Wednesday, March 23, 2016

का हो गोरी ईहे हऽ होरी....

खानसाहब ने उठते हुए अफसोस से कहा - भईया तो हम जाएं?
वर्मा जी ने खटिया पर लेटे हुए ही कहा - तो जाओगे नहीं तो क्या करोगे! नेवता भेजवाए थे तुम्हारे यहाँ?
खानसाहब ने लगभग अपनी ही उम्र वाली साइकिल जो दीवार से टिक कर खड़ी थी उसे पकड़ा और चलने लगे। अचानक कुछ याद आया। फिर साइकिल वहीं खडी की और फिर कुर्सी पर आ कर बैठ गए। और पूछा - अच्छा भौजी का क्या हाल है अब?
वर्मा जी उदास हो गए दोनों हाथों को सर के नीचे लगाया और लेटे हुए ही कहा - लगता है बुढ़िया एक महीने से ज्यादा नहीं जियेगी।
कुछ देर गंभीर रहने के बाद खान साहब ने फिर पूछा - अच्छा भईया 'उनका' क्या हाल है?
इसी सवाल पर चिढ़ जाते हैं वर्मा जी।इस बार भी खटिया के पास रखी लाठी उठाकर बूढ़े हाथों से दो लाठी जमा कर बोले - भाग सरवा ईहां से।
       अचानक खान साहब ने मुझे देखा और फिर वर्मा जी से कहा - ए भईया आतिश बाबा भी आ गए। कमे खर्चा में हो जाएगा। अब भी हां कह दीजिए।
मैं तेरह सौ बार बता चुका हूं कि खान चचा मेरा नाम आतिश नहीं असित है... खैर! बहुत दुख भरी कहानी है इनकी।लगभग चालीस साल पहले वर्मा जी के बियाह में खान साहब का दिल चोरी हुआ था। और दिल चुराने वाली वर्मा जी की साली थीं सांवली रंगत कसरती देह वाली छींटे के साड़ी पहने।
अब वर्मा जी खटिया पकड़ चुके हैं उम्र लगभग सत्तर साल हो चुकी है उधर घर में इनकी मेहरारू भी खटिया पकड़े इनसे पहले सुहागिन ही निकल लेना चाहती हैं। खान साहब भी साठ पार तो होंगे ही, उधर वर्मा जी की साली साहिबा भी साठ पार हो चुकी होंगी। लेकिन अब भी खान साहब वर्मा जी की साली से बियाह करने की जिद पकड़े रहते हैं।
मैंने खान साहब से कहा - हई ओसामा बिन लादेन की तरह दाढ़ी रखे हैं तो कैसे बियाह होगा?
खान साहब ने उसी गंभीरता से कहा - बाबा हम दाढ़ी बनवा लेंगे और हलुमानचलीसा भी याद है हमको।
उधर घर के अंदर बुढ़िया को उनकी नातिनों ने सहारा देकर उठा दिया। बाल्टी में खूब गाढ़ा ललका रंग तैयार हो गया। और सहारा देकर ही छत पर चढ़ा दिया और पीछे से पकड़ कर खड़ी हो गईं। पांच मिनट बाद ही छत पर से दो बूढ़ी कांपती कलाइयों ने बाल्टी भर रंग नीचे खान साहब पर फेंक दिया।
खान साहब ने चौंक कर ऊपर देखा।लेकिन तब तक बुढ़िया की नातिनों ने बुढ़िया को खींच लिया था।
ललका रंग में नहा चुके खान साहब ने चिल्ला कर कहा - का हो गोरी ईहे हऽ होरी
ऊपर से बुढ़िया की कांपती आवाज आई है - हं हो तहार बहिन... ईहे हऽ होरी।
इधर वर्मा जी भी खटिया पर से उठ कर हंसने लगे हैं। थोड़े बहुत छींटे हम पर भी पड़े हैं। खटिया पर की चादर भी अब लाल हो गई है। अंदर से नातिनों ने गरम पुआ लाकर रख दिया है। दोनों बूढ़े खाने लगे हैं अब। तभी खान साहब ने फिर कहा है - तो ए भईया बियाह पक्का समझें न?
वर्मा जी ने डांटा है - एकदम्मे आवारा हो क्या! खाने में बोलते नहीं है चुपचाप खाओ...
       हो सकता है बहुत लोगों को यह कहानी लगे। सच भी है परसों ही तो पेपर में निकला था कि किसी हिन्दू ने मुसलमान पर रंग डाल दिया तो उसे जेल हो गई।जब भी होली आती है तो 'मीन राशि' वाले पानी बचाओ अभियान में लग जाते हैं। जल ही जीवन है इसमें संदेह नहीं। लेकिन बुढ़िया ने जो पानी बर्बाद किया है न आज,उसी बाल्टी भर पानी पर हमारी संस्कृति टिकी है। सुना है अगला विश्व युद्ध पानी के लिए ही होगा। लेकिन त्योहारों की यह संस्कृति मिट गई न तो उस विश्व युद्ध से पहले ही हम सब आपस में लड़ कर मर जाएंगे, और फ्रिज में पानी की बोतलें रखी ही रह जाएंगी।
त्योहार ऐसे ही उमंग और ऊर्जा वाले होते हैं।रंग देखकर ही,जी गई होगी बुढ़िया। छत की सीढ़ियाँ चढते हुए फिर से जवान हो गई होगी। खान साहब का जोगीरा सुनकर बिना दांत वाले बूढ़े कपोलों पर लाली छा गई होगी। दो मिनट में सदियां जी गई होगी बुढ़िया। इधर मेरी अंतरात्मा तक भींग गई है कुछ छीटों से ही। और खान साहब.... शायद फिर डांट सुन रहे हैं - एकदम्मे आवारा हो क्या!
         आप सभी को उमंग उत्साह ऊर्जा के रंग पर्व होली की हार्दिक शुभकामनाएं।
और उन भौजाइयों को भी शुभकामनाएं, जिनका होली के दिन ही सिर में दर्द हो जाता है :)
असित कुमार मिश्र
बलिया

