मरना एक मामूली आदमी का....
अब आगे कुछ भी लिखने से पहले साफ़ कर देना चाहता हूँ कि, यह शीर्षक मेरा नहीं है। जहाँ तक याद है, कुछेक साल पहले दिल ने फिर एक बार आवारागर्दी की थी और मुझे पी. एचडी. की तरफ़ मोड़ दिया था। पुराने आचार्यों की बेवफ़ाईयों को भूल कर दिल ने फिर किसी रीडर की मुहब्बत में गिरफ़्तार होने का इशारा किया था।
ये वाले रीडर भाषा विज्ञान के आचार्य थे और हम ठहरे भाषा को मात्र संप्रेषण का माध्यम समझने वाले।
तय हुआ कि शोध-विषय के रूप में जनपद-बलिया के ही किसी साहित्यकार को लूँगा। जैसे पंडित केशव प्रसाद मिश्र, अयोध्या प्रसाद खत्री, भैरव प्रसाद गुप्त, हजारीप्रसाद द्विवेदी, भगवतशरण उपाध्याय, श्रीराम वर्मा (अमरकांत) केदारनाथ सिंह आदि में से किसी को भी...।
रीडर महोदय ने कहा था कि हाँ! केदारनाथ सिंह 'लेटेस्ट' हैं। अभी मरे हैं, ये ठीक रहेगा।
दिल से कराह निकली - क्या साहित्य के अध्यापकों के लिए साहित्यकारों का मरना बस इतना ही है - लेटेस्ट!
लेकिन शोध आख़िर है क्या! साहित्य और समझौते के बीच एक पतली सी पगडंडी से वहाँ तक चले जाना, जिस टेबल पर आपके थीसिस पर मुहर लग रही हो। यह समझौता भिन्न - भिन्न तरीके का हो सकता है शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, मूल्यगत, वगैरह - वगैरह।
अब समस्या यह थी कि केदारनाथ सिंह के साहित्य में बहुत जानकारी थी नहीं। बलियाटिक दोस्तों ने सदा की तरह साथ देने का वादा किया।
एक मित्र ने तो गुटका थूकते हुए कहा था - "असित भाई! तूं बस पढ़ाई पर धेयान दऽ। केदारनाथ सिंह से मुलाकात करावल हमरी जिम्मे छोड़ दऽ" ।
मुझे भरोसा दिलाने के लिए उन्होंने किसी को फोन भी किया - "हरे! चकिया गाँव में दु - चार गो लइकन के सेट कर। आ जइसे केदार बाबा अइहें ओइसे मिस काल मार दिहे" ... ।
मैं क्या बताता! कि अब केदार बाबा से मिलना इस जनम में संभव नहीं। मित्र जिस तरह केदारनाथ सिंह से मिलाने के लिए दृढ़ संकल्पित थे, उससे डर भी लगा कि नाम के पहले डॉक्टर से पूर्व कहीं सचमुच केदार बाबा से भेंट ही न करा दें!
हारे को हरिनाम! कितना सटीक मुहावरा है। मुझे भी ऐसे दुश्चिंता के समय राम जी तिवारी याद आए। व्यक्तित्व बेहद साधारण और ज्ञान इतना कि साहित्य के तमाम प्रोफ़ेसर्स के बीच भी इन्हीं की स्मृति आती है। मैंने फोन करना चाहा तो फोन की सूची से इनका नाम ही गायब!
ऐसा अक्सर होता है मेरे साथ। विषम परिस्थितियों में जब भी मोबाइल बदलना हुआ तो मारे जलन के फोन सूची से महत्त्वपूर्ण व्यक्ति निकल लेते हैं।पता नहीं कैसे उन लोगों को मालूम हो जाता है कि मैंने मोबाइल बदल दिया। मेरे ही भाग्य का दोष होगा!
