रंग, हर रंग में है दाद तलब...
कमाल यह कि इधर महीनों से कुछ लिखा नहीं। और कमाल यही कि कुछ न लिखने में सच में कुछ लिखा नहीं। वर्ना हम हिन्दी वाले हैं, हम तो कुछ न लिखने की गरज़ में भी दो-चार किताबें पाठकों को चला कर मार ही देते हैं।और तब पाठकों को पता चलता है कि हिंदी में पचास प्रतिशत तो कुछ न लिखने की गरज़ में ही लिखा गया है।
खैर! मैं आनंद में हूँ। हर उस भारतीय पति की तरह जिसकी पत्नी अपने गाँव चली गई हो और वो व्हाट्स ऐप पर "अपना ख्याल रखिएगा... ठीक से रहिएगा" जैसे सूत्र-वाक्यों से अधिक कुछ न कर सकती हो।
लेकिन इसी बीच कल उधर से व्हाट्स ऐप पर एक तस्वीर आई। तस्वीर में राजेन्द्र बाबू की मूर्ति थी और मूर्ति के मुँह पर बिहार के किसी छात्र-संगठन ने कालिख पोत रखी थी।
मैंने जवाब में लिख दिया - वाह! बहुत खूब।
उधर से विजया जी की टिप्पणी आई - "आपको ब्लॉक कर रही हूँ। जिस व्यक्ति को आह और वाह करने की उपयुक्त जगह पता नहीं उसके साहित्यिक होने में मुझे संदेह है"।
हिंदी जगत के लोग जानते होंगे कि आचार्य केशव पर भी घुमा-फिरा कर शुक्ल जी ने ऐसे ही आरोप लगाए थे कि - "आप केवल उक्ति और शब्द क्रीड़ा के प्रेमी हैं आपको जीवन के मार्मिक पक्षों की पहचान नहीं। या आपमें वह सहृदयता एवं भावुकता नहीं, जो एक कवि में होनी चाहिए।"
मुझे लगता है कि शुक्ल जी अगर केशव की सहृदयता प्रमाणित ही करना चाहते तो उनके सामने 'जहाँगीर-जस-चंद्रिका' भी रही होगी जिसमें उद्यम और भाग्य के कलात्मक संवाद थे। या फिर 'कविप्रिया' भी रही ही होगी, जिसमें जनप्रवाह के साथ साथ विदेशी साहित्य प्रवाह का भी नियोजन था। या फिर इस कवि की महानता उस 'रामचंद्रिका' के अन्यान्य स्थलों से भी सिद्ध हो सकती थी जिसे रामस्वरूप चतुर्वेदी ने 'छंदों का अजायबघर' माना था। लेकिन उन्होंने धारणा बना ली कि - "जिस व्यक्ति को आह और वाह करने की उपयुक्त जगह पता नहीं उसके साहित्यिक होने में मुझे संदेह है।"
तो इस बनी बनाई धारणा से न उस भक्तिकाल में आचार्य केशव का कुछ बिगड़ा न इस "भक्तिकाल" में असित कुमार मिश्र का कुछ बिगड़ेगा।
लेकिन अब सोचता हूँ तो लगता है कि राजेन्द्र बाबू से विजया जी का लगाव यूं ही नहीं है। मेरे साथ पहली बार वो कहीं घूमने गईं थीं तो वो जगह राजेन्द्र बाबू की जन्मभूमि जीरादेई ही थी।
यात्राओं से डरने के कारण मैंने घूमने को सदा एक अनावश्यक कार्य माना। भले ही दुनिया मुझे कूपमण्डूक कहती रहे फिर भी मेरा मानना है कि जब धरती और मोदी जी लगातार घूम ही रहे हैं तो हमें घूमने की आवश्यकता नहीं है।
तो जहाँ तक याद आता है वो विवाह के अगले दिन की ही बात है जब बड़े भाई साहब ने बुला कर पूछा था - वीज़ा तो होगा नहीं तुम लोगों के पास?
