Monday, October 31, 2016

मंगल पर भी मंगल नहीं है....


आज सबेरे साते बजे परभुनाथ चाचा दुआर पर हाजिर हो गए। बड़का बैग उनके कमासुत होने की कहानी बता रहा था, और जगह जगह कपड़े की सिलवटें बता रही थीं कि इस दीपावली की भीड़-भाड़ में भी चचा एसी कोच में आराम से सोते आए हैं। मैंने पैर छूने के बाद उनका पेट भी छुआ और हँस कर कहा - कौ महीना का बाबू है चचा ?
चचा गरमाए - ससुर मुँह फोर देंगे फालतू बोले तो।अपनी अम्मा को बुलाओ असीरबाद लें लें। फिर घर जाकर सर-सफाई करना होगा।
मैंने कहा - अरे आराम से यहीं नहाइए खाइए, कहाँ अपने घर जाएंगे?
चाची घर में चलीं गईं और चाचा कुर्ता खोल कर कुर्सी पर बैठ गए। मैं चाचा को गौर से देखने लगा।
चाचा को आप मेरा गाँव समझ सकते हैं,मेरा जिला समझ सकते हैं,मेरा देश समझ सकते हैं और उसके आगे भी कुछ होता होगा तो वो भी समझ सकते हैं।परभुनाथ चचा 'मल्टीटैलेन्टेड' हैं। मने खड़े-खड़े पैसा कमा देंगे।इसी गाँव में घर है इनका भी पुरुब टोले में। तीन बीघा खेत, तीस-चालीस घरों की जजमानी, दो बैल एक गाय ठीक-ठाक घर। और क्या चाहिए एक गंवई आदमी को? लेकिन समस्या तब होने लगी जब इनके बगल में रहने वाले दुवरिका बाबू ने इनके घर के सामने अपना गोबर रखना शुरू किया था। दोनों ओर से दो-दो हाथ लाठी चली और तीन किता मुकद्दमा। बाबू साहब बीस पड़े और उन्होंने अपनी जमीन बाँस से घेर ली तो परभुनाथ चचा को आने-जाने में भी समस्या होने लगी।इधर दूसरा पड़ोसी भी गद्दार निकला। नाली का पानी चचा के दरवाजे पर बहाने लगा।
धीरे-धीरे चचा ऊबते चले गए। पहले एक पड़ोसी से फिर दूसरे से फिर पूरे पुरुब टोले से फिर पूरे गाँव से। अचानक एक दिन सुनाई दिया कि चाचा गाँव में एक बीघा जमीन बेच कर बलिया जीराबस्ती में घर खरीद कर रहने चले गए। हम सब हैरान रह गए। दो साल बाद पता चला कि चचा लखनऊ शिफ्ट हो गए हैं और मार्बल के काम में पैसा पीट रहे हैं। हम लोगों को भी खुशी हुई कि चलो हमारे गाँव का कोई आदमी तरक्की कर रहा है। पिछले जिउतिया को पता चला कि चचा लखनऊ का घर बेच कर दिल्ली रह रहे हैं, और किसी सीमेंट कंपनी में अच्छे पद पर हैं। गाँव घर से जैसे-जैसे दूरी बढ़ती गई वैसे वैसे इनकी जमीनें भी कम होती गईं। अब गाँव में खर-पतवार से ढंका बस एक घर है चचा का। बाकी सब बिक गया। लेकिन चचा ने दिल्ली में ठीक-ठाक प्रापर्टी बना ली है। बैग का वज़न बता रहा है कि सबके लिए कुछ न कुछ लाए हैं।
          चचा अब नहा कर आ गए थे मैं आदत के अनुसार उनके बैग में से अपने लिए लाई चीज़ें चुन रहा था। एक छींटदार साड़ी और चार खद्दर की धोती कुछ मिठाई के डिब्बों के बाद एक नई घड़ी दिखी।