पिछले दिनों एस सी काॅलेज़ बलिया के अंग्रेज़ी विभाग वाले डॉ. वाई. पी. सिंह मेरे दोस्तों से व्हाट्स-ऐप में आए संदेश कापी-पेस्ट करना सीख रहे थे।
मैंने हँस कर कहा था - सर! हमारा और आपका तकनीकी ज्ञान एक बराबर है।
उन्होेंने एक महत्त्वपूर्ण जवाब दिया - "असित बाबू! तकनीकी का ज्यादा ज्ञान जीवन के रस से दूर कर देता है" । उनके इस कथन की आड़ में मेरा भी काम चल जाता है।
तो रामजी तिवारी से केदारनाथ सिंह की कुछ पुस्तकें प्राप्त हुईं थीं। उनमें एक पुस्तक थी "कब्रिस्तान में पंचायत" जिसका पाँचवा या छठवाँ अध्याय रहा होगा - 'मरना एक मामूली आदमी का' जिसमें उन्होंने अपने गाँव के एक सामान्य व्यक्ति 'जगरनाथ 'के मर जाने की घटना का भावपूर्ण वर्णन किया है ।ये तो रही शीर्षक की बात। जिसे बता देना जरूरी था अन्यथा मौलिकता के समर्थक पत्थरबाज़ी पर उतर आते।
मैं बताने जा रहा था कि कल सुबह 'रामा' मर गए। ठीक - ठाक, अच्छे - भले थे। सुबह उठे नहाए - धोए! सर में थोड़ा दर्द जैसा महसूस हुआ तो लेट गए और फिर उठे ही नहीं।
हाँ! पता है। महादेवी ने "रामा" नाम से एक संस्मरण /रेखाचित्र खींचा था जिसमें उन्होंने अपने घरेलू नौकर 'रामा' का वर्णन किया है। लेकिन उनके रामा से मेरा रामा भिन्न है मौलिक है। और मौलिकता के रूखे - सूखे सड़क पर सरपट दौड़ने वाले लोग आलोचना की पगडंडी क्यों नहीं पकड़ लेते? साहित्य के इस 'मेन - रोड' पर उनका क्या काम!
इस रामा का नाम जरुर रामानंद या रामाकांत जैसा कुछ रहा होगा। लेकिन हम बच्चों की कई पीढ़ियों के लिए वो रामा ही थे।जो गोलगप्पे का ठेला लगाते थे । बनारसी लोग जिसे गोलगप्पा कहते हैं उसे हम बलियाटिक लोग फुल्की।
चलिए माना कि बनारस ही नहीं सारे भारत के लोग गोलगप्पा कहते हैं लेकिन हम लोग फुल्की ही कहते और मानते हैं।
कस्बे के बेहद संकरे स्थान जल्पा चौक में अपना पुश्तैनी मकान था रामा का।प्रायः हम जिसे मकान कहते हैं वह प्रेयसी के प्रेम में फैले हुए हाथों के फैलाव बराबर ही होता है। लेकिन आदमी को जगह चाहिए ही कितनी!
कस्बे से निकल कर रामा मिडिल स्कूल की ओर चले आते थे। मिडिल स्कूल के अलावा उन्होंने कस्बे में कहीं भी अपनी अनमोल फुल्कियों की क़ीमत नहीं लगने दी। चाहे वो गंधी मुहल्ला हो या बढ्ढा मुहल्ला। चाहे वो चाँदनी चौक हो या सब्जी मंडी। चाहे वो पुलिस चौकी रोड हो या सिनेमा रोड।
स्कूल के विशालकाय लौह - गेट के बाएँ तरफ़ अपने ठेले पर चौड़ी मोहरी वाले पाजामे और बंगला कुरते में बैठे रामा तब भी मँहगाई का रोना रोते रहते थे जब पच्चीस पैसे में पाँच फुल्कियाँ मिलती थीं।
वो उन लड़कियों का ज़माना था जो अपनी सहेलियों को फुल्कियाँ खिलाने के लिए अपनी हिंदी या गणित की किताबें खुशी-खुशी रामा को भेंट कर आतीं थीं। जिसके एक पन्ने को चार हिस्सों में बराबर फाड़कर फुल्की खाने का प्लेट समझा जाता था।
वो लड़कियाँ आपस में पैसे इकट्ठे कर एक साथ फुल्कियाँ खातीं थीं और कभी-कभी उन सहेलियों को भी साथ ले जातीं थीं जिनके घर से एक चवन्नी आने की संभावना नहीं थी।
उसके बाद का ज़माना हम जैसे प्रगतिशील बच्चों का आया। घर से चुराए गए दो के सिक्के के बदले जब भी रामा हमें चार फुल्कियाँ खिलाते तो हमने हर बार ढिठाई से कहा - "एगो औरू खिआवऽ।अभी तऽ तीने गो भईल" ।
रामा ने हमसे पहले न जाने मिडिल स्कूल की कितनी पीढ़ियों को फुल्कियाँ खिलाईं होगीं लेकिन उनकी गिनती में कभी गड़बड़ी नहीं हुई।हमारी पीढ़ी में सबसे पहले हमने ही इस गड़बड़ी को पकड़ा था। पहली फुल्की का स्वाद गले में अटका रहता तब तक रामा दूसरी फुल्की हाथ में धरे काग़ज़ पर रख देते। मुँह में जाते ही पहली और दूसरी फुल्कियाँ मिल कर एक हो जातीं और यहीं से गिनती का क्रम बिगड़ता था। अभी मुँह से पहली सिसकारी निकली नहीं कि रामा बोल देते - "हो गइल चार गो"।
हमारा मानना था कि फुल्कियों की गिनती पहली सिसकारी से शुरू होनी चाहिए और जब आँखों से बहता हुआ तीतापन फुल्कियों के खारेपन से मिलने लगे तब चार कहिए, आठ कहिए, दस कहिए... जो भी कहिए सब मंज़ूर।
ज़िंदगी की रेस में हम चाहे कितने भी बड़े धावक क्यों न हों समय हमसे भी तेज़ है। बहुत बार तो हम खुद ही चौंक पड़ते हैं कि अरे! हमारी जिंदगी हमीं से आगे कैसे निकल गई!
