इधर दिन, दिन पर दिन समाजवाद की तरह सिमटता जा रहा है,और रातें तो कमबख्त वामपंथ की तरह बदनाम हैं ही। इसलिए हम शाम की चर्चा करने लगे हैं आजकल। हालांकि शाम को भी शायरों ने कहीं का नहीं छोड़ा। ऐसे ही परसों की शाम अचानक प्रेमप्रकाश सर का फोन आया था उन्होंने बताया कि देवरिया आ रहा हूँ 'पूरब की माटी' वाले कार्यक्रम में।प्रेमप्रकाश सर बड़े संपादक हैं। बड़ा संपादक वह होता है जो तय कर ले कि भले ही पत्रिका में दस बीस पन्ने सादे रह जाएं, लेकिन बबुआ तुमको तो नहिए छापेंगे। इसीलिये युग चाहे भारतेन्दु का रहा हो या द्विवेदी जी का संपादकों और लेखकों में तलवारें चलती रहीं। वो तो भला हो साहित्य की कोमलता का कि ये तलवारें शाब्दिक ही होती हैं वर्ना हिंदी के लेखक संपादक 'मोहि पे हंसहुँ कि हंसहुँ कुम्हारा' की तर्ज पर कहीं न कहीं से दिव्यांग ही दिखते। हमने आश्चर्य से पूछा कि सर इस टाइल्स और संगमरमर के जमाने में भी माटी जिंदा है?
सर ने कहा - असित मालिनी अवस्थी को कभी सुना नहीं न! सुन लो एकबार।फिर बात होगी।
प्रस्ताव बुरा नहीं था लेकिन आदतन विरोध किया- श्रोता बनकर क्यों आऊं वक्ता बनकर क्यों नहीं आ सकता?
सर ने कहा - असित श्रोता बनना कठिन है वक्ता बनना आसान...।
वाह! क्या गजब की बात कही थी सर ने।मन ही मन प्रेम सर के कमलवत चरणों, चरणों पर चढ़े जूते - मोजे तक को प्रणाम किया। और तय किया कि इस कार्यक्रम में विशुद्ध श्रोता बनकर चलना है।
अब समस्या आई कि बलिया से देवरिया की इस यात्रा में सहचर किसे बनाया जाय ? अजीब विडंबना है 'जीवन-यात्रा' में सैकड़ों लोग शामिल होते हैं लेकिन 'माटी-यात्रा' में...। खैर गाँव के ही हिंदी-अध्यापक अशोक जी सहचर सिद्ध हुए। तय हुआ कि देवरिया में मात्र अध्यापक भाई शैलेंद्र द्विवेदी जी को सूचित किया जाए। चूंकि मैं श्रोता के रूप में आ रहा था इसलिए अन्य मित्रों को तकलीफ न दे सका।
बलिया की सीमा पार करते ही मन बिदा हो रही बेटी की तरह बोझिल हो जाता है। लेकिन देवरिया पहुंचने की खुशी इस दुख पर भारी पड़ी। देवरिया, देवरहवा बाबा की भूमि है, बाबा राघवदास की भूमि है। देवरिया कुट्टीचातन 'अज्ञेय' की भूमि है। मैंने मन ही मन दोनों देवर्षियों को प्रणाम किया। तथा प्रयोगवादी कवि अज्ञेय का स्मरण। अज्ञेय जी ने तीन शादियाँ की थीं संतोषी जी से, कपिला मलिक से फिर प्रसिद्ध उद्योगपति डालमिया की पुत्री इला डालमिया से।और इधर एक हमारी जिंदगी है एकदम से 'पंत' टाइप।
देवरिया पहुँचते ही पहली नजर पड़ी दर्शक-दीर्घा में पंडित तारकेश्वर मिश्र 'राही जी' पर। भोजपुरी में लव कुश खंडकाव्य लिखने वाले पंडित जी जिन्हें प्रोफेसर नामवर सिंह ने 'भोजपुरी का तुलसी' कहा है। मैंने पैर छूकर कहा - गुरुजी प्रणाम। पंडित जी ने कहा - ओ हो हो हो। आवऽ आवऽ बइठऽ। का हालचाल बा?
