Monday, May 24, 2021

जिसका कोई अर्थ नहीं...

कभी-कभी सोचता हूँ कि, जिनके होने से हमारा होना तय होता है उनका न होना कैसा होता होगा?
या फिर जिनका होना हमें एक लंबी प्रक्रिया में उलझाए रखता है, कभी दुःख में, कभी सुख में, कभी खीझ में या फिर कभी उलाहने में। अचानक उस होने की जगह एक अनचाही रिक्तता या शून्यता घेर ले तो वो लोग खाली बैठ कर क्या करते होंगे?
ऐसा क्या करते होंगे कि जिससे वो खुद को व्यस्त रख सकें यह जानते हुए भी कि इस हर व्यस्तता के पीछे का कारण उस व्यक्ति का खालीपन ही है.... ।
                       जहाँ तक याद है नवंबर 2019 का कोई दिन रहा होगा। उस दिन कुछ दोस्तों के साथ सामूहिक भोजन का कार्यक्रम बन रहा था। तय हुआ कि आज इलाहाबादी व्यञ्जनों से भोग लगेगा।
इलाहाबाद इस लिहाज़ से भी बहुत अच्छा है कि वहाँ (डीबीसी) दाल - भात - चोखा भी व्यञ्जनों में सम्पूर्णता का बोध कराता है।
यूँ रात्रि के प्रथम प्रहर में जब सब्जी वाले बिन बिकी सब्जियों पर पानी का आखिरी छींटा मार रहे होते हैं और सब्जियाँ भी ताजी दिखने के लिए अपना आखिरी जोर लगा रहीं होतीं हैं। ऐसे ही संधिकाल में हमने कुछ टमाटरों को हाथ लगाया था - भैया! कैसे दिए?
इधर टमाटर भी लाज के मारे और लाल हुए जा रहे थे उधर सब्जी वाले ने हँस कर कहा था - अब क्या भाव देखना है! ले लीजिए जितना लेना हो।
इस तरह जब देर से सब्जियाँ खरीदी गईं तो भोजन में भी देर होना ही था। फिर भी लगभग आठ बजे भोजन बन कर तैयार हो गया था।
                             हँसी - ठहाकों के बीच भोजन का कार्यक्रम चल ही रहा था कि बलिया से आनंद का फोन आया। आनंद ने बताया कि " फेसबुक के अनिमेष वर्मा भइया के मम्मी - पापा बक्सर में किसी धार्मिक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आए थे लेकिन बलिया में उनकी गाड़ी खराब हो गई है । हर पाँच - सात किलोमीटर पर गाड़ी गरम होकर बंद हो रही है ।अब वो लोग सिकन्दरपुर की तरफ़ जा रहे हैं "।
मैंने कहा  -" आनंद भाई! जब ऐसी बात थी तो उन लोगों को बलिया में ही कहीं रोक लेना चाहिए था। अच्छा ठीक है उन लोगों का कोई नंबर हो तो भेजिए मुझे।
भोजनोपरांत मैंने मित्र अशोक जी को रोक लिया। और आनंद के दिए नंबर पर फोन किया।
उधर से घबराहट में लोकेशन बताया गया।
जिससे मुझे पता चला कि कच्छप-गति से चलती हुई भी गाड़ी लगभग पैंतीस किमी की दूरी तय करके मेरे कस्बे से पाँच किमी दूर निकल गई थी लेकिन अब आगे जाने से साफ़ मना कर चुकी थी।
रात के साढे नौ से कुछ अधिक का समय गाँव - देहात में "सुबरन" को खोजने वाले तीनों कोटियों के लोगों के लिए ही अधिक उपयुक्त माना जाता है।
मैंने मोबाइलधारी महाशय को जो शायद सहयोगी और कर्मणा ब्राह्मण ही थे। उनको सांत्वना दी कि आप लोग एकदम न घबराएँ। मैं यहीं का हूँ और पाँच मिनट में आ रहा हूँ।
                       पाँच मिनट से भी कम समय में हमने उनकी गाड़ी का दरवाज़ा खोला। एक तरफ़ अशोक जी गाड़ी का निरीक्षण करने लगे दूसरी तरफ़ मैंने कहा - माताजी! मेरा नाम सोनू है अनिमेष वर्मा भइया का दोस्त हूँ।पास में ही घर है चलिए।
माताजी के हाथ का दबाव अपने बैग पर बढ़ गया।
उन्होंने अनिमेष भइया को फोन किया - "कोई सोनू नाम का लड़का आया है तुम्हारा दोस्त बता रहा है"।
जैसा कि होना ही था उधर से सोनू नाम से अनभिज्ञता ज़ाहिर की गई। माताजी ने उस बैग को थोड़ा और कस कर पकड़ लिया जिसमें शायद कुछ पैसे, एटीएम कार्ड या छोटे - मोटे गहने रहे होंगे।
ना चाहते हुए भी मुझे हँसी आ गई। एक तो रात का समय दूसरे हमारे बलिया की गौरव गाथा उस पर सोनू नाम की अनंत महिमा। लगता है इन तीनों से माताजी परिचित थीं।
माताजी ने कहा - अंशु तो कह रहा है कि वो तुम्हें नहीं जानता।
मैंने कहा - कौन अंशु?