मैंने याद करने की कोशिश की। पिछले साल मेरे कुछ राष्ट्रवादी मित्रों ने मेरे लेख से आहत होकर मुझे पाकिस्तान भेजा तो था लेकिन उसमें वीज़ा - पासपोर्ट टाईप का झंझट तो नहीं आया था।
मैंने कहा - नहीं भैया।
भैया ने एक लिफाफा हाथ में देते हुए कहा - चलो तब भारत में ही कहीं भी विजया के साथ घूम आओ... शिमला-मसूरी अच्छी जगहें हैं, वहीं चले जाओ।
मैंने पूछा - भैया जाना कैसे है?
उन्होंने बताया कि हवाई जहाज से...
एक क्षण को लगा कि धरती का घूमना रुक गया हो। मैंने फिल्मों में देख रखा था कि टिकट के हेर-फेर से हीरो कहीं का कहीं पहुँच जाता है। कहीं ऐसा न हो कि मुझे जाना है शिमला और मैं पहुंच जाऊँ यूरेशिया।
जो भी हो विजया मेरे साथ और वो भी शिमला-मसूरी घूमने की बात पर बहुत खुश थीं। जाने की तिथि और मूहूर्त तक निकाल लिए गए थे। लेकिन मैंने कहा था न कि - 'जब किस्मत कांग्रेस होती है तो परिस्थितियाँ भी नारायण दत्त तिवारी हो जाती हैं'।
इसी बीच उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग ने अध्यापक भर्ती की तिथि घोषित कर दी। और सारी खुशियों पर जैसे पानी फिर गया।
मैंने विजया जी को गीता - ज्ञान देना चाहा - देखिए! ये यूपी है यहाँ सत्ता बदलती है व्यवस्था नहीं। फिर परीक्षा होगी, आठ दस सवाल गलत आएंगे, आपत्तियाँ होंगी, मामला कोर्ट जाएगा। आयोग के सदस्य - अध्यक्ष बदलते रहेंगे, सरकारें आएंगी-जाएंगी.... लेकिन फिर घूमना नहीं हो पाएगा।
लेकिन न चाहते हुए भी वह यात्रा स्थगित करनी पड़ी।
दिन, सप्ताह अपने तरीके से बीतने लगे थे कि एक दिन विजया जी ने खुश होकर बताया कि हमें सीवान चलना होगा बिहार टीईटी का प्रमाण पत्र लाना है।
मैंने कहा - अब इतनी सी बात के लिए सीवान क्या जाना! चंदन पांडेय वहीं तो अध्यापक हैं हर हफ्ते आते ही हैं, सर्टिफिकेट भी ला देंगे। अध्यापन की डिग्री कौन सी भारी है, दुनिया में सबसे हल्की चीज यही तो है...
विजया जी ने दु:खी होकर कहा - मतलब हम सीवान नहीं जाएंगे यही न? इस बहाने ही सही कहीं घूम तो आते...।
बस! यहीं से सीवान जाने का कार्यक्रम बना।
सीवान बिहार में पड़ता है और यह जगज़ाहिर है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में पहले बेटी-रोटी का सम्बन्ध था जो कि अब मजबूत होते-होते रोटी-बेटी से कट्टा-गोली तक आ गया है। आज बलिया में अगर कहीं गोली चलती है तो कट्टा भले ही यूपी का हो गोली बिहार की ही होती है और बिहार के किसी शादी-ब्याह में लोट-लोट कर नागिन डांस करने वाले लड़के का नशा भले ही बिहार का हो लेकिन शराब यूपी की ही होती है।
हमारे यहाँ से यूपी और बिहार में दूरी बहुत नहीं है। अक्सर दिशा मैदान के लिए बैठे हुए बहुत से ऐसे लोगों को स्वभाविक रूप से देखा जा सकता है जिनका शरीर यूपी में रहता है तो लोटा बिहार में। इसलिए कहा जा सकता है कि बिहार की यात्रा हमारे लिए एक तरह से पूर्ण संतुष्टि की भी प्रक्रिया है।
सीवान से लौटते हुए धूप बहुत तेज़ हो गई थी। रास्ते में सड़क पर एक जगह बोर्ड पर लिखा मिला - जीरादेई... मतलब राजेन्द्र बाबू का गाँव।
मैंने विजया जी से पूछा - जीरादेई गाँव का नाम सुना है?
