Wednesday, May 19, 2021

भेज रहा हूँ नेह निमंत्रण

भेज रहा हूँ नेह निमंत्रण....

आजकल पूर्वांचल में गाँवों के हर गली - मुहल्ले मानस की चौपाइयों और शिव चर्चा के सुमधुर गायन से गुलज़ार हैं। पूरब तरफ़ वाले माइक से पूर्णाहुति के मंत्रोच्चार सुनाई देते हैं तब तक पच्छिम टोले से "हैलो चेक - हैलो चेक" की आवाज़ यह बताने के लिए काफ़ी है, कि थोड़ी ही देर बाद उधर वाली चौपाइयाँ सरक कर इधर आ जाएँगी ।
बीच-बीच में शिव चर्चा वाली दीदी जी का समूह भी शिव को जगा देने के लिए आलाप लेता रहता है - "जागऽऽ जागऽऽ महादेव , जगा दऽ महादेव " ... ।
डेढ़ दो घंटे बाद शिव चर्चा का यही भजन जो घर के आगे वाली खिड़कियों से मेरे कान में घुस रहा था वो अब पीछे के जँगले से आता हुआ सुनाई दे रहा है। मानों शिव चर्चा टोली को यह आभास हो गया है कि इस कोने से हमारी आवाज़ कैलास पर्वत तक नहीं पहुँच सकेगी।शिव को जगाने के लिए एंगल बदलना ज़रुरी है।
बीच - बीच में लाउडस्पीकर्स से घर्र-घर्र, किर्र -किर्र की आवाज़ें भी आतीं रहती हैं जैसे कोरोना नामक राक्षस का लोगों की भीड़ में दम घुट रहा हो...।
                 कई दिनों बाद ही बारामदे की मेज़ पर छितराए शादी - ब्याह के रंगीन कार्ड्स पर आज फिर नज़र गई। जो कार्ड्स परसों तक लगभग बीस की संख्या में थे वो आज बढ़ कर चालीस तक पहुँच गए हैं। कमबख्त कोरोना के मरीज़ों की रिकवरी रेट भी इस द्रुत गति से नहीं बढ़ रही है।ये कार्ड्स यह बताने के लिए काफ़ी हैं कि इस बार लग्न बहुत तेज़ है।
कुछेक कार्ड्स को यूँ ही उठा कर देखा। स्याही की तीखी गंध ने बताया कि एकाध तो जैसे अभी प्रेस से ही चले आ रहे हैं।
विभिन्न आकार और भिन्न-भिन्न रंग रूप के इन कार्ड्स में गणेश वंदना,सूर्य मंत्र और शादी में बुलाने वाले काव्यमय आग्रह प्रायः अलग-अलग हैं, लेकिन सभी कार्ड्स में एक बात सामान्य है - "बाल हठ"।
जो प्रायः सबमें यूँ है - "मेरे मामा की या चाचा की छादी में जलूल से जलूल आना" - (गोलू और मोलू)
लेकिन सच्चाई है कि तिलक - ब्याह के दिन पौने सात बजे ही कोने वाले घर में यही गोलू और मोलू एक में लोटियाए सोए मिलेंगे जिन्होंने आपको "जलूल से जलूल" बुलाया था। और उनकी मम्मी जिनके दोनों हाथ दोनों तरफ़ से लँहगे को पकड़ने के लिए ही बने हैं वो अब ज़बान से ही पूरे घर को संभालने में व्यस्त रहेंगी।
                      कार्ड्स की यह रंगीनियाँ और यह "बाल हठ" आधुनिक युग की घटना है जो बाजारीकरण से प्रभावित लगती है। जिसका उद्देश्य आपको हर हाल में अपने यहाँ खींच लाना है।जैसे विज्ञापनों की दुनिया में हम पाते हैं कि अब बच्चे माँ - बाप को बता रहे हैं कि कौन सा सीमेंट अच्छा है या कौन सा सरिया अच्छा है। क्योंकि मनोविज्ञान कहता है कि बच्चों की तुतलाती या मधुर आवाज़ मन पर असर करती है।
संभव है बाज़ार जब अपना अगला कदम उठाए तो अगली पीढ़ी के कार्ड्स पर "मित्र अनुरोध" कुछ यूँ लिखें मिल जाएँ - मेरे दोस्त की शादी में जरुर आइए। मैं भी आ रहा हूँ - (ऋतिक रोशन - रणवीर कपूर)
मेरी सहेली की शादी में अवश्य पधारें। मैं भी आ रही हूँ - (कंगना रानावत-दीपिका पादुकोण)
                        लेख कैसा भी लिखें किसी भी विषय पर लिखें उसमें बिहारी, गुलेरी जी और पूर्ण सिंह जैसे कवियों और लेखकों को 'टैग' मात्र कर देने से लेख की महत्ता सहस्र गुना बढ़ जाती है ऐसा फेसबुक के ब्रह्म बाबाओं का मानना है।
तो बिहारी हिंदी साहित्य में ऐसे कवि हैं जिनकी मात्र एक रचना है - बिहारी सतसई। जिससे वो साहित्याकाश में सदैव चमकते रहेंगे।
गुलेरी जी की तीन कहानियाँ हैं - सुखमय जीवन, बुद्धू का काँटा और उसने कहा था। मात्र इन्हीं तीन कहानियों से हिंदी साहित्य इनका ऋणी है।
अध्यापक पूर्ण सिंह ने छह निबंध लिखे और मात्र उन्हीं छह निबंधों के कारण निबंधों की दुनिया उनके नाम-चर्चा के बिना अधूरी है।
बिहारी ने कुल सात सौ तेरह दोहे लिखे थे सतसई में। चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी की तीनों कहानियों में भी हजारों पंक्तियाँ होंगी और पूर्ण सिंह जी के निबंधों में भी हजारों-हजार वाक्य।
लेकिन हिन्दी में एक ऐसे कवि भी हैं जिनका कि मात्र कुछ पंक्तियों का
"काव्यमय आग्रह" उपलब्ध है। लेकिन उसकी व्यापकता, उसकी मान्यता और प्रतिष्ठा कुछ ऐसी थी कि लगभग तीन दशकों से भी अधिक समय तक वह पंक्तियाँ शादी - ब्याह के कार्ड्स पर निर्विवाद और निर्विरोध छपतीं रहीं, राज करतीं रहीं। लोकजीवन के उस स्वर्णिम दौर की गंध जिनकी आत्मा में बसी होगी, उन्हें उस समय के शादी कार्ड्स की खुश्बू याद आ गई होगी -

