प्रसाद जी द्वारा लिखित चन्द्रगुप्त नाटक पढ़ रहा था। चाणक्य का स्वगत कथन सामने था - 'समझदारी आने पर यौवन चला जाता है'...। तभी मोबाइल बजा और स्क्रीन पर अक्षर अठखेलियाँ करने लगे - चंदन मिश्रा कालिंग।
मैंने बेमन से पूछा - क्या है?
उन्होंने उतावले भाव से कहा - जल्दी आइए,यौवन देखना है तो!
मैंने किताब बंद की। ऐसा लगा मानों चाणक्य डांट रहें हों मुझे - अरे! धृष्ट, मूर्ख, बुद्धिहीन, सरस्वतीशून्य, जड़मति अभी मैंने क्या कहा था कि समझदारी आने पर यौवन चला जाता है। और तुम 'यौवन लोलुप' हो रहे हो?
मैंने भी स्वगत कथन का आश्रय लिया और कहा - हे विप्रश्रेष्ठ! मधुमास में समझदारी और यौवन का युद्ध उचित नहीं। परिणाम विपरीत भी हो सकता है। आप अन्यथा न लें, मैं अभी आता हूँ।
चंदन भैया स्वभावतः 'रसिक' हैं। हालांकि रसिक काव्यशास्त्रीय शब्द है। रसिक वह है जो नाट्य रस का आस्वाद लेने में सक्षम है। जिसमें सुरुचि, शिष्टता और बौद्धिक क्षमता है। रस जिनका और अधिक विस्तार करता है। लेकिन जबसे सिनेमाघरों और सड़कों पर सीटियां बजाने और फब्तियां कसने वालों को रसिक समझा जाने लगा है, तबसे किसी को रसिक कहना 'काव्यशास्त्रीय' नहीं 'जोखिम' की बात हो गई है।
मैंने चंदन भैया को देखा। वो एकटक आम्र मञ्जरियों से ढके एक पेड़ को देख रहे थे।
मैंने पूछा - कहां है यौवन?
उन्होंने जैसे भावावेश में कहा - असित क्या है यह?
मैंने कहा - भाई साहब! यह आम है, एनाकार्डिएसी परिवार का पेड़। इसका वैज्ञानिक नाम मैंगीफेरा इंडिका है और अंग्रेज़ी में मैंगो ट्री। अरबी में अंबज और फारसी में अंब: कहा जाता है।
उन्होंने खीझ कर कहा - अरे विज्ञान की 'दृष्टि' से नहीं बसंत की 'दृष्टि' से देखो। अच्छा! यह 'दृष्टि' भी साहित्य का ही विषय है। जयशंकर प्रसाद जी ने तो स्पष्ट कहा है कि - 'संस्कृति सौंदर्यबोध के विकसित होने की मौलिक चेष्टा है'। मूलतः' दृश' धातु से बना है यह, इसका अर्थ है देखना। गोस्वामी जी ने कहा है कि - जाकर रही भावना जैसी। प्रभु मूरत तिंहिं देखी तैसी।।
मतलब दृष्टि जितनी वाह्य है उतनी आंतरिक भी। भाव और भावना भी दृष्टि को देखने का दृष्टिकोण देते हैं। खैर मैंने आंखों पर बसंत का चश्मा लगाया और ज्योंही बसंत की दृष्टि से पहली नजर डाली, तो लगा कि इस सदी का सोलहवां बसंत तो है ही, इन आम्र मञ्जरियों का भी सोलहवां बसंत है। कानों में सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर जी की कर्ण प्रिय पंक्तियाँ गूंज उठीं - 'सोलह बरस की बाली उमर को सलाम। ऐ प्यार तेरी पहली नज़र को सलाम'।