अब तक माताजी को इतना यकीन हो गया था कि उनका सामान उनसे छिनने वाला है।
मैं हँस पड़ा। जिस फ़ेसबुक की दुनिया के हम लोग निवासी हैं।जहाँ एक दूसरे पर भरोसा है, हज़ारों-हज़ार रुपये का लेन देन होता है। ग्रुप्स बनते हैं, वैचारिक क्रांतियाँ होतीं हैं, रूठना - मनाना होता है, माताजी उससे सर्वथा अनजान थीं।
थोड़ी बहुत ग़लती मुझसे भी हुई। मुझे वह नाम बताना था जिससे अनिमेष भैया मुझे जानते थे। लेकिन सच कहूँ तो अपने आसपास या परिजनों से 'आफिशियल' नाम बताने में बड़ी शर्म आती है।
माताजी ने कहा कि - तुम अनिमेष के दोस्त हो और तुम्हें यह नहीं पता कि अंशु उसी का नाम है!
मैंने कहा - माताजी! मेरी बात कराइए न अनिमेष भैया से बस एक मिनट।
उस एक मिनट का कमाल ये हुआ कि उधर अनिमेष भैया जान गए कि असित और सोनू एक ही हैं इधर मैं भी जान गया कि अनिमेष और अंशु भी एक ही हैं।
मैंने अनिमेष भैया से कहा कि "भैया! मैं घर लेकर जा रहा हूँ कल गाड़ी ठीक करा के घर भेजवा दूँगा"।
अनिमेष भैया ने कहा कि - इसकी ज़रूरत नहीं है असित भाई। कोई गाड़ी मिल जाए तो घर भेजवा दीजिए बस।
लेकिन मेरा मानना था कि सौभाग्य या दुर्भाग्य जैसे भी हो यहाँ तक आ ही गए हैं तो घर भी चरण-रज से पवित्र हो ही जाए!
मैंने फिर माताजी पर दबाव बनाया घर चलने के लिए। लेकिन उन्होंने बगल में बैठे पिता जी की तरफ़ संकेत करते हुए कहा - "इनका आक्सीजन कम हो रहा है। रात को रिफिलिंग की जरुरत लगेगी इसलिए हम लोग रात में कहीं रुकते नहीं हैं" ।
अब मैंने ध्यान से देखा - सच में नीचे एक बाक्स रखा था जिससे एक पतली पाइप निकल कर उनके नाक से सटी हुई थी। उस धैर्य के देवता ने मुस्कुराते हुए कहा - "हाँ! बेटा। बस घर तक जाने का इंतज़ाम कर दो। अगली बार आएँगे तो ज़रूर तुम्हारे घर चलेंगे"।
                       इसके पहले मैंने इस तरह का मामला नहीं देखा था। मैंने अनिमेष भैया को फोन करके कहा भी - भैया इस स्थिति में तो हमारे यहाँ गऊ-दान की तैयारी होने लगती है और ये लोग धार्मिक आयोजनों में भाग ले रहे हैं... कमाल है!