भेज रहा हूँ नेह निमंत्रण
प्रियवर तुम्हें बुलाने को।
हे मानस के राजहंस,
तुम भूल न जाना आने को।।
              इन पंक्तियों के रचनाकार शंभु दयाल त्रिपाठी "नेह जी" महादेवी के जिले फर्रुखाबाद में छिबरामऊ के रहने वाले बताए जाते हैं।
आज के दौर में उन शब्दों को हथेलियों में रखकर तौलता हूँ तो जैसे लगता है कि 'मानस के राजहंस' जैसी उपमा इस 'बाल-हठ' के जमाने में दुर्लभ है। उस स्वर्णिम दौर में 'विनीत' और 'दर्शनाभिलाषी' वाले बाॅक्स में छपे नाम ,सच में हाथ जोड़े विनीत भाव से या तो शादी में पूड़ी-तरकारी चलाते मिलते थे या हैरान परेशान सबकी व्यवस्था में लगे रहते थे।
उस समय के कार्ड, कार्ड नहीं कैलेण्डर होते थे जिस पर सीता राम की युगल छवि होती थी या फिर शिव पार्वती की। उसके नीचे विवाह कार्यक्रम और फिर पूरे बारह महीनों की दिन - तिथियाँ। जिसे लोग साल भर खूँटी पर टाँगे रखते थे।
उस समय पच्चीस - तीस लोग तो बड़की नाच में बावन खंभे वाले तम्बू लगाने की टीम में ही होते थे। और दस-बीस बच्चे पानी वाला जग - मग लेकर इधर-उधर दौड़ते - भागते मिलते थे...।
समय ने हमें आज ऐसे दौर में लाकर खड़ा कर दिया है कि जब न तो बिहारी हैं न नेह जी। "नेह जी" होते तो आज नीचे की पंक्ति काट कर लिखते -

भेज रहा हूँ नेह निमंत्रण
प्रियवर तुम्हें बुलाने को।
हे मानस के राजहंस,
तुम जिद न करना आने को।

                            याद कीजिए! उस समय तम्बू में जितने खम्बे होते थे उतने भी लोगों को शादी में न तो शामिल होने की अनुमति है न उचित ही।
ऐसे समय में उस पुराने दौर को याद कर लीजिए।
'आज मेरे यार की शादी है' से लेकर ' यार मेरा हर एक से वफ़ा करता है'  जैसे गानों को यू-ट्यूब पर देख - सुन लीजिए। विवाह में नाचने, गाने से लेकर रूठने तक के रस्मों की अदायगी अपने कमरे में ही कर लीजिए।
विवाह निश्चित ही हमारे सनातन धर्म का पंद्रहवाँ संस्कार है लेकिन अभी जो कोराना आया है वह अल्पज्ञानी है, उसकी जानकारी में बस एक ही संस्कार है - सोलहवांँ (अन्त्येष्टि संस्कार)। इसलिए सचेत रहिए।
शादी कार्ड पर छपे "बाल हठ" के कारण किसी शादी - ब्याह में तब तक शामिल न होइए जब तक वर - वधू दोनों में से कोई एक आप खुद न हों।
फिर कह रहा हूँ उस समय न गोलुआ जाग कर आपके स्वागत में खड़ा मिलेगा न मोलुआ....।
हाँ! संभव है कोरोना फूफा जरुर हाथों में माला लिए खड़े मिल जाएँ और कौन जानता है कि जीवन में आनी वाली यही "माला" आखिरी हो.... ।

असित कुमार मिश्र
बलिया

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