यह 'सोलह बरस' का होना जितनी जैविक प्रक्रिया है उससे ज्यादा साहित्यिक प्रक्रिया।प्रक्रिया नहीं बल्कि घटना। घटना भी नहीं शायद सौंदर्य... ओह नहीं! शायद अथातो बसंत जिज्ञासा। इन आम्र मञ्जरियों को अब 'सोलहवें साल' की दृष्टि से देख रहा हूँ। कहा गया है कि - 'प्राप्ते तु षोडशे वर्षे सूकरी अपि अप्सरायते' ।सोलह वर्ष की अवस्था प्राप्त करते ही सूकरी भी अप्सरा तुल्य दिखने लगती है। फिर यह तो आम्र मञ्जरी ही है। वही आम्र मञ्जरी जो शतपथ ब्राह्मण में है, शिवपुराण में है, रामायण में है, महाभारत में है और चरक संहिता में है। यही नहीं ऋतुसंहार में भी है, मेघदूतम् में भी है, अभिज्ञान शाकुंतलम् में भी है और कुमारसंभवम् में भी है।
ऋतुसंहार में तो कालिदास लिखते हैं - 'लो प्रिया! आम्र मञ्जरियों के तीक्ष्ण बाण लेकर, और धनुष पर भ्रमरों की प्रत्यञ्चा चढ़ा कर वीर बसंत श्रृंगार करने वाले रसिकों को घायल करने आ गया है'।
कुमारसंभवम् में रति विलाप करते हुए बसंत से कहती हैं कि -'हे बसंत! जब तुम कामदेव का श्राद्ध करना तब उनके लिए पत्रों वाली आम्र की मञ्जरी अवश्य देना। क्योंकि तुम्हारे मित्र को आम की मञ्जरी बहुत प्रिय थी'...।
आम्र मञ्जरी की इतनी चर्चा क्यों! इसलिए कि बसंत ऋतु में सौंदर्य के देवता कामदेव पुष्पबाण चलाते हैं। इन पुष्पबाणों में पांच बाण होते हैं - अरविंद बाण, अशोक बाण, आम्र मञ्जरी बाण, नवमल्लिका बाण और नीलोत्पल बाण। सम्पूर्ण प्रकृति जगत् पर इन पुष्पबाणों का प्रभाव दिखाई देता है। सोलहवें बसंत में प्रवेश कर रही नायिका भी इन पुष्पबाणों से चोटिल होती है और उसके प्रभाव को बिहारी से अच्छा कौन समझ सकता था -
अपने तनु के जानिकै, यौवन नृपति प्रवीन।
स्तन, मन, नैन, नितंब को बड़ो इजाफा कीन।।
कामदेव के पुष्पबाणों से नायिका के वक्षस्थल, मन, नेत्र और नितंब बड़े हो जाते हैं। इस प्रकार नायिका बसन्त में यौवन और सौन्दर्य से युक्त हो जाती है। मैथिल कोकिल विद्यापति ने मैथिली में इस अवस्था का मनोहारी वर्णन किया है। लेकिन संस्कृत में - आह! अद्भुत! अलौकिक!
