Monday, February 25, 2019

वो अमावस सी लड़की, वो पतझड़ सा लड़का...

वो अमावस सी लड़की, वो पतझड़ सा लड़का ....

एक अमावस भरी आँखों वाली लड़की थी। सुबह के धूप सी मासूम, एकदम छुईमुई की तरह नाज़ुक। दोनों चोटियों में सुबह के मद्धम चाँद - सितारे जगमगाते थे।तितलियों से दोस्ती थी उसकी और वो परियों से बातें करती थी।
अक्सर खुली खिड़कियों से चाँद को धीरे - धीरे जाते देखा करती थी और सोचा करती थी कि बस थोड़ी बड़ी और हो जाऊँ फिर देखना है कि ये चाँद जाता कहाँ है! ...
लेकिन खुली खिड़कियाँ अक्सर धोखा देतीं हैं। पिछली रात खिड़कियों के पर्दे हटा कर बसंत घुस आया था... ।
अब लड़की बालों को दो चोटी नहीं बनाती बल्कि बालों के बादलों को पकड़ कर गोल जूड़े बना लेती है। दोनों भौहों के बीच टिका देती है एक छोटी सी बिंदी की गोलाई और देखती है आइने में खुद को तब तक - जब तक आइना बोल नहीं पड़ता - अद्भुत सौंदर्य है तुम्हारा...
                    इसी बीच एक लड़का भी था कहीं। पतझड़ की तरह उदास आँखों वाला। जैसे किसी दार्शनिक के अधूरे रह गए ग्रंथों की वीरान पाण्डुलिपियाँ...
जैसे सूख चुकी नदी की दरारों से झाँकते कुछ बेरंग से तिनके।
दोनों किसी लाइब्रेरी में अपनी - अपनी किताबों के साथ बैठे थे। तभी लड़की ने कहा - सुनो!
लड़के ने किताब में खोए हुए ही कहा - हूँ!
लड़की शब्दों से बातों के सिलसिले बना नहीं पाई - नहीं! कुछ नहीं।
थोड़ी देर बाद उसने चुपके से कलाई घड़ी के शीशे में खुद को निहारा। थोड़ी हिम्मत मिली फिर मुस्कुराई और पूछा -अच्छा! बताओ! सौंदर्य किसे कहते हैं?
लड़के ने बगैर नज़रें उठाए कहा - जो बहुत सुंदर हो।
लड़की खीझ गई। शायद उसे इतने साधारण जवाब की आशा न थी। वो सर झुकाकर किताब में देखने लगी। अमावस भरी आँखों में बदरी भर आई थी। सब कुछ जैसे धुंधला सा दिखने लगा था...।
लड़की के हाथ में थी कोई प्रेम कहानी और आँखें अटकी थीं बड़ी देर से उसी पन्ने पर जहाँ, नायक ने नायिका से कहा था - तुम मेरी 'काव्य-प्रेरणा' हो...।
लड़की ने गुलाबी दुपट्टे के कोने से आँखों के कोरों को पोछा। मुस्कुराई और बड़ी देर तक लाज के चुप्पियों की अनगिनत गिरहों में से प्रेम के अक्षरों को निकालती रही। फिर थोड़े संकोच से पूछा - 'काव्य-प्रेरणा' किसे कहते हैं?
कवि जिस प्रेरणा से काव्य-सृष्टि करता है - लड़के ने सूखा सा जवाब दिया।
लड़की को यह अपमान सहन नहीं हुआ। नहीं! अब और नहीं।
उसने जोर से किताब बंद की। उठी और जाने लगी...।
इधर से लड़का भी पाण्डुलिपियाँ लिए उठ गया। लड़की के हाथ से किताब गिर गई और लड़के के हाथों से उसकी पाण्डुलिपियाँ। उसने लड़की का हाथ पकड़ा और अपनी तरफ खींच लिया। फिर आँखों से गिर रहे लापरवाह बूँदों को होठों से पकड़ते हुए कहा - बेवकूफ़ लड़की! तुम मेरा 'काव्य-सर्वस्व' हो...
                   लड़की ने बदराई आँखों से देखा - लाइब्रेरी की खिड़कियों के पर्दे हटाकर बसंत घुस रहा था और लड़के की वीरान आँखों ने देखा - नीचे गिरी दर्शनशास्त्र की पाण्डुलिपियों पर लड़की के मुहब्बत की उस नाज़ुक सी किताब की प्रतिष्ठा हो चुकी थी...।

असित कुमार मिश्र
बलिया

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