मैंने चाचा से पूछा कि ए चाचा सब ठीक है दिल्ली में? सुना है केजरीवाल सर मुफ्त बिजली पानी हवा सब दे रहे हैं।
चचा फिर गर्मा गए एकदम से चिल्ला कर बोले - हां! सब ठीक है दिल्ली में। साला हमहीं खराब हैं। ईहां गाँव में थे तो दुवरिकवा परेशान करता था, बलिया गए तो वहाँ सोझे शराब का दुकान खुल गया। लखनऊ गए तो वहाँ बिल्डर से झगड़ा होता था दिल्ली गए उहां एगो बनिया बगल में बस गया है रोज सताता है। मँहगाई रोज बढ़ रही है आ ई सरवा केजरीवाल रोजे नया नया डरामा करता है ... हाँ दिल्ली तो ठीके है, हम ही खराब हैं।
मैंने हँस कर कहा - ए चचा निराश मत होइए चाँद पर प्लाटिंग होने ही वाला है कट्ठा भर जमीन खरीद लीजिएगा वहीं। आ आराम से रहिएगा।
तब तक सामने से दुवरिका सिंघ जाते हुए दिखे मैंने थोड़ा जोर से कहा - ए सिंघ चचा आइए चाय पिलाएं।
सिंघ चचा ने चश्मा ठीक किया और मेरी तरफ देख कर कहा - के हऽ मास्टर?
हमने कहा - जी आइए हमहीं हैं।
सिंघ चाचा को कुर्सी पर बैठने में दिक्कत है तो चारपाई निकाली गई। दुवरिका सिंघ जैसे ही बैठे मैंने उनकी बूढ़ी कलाई में वो नई घड़ी बांध दी।
सिंघ चचा बोले - ई का है मास्टर?
मैंने कहा कि - परभुनाथ चचा दिल्ली से कमा कर आए हैं वही आपके लिए घड़ी लाए हैं। सिंघ चचा ना-ना करते हुए घड़ी खोलने लगे, तब तक मैंने बैग में से खद्दर की धोती निकाल कर उनके हाथ में रख दी और कहा कि - धोती भी है आपके लिए। पूरे गाँव में आप ही पहनते हैं खद्दर। अभी चाची के लिए छींट वाली साड़ी भी है।
सिंघ चचा नर्भस होकर बोले - बबवा तो बहरा जाते ही बदल गया। गाँव में था तो बड़ा घमंड में रहता था।
इधर परभुनाथ चचा बाहर निकले तो देख रहे हैं कि उनकी घड़ी दुवरिका सिंघ की कलाई में बंधी है और एक खद्दर वाली धोती उनके गोद में रखी है।
परभुनाथ चाचा धोती छीनने लपके तब तक मैंने कह दिया - दुवरिका चचा को परनाम कहिए आपसे बड़े हैं ये।
जब तक परभुनाथ चचा का परनाम पूरा होता तब तक दुवरिका सिंह ने परभुनाथ चचा को बांहों में भर लिया और बोले - दिवाकर सिंघवा को बारह साल कमाते हो गया लेकिन एक रुमाल नहीं लाया और परभुनाथ बाबा आप एतना झगड़ा के बाद भी हमको भूले नहीं।
मैं इस भरत मिलाप पर चुप क्यों रहता। जोड़ दिया दो लाइन - अरे चचा झगड़ा तो होता रहता है लेकिन खून तो एक ही है गाँव का न!
अब दोनों लोगों ने एक साथ चाय पी। लेकिन किसी ने किसी से कोई बात नहीं की। दुवरिका सिंघ उठकर जाने लगे तो मैंने कहा कि - ए सिंघ चचा परभु चचा के दरवाजे पर बांस वांस रखे होंगे तो हटा लीजिएगा आखिर ई अपने घर में जाएंगे कैसे?