गदितुमितिगतेद्वै चक्षुषी कर्णमूलं
तरुणि! तव कुवाम्यां वर्तमालोक्याय:।
तव यदि विधियोगात् दुर्गमार्गे स्खलन्त्या
मटदिति तनुमध्यं भज्यते नौ न दोष:।।
दोनों बड़ी हो चुकी आंखें, कानों के पास यह कहने के लिए आईं हैं कि हे नायिके सुनो! तुम्हारे वक्ष इतने बड़े हो गए हैं कि हमें आगे का रास्ता नहीं दिखता। 'विधि संयोग' से कभी तुम 'दुर्गम मार्ग' पर गिर गई, और तुम्हारी यह पतली कमर मचक गई तो हमें दोष मत देना।
श्रृंगार के ऐसे पक्ष पर यह संस्कृत-कवि ही हो सकता है जो 'विधियोगात्' लिख कर आंखों को उनके इस 'आपराधिक कृत्य' के लिए भी 'बाइज्जत बरी' कर दे। और यह दुर्गम मार्ग क्या है? कहीं वही तो नहीं, जिसे बोधा ने 'तरवारि की धारि पै धावनौ' कहा है। या फारसी शैली में जिसे 'इक आग का दरिया' कहा गया है।
यद्यपि कि यह 'यौवन का मधुभार' अपने साथ कठिनाइयां लेकर भी आता है। इसी कठिनाई को 'कविता कौमुदी' में पंडित रामनरेश त्रिपाठी ने इस लोक प्रचलित दोहे से व्यक्त किया है -
नीक भयो जोबन गयो, तन से गई बलाय।
जने जने का रुठना, मों सो सहा न जाय।।
नायिका सोलहवें साल के प्रस्थान पर खुश है, लेकिन इस खुशी में आनंद नहीं क्षोभ है विषाद है - जाने दो बला टली। अच्छा हुआ यौवन चला गया। कितनों का दिल टूट रहा था। कितने व्यंग्य और उपालंभ सुनने पड़ते थे।कल ही कोई आशिक किसी मासूक के शवाब पर तंज करते हुए कह रहा था कि - 'जब शवाब आया है आंख क्यों चुराते हो'। इस अपयश से तो मुक्ति मिली।
लेकिन निर्दय उस नायक ने तो सौंदर्य की महत्ता पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया -
हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम।
वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती।।
इस न किए हुए कत्ल का इल्जाम लेकर जीते रहने से अच्छा है - नीक भयो जोबन गयो।
चंदन भैया मुझसे पूछ रहे हैं - है न गजब का सौंदर्य?
मैं सोच रहा हूँ कि यह सौंदर्य भी तो शास्त्रीय विषय है। क्योंकि शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गन्ध के माध्यम से ही मनुष्य सौंदर्य की अभिव्यक्ति या आकलन करता है। और सौन्दर्य की तीन कोटियां बताईं हैं आचार्य भरत मुनि ने।
1- सौंदर्य व्यक्ति सापेक्ष है - अर्थात् एक ही वस्तु किसी को सुंदर लग सकती है तो किसी को असुंदर।
2- सौंदर्य काल सापेक्ष है - अर्थात् एक ही वस्तु एक समय में बहुत सुंदर लगती है दूसरे समय सामान्य और बाद में असुंदर।
3- सौंदर्य स्थिति सापेक्ष भी है - अर्थात् सामाजिक मानसिक परिस्थितियां भी सौंदर्य की अनुभूति और अभिव्यक्ति में परिवर्तन कर सकती हैं। जैसे - जो गोपियां कृष्ण के साथ यमुना नदी में केलि करती थीं वही कृष्ण से वियोग की स्थिति में कहती हैं - वृथा बहति जमुना।