उन्होंने कहा कि - नहीं तो।
मैंने फिर पूछा - और राजेन्दर बाबू का नाम सुना है?
उन्होंने हँस कर कहा - इन्हें भला कौन नहीं जानता!
मैंने बाइक गाँव की तरफ़ मोड़ते हुए खीझ कर कहा -भारत के गाँवों के साथ ऐसा ही क्यों होता है विजया जी कि गाँव छूट जाते हैं और लोग याद रह जाते हैं?
उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहा - क्योंकि गाँव की छोटी इकाई है लोग और लोगों की बड़ी इकाई है नगर।यह क्रम जब तक ठीक नहीं होगा तब तक गाँव छोटे होते चले जाएंगे और लोग बड़े.... ।
जब हम राजेन्द्र बाबू के घर पहुंचे तो आगंतुकों के नाम पर एक हैरान - परेशान लड़का मिला जिसे झारखंड के किसी सुदूर क्षेत्र से जीरादेई की मिट्टी खींच लाई थी। उधर परिचायक महोदय बारामदे में लोहे की बेंच पर शर्ट को तकिया बनाए गहरी नींद में थे। पूरब तरफ़ तीन-चार लड़के नरम घास पर लेटे सेल्फ़ी में व्यस्त थे जिनमें से एक लड़के का मोबाइल फोन साफ़ और स्पष्ट रूप से उद्घोष कर रहा था कि - पियवा से पहिले हमार रहलू...।
हम इन परिस्थितियों से अनजान बनते हुए जब अंदर घुसे तो सारे दरवाजे बंद थे और एक कमरे के दरवाजे के पास एक श्वान महोदय भी गहरी नींद में सोए मिले।
इन विपरीत परिस्थितियों से विजया जी की घबराहट बढ़ रही थी। मैंने थोड़ा आश्वासन देते हुए कहा - देख लीजिए! इसी परिवेश से निकल कर भारत का प्रतिनिधित्व करना कितना कठिन रहा होगा राजेन्द्र बाबू के लिए।
हमने राजेन्द्र बाबू का पूरा घर देखा। वो कमरा भी देखा जिसमें गाँधी जी और राजेन्द्र बाबू ने बैठकर बात की थी और उनके घर का टूटता हुआ वह हिस्सा भी देखा जिसकी दीवार पर गंवई आशिकों ने चाक से दिल बना कर अपनी अधूरी प्रेम-कहानी लिख छोड़ी थी...।वह लकड़ी का बक्सा भी मिला जो राजेन्द्र बाबू को दहेज़ में बलिया से गया था।
विशाल घर के आंगन में घूमते हुए विजया जी को तुलसी - चौरा भी दिख गया था। जहां सर झुकाकर विजया जी ने आशीर्वाद भी लिया और शायद तुलसी माता ने विजया जी के कान में कुछ कहा भी जिसे मैं सुन नहीं सका।
हाँ! अगले मिनटों में मैंने देखा कि विजया जी नंगे पाँव बाहर से पानी ला - ला कर तुलसी चौरा में डाल रही हैं और कुछ मिनटों बाद ही परिचायक महोदय डाँट सुन रहे हैं। अंग्रेज़ी, हिंदी, संस्कृत, भोजपुरी मिश्रित डाँट की मूल बात यही थी कि तुलसीचौरा में हफ्तों से पानी नहीं पड़ा। तुलसी माता सूख रही हैं राजेन्द्र बाबू के घर में कुत्ता बैठा है और आप यहाँ सो रहे हैं? अगली बार आने पर यह स्थिति दिखी तो आपके लिए अच्छा नहीं होगा... वगैरह वगैरह।
परिचायक महोदय "जी मैडम-जी मैडम" से आगे नहीं बढ़ रहे थे।
लौटते हुए रास्ते में भी विजया कुछ क्षोभ कुछ दुख के कारण उदास और चुप थीं। मैंने माहौल थोड़ा नरम करने के लिए कहा -अच्छा आपको पता है आपसे पहले आपकी तरह ही साड़ी सिर पर लगाए उसी तुलसीचौरा में जो पानी डालती होंगी उनका नाम राजवंशी देवी था और वो हमारे बलिया की ही थीं?