      

Tuesday, March 22, 2016

सबसे खतरनाक होता है.....

इधर बड़ी बेरंगत बेनूर और बेस्वाद हो गई है जिन्दगी। एकदम पोटैशियम सायनाइड टाईप। मने थोड़ा आसान भाषा में कहें तो जिंदगी जहर हो गई है।मुझे लग रहा है मैं प्रतिक्रियावादी या आक्रामक हो रहा हूँ।मित्रों की राय है कि कुछ दिनों तक लिखो पढो मत, शांति से रहो। मैं भी चाहता हूं शांत रहना... एकदम मुर्दा शांति से भर जाना। लेकिन क्या करुं!अभी परसों ही सेन्ट्रल बैंक में गया था पैसे निकालने। एक औरत हैरान-परेशान आई, और गिड़गिड़ाते हुए बोली कि - मेरी गवाही कर दीजिए। मैंने उसकी धन निकासी पर्ची पर लिखी राशि देखी - एक हज़ार रुपए मात्र। मैंने पूछा कि कैसी गवाही है यह? उसने बताया कि वृद्धा पेंशन का पैसा लेना है उसमें एक खाताधारक की गवाही चाहिए। मैंने उसका चेहरा देखा। गरीबी और बुढ़ापे में किसका प्रतिशत ज्यादा था कह नहीं सकता। हां इतना जरूर कहूंगा कि एक हज़ार रुपए गबन करने से पहले सत्तर बार हार्ट फेल हो जाता उसका। मैंने गवाही कर दी। गवाही की देर थी बस, पांच सात औरतें और आ गईं। मैंने उनकी भी गवाही कर दी।
मैं अपने लाईन में खड़ा हो गया। औरतें अपनी लाईन में बैठ गई थीं। जबकि उनके पीछे लंबी ब्रेंच खाली पड़ी थी।आधे घंटे बाद चपरासी उन सब औरतों का पासबुक चेक करते हुए बोले - असित कुमार मिश्र कौन है? मैं अपनी लाईन में से ही बोला - मैं हूं सर। चपरासी ने कहा - सबकी गवाही किए हैं आप। सबको पहचानते हैं?
मैंने कहा - विजय माल्या नौ हजार करोड़ रुपये ले गए। आप पहचानते थे न उन्हें!
चपरासी चुप हो गए।और उन औरतों का पासबुक अगले काउंटर पर रख दिया। मतलब तीन बजे तक उन्हें पैसे मिल जाते। औरतें मुझे रह रह कर श्रद्धा भाव से देख रही थीं और मैं असहज हो रहा था।मैं सोच रहा था कि आज तो मैंने इनकी गवाही कर दी। कल कौन करेगा? भारत के हजारों लाखों बैंकों में उन गरीब आम औरतों को रोज छोटी-छोटी बातों पर कितनी परेशानियां होती होंगी। दिन भर एक आम आदमी एक हज़ार रुपए के लिए लाइन लगाए है,चार काउंटर की चेकिंग के बाद हजार रुपये मिलने की खुशी... जिससे बेटी के लिए एक साड़ी ली जाएगी और पोते के लिए प्लास्टिक वाले झुनझुने।