Thursday, November 10, 2016

हजारों नोट और एक दिले नादां

हजारों नोट और एक दिले नादां....
समय ने सिद्ध कर दिया है कि हमारे देश में हारे हुए नेता को मिले वोट और जेब में रखे हजार के नोट की कोई कीमत नहीं होती।इसीलिए यहाँ वोट और नोट दोनों को संदेह से देखा जाता है।इसी बीच नोट अगर पाँच सौ या एक हज़ार वाले हों तो लोग तब तक तीखी निगाहों से देखते हैं, जब तक फोटो वाले गाँधी जी खुद कह न दें कि- "बेटा रख लो हम पोरबंदर वाले मोहनदास करमचंद गाँधी ही हैं... आँखी किरिया"।
         इधर वित्त मंत्रालय ने पाँच सौ और एक हज़ार के नोटों को वापस लेने की घोषणा की है। इससे शहरों की जिंदगी तो जैसे रुक ही गई है, हम गाँव के लोग भी कम परेशान नहीं हैं। हमारे लिए बड़ी आफत का समय होता है यह महीना। एक पैर धान की कटिया-पिटिया में लगा रहता है तो दूसरा पैर खेत की जुताई, गेहूँ के बीज, खाद-पानी की व्यवस्था में, और इन सबमें पैसे ही लगने हैं। रामायण हरिकीर्तन से लेकर बियाह-शादी भी इसी में।और आप ही बताइए सौ पचास का जमाना है अब?
1991 के आर्थिक सुधार और उदारीकरण के पहले वाले गाँव अब रह नहीं गए हैं। पहले गाँव में केवल गाँव होते थे, अब घरों में अलग-अलग दुनिया। इन आर्थिक सुधार की नीतियों ने गंवई हाथों में भी काग़जी नोटों की बैसाखियाँ पकड़ा दीं, वर्ना गाँव में सुबह भी होती थी, दोपहर भी, शाम भी और रात भी। लेकिन उसमें रुपये का बहुत कम नाम आता था। सौ रुपए का नोट देखना ही उपलब्धि होती थी गाँव के लिए, रखना तो दूर की बात थी। हालाँकि नोट तब भी होते थे, लेकिन हमारी जरूरतें कम थीं और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार पैसा नहीं सहयोग, अनाज और सामंजस्य होता था। तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि पच्चीस पैसे वाली 'चमेली माचिस' ही 'बैजंती गोड़िन' का भरसांय फूंक देगी। पचास पैसे के चिक शैम्पू के पाउच की खुश्बू के आगे कचटी माटी और तिल के पत्तियों की महक फीकी पड़ जाएगी। दो रुपये वाले फोम शीट की थालियाँ 'पुरईन के पात' को बेइज्जत कर गाँव से बाहर निकाल देंगी।
कभी सोचा तक नहीं था कि सेम, मटर, लौकी, तरोई, कोहड़ा, बथुआ, चौराई भी खरीदने की चीजें हैं... क्योंकि गाँवों ने इसे माँग कर खाया था... बाँट कर खाया था। ऐसा नहीं कि पैसा नहीं था तब। लेकिन गंवई अर्थव्यवस्था पैसे पर नहीं प्यार पर चलती थी। हमारे परिवार की पहचान उस चमकते दमकते नेम प्लेट से नहीं होती थी, जिस पर बड़े बाबूजी का नाम मोटे अक्षरों में लिखा होता था - ब्रजराज मिश्र, उपजिलाधिकारी (सेवानिवृत्त) बल्कि, शादी ब्याह में घर-घर घूमने वाली उन आधा दर्जन बदलचन चौकियों से होती थी, जिनके पायों पर आज भी गंवई अक्षरों में लिखा है - "एडीएम साहेब"।
ब्रजराज मिश्र नाम था संज्ञा थी, लेकिन एसडीएम साहेब में परंपरा थी विशेषण था।अब भी छह आठ चौकियाँ और दर्जनों कुर्सियाँ रखी हैं, लेकिन कोई माँगने नहीं आता। क्यों आएगा भाई! सबके पास पैसा है और पैसे से क्या नहीं खरीदा जा सकता? सबके पास पाँच सौ और एक हज़ार के नोटों की गड्डियाँ हैं। तो जाओ अब कांहे तीत लग रहा है भाई! खरीद लो अमेजन से आटा और फ्लिपकाट से तरकारी।डाऊनलोड कर लो एक तसली दाल गूगल से और आर्कुट से आठ दस रोटियाँ। फेल हो गया इकोनॉमिकल इन्वेस्टमेंट एंड डेवलपमेंट न!
        गाँव की समझ में आज भी नहीं आता कि विमुद्रीकरण और मुद्रास्फीति क्या है? अर्थशास्त्र का वह सामान्य नियम भी नहीं जानते हम कि - 'बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है' ।