हम लोग भोजपुरी में एक दो कहानियाँ - गीत लिखकर सीधे भिखारी ठाकुर से अपनी तुलना करने लगते हैं और यह भोजपुरी का वाहक इतना विनम्र इतनी सहजता! कहाँ से आई? जैसे प्रेमप्रकाश सर ने कानों में कहा हो - असित माटी से जीवनी लेना। मैंने देखा पंडित जी दोनों पैर माटी पर टिकाए मुझसे बात कर रहे हैं। अच्छा तो माटी का यह गुण है और पंडित जी माटी से जुड़े हैं।
दूसरे दौर में प्रेम सर से मिलना हुआ। बड़े प्रेम से मिलते हैं प्रेम सर एकदम बाँहों में भर लेते हैं जैसे "रेलिया बैरन पिया को लियो आए रे" और प्लेटफॉर्म पर उतरते ही विरहिणी नायिका, नायक को बाँहों में भर ले। सच कहूँ तो प्रेम सर से मिलने के बाद ही जाना जा सकता है कि चिर युवा श्री सलमान खान जी का नाम फिल्मों में अक्सर प्रेम ही क्यों होता है।
इधर दर्शक दीर्घा में जिलाधिकारी महोदया अनीता श्रीवास्तव जी भी आ गईं थीं और मंच पर कोई मखमली आवाज तैर रही थी - ऐ मेरे वतन के लोगों... गजब की जादुई और सम्मोहित करने वाली आवाज थी उन गायिका की। लेकिन डेढ़ घंटे बाद भी मालिनी अवस्थी जी की कोई सूचना नहीं मिल रही थी। हार थक कर मैंने फोन किया लेकिन मालिनी अवस्थी जी ने फोन उठाया ही नहीं।
मन ही मन तय कर लिया कि कल से उन्हें मैसेंजर और व्हाट्स ऐप पर 'हर-हर महादेव, जय महाकाल, सुप्रभात, वाले मैसेजेज भेज-भेज कर परेशान करुंगा। लेकिन दूसरी बार तुरंत फोन उठा मैंने गुस्से में कहा - नाम भी बताना पड़ेगा? अब तो फोन भी नहीं उठता!
उधर से आवाज आई- अरे ना हो। मुंबई से आवत बानीं देवरिया। सुनाइल हऽ ना। तूं बतावऽ? का हालचाल बा?
मैंने कहा कि - दीदी मैं भी आया हूँ देवरिया।
मालिनी दीदी ने कहा - अच्छा आयोजकों को बताया क्यों नहीं कि तुम आ रहे हो? कहाँ हो? बाहर बहुत ठंड है स्वेटर पहने हो न? कार्यक्रम के बाद खाना साथ ही खाया जाएगा ठीक न?
मुझे समझ में नहीं आया कि कहूँ क्या? मैंने कहा - दीदी आज मैं श्रोता हूँ बस आपका। इधर प्रेम सर हँस रहे थे - बेटा माटी है यह। माँ की तरह ही ख्याल रखेगी अपने छोटे से छोटे बच्चों का।
धीरे-धीरे संगीत संध्या का कार्यक्रम चरम पर पहुंचा जब मालिनी दीदी ने प्रसंग छेड़ा - एक चरवाहा दिन भर चार सूखी रोटियाँ खाकर दिन बिता रहा है जंगल से लौटते समय एक यौवनावस्था नायिका को देखकर शरारती हो उठता है और कहता है -
भुखिया के मारी विरहा बिसरिगा भूलि गई कजरी कबीर।
देखि के गोरी के मोहनी मुरतिया उठे ला करेजवा में पीर।।
नायिका भी कम चतुर और रसिक नहीं है वो बड़ी अदा से कहती है - मुझे क्या तुम बिना खाए पिए रहो। मैंने अपने प्रिय के भोजन के लिए ऐसा उपाय किया है जो कोई सोच भी नहीं सकता-
तन मोरा अदहन, मन मोरा चाउर
नयनवां मूँग के दाल
अपने बलम के जेवना जेंवइबे बिनु अदहन बिनु आग।
यही लोकगीत है। जिसका भाव समर्पण है और भूख प्रेम। इस अवस्था में नायक, नायक नहीं होता नायिका, नायिका नहीं होती। आत्मा-परमात्मा में भेद नहीं होता। कोई द्वैत नहीं बस एक, एकाकार, एकमेव। तन ही अदहन बन जाता है और मन ही चावल। जब तक 'लाली' को खोजने वाला 'लाल' खुद लाली न हो जाए, तब तक समर्पण कैसा! मुहब्बत कैसी! चाहना कैसी!
मैंने देखा मालिनी दीदी मंच से उतर कर दर्शक दीर्घा में आ गई हैं गाते-गाते। माथे की टिकुली कहीं गिर गई है, हाथ लय के उतार-चढ़ाव पर काँप रहे हैं...