नवकी पतोहू के लिए कुछ शिल्पा छाप चार नंबर की बिंदी के पत्ते और एल एन छाप सात रुपये के नाखून पाॅलिश.... लेकिन वो कौन लोग हैं जो देश का करोड़ों रुपया लेकर भी खुलेआम घूम रहे हैं। उन्हें जीरो प्रतिशत ब्याज दर पर कर्ज उपलब्ध है। हजारों रुपए वर्ग फुट वाली औद्योगिक जमीनें जिन्हें कौड़ियों के भाव मिल जाती है।
मैं चुपचाप लाईन में से निकला अपनी पर्ची फाड़ी और खाली हाथ घर आ गया।
               आज का अखबार खोला पढ़ने के लिए तो बड़ी सी फोटो मुख्य पेज पर है। दिनेश लाल यादव को यश भारती से सम्मानित करते हुए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव दिख गये। भोजपुरीभाषी लोगों में 'निरहुआ' के नाम से विख्यात दिनेश लाल यादव ने मनोज तिवारी के बाद भोजपुरी का खूब दोहन किया।इनके फूहड़ और भद्दे गीतों से हमारे यहाँ औरतें और लड़कियां फाल्गुन के महीने में घर से निकलना नहीं चाहतीं। 'निरहुआ सटल रहे' टाईप गीतों से महिलाएं अक्सर आंख झुकाते दिख जाती हैं। बिरहा शैली को नयी पहचान दी है दिनेश यादव ने। इनकी निरहुआ रिक्शा वाला और पटना टु पाकिस्तान फिल्म चर्चित रही। लेकिन दर्जन भर नाम ऐसे थे जो इनसे करोड़ गुना बेहतर थे। मनोज तिवारी 'मृदुल' भारत के एकमात्र ऐसे अभिनेता हैं जिनपर नीदरलैंड ने डाक-टिकट जारी किया।लेकिन फूहड़ता की नदी में इन्होंने भी समयानुसार स्नान किया और उसी क्रम में दिनेश भी हैं।
मैंने चुपचाप अखबार रख दिया। फेसबुक से दिनेश लाल यादव जी को अन्फ्रेंड किया और चुपचाप शांति से बैठ गया... एकदम मुर्दा शांति से।
      मुझे मुख्यमंत्री जी से कोई शिकायत नहीं। दिनेश लाल यादव जी से भी कोई शिकायत नहीं। यश भारती पुरस्कार की चयन प्रक्रिया से भी कोई शिकायत नहीं। यकीन कीजिए मैं शांत बैठा हूँ....एकदम मुर्दा शांति से।
... लेकिन पाश ने कहा कि सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना। शायद मैं खतरे के निशान से ऊपर जा रहा हूँ। और उत्तर प्रदेश ????
नहीं! नहीं!!कुछ नहीं पूछना है मुझे। मुझे शांत बैठना है... एकदम मुर्दा शांति से।
असित कुमार मिश्र
बलिया

Monday, March 7, 2016

बड़ा बेशरम हूँ मैं (कहानी)