मैं कुछ कह नहीं पाता। स्वीकार करता हूं कि यह यौवन का सौंदर्य है। यह दृष्टि का सौंदर्य है और बसंत का सौंदर्य भी। 'अथातो बसंत जिज्ञासा' की भी कोई सीमा है? नहीं। सौंदर्य तो अपरिमित और असीम है। चाहे वह नायिका का हो, नायक का हो, दृष्टि का हो या आम्र मञ्जरी का ही क्यों न हो।
असित कुमार मिश्र
बलिया
Monday, February 29, 2016
अथातो बसंत जिज्ञासा (निबंध)
Thursday, February 18, 2016
और धृतराष्ट्र ने आंखों पर पट्टी बांध ली (हास्य व्यंग्य)
अभी तक अगर आपको मौसम ने फागुनी कदमों की आहट न दी हो, खेतों में फैली सरसों की पियरी चुनरी न दिखी हो, गेहूं की हरियाली ने कुछ कहा न हो, तो चले आइए बलिया में जहाँ कदम कदम पर किसी अरविंद अकेला, दिनेश दुकेला से लेकर परमोद परदेशी तक के फागुनी गीत यह बताने के लिए तैयार हैं कि जिले में आजकल जीजाओं का आतंक बढ़ गया है। कोरस मिलाने वाली सालियां भी पीछे से द्विअर्थी शब्दों की पिचकारी ताने गायकों की अश्लीलता का मुंहतोड़ जवाब दे रही हैं।चारों तरफ जब फागुनी बयार बहनी शुरू होती है जब अलसाया सा मौसम श्रृंगार की ओर खींच रहा होता है, तभी माध्यमिक शिक्षा परिषद् उत्तर प्रदेश अपनी परीक्षाएं कराने लगता है।तब महीनों से कापी कलम किताब से दूर रहने वाला किसी बलियाटिक दिनेसवा का मन, गा ही उठता है - ''कागज कलम दवात ला, लिख दूँ सनम दिल पर नाम तेरा"... परसुराम चौधरी खुश हैं कि- एहू भागे तो थोड़ा पढ़ लो।
इधर दिनेसवा जैसे ही गाईड खोलता है ख्वाबों में सुमितरी गाने लगती है - 'किताबें बहुत सी पढी होंगी तुमने बता मेरे चेहरे पर क्या क्या लिखा है' और यहीं से 'ज्ञानमार्गी' हो रहा दिनेसवा 'प्रेममार्गी' होकर, व्हाट्स ऐप पर मैसेज करता है - 'ए सुमितरी कल परीक्षा में पटियाला सूट पहन कर आना हमहूँ पठान कोट पहन कर आएंगे' ।
इधर कालेजों ने परीक्षा में होने वाली असुविधाओं से बचने के लिए पहले ही ऐलान कर दिया कि अबकी दो हजार रुपये 'सुविधा शुल्क' लेंगे। प्रबंधक जी लोग हिरन बने कस्तूरी सम मास्टरों की तलाश में हैं। पहला पेपर हिन्दी का है आज। पूरे इलाके में कोई हिन्दी का मास्टर नहीं मिलता। जिससे पूछिए वही कहेगा - भक्क! हिन्दी भी कोई पढने वाला विषै है जी। अरे एगो जीवन परिचै याद कर लो आ किसी का आए वही उतार देना। एगो भाषा-शैली याद कर लो। किसी का आए वही लिख देना। आ जगहे-जगह थोड़ा भौंकाली शब्द कापी करके पेस्ट कर देना जैसे गौरव स्वाभिमान चित्रात्मकता, लाक्षणिकता टाईप।
इधर संटुआ के हाथ से कलम जैसे छलक पड़ती है। जो उंगलियां फेसबुक पर प्रति मिनट पांच पोस्ट टाईप करती थीं, अब वो कलम पकड़ना भूल रही हैं। उसे इस बात का अफसोस है कि बोर्ड वाले फेसबुक पर ही परीक्षा क्यों नहीं कराते!
इधर सुबह हाईस्कूल के हिन्दी के पेपर में प्रश्न आया है कि उर्वशी किसकी रचना है?