अब कोई अंतर ही नहीं है मंच और दर्शक दीर्घा में। नायक-नायिका में आत्मा परमात्मा में। लोक ही मंच बन गया है गायिका श्रोता बन गई है श्रोता गायक। जरुर ऐसी ही परिस्थितियों में तुलसी ने रचा होगा - सियाराममय सब जग जानी। पूरा जगत ही सियाराममय हो गया है पूरी सभा ही मालिनी अवस्थी बन गई है और मालिनी अवस्थी ही पूरी सभा। मैंने बगल में बैठे त्रिपाठी सूर्य प्रकाश सर को देखा फिर प्रेम सर को देखा। दोनों लोग जैसे सम्मोहित! यही क्या सभी सम्मोहित।
मैंने प्रेम सर से पूछा - सर क्या है यह?
प्रेम सर ने कहा - माटी। यही तो है माटी जो हमें जोड़े रखती है लोक से लोकगीत से लोकमंच से और आखिर में लोकमंगल से।
अंत में पुष्कर भैया दिखे। एकदम सद्यस्नात नायक की तरह (जब सद्यस्नात नायिका हो सकती है तो नायक क्यों नहीं) गोरे इतने कि फोटो में उतनी जगह सफेद ही आए जितने में भइया खड़े हो जाएं। देखते ही बोले - अरे तुम कहाँ थे असित? मेरे मुँह से निकला मंच पर... नहीं नहीं दर्शक दीर्घा में। खैर दोनों तो एक ही है।
प्रेम सर हँस रहे हैं - लो बेटा चढ़ गया है रंग माटी का।
सीढ़ियाँ उतरते ही भीड़ ने घेर लिया है अपनी गायिका को। कोई फोटो कोई आटोग्राफ कोई कुछ। सबसे मिलने जुलने के क्रम में भी मेरा ख्याल अपनी जगह। मुझे दिखा कर किसी से कहा - उसे गाड़ी में बैठाकर मेरे साथ ले चलना।
आखिरी मुलाकात जिसे व्यक्तिगत कहना ही ठीक होगा।संगमरमरी फर्श वाले मंहगे से कमरे में एक तरफ बलिया के पंडित तारकेश्वर मिश्र राही जी दूसरी तरफ मैं और बलिया के बीच में मालिनी दीदी। राही जी कोई गीत सुना रहे थे हम सभी मंत्रमुग्ध सुन रहे थे। राही जी को विदा करते हुए मालिनी दीदी ने झुककर उनके पाँव की माटी को छुआ माथे से लगाया।यह एक कलाकार के द्वारा कलाकार का सम्मान है। यह एक तरफ पिता जैसे होने का मान है तो दूसरी तरफ़ पुत्री जैसी होने का गौरव। और बीच में मैं सोच रहा हूँ कि क्या हमारी पीढ़ी पाँव की इस माटी को माथे पर लगा सकेगी? या हमारे हिस्से में टाइल्स और संगमरमर ही आएंगे?
असित कुमार मिश्र
बलिया
Monday, November 28, 2016
तन मोरा अदहन मन मोरा चाउर....
Thursday, November 10, 2016
हजारों नोट और एक दिले नादां
हजारों नोट और एक दिले नादां....
समय ने सिद्ध कर दिया है कि हमारे देश में हारे हुए नेता को मिले वोट और जेब में रखे हजार के नोट की कोई कीमत नहीं होती।इसीलिए यहाँ वोट और नोट दोनों को संदेह से देखा जाता है।इसी बीच नोट अगर पाँच सौ या एक हज़ार वाले हों तो लोग तब तक तीखी निगाहों से देखते हैं, जब तक फोटो वाले गाँधी जी खुद कह न दें कि- "बेटा रख लो हम पोरबंदर वाले मोहनदास करमचंद गाँधी ही हैं... आँखी किरिया"।
इधर वित्त मंत्रालय ने पाँच सौ और एक हज़ार के नोटों को वापस लेने की घोषणा की है। इससे शहरों की जिंदगी तो जैसे रुक ही गई है, हम गाँव के लोग भी कम परेशान नहीं हैं। हमारे लिए बड़ी आफत का समय होता है यह महीना। एक पैर धान की कटिया-पिटिया में लगा रहता है तो दूसरा पैर खेत की जुताई, गेहूँ के बीज, खाद-पानी की व्यवस्था में, और इन सबमें पैसे ही लगने हैं। रामायण हरिकीर्तन से लेकर बियाह-शादी भी इसी में।और आप ही बताइए सौ पचास का जमाना है अब?