विजया जी ने आश्चर्य से कहा - नहीं तो! मुझे नहीं पता था।
विजया जी ही नहीं बहुत से लोगों को पता नहीं होगा कि राजेन्द्र बाबू की पत्नी राजवंशी जी बलिया की थीं। अत्यंत सरल हृदया अपनी भाषा भोजपुरी और अपनी संस्कृति से गहरे तक जुड़ी ही नहीं बल्कि उनसे बनीं। बहुत से ऐसे मौके आए जिनसे भारत के ही नहीं वरन् विश्व के लोग सीख सकते हैं कि भोजपुरिया होना क्या होता है!
आप सोच कर देखिए! छायावाद की अन्यतम् कवयित्री महादेवी को राजेन्द्र बाबू के हाथों पुरस्कृत होना है और वही निवेदन कर रहे हैं - सम्मान समारोह के बाद तनीं घरे चलि आईब राजवंशी जी रउवां से मिलल चाहतारी।
अब दूसरे दृश्य में महादेवी राष्ट्रपति भवन में राष्ट्र की प्रथम महिला के सामने बैठी हैं और उन्होंने कहा है - गोड़ ऊपर कई के नीक से बइठीं। हमहूं इलाहाबाद रहल बानीं। फेर दिल्ली आईब तऽ दू गो सूप लेले आईब। चाऊर फटके में इहवां बहुत दिक्कत बा ...
लगता है वो किसी दूसरे ग्रह के लोग रहे होंगे। एक तरफ राष्ट्रपति की पत्नी दूसरी तरफ एक प्राचार्या और अनगिनत पुरस्कार प्राप्त महादेवी वर्मा। राष्ट्रपति की पत्नी महादेवी से माँग क्या रहीं हैं तो सूप! चावल साफ़ करने के लिए।
कवयित्री के मन में साहित्य के सैकड़ों सवाल - जवाब होंगे मसलन - बताओ तुम्हारी भूमिका हरिऔध ने क्यों लिखी? बताओ रहस्यवाद क्या है? बताओ तुम्हारी इतनी पीड़ा का स्रोत क्या है?
और सवाल हुआ भी तो कम्बख्त सूप को लेकर। और कमाल यह कि महादेवी वर्मा लौटती ट्रेन से दो सूप लेकर प्रकट भी हो गईं - दीदी! इहै तोहार सूप। अब तऽ कौनो दिक्कत ना होई?
