फ्री मिनट से अपने मिनट तक...
सुमित्रा चाची के बारे में कुछ लिखने से पहले दो बातें बता दूँ। एक तो ये कि पिछले जनम में जरूर मैंने कोई बड़ा पाप किया होगा, जो इस जनम में इन्हें भाभी की जगह चाची कहना पड़ रहा है। दूसरी बात चाची एक नंबर की कंजूस हैं, इनसे एक रुपये खर्च करा लेना आरबीआई का गवर्नर बनने जैसा कठिन है।चाची कोई भी बात 'सबसे सस्ता' शब्द से शुरू करती हैं जैसे - ए बाबू सबसे सस्ता मोबाइल कौन सा है?
मैंने कहा - दस रुपये वाला जिसमें 'बुंबरो बुंबरो श्याम रंग बुंबरो' वाला गाना बजता है।
चाची कपार पर हाथ रख कर मेरे बुद्धि पर अफसोस करते हुए कहती हैं कि - अरे बातचीत करने वाला मोबाइल चाहिए।
मैंने कहा - चाची अब स्मार्ट फोन का जमाना है...
चाची ने बीच में ही टोक दिया - नहीं। हमको ऐसा मोबाइल चाहिए जिसमें बस फोन आए-जाए और एक रुपया लगाना न पड़े।
मैं चाची की सरलता पर हँस देता हूँ। चाची 'बाजार' नहीं समझती। यह नहीं समझती कि इस दुनिया में चारों ओर एक बाजार है जहाँ हम जैसे लोगों को हर मिनट खरीदा बेचा जाता है और हमें पता तक नहीं चलता।
खैर सैमसंग का सबसे सस्ता मोबाइल और टेलीनॉर का सिम आ गया।आज वही चाची जो एक रुपये खर्च नहीं करतीं वो कभी पाँच रुपए का 'फ्री मिनट' डालते दिखतीं हैं, तो कभी लोकल और एसटीडी रेट समझती हैं।
बात अकेले चाची की नहीं है हम सबकी है। हम सभी हर सेकेंड हर मिनट बाजार में ही खड़े हैं। सोते भी हैं बाजार में, जागते भी हैं बाजार में, खाते भी हैं बाजार में, रोते भी हैं बाजार में, जहाँ जीवन मूल्यों का परिवर्तन हो रहा है हर चीज़ बिक रही है और बेचने वाले मुस्कुराते हुए हमारी जेब से पैसे निकाल लेते हैं।
याद कीजिए दस बारह साल पहले के समाचार। जब चैनल के नाम पर दूरदर्शन होता था और सुरुचिपूर्ण ढंग से साड़ी पहने बैठी एक समाचारवाचिका स्पष्ट उच्चारण में कहती थीं - आज प्रधानमंत्री जी ने कहा कि... फिर प्रादेशिक समाचार फिर मौसम के समाचार। जैसे सबकी दुनिया ठहर जाती थी वहीं। पापा चश्मा लगा लेते थे अम्मा चुप हो जातीं थीं और हम पर तो जैसे धारा एक सौ चौवालिस लागू रहता था। वह सरला माहेश्वरी और शोभना जगदीश का जमाना था।
आज आकर्षक वस्त्रों मेकअप से लदी हुई अभिनेत्री की तरह टहल रही समाचारवाचिका चीखती है - आज नरेंद्र मोदी ने कहा कि... फिर किसी बंगाली बाबा का जादू और भाग्यलक्ष्मी यंत्र के साथ साथ सैकड़ों अनचाहे,अदृश्य उत्पाद बेचने तक, जो मूल्य बदल गए हैं उन्हें आसानी से समाज में देखा जा सकता है। 'प्रधानमंत्री जी' से 'नरेंद्र मोदी' कहने तक, जो नैतिक मूल्यों का पतन हुआ वह साफ़ दिख रहा है जब किसी पत्रकार ने प्रधानमंत्री जी के हाथों पुरस्कार लेने से यह कह कर मना कर दिया कि- "मैं नरेंद्र मोदी को और खुद को एक फ्रेम में नहीं देख सकता।" यकीन नहीं होता जो पत्रकारिता गणेश शंकर विद्यार्थी से चली वह यहाँ तक आ गई है कि यह भी समझ में न आए कि नरेंद्र मोदी पुरस्कार नहीं दे रहे वह भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री जी द्वारा प्रदत्त पुरस्कार है। व्यक्ति नहीं पद सम्मानित कर रहा है। व्यक्ति के स्तर पर मुझमें और राजीव गांधी मनमोहन सिंह नरेंद्र मोदी में कोई अंतर नहीं लेकिन पद के स्तर पर वो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री हैं जिनका सम्मान करना प्रत्येक भारतीय का दायित्व है।
हमारी पीढ़ी बात बात में नरेंद्र मोदी और मनमोहन सिंह ऐसे कहती है जैसे वो हमारे क्लासमेट रहे हों। पिछले दस बारह सालों में आया परिवर्तन है यह।टीआरपी की भूख और बाज़ार में खुद को बेचने की ललक, सनसनीखेज खुलासे, बिग ब्रेकिंग न्यूज़ ने मर्यादा और आचरण से लेकर पत्रकारिता के मूलभूत सिद्धांतों तक चमक खोई है। निश्चित ही प्रधानमंत्री जी की नीतियों विचारों का विरोध होना चाहिए यह बेहतर लोकतंत्र के लिए आवश्यक है लेकिन पुरस्कार न लेकर विरोध नहीं अपमान किया है भारतीय पत्रकारिता ने।