बचपन के खेल, बचपन के साथी और बचपन की फुल्कियाँ सब जैसे पीछे छूट गए। फिर भी रामा दिख भर जाएँ तो अब भी उनकी फुल्कियाँ खा ही लेता था।
इधर प्रतियोगिता आधारित बाजार ने जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित किया है। क्या छोटा क्या बड़ा! क्या अमीर क्या गरीब!
आप सैमसंग का पुराना मोबाइल छोड़ कर 'रेडमी नोट-एट' लिए घर की चौखट तक आए, तब तक 'नोट-नाइन' आ गया होगा। 'नोट-नाइन' को हाथ बढ़ा कर पकड़ा और दरवाज़े तक आए, तब तक 'नोट नाइन - मैक्स' आ गया। 'मैक्स' तक पहुँच बनाई तब तक 'नाइन मैक्स-प्रो' आ गया। और कमाल तो यह कि पहले वाला सैमसंग खरीदे ही अभी साल भर नहीं हुआ।
रामा इस प्रतियोगिता से अछूते कैसे रहते। अब नई उम्र के लड़के जीन की पैंट और टेरीकाट के छापे वाली शर्ट के दोनों किनारों को नीचे से बाँध कर बाजार में उतरे। जिनके ठेले रंगीन थे और जिनके आने से आसपास का माहौल "वो लड़की नहीं जिंदगी है मेरी" जैसे गानों से रंगीन हो जाता। रामा बाज़ार की इस चाल से चित्त हो गए और स्कुलिहा लड़कों में धीरे-धीरे रामा की पकड़ छूटती गई। इस घाटे को पूरा करने के लिए उनके पास बस एक ही उपाय था।
उस दिन मैंने तीसरी फुल्की ही मुँह में डाली थी कि रामा ने हाथ रोक लिया - बस! हो गईल।
मैं चौंक पड़ा था - "मरदे! कवनो किरिया खिया लऽ।अभी तीने गो भइल बा" ।
रामा उदास हो गए- "पियाज पचास रुपिया हो गइल बा आ मैदा अस्सी रुपिया। चना...। पाँच रुपिया में तीने गो मिली अबसे" ... ।
मैं उनकी बात काटी - "ठीक बा नया रेट काल्हु से लागी। आज खियावऽ" । और इस तरह एक और फुल्की खा कर ही हटा।
जिंदगी फिर अपनी रफ्तार से दौड़ती रही। हर कोई अपने हिस्से की दौड़ में खो गया रामा भी और मैं भी।मैंने काॅलेज़ ज्वाइन कर लिया। इधर रामा दिखते भी थे उसी तरह अपने पुराने से ठेले पर साँवली - साँवली फुल्कियों के साथ। बहुत बार मन हुआ कि खा लूँ लेकिन तात्कालिक काम की जल्दबाजी या बड़कपन के बोझ ने रुकने न दिया।
कई बार घर से बस फुल्कियाँ खाने की सोच कर स्कूल तक गया भी लेकिन रामा नहीं दिखे।
अगले दिन फिर गया फिर उनकी जगह खाली थी। मैंने बगल की स्टेशनरी वाली दुकान में पूछा - "रामा हो? कहाँ गए" ?
दुकानदार ने बताया - "हाँ! उनके घर बँटवारे का झगड़ा चल रहा है" ।
मैं हँस पड़ा था - "हाथ भर के घर में भी हिस्सा लगेगा" !