जब राजेन्द्र बाबू राष्ट्रपति की 'नौकरी' छोड़ कर सदाव्रत आश्रम की ओर रवाना हुए.... हाँ! वो राष्ट्रपति की नौकरी ही करते थे।
मौका था इंग्लैंड की महारानी के आने का। प्रोटोकॉल के अनुसार भारत गणराज्य के राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद को महारानी का स्वागत करते हुए हाथ मिलाना था लेकिन विवाहित लोग जानते ही हैं कि राष्ट्रपति से भी एक बड़ा पद होता है।
इस समस्या के समाधान के लिए नेहरू जी आगे आए - बाबू साहब! आप हाथ जोड़कर नमस्कार कीजिएगा तब तक मैं आगे बढ़कर महारानी का हाथ पकड़ लूंगा कोई जान भी नहीं पाएगा।
राजेन्द्र बाबू ने कहा था - जवाहर! बात इतनी सी नहीं है। एक मिनट का भी हेर-फेर हुआ तो मामला बिगड़ जाएगा। मुझे राजवंशी जी से बात करनी ही होगी।
और अगले दृश्य में भारत गणराज्य के राष्ट्रपति बलिया की उस साधारण सी औरत से बहाने बना रहे हैं - सुनिए! आपको शायद मालूम न हो कि मैं राष्ट्रपति की नौकरी करता हूँ। और दूसरे देश की एक बहुत बड़ी अधिकारी आ रही हैं नियम के अनुसार मुझे उससे हाथ मिलाना है। नहीं तो मालिक नौकरी से निकाल देगा।
राजवंशी देवी ने सिर पीट लिया - बाप रे बाप! नौकरी ही नहीं रहेगी तो क्या खाएंगे - पियेंगे। बस हाथ ही मिलाना है न ! हाथ मिलाकर किसी तरह नौकरी बचाइए आगे देखा जाएगा।
राजेन्द्र बाबू ने जवाहरलाल नेहरू से जाकर कहा - मामला बन गया। बलिया के लोग भावुक होते हैं उन्हें आसानी से वशीभूत किया जा सकता है.... ।
तो वह जमाना आज का नहीं था कि लोग मुख्यमंत्री भवन खाली करते समय टोंटी तक उखाड़ ले जाएं। एक घोड़ागाड़ी आई थी पूर्व राष्ट्रपति को सदाव्रत आश्रम ले जाने के लिए।
पूर्व राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू बग्घी में बैठ चुके थे तभी राजवंशी जी दोनों सूप लिए आकर बग्घी में बैठीं।
राजेन्द्र बाबू ने कहा - ई का ले लिहलू?
एक तो नौकरी छूटने का दुख उस पर यह अनावश्यक सवाल! राजवंशी जी ने खीझ कर कहा - ये मेरा व्यक्तिगत सामान है। महादेवी वर्मा ने बस मुझे दिया था।
राजेन्द्र बाबू हँसने लगे - पागल मेहरारू से बियाह हो गया। ये सूप राष्ट्रपति की पत्नी को उपहार मिला था और अब आप राष्ट्रपति की पत्नी नहीं हैं...।
अंतिम कमाल यह कि आज भी वह सूप राष्ट्रपति भवन के मालखाने में जमा हैं।
लेकिन शायद यह अंतिम कमाल नहीं था। मैंने बाइक की साइड मिरर में देखा - विजया जी की आँखों से झर-झर मोती गिर रहे हैं।
मैंने सड़क के किनारे बाइक रोकी। उनके आँसू पोंछे और पूछा - क्या हुआ?
विजया जी ने रोते हुए कहा - हमके राजवंशी देवी जी के गांवे जाए के बा।
साला.... हँसते - हँसते पेट में दर्द होने लगा... सही में पागल मेहरारू से बियाह हो गइल बा।
मैंने समझाया - विजया जी वो दूसरे लोग थे और दूसरा समय था। आज दूसरे लोग हैं और समय दूसरा। आपको आश्चर्य होगा यह जानकर कि राजेन्द्र बाबू और राजवंशी देवी की एक मूर्ति दर्शकों से इसी इंतजार में अनावृत खड़ी है कि इसी भारत के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सांसद और विधायक के पास थोड़ा समय हो तो हमारी मूर्ति का अनावरण कर दे। और आज के हत्यारे, बलात्कारी, दंगाई, घोटालेबाज नेताओं के पास पाँच मिनट का समय नहीं कि इन देवतुल्य मूर्तियों का अनावरण कर जाएं।
विजया जी ने आश्चर्य से पूछा - सच में हमारे बलिया में राजेन्द्र बाबू और राजवंशी जी की ऐसी कोई मूर्ति है जिसका अनावरण आज तक नहीं हो पाया है ?