सुदर्शन मास्टर साहब ने उत्तर लिखवा दिया - रामधारी सिंह दिनकर।
तभी दुखहरन मास्टर साहब ने आकर कहा कि उर्वशी जयशंकर प्रसाद की रचना है। अब दोनों मास्टरों के बीच "आप ही ज्यादा जानते हैं?" नामक वाक्य का आदान-प्रदान होते हुए "तुम ही ज्यादा जानते हो?" से आगे बढ़ कर "हरे तोरी बहिन की.... तूहीं ढेर जानतारे?" तक आ गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि 'उर्वशी' अनादि काल से ही विवाद का कारण बनती आई है और आगे भी बनती ही रहेगी।
इधर जबसे दुबारा तीबारा हाईस्कूल इंटर पास करने का चलन बढा है, तब से अध्यापकों और परीक्षार्थियों के बीच उम्र का फासला कम होता जा रहा है। अब अध्यापक परीक्षार्थी से कहते हैं - ए चचा! आरामे से लिखिए उडाका दल ने फोन किया है कि आज अपने सेंटर पर नहीं आएंगे। इस प्रकार 'सब पढें सब बढें' कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। इधर जांच पत्र से फोटो मिला रहे परमेसर मास्टर साहब संटुआ से कहते हैं - तुम्हारा फोटो तो मैच नहीं खा रहा है जी! संटुआ आह भर के कहता है - मास्साब! असली चीज है इमेज। चेहरे का क्या वो तो कभी भी बदल सकता है।
माट्साहब का दिल दरिआव हो जाता है कि लौंडा साहित्यकार बन रहा है।
इधर बालकिशुना का मूड बन ही नहीं रहा है उत्तर क्या लिखे। गुटका फाड़ कर मुंह में डाल लेता है.... हाँ अब तनी दिमाग अस्थिर हुआ है। लेकिन भरोसा तो अब भी नहीं हो रहा है कि कोई बढिया मोबाइल दु सौ एकावन रुपये में कैसे मिल जाएगा? दिल है कि ललचा रहा है और दिमाग कह रहा है कि अईसहीं मोदी जी 'पन्द्रह लाख' रुपये कह कर खाता खोलवा दिए थे। कुछ भी हो चार मोबाइल तो खरीदेगा ही। अब एक मनोरमी को भी तो देना पडेगा न!
इस परीक्षा महोत्सव का सबसे महत्वपूर्ण दिन गणित वाला होता है जब रुम नंबर आठ की खिड़की पर लटक कर कोई 'व्यास' जी किसी 'रचना' जी से पूछ रहे होते हैं कि- हई 'त्रिज्या' वाला सवाल हुआ कि नहीं?
कहीं किसी 'रेखा' के आसपास 'आधार' मंडरा रहे होते हैं तो कहीं किसी 'बिन्दु' को कोई 'दसमलव' हसरत भरी निगाहों से देख रहे होते हैं। किसी 'परिधि' के हाथों में सातवां का उत्तर धरा रहे 'कर्ण' कहते हैं - हम यहीं खड़े हैं आपका एक भी छूटेगा नहीं।
इन दिनों मास्टरों की मांग कार्बन कापी के सापेक्ष ही बढ़ जाती है। और परीक्षा के बाद कार्बन कापी और मास्टरों का एक ही हाल होता है - कोई नहीं पूछता।
मंडल से लेकर ब्लाक तक की गाड़ियां दौड़ रही कार्बन कापी के पीछे। कार्बन कापी है कि द्रौपदी के चीर की तरह बढती ही जा रही है।
इधर अखबारों में खबर है कि नकल करने वालों से सख्ती से निपटेगी सरकार। और बोर्ड का दावा है कि कड़ी सुरक्षा व्यवस्था में परीक्षाएँ संपन्न हो रही है।उधर अभिभावक परमेसर राय से लेकर अध्यापक सुमेसर जी और सभी परीक्षार्थी परीक्षा में 'फील गुड' कर रहे हैं।यहां धृतराष्ट्र अपने कमरे में टहल रहे हैं क्या करें उनकी सुनता ही कौन है! अंत में खिसियाये धृतराष्ट्र उठे और उन्होंने आंखों पर पट्टी बांध ली...