सिंघ चचा रुके और बोले - मास्टर! किरिया खाकर कह रहे हैं खाली धोती पसारने के लिए बाँस गाड़े थे उसी पर बवाल हुआ था अच्छा हटवा रहे हैं अभी। आ परभु बाबा से कह दीजिए कि आज हमरे घरे खाना है।
           तीन घंटे में कितना कुछ बदल जाता है यह दुवरिका सिंघ के दरवाजे पर देखा जा सकता है अब। परभुनाथ चचा खटिया पर पेट फुलाए लेटे हैं और दुवरिका सिंघ की छोटकी नातिन उनके पेट पर खेल रही है। उधर दुवरिका सिंघ परभुनाथ चचा का दुआर साफ करा रहे हैं और छत पर चाची ठकुराइनों के बीच में बैठी मैट्रो ट्रेन में साड़ी फंसने वाली घटना सुना रही हैं।
            फिर कहूंगा परभुनाथ चचा व्यक्ति नहीं गांव हैं, जिला हैं, देश हैं, पूरी मनुष्यता हैं। हर कोई परेशान है अपने पड़ोसी से। मैं भी, आप भी, यहाँ तक कि अपना देश भी। हम गाँव छोड़कर भागते हैं कस्बे में। कस्बे से शहर, शहर से राजधानी, राजधानी से चाँद पर जाने की तैयारी है अब। लिखकर रख लीजिए चाँद पर भी जल्दी ही लोग ऊब जाएंगे अपने पड़ोसी से। फिर मंगल पर जीवन की तलाश होगी। लेकिन जीवन में मंगल की तलाश कोई नहीं करना चाहता। रुकिए थोड़ा सा ठहरिए। धरती पर कहीं स्वर्ग नहीं है आप जहाँ हैं उसके सिवा।जानता हूँ आपका पडोसी नालायक है घमंडी है। लेकिन कभी सोचा है कि वो भी आपको शरीफ नहीं समझता होगा।
कभी होली दीपावली छठ दशहरा के दिन अपने पड़ोसी की खबर ली आपने? अपना दीप जलाते समय पड़ोसी के घर का अंधेरा कोना देखा आपने? कभी सोचा है कि आपके पिंटू के साथ बगल के सनी के हाथ में भी वही घड़ी हो? पांच सौ के नोट का खुदरा तो देते ही नहीं आप, उसके संकट में काम क्या आएंगे? है न!
तो परभुनाथ चचा की तरह आपको कभी कहीं सूकून नहीं मिलेगा। आप सैकड़ों सालों तक भागते ही रहेंगे पडोसी से। गांव से जिला तक, जिला से लखनऊ, फिर दिल्ली, फिर चाँद, फिर मंगल और कुछ बदलेगा नहीं। गाँव में रहकर पड़ोसी अच्छा नहीं लगेगा और बलिया की जिंदगी को अच्छा बताएंगे। बलिया में रहकर लखनऊ को अच्छा बताएंगे और लखनऊ जाकर दिल्ली को अच्छा बताएंगे। दिल्ली जाते ही चाँद अच्छा लगेगा। हमेशा बाहर स्वर्ग की कल्पना करेंगे लेकिन जहाँ रहेंगे उसे स्वर्ग बनाने की कोशिश नहीं करेंगे। और लगेगा क्या इसमें?
मैं जानता हूँ दुवरिका सिंघ आदमी नहीं पहचान पाते घड़ी में समय क्या देखेंगे? सीधा खड़ा होने में दस मिनट लगाते हैं खद्दर की भारी धोती क्या संभालेंगे? लेकिन वो घड़ी और वो धोती जीवन में मंगल का माध्यम है।
चलिए इस बार की दीपावली अकेले नहीं सबके साथ मिलकर मनाते हैं मंगल पर जीवन के लिए नहीं जीवन में मंगल के लिए। आप सबको दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ।
अच्छा उधर अम्मा मेरे बारे में कह रही हैं - बिना कुछ खिलाए पिलाए परभुनाथ बाबू को भेज दिया। थोड़ी सी भी बुद्धि नहीं है... भगवाने मालिक है इस नालायक का...
असित कुमार मिश्र
बलिया

No comments:

Post a Comment