मुझे हँसी आई कितनी नादान हैं विजया। मैंने समझाया - राजेन्द्र बाबू के नाम पर वोट मिलते तो आज पूर्व प्रधानमंत्रियों से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री तक मूर्ति के अनावरण के लिए लाइन लगा देते। अगर राजवंशी देवी के आदर्शों की कोई कीमत होती तो उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्रियों से लेकर वर्तमान मुख्यमंत्री तक उस मूर्ति के अनावरण के लिए हाथ बाँधे खड़े मिलते। लेकिन अब समय बदल गया है.... ।आज प्राचीन मूल्यों की कोई कीमत नहीं है।
कुछ भी हो विजया जी जीरादेई से आने के बाद राजेन्द्र बाबू और राजवंशी देवी के व्यक्तित्व से काफ़ी प्रभावित थीं।राजवंशी जी को तो अपना आदर्श मानने लगीं थीं। इसलिये आज उन्होंने उसी राजेन्द्र बाबू के मुँह पर कालिख पुती देखी तो बर्दाश्त न कर सकीं और फोटो मुझे भेज दिया।
अब संयोग यह कि मैंने भी वाह! बहुत खूब!! लिखा तो उन्होंने मुझे ब्लॉक कर दिया।
शायद मुझे ऐसा नहीं लिखना था। राजेन्द्र बाबू की महानता में कोई संशय नहीं। मुझे दुख व्यक्त करना चाहिए था। लेकिन मैंने इस विषाद के क्षण में भी वाह! वाह! लिखा। मुझ जैसा पतित और अज्ञानी कौन होगा!
छोड़िए! विषयांतर करते हैं.... ।तो जाॅन एलिया पाकिस्तान के बड़े शाइर थे। अमरोहा मूल था शायद उनका। हुआ यह कि पाकिस्तान के किसी काॅलेज में मुशायरा था और जाॅन साहब थे मुख्य अतिथि। काॅलेज की जो लड़की प्रस्तोता थी उसकी एक सहेली टीवी रोग से ग्रस्त थी। उसने उससे कहा कि आज उर्दू के एक बड़े शाइर जाॅन एलिया साहब हमारे काॅलेज में आ रहे हैं तुम चलना चाहो तो चलो।
रोगग्रस्त लड़की ने सोचा - जिंदगी का यूं भी कोई ठिकाना नहीं है चलो इक रात शाइरी के नाम पर कुर्बान करते हैं।
अगले दृश्य में प्रस्तोता लड़की ने उद्घोष किया - तो जनाब दिल थाम कर बैठ जाइए! क्योंकि आपके सामने आ रहे हैं मशहूर शायर जाॅन एलिया साहब...
उधर जाॅन एलिया ने सिगरेट सुलगाई मंच पर आए माइक पकडी और शेर का मिसरा उठाया - रंग....
मज़लिस में जैसे सन्नाटा पसर गया। लोगों ने धड़कनें तक रोक दीं, शेर सुनने के लिए।
जाॅन साहब ने फिर फरमाया - रंग....
फिर लोगों की उत्तेजना चरम पर। लोगों ने दिल थाम लिए कि मिसरा क्या कयामत होगा...
जाॅन साहब ने मिसरा उठाया - रंग,हर रंग में है दाद तलब।
लोग जैसे उछल पड़े - वाह! वाह!!
जाॅन एलिया ने दुहराया - रंग, हर रंग में है दाद तलब....
लोग जैसे मंच पर चढ़े जा रहे हैं - इरशाद... इरशाद...