असित कुमार मिश्र
बलिया
Tuesday, February 16, 2016
कोहबर आमुख
'कोहबर' कहते ही हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं।महुवई गंध,सरसों और अमलतास के रंग फैल जाते हैं चारों तरफ। बज उठती है कानों में शहनाई की धुन, चटख हो उठती है हाथों की मेंहदी और पलकों के कटोरे में नम हो उठती हैं काजल की कालिमा से उज्ज्वल हुईं आंखें....हाँ ऐसे ही नाम वाला होता है कोहबर। जिसके रूप अलग अलग होते हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड या अन्य राज्यों में इसके रूप में थोड़ा बहुत अंतर होता ही है लेकिन नाम वही कोहबर।
'नाम-रूप' पर अनादि काल से बहस चली आ रही है - नाम बड़ा है या रूप? पद बड़ा है या पदार्थ? पूजनीय हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि - "नाम इसलिए बड़ा नहीं कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। रूप व्यक्ति सत्य है, नाम समाज सत्य। नाम में क्या रखा है- ह्वाट्स देयर इन ए नेम। नाम की जरूरत ही हो, तो सौ दिए जा सकते हैं"।
लेकिन ऐसा द्विवेदी जी ने 'कुटज' के बारे में कहा था 'कोहबर' के बारे में नहीं। इसलिए यहां 'नाम' सत्य है 'रूप' नहीं। नाम तो एक ही है - कोहबर लेकिन रूप सौ। तथापि मेरा उद्देश्य कोहबर के नाम और रूप का साहित्यिक विवेचन करना नहीं है। किया भी नहीं जा सकता। क्योंकि कोहबर भावना की वस्तु है, प्रेम की वस्तु है, संबंध की वस्तु है, लोक की वस्तु है।इसकी भी आलोचना हो सकती है भला?
कोहबर तद्भव शब्द है इसका तत्सम् होता है कौतुकागार। विवाह के दिन वर वधू विशेष रूप से रंगों चित्रों और प्रेम से सजाए गए कमरे में ले जाए जाते हैं जहां सृजन और कुल देवता की पूजा होती है। वधू पक्ष की ग्रामीण लड़कियां चतुराई से बनाई गई बांस और मूंज की आश्चर्य जनक वस्तुएं वर को दिखाती हैं। पहेलियों और ग्रामीण मुहावरों से वर के 'सुजान' होने का परीक्षण किया जाता है। घूंघट की ओट में बैठी वधू इसी दिन से 'दो हृदयों वाली' हो जाती है। जब पहेलियों का उत्तर देकर वर जीत जाता है तो वधू घूंघट में मुस्कुरा देती है, उसी का तो वर है। दूसरी तरफ वर द्वारा पूछे गए पहेलियों का उत्तर जब लड़कियां दे देती हैं तो भी वधू मुस्कुरा उठती है, उसी की तो बहनें हैं।
अलग अलग रंगों और चित्रों से पूरा वह कमरा रंग दिया जाता है कहीं सृजन की प्रतीक तितलियाँ होती हैं तो कहीं खेत जोतते बैल। गृहस्थी से जुड़े चिमटे तवे कड़ाही भी मौजूद होते हैं तो दीवार पर उकेरी गई श्रृंगारिक सूक्तियां भी।
पूरे जीवन की समग्रता, आंचलिकता, स्नेह, श्रृंगार, भक्ति, नीति और सौंदर्य इसी एक कमरे में व्यक्त हो जाता है।अगर कुछ अव्यक्त होता है तो वह है धृष्टता, अश्लीलता, कामुकता, विवाद।
कोहबर की सबसे बड़ी विशेषता होती है उसके द्वार की ऊंचाई अपेक्षाकृत कम होना। विवाह में सीना ताने गर्दन उठाए चलने वाला वर इसी कमरे में झुक कर आता है। कारण तो कबीरदास पहले ही बता गए हैं -
कबीर यहु घर प्रेम का, खाला का घर नाहि।
सीस उतारे भुईं धरे, सो घर पैठे आहि।।
कोहबर भी ऐसा ही प्रेम का घर है जहां 'शीश उतार कर ही' प्रवेश करना है... 'जहां नैकु सयानप बांक नहीं'।
मेरे ब्लॉग का नाम 'कोहबर' ही है।कोहबर में आप अपनी स्नेहिल उपस्थिति के लिए मेरा भावना, कामना और समर्पण से सिक्त आमंत्रण स्वीकार करें।
असित कुमार मिश्र
बलिया
Monday, February 15, 2016
आई हेट यू परमिला जी...