1991 के आर्थिक सुधार और उदारीकरण के पहले वाले गाँव अब रह नहीं गए हैं। पहले गाँव में केवल गाँव होते थे, अब घरों में अलग-अलग दुनिया। इन आर्थिक सुधार की नीतियों ने गंवई हाथों में भी काग़जी नोटों की बैसाखियाँ पकड़ा दीं, वर्ना गाँव में सुबह भी होती थी, दोपहर भी, शाम भी और रात भी। लेकिन उसमें रुपये का बहुत कम नाम आता था। सौ रुपए का नोट देखना ही उपलब्धि होती थी गाँव के लिए, रखना तो दूर की बात थी। हालाँकि नोट तब भी होते थे, लेकिन हमारी जरूरतें कम थीं और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार पैसा नहीं सहयोग, अनाज और सामंजस्य होता था। तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि पच्चीस पैसे वाली 'चमेली माचिस' ही 'बैजंती गोड़िन' का भरसांय फूंक देगी। पचास पैसे के चिक शैम्पू के पाउच की खुश्बू के आगे कचटी माटी और तिल के पत्तियों की महक फीकी पड़ जाएगी। दो रुपये वाले फोम शीट की थालियाँ 'पुरईन के पात' को बेइज्जत कर गाँव से बाहर निकाल देंगी।
कभी सोचा तक नहीं था कि सेम, मटर, लौकी, तरोई, कोहड़ा, बथुआ, चौराई भी खरीदने की चीजें हैं... क्योंकि गाँवों ने इसे माँग कर खाया था... बाँट कर खाया था। ऐसा नहीं कि पैसा नहीं था तब। लेकिन गंवई अर्थव्यवस्था पैसे पर नहीं प्यार पर चलती थी। हमारे परिवार की पहचान उस चमकते दमकते नेम प्लेट से नहीं होती थी, जिस पर बड़े बाबूजी का नाम मोटे अक्षरों में लिखा होता था - ब्रजराज मिश्र, उपजिलाधिकारी (सेवानिवृत्त) बल्कि, शादी ब्याह में घर-घर घूमने वाली उन आधा दर्जन बदलचन चौकियों से होती थी, जिनके पायों पर आज भी गंवई अक्षरों में लिखा है - "एडीएम साहेब"।
ब्रजराज मिश्र नाम था संज्ञा थी, लेकिन एसडीएम साहेब में परंपरा थी विशेषण था।अब भी छह आठ चौकियाँ और दर्जनों कुर्सियाँ रखी हैं, लेकिन कोई माँगने नहीं आता। क्यों आएगा भाई! सबके पास पैसा है और पैसे से क्या नहीं खरीदा जा सकता? सबके पास पाँच सौ और एक हज़ार के नोटों की गड्डियाँ हैं। तो जाओ अब कांहे तीत लग रहा है भाई! खरीद लो अमेजन से आटा और फ्लिपकाट से तरकारी।डाऊनलोड कर लो एक तसली दाल गूगल से और आर्कुट से आठ दस रोटियाँ। फेल हो गया इकोनॉमिकल इन्वेस्टमेंट एंड डेवलपमेंट न!
गाँव की समझ में आज भी नहीं आता कि विमुद्रीकरण और मुद्रास्फीति क्या है? अर्थशास्त्र का वह सामान्य नियम भी नहीं जानते हम कि - 'बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है' ।
गाँव परेशान है कि हमारा पैसा 'माटी' हो गया। खलिहान में जाइए तो वहाँ भी छह-सात लोग घेर लेते हैं और वही तरह तरह के सवाल - बाबू! हर बार बैंकवा पइसा लेकर भाग जाता था इस बार पइसवा हाथे में छोड़ कर भाग गया?
मैं पूछता हूँ - कौन बैंक भाग गया?
सिरीराम जी बताते हैं - अरे उहे रिजरभ बैंक आफ इंडिया..
हँसी आती है इनकी सरलता पर। दोष इनका है भी नहीं। पिछले दिनों 'गैलेक्सी एसोसिएट्स' नाम से एक बैंक आया था, जो इन लोगों के पैसे लेकर भाग गया। अब इनको लगता है कि रिजर्व बैंक आफ इंडिया ही भाग गया अपना पैसा छोड़कर।
मैं समझाने की कोशिश में हूँ - अच्छा काका ई बताइए कि जब आप हाथ में पांच सौ का नोट लेते हैं तो चेक करते हैं कि नहीं?
बचन भाई ने बताया कि - एतना जाली नोट आ गया है बाजार में कि चेक करना जरूरी है।
मैंने पूछा कि आज तक एक भी जाली नोट पकड़े हैं आप?
बचन भाई अफसोस से कहते हैं - माट्साहब एतना पढ़े-लिखे होते तब का पूछना था।
मैंने कहा - तो सरकार हमारे लिए ही इन सभी नोटों को बंद कर रही है कि कोई हमको बेवकूफ बनाकर जाली नोट न दे दे।
सिरीराम जी ने कहा - अच्छा हमारे पास तो खाता है ही नहीं, तब तो हमारा आठ हजार रुपया डूब गया न?