और जाॅन साहब ने सिगरेट का आखिरी कश लेकर फेंकते हुए कहा - छोड़ो यार... और मंच से बिना शेर पूरा किए उतर गए। प्रस्तोता लड़की ने खूब समझाया - प्लीज़ सर वो शेर पूरा कर जाइए।
जाॅन साहब ने कहा - बेवकूफ़ लड़की वो शेर पूरा होने के लिए है ही नहीं। और अब मेरा मूड भी नहीं है।
मैं नहीं जानता कि वो लड़की कितना चीखी - चिल्लाई होगी जाॅन साहब पर। लेकिन साहित्य का विद्यार्थी होने के कारण इतना तो जरूर पता है कि शाइर, कवि और लेखक ऐसे ही होते हैं... खुदरंग ।अपनी मर्जी के मालिक।
मन में आया तो शेर कहा नहीं तो सालों तक चुप रहे।
मन में आया तो मीलों लंबी पोस्ट लिख दी नहीं तो महीनों एक शब्द तक नहीं लिखा।
हिंदी में 'निराला' ऐसे ही खुदरंग तबीयत के थे। 'चोटी की पकड़' उपन्यास शुरू किया बीच में छोड़कर 'चमेली' उपन्यास लिखने लगे। मूड नहीं जमा तो उसे भी अधूरा छोड़ कर 'काले कारनामें' लिखने लगे और उसे भी आधे से अधिक लिख कर छोड़ बैठे... हटाओ यार 'इन्दुलेखा' लिखेंगे। और उसे भी चरम पर लाकर ऊब गए।
फलस्वरूप निराला के ये चारों उपन्यास अधूरे ही रह गए और कमाल यह कि उन्हें कोई मलाल तक नहीं।
खैर समय बीता और जाॅन एलिया साहब को सुनने आई वो टीवी की मरीज लड़की अब अपनी आखिरी सांसे गिनने लगी थी। और उस काॅलेज के प्रोग्राम की प्रस्तोता लड़की अपने हाथों में उसका हाथ लिए पूछ रही थी - मेरी जान! कोई आखिरी ख्वाहिश हो तो बता दो...।
खून थूकते हुए उस टीवी की मरीज लड़की ने कहा - आखिरत के वक्त जाॅन एलिया को बुला दो। कम्बख्त ने सालों पहले शेर अधूरा छोड़ दिया था।
जाॅन एलिया तक खबर पहुंची - एक लड़की है नादां सी, आपसे शदीद मुहब्बत करती है। मर रही है आखरी बार मिल लीजिए।
जाॅन साहब ने सिगरेट सुलगाई - तो पहली मुहब्बत से आखिरी बार मिलने जाना है...।
फिर दृश्य बदला और मरीज लड़की ने जाॅन साहब का हाथ पकड़कर पूछा है - जनाब! आपको याद भी है! आपने उस काॅलेज के प्रोग्राम में बस मिसरा पढ़ा था - रंग, हर रंग में है दाद तलब ।
जाॅन साहब जैसे दिमाग पर जोर देकर याद करते हुए बोले - हाँ! हर रंग की अपनी महत्ता है, हर रंग की प्रशंसा की जा सकती है। जितना महत्त्व सफेद रंग का है उतना ही लाल रंग का भी या कि उतना ही काले रंग का भी...
मरीज लड़की ने कहा - मैं इस मिसरे को पूरा करना चाहती हूँ। लेकिन उस टीवी की मरीज लड़की के शब्द अधूरे रह गए क्योंकि मुँह में खून भर आया था। उसने मुंह में भर आए खून को वहीं खून फर्श पर थूका।
इधर जाॅन साहब ने हिकारत से मुँह दूसरी तरफ घुमा लिया। उधर लड़की ने शे'अर पूरा किया - जो खून थूकूं तो वाह! वाह! कीजै ।
तो मुक्कमल शे' र यूं है कि -
रंग, हर रंग में है दाद तलब।
जो खून थूकूं तो वाह-वाह कीजै।।
अब मैं मूल बात पर आता हूँ। अकेले विजया जी ही नहीं बहुत सारे लोग इस बात से परेशान होंगे कि राजेन्द्र बाबू जैसे महापुरुषों के मुँह पर कालिख लग जाती है। इसमें परेशान होने की कोई बात ही नहीं। जाॅन साहब ने बेहद साफ़ कहा है कि रंग, हर रंग में है दाद तलब... और महापुरुषों के मुख पर लग कर किसी भी रंग की महत्ता ही बढ़ेगी चाहे वो काला रंग ही क्यों न हो । हमें क्रोध करने की बजाय ईर्ष्या होनी चाहिए उस काले रंग से कि कम्बख्त इस रंग की खुशनसीबी देखो राजेन्द्र बाबू के मुँह पर शोभित हो रहा है...।
क्योंकि जाॅन एलिया ने साफ़ कहा था - रंग, हर रंग में है दाद तलब...
असित कुमार मिश्र
बलिया
Sir aapki posts itni late kyu ho Rahi h?
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