गाँव परेशान है कि हमारा पैसा 'माटी' हो गया। खलिहान में जाइए तो वहाँ भी छह-सात लोग घेर लेते हैं और वही तरह तरह के सवाल - बाबू! हर बार बैंकवा पइसा लेकर भाग जाता था इस बार पइसवा हाथे में छोड़ कर भाग गया?
मैं पूछता हूँ - कौन बैंक भाग गया?
सिरीराम जी बताते हैं - अरे उहे रिजरभ बैंक आफ इंडिया..
हँसी आती है इनकी सरलता पर। दोष इनका है भी नहीं। पिछले दिनों 'गैलेक्सी एसोसिएट्स' नाम से एक बैंक आया था, जो इन लोगों के पैसे लेकर भाग गया। अब इनको लगता है कि रिजर्व बैंक आफ इंडिया ही भाग गया अपना पैसा छोड़कर।
मैं समझाने की कोशिश में हूँ - अच्छा काका ई बताइए कि जब आप हाथ में पांच सौ का नोट लेते हैं तो चेक करते हैं कि नहीं?
बचन भाई ने बताया कि - एतना जाली नोट आ गया है बाजार में कि चेक करना जरूरी है।
मैंने पूछा कि आज तक एक भी जाली नोट पकड़े हैं आप?
बचन भाई अफसोस से कहते हैं - माट्साहब एतना पढ़े-लिखे होते तब का पूछना था।
मैंने कहा - तो सरकार हमारे लिए ही इन सभी नोटों को बंद कर रही है कि कोई हमको बेवकूफ बनाकर जाली नोट न दे दे।
सिरीराम जी ने कहा - अच्छा हमारे पास तो खाता है ही नहीं, तब तो हमारा आठ हजार रुपया डूब गया न?
मैंने कहा-पहली बात तो यह कि सरकार जब जनधन योजना में खाता खोलवा रही थी तो कांहे नहीं खोलवाए! ठीक है हमको दे दीजिएगा हमको सरकार दो लाख रुपये का छूट दी है। हम बदल कर आपको दे देंगे।
अब सिरीराम जी सरधा से देख रहे हैं हमको। जैसे हम वित्त मंत्रालय में बड़े बाबू हों। उन्होंने खुशी से कहा - आपका तो बहुत जान पहचान है बैंक में। डायरेक्ट कौनौ कर्मचारी को देकर कांहे नहीं बदल देते हैं?
मैंने समझाया - देखिए काका सरकार हमारे लिए समाजवादी एंबुलेंस लाती है तो हम बारात ढोने लगते हैं। राजीव गांधी विद्युत योजना लाती है तो हम कंटिया फंसाते हैं, अब बैंक लाइन से बुला रही है तो हम भीआईपी बन कर जाएं!
बचन भाई ने कहा कि - लेकिन आप मास्टर साहब होकर लाइन लगाएंगे? मास्टर आ नेता सब लाइन लगाता है कहीं ?
मैंने टैब में एक फोटो दिखाते हुए कहा - देखिए बचन भाई ये देव प्रकाश मीणा सर हैं पुलिस में एसपी हैं और लाइन में खड़े हैं। जबकि चाहते तो मैनेजर साहब को घर ही नहीं बुला लेते! अब बताइए हम लोग नहीं खड़े हो सकते हैं? गाँव की समझ में आ रहा है कुछ कुछ। पूरे गाँव में चर्चा है अब कि एगो एसपी साहब हैं वो लाइन में खड़े हैं।
       अच्छी बातें भी उतनी ही तेजी से फैलती हैं जितनी बुरी बातें। पूरा गाँव देव प्रकाश सर की फोटो देखकर लाइन लगा कर पैसे बदलने को तैयार है। अब आगे आपके हाथ में है आपके आगे पीछे कोई बैंकिंग का कम जानकार हो तो उसकी मदद कीजिए। दो कलम लेकर बैंक में जाइए फार्म भरने से लेकर छोटा मोटा सहयोग कीजिए हम किसानों का। यकीन कीजिए सीमा पर शहीद होना ही देशभक्ति नहीं एक दूसरे की मदद करना भी देशभक्ति ही है। अफवाहों को यथासंभव रोकें बहुत आवश्यक वस्तुएं ही खरीदें कुछ दिनों तक। और जनधन खातों में कुछ जमाखोर दो - दो लाख रुपये जमा करने की सोच रहे हैं। ऐसे में गांवों के खाताधारकों को या कम जानकारी रखने वाले खाताधारकों को सचेत करें कि यह गलत है। बैंक में बैंकिंग नियमों का पालन करें। लगभग सप्ताह भर यह आर्थिक परेशानी रहेगी इसमें हमें भाजपा की तरफ से नहीं रहना है, कांग्रेस की तरफ से नहीं रहना है, सपा बसपा की तरफ से नहीं रहना है... देश की तरफ से रहना है।

असित कुमार मिश्र
बलिया

       
        

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