आदमी की औलाद हर बार आदमी ही हो यह जरूरी नहीं। रामा ने घर में सरहद नहीं हिज़रत कबूल की। और पूरे जिले में उनको मेरे ही गाँव का एक छोटा सा टोला मिली बसने के लिए।
इस तरह तीन - चार साल से रामा का ठेला मिडिल स्कूल के पास नहीं मेरे गाँव के मोड़ पर लगने लगा था।भाग्य को जिन थोड़े-बहुत बातों पर धन्यवाद दे सकता हूँ उनमें एक बात यह भी थी कि अब कहीं से भी घूम कर आने पर फुल्कियाँ आसानी से उपलब्ध हो सकतीं थीं। रामा नियमित रूप से मोड़ पर अपनी बढ़ती जा रही उम्र और मँहगाई के बीच ठेले को चट्टान की तरह टिका कर खड़े रहते थे। न बहुत कुछ की जरूरत ही थी उन्हें न बहुत कुछ खो जाने का डर ही। खुशी के लिए इतना काफ़ी था।
कुछ महीनों पहले ज़िंदगी की इस दौड़-भाग में अचानक कोरोना का प्रवेश हुआ। जब बड़े - बड़े शहर जहाँ के तहाँ रुक गए तो हम गाँव - देहात को कौन पूछता है! स्कूल, काॅलेज़, दुकान, बाजार सब बंद। पुलिस की काली - काली डरावनी गाड़ियों का शोर उन दिनों को और भी भयावह बना देता था। हमारे सामने एक अदृश्य शत्रु था जिससे तमाम लोग भूखे पेट लड़ रहे थे।
गाँव फिर भी शहरों की तुलना में कुछ ठीक हालत में थे। यहाँ चावल, दाल, गेहूँ और आलू पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध था। इसके आगे की चीज़ें वैसे भी अय्याशी की श्रेणी में आती हैं।
सरकार ने आम जनता के लिए राशन की उपलब्धता सुनिश्चित की। लेकिन सरकारी गोदामों से गरीबों के पेट तक गेहूँ को आने में कई बार व्यवस्था की चक्की में पिसना पड़ता है। कुछ लोगों के राशन के लिए नोडल अधिकारी महोदय को कई बार फोन करना पड़ा। साधारण से दवा के छिड़काव के लिए मुख्यमंत्री कार्यालय तक को तकलीफ़ में डालना पड़ा। उस समय जिससे जैसे बन रहा था वो अपने से नीचे की मदद कर रहा था।
धीरे-धीरे पहले लाॅक - डाउन का प्रथम चरण बीता। कुछ बंद दुकानों के ताले खुले। कुछ रेहड़ी और ठेले वालों ने सड़क का शृंगार करना शुरू किया।रामा भी अपने ठेले पर फुल्कियाँ सजाए मैदान में उतर चुके थे। लेकिन लोग बाहर कुछ भी खाने से डरते थे।
मैं रामा के पास रुका और कहा - फुल्की खिलाइए!
रामा ने चुपचाप काग़ज़ का टुकड़ा बढ़ाया। एक फुल्की खा लेने के बाद मैं रुक गया - बस। कोरोना में बाहर का बहुत नहीं खाना चाहिए।
मेरे हाथ से पचास का नोट पकड़ते हुए रामा ने उदास मन से कहा था - खुदरा दे दीजिए।
मैंने कहा - रखिए। बाद में ले लूँगा।
मुड़ कर जैसे ही आगे बढ़ा। रामा ने आवाज दी - माट्साहब!!
मुझे यकीन नहीं हुआ कि रामा ने मुझे बुलाया है। मैंने मुड़ कर देखा।
- "हाँ! आप ही को बुला रहा हूँ" ।
सहसा किसी ने भीड़ में नंगा कर दिया हो। अब इस संबोधन के बाद फुल्कियों में तीन - पाँच करना अपराध जैसा लगने लगा। यही सोच कर शर्म आ रही थी कि रामा मुझे अध्यापक जान कर भी सालों से अधिक फुल्कियाँ खिला रहे थे लेकिन कभी ज़ाहिर नहीं किया।
मैंने कहा -" हाँ रामा बताइए" !
उन्होंने पूछा - "बी. ए. में एडमिशन हो रहा है" ?
मैंने बताया - "नहीं अभी तो नहीं, लेकिन अगस्त लास्ट से होने लगेगा। बात क्या है" ?
उन्होंने धीरे से कहा - "एगो रिश्तेदारी के लड़की के एडमिशन करावे के बा लेकिन पइसा नइखे"।
मैंने फुल्कियों के टोकरे से एक कागज़ निकाला और अपना नंबर लिख कर देते हुए कहा - ये मेरा नंबर है। लड़की को दे दीजिएगा। लाइब्रेरी से कुछ किताबें भी मिल जाएँगी।
रामा ने चुपचाप काग़ज़ मोड़ कर कुरते की जेब में रख लिया था।
ये परसों शाम की बात है लेकिन कल सुबह रामा ने किसी का भी एहसान लेने से मना कर दिया। किसी मास्टर साहब का भी और शायद मेरा भी .... ।
असित कुमार मिश्र
बलिया
(फोटो : अब नई उमर के ठेले पर फुल्कियाँ खाते नई उमर के बच्चे)