यह बाजार हर क्षेत्र में हर जगह और हर समय है। कल तक हिंदी की सबसे बड़ी पत्रिका छह हजार प्रतियों में निकलती थी आज फेसबुक पर या ब्लॉग पर जिसके भी तीन हजार मित्र और तीन हजार फॉलोअर हैं वह एक पत्रिका और एक संपादक के समान है।या और भी सैकड़ों हजारों पत्रिकाएं हैं बाजार में। लेकिन क्या नैतिक मूल्य और साहित्यिक मर्यादा वही है? जो धर्मयुग और सरस्वती के समय थी? आज ज्ञानपीठ पुरस्कार नहीं मिलता, 'इफको' ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलता है। ज्ञानपीठ तो समझ में आ रहा है भाई! ये इफको क्या है? यही तो बाजार है और उसकी खुली बाँहें। जिसमें सब समाहित होता जा रहा है।
अक्सर अध्यापकगण बढ़े बालों पर, अजीब तरह के फटे-कसे कपड़ों पर लड़कों को डांटते-टोकते हैं और अचानक कोई हनी सिंह आते हैं और एक पूरी पीढ़ी बाल कटवा कर हनी सिंह बन जाती है। मैं आज तक किसी एक को भी असित कुमार मिश्र नहीं बना सका और किसी हनी सिंह ने पूरी पीढ़ी को बदल दिया। कहना पड़ेगा मुझे कि हमारे मनोविज्ञान से उनका मनोविज्ञान ज्यादा प्रभावी है। हम अध्यापकों से बड़ा 'मोटिवेटर' तो वो है, जो न जाने कहाँ है और वहीं से यूथ को चेंज कर दिया और हम क्लास में होकर भी चालीस बच्चों को अपने जैसा नहीं बना पाए।
एक महत्त्वपूर्ण कारण है कि पीढ़ियों का अंतर बढ़ता जा रहा है। इसे ऐसे समझिए - 'तवायफ' फिल्म का नाम सुना है न! ऋषि कपूर वाली? उसका साहित्यिक महत्त्व यह है कि वह फिल्म 'अलीम मसरूर' के प्रसिद्ध उपन्यास 'बहुत देर कर दी' पर बनी थी। और इस उपन्यास को पढ़ने के लिए हजारीप्रसाद द्विवेदी जी रात भर जागते रहे, लालटेन का तेल खत्म होने पर पड़ोसी का लालटेन मांगा। अब यही फिल्म आज की पीढ़ी को दिखाइए। देखिए तो क्या होता है? या आज की कोई फिल्म पुरानी पीढ़ी को दिखाइए देखिए क्या होता है? दोनों खारिज कर देंगे। नई पीढ़ी, पुराने आदर्श प्रतिमान नैतिकता को खारिज कर रही है और पुरानी पीढ़ी नए जींस ब्लेजर क्रीम लाइफस्टाइल को खारिज कर रही है। दोनों के बीच जो एक जुड़ाव होना चाहिए वही टूट गया है। कारण क्या है इसका? पीढ़ियों में जल्द बदलाव। आज पांच साल में एक पीढ़ी बदल रही है पंद्रह साल में तीसरी पीढ़ी चलने लगी। पंद्रह साल पुरानी बातें आज के लड़के खारिज कर ही देंगे क्योंकि बाजार ने और तकनीकी ने मात्र पंद्रह साल में तीन पीढ़ियां बना दी हैं।
आज साबुन तेल के विज्ञापनों के बीच अंत: वस्त्रों का विज्ञापन भी उसी सहजता से आता है। आज लड़की भी लड़के के साथ बड़ी सहजता से बीयर पी रही है क्योंकि बाजार ने उसे सिखाया है कि इस कंपनी का बीयर आपकी पार्टी में जान डाल देगी। गोरी त्वचा के लिए सैकड़ों क्रीम हैं क्योंकि बाजार ने खबर बनाई है कि सांवला होना पाप है। एक आइएएस बनने के लिये लाखों आंखों में सपने बनते हैं लेकिन उसी वेतनमान पर अध्यापक नहीं बनना चाहते हैं हम। क्योंकि बाजार की शब्दावली में डी एम का पद आकर्षक और रसूखदार है। फलस्वरूप डी एम बनाने का रोजगार हर शहर हर कस्बे में चल रहा है। दो किलोमीटर दूर जाने के लिए हम बुलेट इनफील्ड निकालते हैं और पांच किलोमीटर के लिए स्कार्पियो । क्योंकि बुलेट जो है वो शान की सवारी है और स्कार्पियो के विज्ञापन में दिखाया गया है कि एक नायिका इठलाती हुई आती है चालक से लिफ्ट मांगती है और फिर चुंबन दृश्य.... इधर पूरा बलिया जिला घूम रहे हैं हम, एक्को नायिका तो क्या घास वाली तक नहीं देखती। क्योंकि मेरी तरह हजारों स्कार्पियो सड़कों पर दौड़ रही हैं अब बेचारी नायिका खुदे कन्फ्यूज है कि लिफ्ट मांगे किससे!