मैंने कहा-पहली बात तो यह कि सरकार जब जनधन योजना में खाता खोलवा रही थी तो कांहे नहीं खोलवाए! ठीक है हमको दे दीजिएगा हमको सरकार दो लाख रुपये का छूट दी है। हम बदल कर आपको दे देंगे।
अब सिरीराम जी सरधा से देख रहे हैं हमको। जैसे हम वित्त मंत्रालय में बड़े बाबू हों। उन्होंने खुशी से कहा - आपका तो बहुत जान पहचान है बैंक में। डायरेक्ट कौनौ कर्मचारी को देकर कांहे नहीं बदल देते हैं?
मैंने समझाया - देखिए काका सरकार हमारे लिए समाजवादी एंबुलेंस लाती है तो हम बारात ढोने लगते हैं। राजीव गांधी विद्युत योजना लाती है तो हम कंटिया फंसाते हैं, अब बैंक लाइन से बुला रही है तो हम भीआईपी बन कर जाएं!
बचन भाई ने कहा कि - लेकिन आप मास्टर साहब होकर लाइन लगाएंगे? मास्टर आ नेता सब लाइन लगाता है कहीं ?
मैंने टैब में एक फोटो दिखाते हुए कहा - देखिए बचन भाई ये देव प्रकाश मीणा सर हैं पुलिस में एसपी हैं और लाइन में खड़े हैं। जबकि चाहते तो मैनेजर साहब को घर ही नहीं बुला लेते! अब बताइए हम लोग नहीं खड़े हो सकते हैं? गाँव की समझ में आ रहा है कुछ कुछ। पूरे गाँव में चर्चा है अब कि एगो एसपी साहब हैं वो लाइन में खड़े हैं।
अच्छी बातें भी उतनी ही तेजी से फैलती हैं जितनी बुरी बातें। पूरा गाँव देव प्रकाश सर की फोटो देखकर लाइन लगा कर पैसे बदलने को तैयार है। अब आगे आपके हाथ में है आपके आगे पीछे कोई बैंकिंग का कम जानकार हो तो उसकी मदद कीजिए। दो कलम लेकर बैंक में जाइए फार्म भरने से लेकर छोटा मोटा सहयोग कीजिए हम किसानों का। यकीन कीजिए सीमा पर शहीद होना ही देशभक्ति नहीं एक दूसरे की मदद करना भी देशभक्ति ही है। अफवाहों को यथासंभव रोकें बहुत आवश्यक वस्तुएं ही खरीदें कुछ दिनों तक। और जनधन खातों में कुछ जमाखोर दो - दो लाख रुपये जमा करने की सोच रहे हैं। ऐसे में गांवों के खाताधारकों को या कम जानकारी रखने वाले खाताधारकों को सचेत करें कि यह गलत है। बैंक में बैंकिंग नियमों का पालन करें। लगभग सप्ताह भर यह आर्थिक परेशानी रहेगी इसमें हमें भाजपा की तरफ से नहीं रहना है, कांग्रेस की तरफ से नहीं रहना है, सपा बसपा की तरफ से नहीं रहना है... देश की तरफ से रहना है।
असित कुमार मिश्र
बलिया
Sunday, November 6, 2016
फ्री मिनट से अपने मिनट तक...
फ्री मिनट से अपने मिनट तक...
सुमित्रा चाची के बारे में कुछ लिखने से पहले दो बातें बता दूँ। एक तो ये कि पिछले जनम में जरूर मैंने कोई बड़ा पाप किया होगा, जो इस जनम में इन्हें भाभी की जगह चाची कहना पड़ रहा है। दूसरी बात चाची एक नंबर की कंजूस हैं, इनसे एक रुपये खर्च करा लेना आरबीआई का गवर्नर बनने जैसा कठिन है।चाची कोई भी बात 'सबसे सस्ता' शब्द से शुरू करती हैं जैसे - ए बाबू सबसे सस्ता मोबाइल कौन सा है?
मैंने कहा - दस रुपये वाला जिसमें 'बुंबरो बुंबरो श्याम रंग बुंबरो' वाला गाना बजता है।
चाची कपार पर हाथ रख कर मेरे बुद्धि पर अफसोस करते हुए कहती हैं कि - अरे बातचीत करने वाला मोबाइल चाहिए।
मैंने कहा - चाची अब स्मार्ट फोन का जमाना है...