आई हेट यू परमिला जी..... (कहानी)
गोदौलिया चौक पर चारों ओर लगी फूलों की दुकानों को देखकर शिवाकांत ने जगेसर मिसिर से कहा - लोग बेकार में बनारस को सबसे पुराना शहर कहते हैं। हमारा बनारस आज भी जवान है।
जगेसर मिसिर ने कहा- भाई! आज हम भी परमिला जी को गुलाब देकर इजहारे मुहब्बत करना चाहते हैं। तुम भी चलो न मेरे साथ।
शिवाकांत ने कहा - ना भईया। पिछली बार गए थे तो 'माहेश्वर सूत्र' पूछने लगीं थीं। तभी से हम कान पकङ लिए,आप ही झेलिए उनको।
जगेसर मिसिर ने दुकानदार से लाल गुलाब मांगा। दुकानदार ने कहा - सांझ के पांच बजे तक लाल गुलाब टिकता है कहीं आज? अब काशी भोलेनाथ के त्रिशूल पर कम गुलाब पर ज्यादा टिकी है। ये पियरका गुलाब बचा है। लेंगे तो ले जाइए।
जगेसर मिसिर ने आहत होकर कहा - अच्छा तब एक पियरका गुलाब ही दे दीजिए।
दालमंडी गली में चलना रस्सी पर चलने के समान होता है। किसी घर की खुली रहने वाली ऊपरी खिड़कियों से कब एक गोरी कलाई बाहर निकलेगी और उस घर का पूरा कचरा प्लास्टिक की थैली के रुप में कपार पर आ गिरेगा, कहा नहीं जा सकता।कहने को तो यह भी नहीं कहा जा सकता कि इसी गली में कहीं अखबार पढ़ रहे इश्तियाक मियां के पान की पीक कब किसी के कपड़ों पर लाल क्रांति कर जाएगी। और शिकायत करने पर प्यार भरे लहजे में सुनने को मिल जाएगा कि - क्या रजा! दालमंडी में आए और बिना हमारी मुहब्बत की निशानी लिए लौट जाओगे, घबराओ मत चरित्तर पर लगा दाग नहीं लगा है।
सांढ और सीढ़ियों से बचते हुए जगेसर मिसिर ने उस घर का दरवाजा खटखटाया जिस पर बोर्ड लगा था - पंडित नंदकुमार मिश्र (पूर्व आचार्य संस्कृत विद्यालय 15 क दालमंडी वाराणसी)।
दरवाजा खोलने वाली लड़की ने नमस्कार के बाद कहा - मिसिर जी! आज तो पिताजी और माताजी दोनों घर पर नहीं हैं।
जगेसर मिसिर ने खुश होते हुए कहा - परमिला जी। आज हम गुरु जी से नहीं आपसे मिलने आए हैं।
परमिला ने मुस्कराते हुए कहा - अच्छा अच्छा। आइए।
पानी पीते हुए जगेसर मिसिर ने शिकायत से कहा - कम से कम आज तो अपना मोबाइल आॅन रखी होतीं आप, मैं सुबहे से ट्राई कर रहा था।
परमिला ने मुस्कुराते हुए पूछा - क्यों कोई खास दिन है क्या आज?
अरे आज 'प्रपोज डे' है भाई! आप कभी अपने इन किताबों की दुनिया से बाहर निकल कर तो देखिए प्रेम क्या चीज है - जगेसर ने आंखों में प्यार भरकर कहा।
परमिला ने मुस्कुराते हुए कहा - अच्छा! क्या चीज है प्रेम?