प्रिय आरती!
मैं कुशल हूँ, तुम्हारे कुशलता की कामना है।इधर स्त्री दिवस आ रहा है इधर पता नहीं क्यों तुम्हारी याद आ गई। हां, कुछ गलतफहमियां भी होंगी ही तुम्हें, मुझे लेकर। सोचा कि आज माफी मांग लूं।
        मुझे याद है वर्ष तेरह के गर्मियों वाले दिन थे वो, जब तुम हमारे कोचिंग में आई थी बी ए के बाद बैंकिंग की तैयारी करने। शायद वो चौथा या पांचवा दिन रहा होगा तुम्हारा, जिस दिन तुमने मुझसे कहा था कि - सर कोचिंग के बाहर एक लड़का सीटी मार रहा है।
मैंने तुम्हें 'अवाइड' करने की सलाह दी थी। तीन दिन बाद तुमने फिर कहा था मुझसे कि - सर कुछ लड़के गाना गा रहे थे मेरे आने पर कि - तुम जो यूं बल खा के चलती हो... टाइप।
मैंने तुम्हें डांट दिया था कि - चुप रहो! दुबारा इस टाॅपिक पर बात मत करना। मैं कोचिंग के बाहर के मामले नहीं देखता।
            पुष्पा ने मुझे बताया था कि तुम क्लास में रो रही थी। और यह भी कहा था कि - असित सर तो बड़े बेशरम हैं। मैंने अनसुना कर दिया और भूल इस घटना को। तुम कटने सी लगी थी मुझसे, मैं महसूस कर रहा था। लेकिन मैंने अपनी ओर से कोई पहल नहीं की थी। हां, तभी पता चला कि तुमने दारोगा का फार्म भरा है और कोचिंग की सभी लड़कियों से ज्यादा मेहनत कर रही हो। सामान्य हिन्दी में भी तुम कुछ कमियों के बावजूद अच्छी थी।फिर तुम्हारा कोर्स खत्म हो गया। तुम कोचिंग से चली गई और मैं दूसरे 'आरत-आरतियों' में लग गया।
         शायद छह महीने बाद तुम फिर कोचिंग आई थी एक दिन।खाकी रंग की पैंट और गुलाबी समीज पहन कर। लेकिन तब मैं कोचिंग छोड़ चुका था (समयाभाव के कारण)। शायद कोचिंग से थोड़ी दूर रास्ते में खड़े दो - तीन लडकों ने हमेशा की तरह सीटियां बजाईं थी....। इस बार तुम एक पल के लिए रुकी थी, लाल चमड़े का बेल्ट निकाला था और अगले ही पल सीटियां बजाने वाले होंठ बचाओ बचाओ चिल्ला रहे थे। और तीन मिनट बाद उन तीनों को भागते हुए देखा था लोगों ने।
फिर तुम कोचिंग में आई और तुमने वाचस्पति सर से कहा था कि - मुझे कोचिंग की सभी लडकियों की काॅमन क्लास चाहिए।
उन्होंने अनुमति दे भी दी। और उस दिन पूरी लड़कियों में जो जोश भरा तुमने, यह उसी की देन है कि आज उस कोचिंग के बाहर सीटी बजाने वाले खड़े नहीं होते। लडकियां बेझिझक आती जाती हैं। और सुना है मैंने कि आखरी बैच शाम के छह बजे खत्म होता है। तुमने वह कर दिखाया जो मैं नहीं कर सका था।
           यह तो थी तुम्हारी कहानी, अब मेरी कहानी सुनो- जब तुमने मुझसे कहा था कि - सर एक लड़का सीटी मार रहा है। तो मैंने तुम्हारे चेहरे पर खौफ़ देखा था.... कोचिंग की सभी लडकियों के चेहरे पर एक अनजाना डर महसूस किया था मैंने। मुझे लगा कि तुम्हें इन सीटियों से नहीं इस खौफ़ से बचाना है मुझे। इसलिए मैंने डांटा था तुम्हें, ताकि तुम विरोध कर सको। तुम थोड़ी सी ज्यादा कमजोर थी तब, इसलिए मैंने वाचस्पति सर से कहा था कि इसे दारोगा का फार्म भरवाइए।
