक्रम आ रहा था। गाय बैठी पगुरी कर रही थी रेडियो पर खनकती आवाज में सोहर सुनाई दे रहा था - जुग जुग जियसु ललनवां भवनवां के भाग जागल होऽऽ... ।
भौजी उबलता दूध छोड़कर भागी आई और चौखट से सटकर गीत सुनने लगी। हेमलता का यह गीत भौजी को शुरू से ही बहुत पसंद था। तभी भौजी ने सुना  रघुनाथ चौबे से भौजी की अम्मा जी कह रही थी - ए मनोहर के बाबूजी! आप सोमार को जाकर फूलचंद की बेटी को देख आइए। मनोहर ने बियाह के लिए हां कह दी है। आखिर वंश चलाने के लिए हमें कोई उपाय करना होगा न कि नहीं...
बस भौजी अपना मन पसंद गाना आधा अधूरा छोड़ कर अपने कमरे में चली आई। उस दिन भौजी आखिरी बार जी भर कर रो लेना चाहती थी। रघुनाथ चौबे के लिए जिन्हें वो बाबूजी कहती थी। सुशीला के लिए जिन्हें वो अम्मा जी कहती थी। देवांती के लिए जिन्हें वो चाची जी कहती थी। और... और मनोहर के लिए जिसके साथ सात जनम के फेरे लिए थे।
अगले दिन भौजी ने गेहूँ के बखरी में रखने वाला सल्फास खा कर पूरे घर का काम आसान कर दिया। और आगे आने वाले वंश की नींव रखी।
भौजी का मरना कोई बड़ी बात तो थी नहीं सबको बता दिया गया कि रात को अचानक भौजी के पेट में दर्द हुआ था बड़का अस्पताल ले जाते ले जाते रास्ते में ही भौजी का दम टूट गया।
       आज भी बलिया वही है चौबेपुर गाँव भी अब भी वही है लेकिन अब किसी स्कूली बच्चे के शर्ट की ऊपरी जेब पर टटका गुड़ के दाग नहीं दिखते। रघुनाथ चौबे का घर भी वही है लेकिन वो रौनक नहीं दिखती।केले का पौधा, बखरी, बांस के झुरमुट सब वैसे ही हैं, लेकिन हर चीज़ जैसे बेजान... मरी हुई सी।
नहर में पानी अब भी आता है, लेकिन कभी फफा कर नहीं बहता। भौजी आज अगर होती तो देखती कि सब कुछ मर गया है। हाँ, पूरे चौबेपुर गाँव की मौत हो गई है....

असित कुमार मिश्र
बलिया

1 comment:

  1. Bhaiji kitne baar abhi tak padha aur kitno ko padhya , aur har baar roya .

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