चाची ने बीच में ही टोक दिया - नहीं। हमको ऐसा मोबाइल चाहिए जिसमें बस फोन आए-जाए और एक रुपया लगाना न पड़े।
मैं चाची की सरलता पर हँस देता हूँ। चाची 'बाजार' नहीं समझती। यह नहीं समझती कि इस दुनिया में चारों ओर एक बाजार है जहाँ हम जैसे लोगों को हर मिनट खरीदा बेचा जाता है और हमें पता तक नहीं चलता।
खैर सैमसंग का सबसे सस्ता मोबाइल और टेलीनॉर का सिम आ गया।आज वही चाची जो एक रुपये खर्च नहीं करतीं वो कभी पाँच रुपए का 'फ्री मिनट' डालते दिखतीं हैं, तो कभी लोकल और एसटीडी रेट समझती हैं।
बात अकेले चाची की नहीं है हम सबकी है। हम सभी हर सेकेंड हर मिनट बाजार में ही खड़े हैं। सोते भी हैं बाजार में, जागते भी हैं बाजार में, खाते भी हैं बाजार में, रोते भी हैं बाजार में, जहाँ जीवन मूल्यों का परिवर्तन हो रहा है हर चीज़ बिक रही है और बेचने वाले मुस्कुराते हुए हमारी जेब से पैसे निकाल लेते हैं।
याद कीजिए दस बारह साल पहले के समाचार। जब चैनल के नाम पर दूरदर्शन होता था और सुरुचिपूर्ण ढंग से साड़ी पहने बैठी एक समाचारवाचिका स्पष्ट उच्चारण में कहती थीं - आज प्रधानमंत्री जी ने कहा कि... फिर प्रादेशिक समाचार फिर मौसम के समाचार। जैसे सबकी दुनिया ठहर जाती थी वहीं। पापा चश्मा लगा लेते थे अम्मा चुप हो जातीं थीं और हम पर तो जैसे धारा एक सौ चौवालिस लागू रहता था। वह सरला माहेश्वरी और शोभना जगदीश का जमाना था।
आज आकर्षक वस्त्रों मेकअप से लदी हुई अभिनेत्री की तरह टहल रही समाचारवाचिका चीखती है - आज नरेंद्र मोदी ने कहा कि... फिर किसी बंगाली बाबा का जादू और भाग्यलक्ष्मी यंत्र के साथ साथ सैकड़ों अनचाहे,अदृश्य उत्पाद बेचने तक, जो मूल्य बदल गए हैं उन्हें आसानी से समाज में देखा जा सकता है। 'प्रधानमंत्री जी' से 'नरेंद्र मोदी' कहने तक, जो नैतिक मूल्यों का पतन हुआ वह साफ़ दिख रहा है जब किसी पत्रकार ने प्रधानमंत्री जी के हाथों पुरस्कार लेने से यह कह कर मना कर दिया कि- "मैं नरेंद्र मोदी को और खुद को एक फ्रेम में नहीं देख सकता।" यकीन नहीं होता जो पत्रकारिता गणेश शंकर विद्यार्थी से चली वह यहाँ तक आ गई है कि यह भी समझ में न आए कि नरेंद्र मोदी पुरस्कार नहीं दे रहे वह भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री जी द्वारा प्रदत्त पुरस्कार है। व्यक्ति नहीं पद सम्मानित कर रहा है। व्यक्ति के स्तर पर मुझमें और राजीव गांधी मनमोहन सिंह नरेंद्र मोदी में कोई अंतर नहीं लेकिन पद के स्तर पर वो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री हैं जिनका सम्मान करना प्रत्येक भारतीय का दायित्व है।
हमारी पीढ़ी बात बात में नरेंद्र मोदी और मनमोहन सिंह ऐसे कहती है जैसे वो हमारे क्लासमेट रहे हों। पिछले दस बारह सालों में आया परिवर्तन है यह।टीआरपी की भूख और बाज़ार में खुद को बेचने की ललक, सनसनीखेज खुलासे, बिग ब्रेकिंग न्यूज़ ने मर्यादा और आचरण से लेकर पत्रकारिता के मूलभूत सिद्धांतों तक चमक खोई है। निश्चित ही प्रधानमंत्री जी की नीतियों विचारों का विरोध होना चाहिए यह बेहतर लोकतंत्र के लिए आवश्यक है लेकिन पुरस्कार न लेकर विरोध नहीं अपमान किया है भारतीय पत्रकारिता ने।