जगेसर को मानो मौका मिल गया उन्होंने कहा - जानतीं हैं, जेठ की तपती दोपहरी में सूख रहे कुएं के पास पक्षियों का एक जोड़ा मरा पड़ा था जबकि कुएं में इतना जल था जिससे एक पक्षी की प्यास बुझ गई होती। लेकिन वो दोनों पहले तुम पी लो - पहले तुम पी लो कहते रहे, और प्यास से मर गए। तभी से यह दोहा प्रचलित है - जल थोड़ा नेह घना लागो प्रीति के बान। तू पी तू पी कहि मरे एहि बिधि त्यागे प्रान।।
परमिला ने मुस्कुराते हुए ही आश्चर्य से कहा - अच्छा!
जगेसर को थोड़ी हिम्मत मिली। उन्होंने आगे कहा - संस्कृत की ही एक कवयित्री विज्जिका ने कहा है कि प्रेम का वास्तविक परिचय ऊर्णनाभ (मकड़ा) देता है, क्योंकि जब मकड़ी सुख की चरम स्थिति में होती है, तो मकड़े का सिर काट कर खा जाती है। प्रेम ऐसा ही उत्सर्ग वाला होता परमिला जी।
परमिला ने कुछ कहा नहीं। बस मुस्कुराती ही रहीं।
जगेसर मिसिर ने कहा - कुछ तो बोलिए! चुप क्यों हैं आप?
परमिला ने कहा - मिसिर जी मैं कुछ कहूंगी तो फिर आप कहेंगे कि मैं भाषण देती हूँ बस। लेकिन क्षमा करें मैं सहमत नहीं आपसे।
जगेसर थोड़ा चौंक कर बोले - क्यों! क्यों? सहमत नहीं आप मुझसे?
परमिला ने उसी दिन का अखबार दिखाते हुए कहा - देखिए! इन दस सैनिकों का सियाचिन के बर्फ़ में दबने से प्राणांत हो गया।इस मार देने वाली बर्फ में रहने के पीछे तर्क पैसे नहीं हैं। पैसा तो बनारस में पान की दुकान खोल लेने वाला भी कमाता ही है। सही तर्क है प्रेम। वो भी पूरे देश के प्रति, अपनी मातृभूमि के प्रति। आपने जो भी उदाहरण बताए उन्हें मैं कम नहीं कह रही, लेकिन वह वैयक्तिकता के लिए उत्सर्ग है। यह प्रेम उत्सर्ग की विशिष्टावस्था तक नहीं पहुंच सकता। प्रेम तो दर्शन का विषय है प्रदर्शन का कब से हो गया?
मैं आपसे यह नहीं कह रही कि सीमा पर जाकर प्राणांत ही कर लें।प्राणांत कहीं से प्रेम का परिचायक नहीं, लेकिन अगर आवश्यक ही हो, तो राष्ट्रीयता के लिए न कि प्रेयसि के लिए। यह तो मकड़ा भी कर लेता है।
जगेसर मिसिर से कुछ कहते नहीं बना।आंखों से निश्छल धारा निकलने लगी और भावावेश में परमिला को बाहों में भर लिया। रोते हुए बोले - आई हेट यू परमिला जी... आई हेट यू।
कुछ आंसू तो परमिला के आंखों में भी थे उन्होंने भी कहा था - सेम टु यू मिसिर जी...
अब शायद जगेसर मिसिर का प्रेम दर्शन के उस स्तर पर पहुंच चुका था जहां किसी प्रदर्शन की आवश्यकता ही नहीं थी। जहां आई लव यू और आई हेट यू कहने का कोई मतलब ही नहीं होता। प्रेम तो वैसे भी अव्यक्त है ही। वर्णमाला के सीमित बावन अक्षर असीमित प्रेम की अभिव्यक्ति कर भी कैसे सकते थे। हां, पियरका गुलाब कब का जगेसर मिसिर के हाथों से छूट कर नीचे गिर चुका था।
असित कुमार मिश्र
बलिया