हम सोच भी नहीं सकते कि टेलीकॉम कंपनियों ने लाखों रुपये खर्च करके अर्थशास्त्रियों को सीईओ क्यों बनाया है? बस इसीलिए कि सुमित्रा चाची न चाहते हुए भी पांच रुपये मोबाइल में डालें। वो हमेशा ऐसे आकर्षक प्लान मार्केट में उतारते रहें जिसे सुमित्रा चाची जैसी मितव्ययी महिला गेहूँ बेचकर भी आफर का लाभ ले, लेकिन ले।
आप जेब पर ताला लगाकर बाजार में जाइए देखिए आप खुद ताला तोड़ेंगे और कुछ न कुछ खरीदना ही पड़ेगा आपको। क्योंकि बाजार ने सिखाया है हमको कि स्टील के बर्तनों से घर भरा हो तब भी धनतेरस के दिन बर्तन खरीदना ही है तुमको। और हम बीस रुपए की छननी सत्तर रुपये में लिए आ रहे हैं खुश होकर कि स्टीकरवा पर तो अस्सी रुपया लिखा है।
दो सालों में हमारे कस्बे में पाँच पानी सप्लाई करने वाली दुकानें खुल गई हैं कोई हिमालया एक्वा है तो कोई ऐश्वर्या एक्वा। कारण भी वही लोग बता रहे हैं कि घर का पानी दूषित हो गया है। कुछ पेड़ पौधे लगाने वाले वन विभाग के सहयोगी एनजीओ आ रहे हैं जो बता रहे हैं कि दिल्ली मुंबई रहने लायक नहीं है धुएँ के कारण, प्रदूषण के कारण। इसलिए यह पेड़ लगाइए सत्तर रुपये वाला। एक डेढ़ सौ का भी है। यहाँ भी बाजार आ गया।
बात बहुत आदर्श और नैतिकता की नहीं है बात थोड़ी सी सावधानी की है। आप वही सामान खरीदिए जिसकी सख्त आवश्यकता हो। वही साहित्य पढ़िए जिससे मनोरंजन के साथ साथ लोककल्याण व सामाजिक समरसता बनी रहे। कम दूरी के लिए साइकिल का प्रयोग करें। विरोध - समर्थन इस तरह न करें जिससे आपकी भावनाओं को बेचा जा सके। हमारे घर का बच्चा कौन सा टीवी प्रोग्राम देख रहा है, उसके आदर्श कौन हैं, उसका झुकाव किधर हो रहा है, यह देखना हमारा ही काम है। टीवी सीरियलों ने हमारे बच्चों को आवश्यकता से पहले बड़ा कर दिया है। हृदय में दो अलिंद होते हैं एक दांये और एक बाएँ यह जानने की उम्र तक दो बार ब्रेकअप हो चुका होता है। क्योंकि हमारी फिल्मों के केंद्र में अवयस्क प्रेम ही होता है कोई सामाजिक सरोकार नहीं। क्योंकि इसी फिल्म के बाक्स आफिस पर धूम मचाने की उम्मीद है।
मनोचिकित्सक और समाजशास्त्री हैरान हैं कि देश का युवा इतना अस्त व्यस्त कभी नहीं रहा। लेकिन कोई यह नहीं सोच रहा है कि पहले इतना बाजार भी तो नहीं था।पूरा परिवार एक साथ एक टीवी देखता था अब सबके कमरे अलग हैं। पहले एक सदस्य की समस्या परिवार की समस्या होती थी अब यूथ कहती है - ममा प्लीज़ मुझे अकेला छोड़ दो, दिस इज माए प्राब्लम। पहले हम आपस में खुल कर बातें करते थे, अब खाते समय भी फेसबुक व्हाट्स ऐप।
बाज़ार हमें परिवार से व्यक्ति बना रहा है।घर परिवार व्यक्ति सब बदल रहे हैं, बदल नहीं रहे बल्कि टूट रहे हैं। मैं बाजार का विरोधी नहीं। बाजार से दूर रहना भी ठीक नहीं यह हमें अवसर भी देता है। लेकिन कुत्सित बाजारु नीतियों से बचाव जरुरी है। हमें सोचना होगा कि खुशी और दुख व्यक्त करने के लिए स्माइली नहीं कंधे की जरूरत होती है। डनलॅप और स्लीपवेल आराम दे सकते हैं नींद नहीं।लाइक, कमेंट, टीवी, अखबार, मीडिया और न्यूज में आना, छाए रहना अच्छा है। लेकिन अपनी परंपरा अपनी संस्कृति संस्कार और आदर्शों को ताक पर रखकर नहीं। बाजारु 'फ्री मिनट' के साथ साथ कुछ 'अपने मिनट' भी यूज करना जरूरी है।
असित कुमार मिश्र
बलिया
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