'कोहबर' कहते ही हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं।महुवई गंध,सरसों और अमलतास के रंग फैल जाते हैं चारों तरफ। बज उठती है कानों में शहनाई की धुन, चटख हो उठती है हाथों की मेंहदी और पलकों के कटोरे में नम हो उठती हैं काजल की कालिमा से उज्ज्वल हुईं आंखें....हाँ ऐसे ही नाम वाला होता है कोहबर। जिसके रूप अलग अलग होते हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड या अन्य राज्यों में इसके रूप में थोड़ा बहुत अंतर होता ही है लेकिन नाम वही कोहबर।
'नाम-रूप' पर अनादि काल से बहस चली आ रही है - नाम बड़ा है या रूप? पद बड़ा है या पदार्थ? पूजनीय हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि - "नाम इसलिए बड़ा नहीं कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। रूप व्यक्ति सत्य है, नाम समाज सत्य। नाम में क्या रखा है- ह्वाट्स देयर इन ए नेम। नाम की जरूरत ही हो, तो सौ दिए जा सकते हैं"।
लेकिन ऐसा द्विवेदी जी ने 'कुटज' के बारे में कहा था 'कोहबर' के बारे में नहीं। इसलिए यहां 'नाम' सत्य है 'रूप' नहीं। नाम तो एक ही है - कोहबर लेकिन रूप सौ। तथापि मेरा उद्देश्य कोहबर के नाम और रूप का साहित्यिक विवेचन करना नहीं है। किया भी नहीं जा सकता। क्योंकि कोहबर भावना की वस्तु है, प्रेम की वस्तु है, संबंध की वस्तु है, लोक की वस्तु है।इसकी भी आलोचना हो सकती है भला?
कोहबर तद्भव शब्द है इसका तत्सम् होता है कौतुकागार। विवाह के दिन वर वधू विशेष रूप से रंगों चित्रों और प्रेम से सजाए गए कमरे में ले जाए जाते हैं जहां सृजन और कुल देवता की पूजा होती है। वधू पक्ष की ग्रामीण लड़कियां चतुराई से बनाई गई बांस और मूंज की आश्चर्य जनक वस्तुएं वर को दिखाती हैं। पहेलियों और ग्रामीण मुहावरों से वर के 'सुजान' होने का परीक्षण किया जाता है। घूंघट की ओट में बैठी वधू इसी दिन से 'दो हृदयों वाली' हो जाती है। जब पहेलियों का उत्तर देकर वर जीत जाता है तो वधू घूंघट में मुस्कुरा देती है, उसी का तो वर है। दूसरी तरफ वर द्वारा पूछे गए पहेलियों का उत्तर जब लड़कियां दे देती हैं तो भी वधू मुस्कुरा उठती है, उसी की तो बहनें हैं।
अलग अलग रंगों और चित्रों से पूरा वह कमरा रंग दिया जाता है कहीं सृजन की प्रतीक तितलियाँ होती हैं तो कहीं खेत जोतते बैल। गृहस्थी से जुड़े चिमटे तवे कड़ाही भी मौजूद होते हैं तो दीवार पर उकेरी गई श्रृंगारिक सूक्तियां भी।
पूरे जीवन की समग्रता, आंचलिकता, स्नेह, श्रृंगार, भक्ति, नीति और सौंदर्य इसी एक कमरे में व्यक्त हो जाता है।अगर कुछ अव्यक्त होता है तो वह है धृष्टता, अश्लीलता, कामुकता, विवाद।
कोहबर की सबसे बड़ी विशेषता होती है उसके द्वार की ऊंचाई अपेक्षाकृत कम होना। विवाह में सीना ताने गर्दन उठाए चलने वाला वर इसी कमरे में झुक कर आता है। कारण तो कबीरदास पहले ही बता गए हैं -
कबीर यहु घर प्रेम का, खाला का घर नाहि।
सीस उतारे भुईं धरे, सो घर पैठे आहि।।
कोहबर भी ऐसा ही प्रेम का घर है जहां 'शीश उतार कर ही' प्रवेश करना है... 'जहां नैकु सयानप बांक नहीं'।
मेरे ब्लॉग का नाम 'कोहबर' ही है।कोहबर में आप अपनी स्नेहिल उपस्थिति के लिए मेरा भावना, कामना और समर्पण से सिक्त आमंत्रण स्वीकार करें।
असित कुमार मिश्र
बलिया
Tuesday, February 16, 2016
कोहबर आमुख
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प्रेम के घर
ReplyDeleteकौतुक के आगार
कोहबर की हार्दिक शुभकामनायें।
भगवान् करे कोहबर सृजन के नए आयाम स्थापित करे
प्रेम के घर
ReplyDeleteकौतुक के आगार
कोहबर की हार्दिक शुभकामनायें।
भगवान् करे कोहबर सृजन के नए आयाम स्थापित करे
इस कोहबर में पदार्पण शुभ हो आपका।
ReplyDeleteइस कोहबर में पदार्पण शुभ हो आपका।
ReplyDeleteनमस्कार सर,
ReplyDeleteजब आपके ब्लॉग का नाम कोहबर है तो, एक लेख विवाह पर भी होना चाहिए, वह भी ठेठ भोजपुरी अंदाज में।
पता नई अहाँ मैथिलि बुझैत छी की नै किन्तु मिथिला पेंटिंग क उपयोग के लेल समस्त मिथिलावासी के तरफ स् धन्यवाद ....अउर कोहबर क् लेल शुभकामना
ReplyDeleteपता नई अहाँ मैथिलि बुझैत छी की नै किन्तु मिथिला पेंटिंग क उपयोग के लेल समस्त मिथिलावासी के तरफ स् धन्यवाद ....अउर कोहबर क् लेल शुभकामना
ReplyDeleteबधाईयाँ एवं शुभकामनायें
ReplyDelete-आशीष कुमार गुप्ता
बधाइयाँ, सुजान होने की परीक्षा समय-समय पर ली जायेगी, तब तक आराम करें ☺
ReplyDeleteबधाइयाँ, सुजान होने की परीक्षा समय-समय पर ली जायेगी, तब तक आराम करें ☺
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