यह बाजार हर क्षेत्र में हर जगह और हर समय है। कल तक हिंदी की सबसे बड़ी पत्रिका छह हजार प्रतियों में निकलती थी आज फेसबुक पर या ब्लॉग पर जिसके भी तीन हजार मित्र और तीन हजार फॉलोअर हैं वह एक पत्रिका और एक संपादक के समान है।या और भी सैकड़ों हजारों पत्रिकाएं हैं बाजार में। लेकिन क्या नैतिक मूल्य और साहित्यिक मर्यादा वही है? जो धर्मयुग और सरस्वती के समय थी? आज ज्ञानपीठ पुरस्कार नहीं मिलता, 'इफको' ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलता है। ज्ञानपीठ तो समझ में आ रहा है भाई! ये इफको क्या है? यही तो बाजार है और उसकी खुली बाँहें। जिसमें सब समाहित होता जा रहा है।
अक्सर अध्यापकगण बढ़े बालों पर, अजीब तरह के फटे-कसे कपड़ों पर लड़कों को डांटते-टोकते हैं और अचानक कोई हनी सिंह आते हैं और एक पूरी पीढ़ी बाल कटवा कर हनी सिंह बन जाती है। मैं आज तक किसी एक को भी असित कुमार मिश्र नहीं बना सका और किसी हनी सिंह ने पूरी पीढ़ी को बदल दिया। कहना पड़ेगा मुझे कि हमारे मनोविज्ञान से उनका मनोविज्ञान ज्यादा प्रभावी है। हम अध्यापकों से बड़ा 'मोटिवेटर' तो वो है, जो न जाने कहाँ है और वहीं से यूथ को चेंज कर दिया और हम क्लास में होकर भी चालीस बच्चों को अपने जैसा नहीं बना पाए।
एक महत्त्वपूर्ण कारण है कि पीढ़ियों का अंतर बढ़ता जा रहा है। इसे ऐसे समझिए - 'तवायफ' फिल्म का नाम सुना है न! ऋषि कपूर वाली? उसका साहित्यिक महत्त्व यह है कि वह फिल्म 'अलीम मसरूर' के प्रसिद्ध उपन्यास 'बहुत देर कर दी' पर बनी थी। और इस उपन्यास को पढ़ने के लिए हजारीप्रसाद द्विवेदी जी रात भर जागते रहे, लालटेन का तेल खत्म होने पर पड़ोसी का लालटेन मांगा। अब यही फिल्म आज की पीढ़ी को दिखाइए। देखिए तो क्या होता है? या आज की कोई फिल्म पुरानी पीढ़ी को दिखाइए देखिए क्या होता है? दोनों खारिज कर देंगे। नई पीढ़ी, पुराने आदर्श प्रतिमान नैतिकता को खारिज कर रही है और पुरानी पीढ़ी नए जींस ब्लेजर क्रीम लाइफस्टाइल को खारिज कर रही है। दोनों के बीच जो एक जुड़ाव होना चाहिए वही टूट गया है। कारण क्या है इसका? पीढ़ियों में जल्द बदलाव। आज पांच साल में एक पीढ़ी बदल रही है पंद्रह साल में तीसरी पीढ़ी चलने लगी। पंद्रह साल पुरानी बातें आज के लड़के खारिज कर ही देंगे क्योंकि बाजार ने और तकनीकी ने मात्र पंद्रह साल में तीन पीढ़ियां बना दी हैं।
आज साबुन तेल के विज्ञापनों के बीच अंत: वस्त्रों का विज्ञापन भी उसी सहजता से आता है। आज लड़की भी लड़के के साथ बड़ी सहजता से बीयर पी रही है क्योंकि बाजार ने उसे सिखाया है कि इस कंपनी का बीयर आपकी पार्टी में जान डाल देगी। गोरी त्वचा के लिए सैकड़ों क्रीम हैं क्योंकि बाजार ने खबर बनाई है कि सांवला होना पाप है। एक आइएएस बनने के लिये लाखों आंखों में सपने बनते हैं लेकिन उसी वेतनमान पर अध्यापक नहीं बनना चाहते हैं हम। क्योंकि बाजार की शब्दावली में डी एम का पद आकर्षक और रसूखदार है। फलस्वरूप डी एम बनाने का रोजगार हर शहर हर कस्बे में चल रहा है। दो किलोमीटर दूर जाने के लिए हम बुलेट इनफील्ड निकालते हैं और पांच किलोमीटर के लिए स्कार्पियो । क्योंकि बुलेट जो है वो शान की सवारी है और स्कार्पियो के विज्ञापन में दिखाया गया है कि एक नायिका इठलाती हुई आती है चालक से लिफ्ट मांगती है और फिर चुंबन दृश्य.... इधर पूरा बलिया जिला घूम रहे हैं हम, एक्को नायिका तो क्या घास वाली तक नहीं देखती। क्योंकि मेरी तरह हजारों स्कार्पियो सड़कों पर दौड़ रही हैं अब बेचारी नायिका खुदे कन्फ्यूज है कि लिफ्ट मांगे किससे!