दु:ख की कथा यही है कि जो हमारे लिए अत्यन्त पीड़ादायी होता है, हम सोचते हैं कि सारी दुनिया में एक हम पर ही यह विपत्ति क्यों आई! दूसरे उससे भी बड़े दु:ख के अभ्यस्त हो चुके होते हैं और वह दु:ख उनकी जिंदगी का हिस्सा बन चुका होता है।
अनिमेष भैया ने हँसते हुए कहा - नहीं! नहीं! पापा सालों से ऐसे ही रहते हैं। इसीलिए हमने आक्सीजन की व्यवस्था घर पर ही कर रखी है।
                सीवान जिले का चरित्र भी बलिया की तरह ही है। इसका आभास तब हुआ जब मैंने कुछ गाड़ियों के मालिकों से बात की। कोई भी रात के दस बजे सीवान जाने के लिए तैयार नहीं हुआ।
अचानक चंचल भइया की याद आई। मैंने उन्हें फोन किया - क्या हो रहा है ?
उन्होंने कहा - खाना खा रहा हूँ।
मैं हैरान रह गया। जो अभी पंद्रह मिनट पहले भर पेट डीबीसी खाया था वो अब किस पेट में खाना खा रहा है!
मैंने कहा - अरे! अभी न खाए थे मेरे साथ...।
-भक्क! दाल भात से पेट भरता है कहीं?
मैंने मन ही मन उनका पेट छूकर प्रणाम किया और कहा कि जल्दी आइए सीवान चलना है।
                   सीवान का मेन रास्ता भागलपुर से घूम कर जाता है इसलिए जब पीपे का पुल नहीं रहता है तो यह पंद्रह किमी की दूरी सौ किलोमीटर के आसपास पड़ती है। बीच-बीच में हमारी बातें होतीं रहीं। बाबूजी ने बताया कि उनका परिवार प्रसिद्ध श्रीवास्तव परिवार है जिसमें तंग इनायतपुरी जैसे लोग हैं।
माताजी ने पूछा - कभी मिले हो अनिमेष से?
मैंने बताया कि शायद नहीं। या एक बार पँजवार के भोजपुरी सम्मेलन में दो मिनट के लिए मिला था।
उन्होंने आश्चर्य से कहा - बताओ! तब भी तुम जानते हो कि आरव की आँखें उसकी माँ जैसी हैं।
मन में आया कि कह दें - जिस तरह उनके बाल कम हो रहे हैं जल्दी ही वो सेकेंड नवीन भइया बनेंगे मैं यह भी जानता हूँ।
घर पहुँच कर भी माताजी ने राहत की साँस नहीं ली। हम लोगों के लिए चाय, पिता जी की दवाइयाँ, आक्सीजन आदि की व्यवस्था करने के बीच हम लोगों से हँस - हँस कर बातें करती रहीं... लगता ही नहीं था कि ये वही हैं जिन्हें अपने बैग की चिंता थी मुझसे थोड़ी देर पहले।
                     सीवान पीछे छूटता गया और धीरे-धीरे वो साल भी। लेकिन वो लोग, उनका स्नेह, उनकी जिजीविषा, खास तौर पर माताजी, जिनके आठों पहर के केंद्र में पिता जी ही थे,
हमेशा याद आती रही।
अभी पिछले दिनों मैंने उन्हें फोन किया था - माताजी पहचाना मुझे मैं असित। आपको शादी की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर बहुत बधाई...।
उन्होंने कहा - सोनू न? तुम तो सोनू ही रहोगे मेरे लिए जैसे अंशु...। तुम्हारा नंबर है मेरे मोबाइल में पहचानूँगी कैसे नहीं। खुश रहो। फिर कब आओगे....!
लगा कि उस बार सोनू बता कर ग़लती की थी इस बार असित बता कर।
                   आज जब दोनों नामों का कोई मतलब नहीं है। मेरा नंबर है उनके मोबाइल में। नाम बताने तक की भी ज़रूरत नहीं, फिर भी फोन नहीं कर पा रहा हूँ। क्या कहूँगा कि पिताजी के निधन पर शोक व्यक्त करने के लिए फोन किया है! मुझे लगता है कि जिस तरह अब मेरे नाम का कोई अर्थ नहीं उसी तरह मेरी शोकपूर्ण संवेदना का कोई अर्थ नहीं....कुछ बोल न पाऊँगा।

असित कुमार मिश्र
बलिया

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