हम सोच भी नहीं सकते कि टेलीकॉम कंपनियों ने लाखों रुपये खर्च करके अर्थशास्त्रियों को सीईओ क्यों बनाया है? बस इसीलिए कि सुमित्रा चाची न चाहते हुए भी पांच रुपये मोबाइल में डालें। वो हमेशा ऐसे आकर्षक प्लान मार्केट में उतारते रहें जिसे सुमित्रा चाची जैसी मितव्ययी महिला गेहूँ बेचकर भी आफर का लाभ ले, लेकिन ले।
आप जेब पर ताला लगाकर बाजार में जाइए देखिए आप खुद ताला तोड़ेंगे और कुछ न कुछ खरीदना ही पड़ेगा आपको। क्योंकि बाजार ने सिखाया है हमको कि स्टील के बर्तनों से घर भरा हो तब भी धनतेरस के दिन बर्तन खरीदना ही है तुमको। और हम बीस रुपए की छननी सत्तर रुपये में लिए आ रहे हैं खुश होकर कि स्टीकरवा पर तो अस्सी रुपया लिखा है।
दो सालों में हमारे कस्बे में पाँच पानी सप्लाई करने वाली दुकानें खुल गई हैं कोई हिमालया एक्वा है तो कोई ऐश्वर्या एक्वा। कारण भी वही लोग बता रहे हैं कि घर का पानी दूषित हो गया है। कुछ पेड़ पौधे लगाने वाले वन विभाग के सहयोगी एनजीओ आ रहे हैं जो बता रहे हैं कि दिल्ली मुंबई रहने लायक नहीं है धुएँ के कारण, प्रदूषण के कारण। इसलिए यह पेड़ लगाइए सत्तर रुपये वाला। एक डेढ़ सौ का भी है। यहाँ भी बाजार आ गया।
बात बहुत आदर्श और नैतिकता की नहीं है बात थोड़ी सी सावधानी की है। आप वही सामान खरीदिए जिसकी सख्त आवश्यकता हो। वही साहित्य पढ़िए जिससे मनोरंजन के साथ साथ लोककल्याण व सामाजिक समरसता बनी रहे। कम दूरी के लिए साइकिल का प्रयोग करें। विरोध - समर्थन इस तरह न करें जिससे आपकी भावनाओं को बेचा जा सके। हमारे घर का बच्चा कौन सा टीवी प्रोग्राम देख रहा है, उसके आदर्श कौन हैं, उसका झुकाव किधर हो रहा है, यह देखना हमारा ही काम है। टीवी सीरियलों ने हमारे बच्चों को आवश्यकता से पहले बड़ा कर दिया है। हृदय में दो अलिंद होते हैं एक दांये और एक बाएँ यह जानने की उम्र तक दो बार ब्रेकअप हो चुका होता है। क्योंकि हमारी फिल्मों के केंद्र में अवयस्क प्रेम ही होता है कोई सामाजिक सरोकार नहीं। क्योंकि इसी फिल्म के बाक्स आफिस पर धूम मचाने की उम्मीद है।
मनोचिकित्सक और समाजशास्त्री हैरान हैं कि देश का युवा इतना अस्त व्यस्त कभी नहीं रहा। लेकिन कोई यह नहीं सोच रहा है कि पहले इतना बाजार भी तो नहीं था।पूरा परिवार एक साथ एक टीवी देखता था अब सबके कमरे अलग हैं। पहले एक सदस्य की समस्या परिवार की समस्या होती थी अब यूथ कहती है - ममा प्लीज़ मुझे अकेला छोड़ दो, दिस इज माए प्राब्लम। पहले हम आपस में खुल कर बातें करते थे, अब खाते समय भी फेसबुक व्हाट्स ऐप।
बाज़ार हमें परिवार से व्यक्ति बना रहा है।घर परिवार व्यक्ति सब बदल रहे हैं, बदल नहीं रहे बल्कि टूट रहे हैं। मैं बाजार का विरोधी नहीं। बाजार से दूर रहना भी ठीक नहीं यह हमें अवसर भी देता है। लेकिन कुत्सित बाजारु नीतियों से बचाव जरुरी है। हमें सोचना होगा कि खुशी और दुख व्यक्त करने के लिए स्माइली नहीं कंधे की जरूरत होती है। डनलॅप और स्लीपवेल आराम दे सकते हैं नींद नहीं।लाइक, कमेंट, टीवी, अखबार, मीडिया और न्यूज में आना, छाए रहना अच्छा है। लेकिन अपनी परंपरा अपनी संस्कृति संस्कार और आदर्शों को ताक पर रखकर नहीं। बाजारु 'फ्री मिनट' के साथ साथ कुछ 'अपने मिनट' भी यूज करना जरूरी है।
असित कुमार मिश्र
बलिया