और जैसे ही तुम्हें वर्दी की ताकत मिली तुम उस खौफ़ से बाहर हो गई। और उस खौफ़ से बाहर निकलने की देर थी, कि तुम सीटियों और फब्तियों की खौफ़ से भी बाहर निकल आई। यही नहीं, कोचिंग की वह सभी लड़कियां भी तुम्हारे इस कदम से उस खौफ़ से बाहर निकल आईं, जिस खौफ़ को उस दिन मैंने उनके चेहरे पर देखा था।
मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकता था। उस लड़के को डांट कर भगा दिया होता यही न! लेकिन जिस बैंक में तुम क्लर्क होकर जाती वहां बजने वाली सीटियों को मैं कैसे चुप कराता? बनारस दिल्ली इलाहाबाद पटना हर जगह का यही हाल है मेरी बच्ची! मैं कहां कहां और किस किस आरती की मदद करता?
इसीलिए मैंने तुम्हें पढा - समझा, और तुम्हारे भीतर खुद ही सामना करने की यह आग जला दी। जिस समय तुम कामन रुम में अपनी गजब की हिम्मत से लड़कियों में जोश भर रही थी, उसी समय वाचस्पति सर ने बाहर वाले कमरे से (जिसमें घड़ी है) फोन किया था मुझे। और कहा था कि - मान गए भाई! आपने जैसा कहा था वैसा ही हो रहा है।
        आरती! मैं कत्तई यह नहीं कह रहा कि देश की सभी लड़कियां दारोगा हो जाएं। लडकों को देखते ही चाकू निकाल लें। हिंसा करें। नहीं! मैं कभी भी पितृसत्ता के 'खिलाफ' मातृसत्ता का समर्थक नहीं। मैं बस यह कह रहा हूँ कि तुम खुद जहां हो जिस हाल में हो वहीं अन्याय का विरोध करो। याद रखना जिस दिन बनारस दिल्ली पटना इलाहाबाद में बजने वाली सीटियों के खिलाफ कोई एक भी चूड़ियों वाली कलाई खड़ी हो जाएगी उसी दिन से सीटियां बंद। किसी असित सर के सहयोग की कोई जरूरत ही नहीं। तुम खुद समर्थ बनो। बहुत होगा तो दो चार खरोंचें आएंगी तुम्हें भी, एक दो थप्पड़ लग जाएंगे तुम्हें भी। लेकिन इन सीटियों के खौफ़ से, साड़ी के फंदे में झूलने से बेहतर है एक दो थप्पड़ खा लेना।
           अच्छा! छोड़ो यह सब। हां, तुम्हें पढ़ाने में हो सकता है मैंने एक दो थप्पड़ मार दिए हों, या कुछ कटु वाक्य बोलें हों.... तो माफ कर देना मुझे।
और हां, आखिरी बात! तुम्हें यहीं रुकना नहीं है। मैं तुम्हें आई पी एस देखना चाहता हूं। फार्म आते ही डाल देना। और अगर कुछ दिनों की छुट्टी लेकर आओगी यहां, तो मैं ही पढाऊंगा तुम्हें फिर। लेकिन फिर पीटूंगा भी तुम्हें... फिर कटु वाक्य भी बोलूंगा तुम्हें... और फिर माफी भी मांग लूंगा तुमसे। क्या कहा था पुष्पा से तुमने कि मैं बड़ा बेशरम हूँ न! हां, यही हूँ! हा हा हा।
खुश रहो मेरी बच्ची।
असित कुमार मिश्र
बलिया

Thursday, March 3, 2016

नाम - नाम सत्य है निबंध


शीर्षक से चौंकने की आवश्यकता नहीं! गलत नहीं लिखा है, गलत लिखूंगा भी नहीं। क्योंकि यही गलती तो इस निबंध का कारण है।
भले ही रेख्ते के उस्ताद गालिब ने कहा हो कि 'नाम में क्या रखा है' लेकिन नाम की महत्ता पर संदेह नहीं किया जा सकता। नाम, नाम ही है भले ही उल्टा-सीधा क्यों न हो। तभी तो महर्षि वाल्मीकि के बारे में कहा गया है कि -
उल्टा नाम जपत जग जाना। बाल्मीक भये ब्रह्म समाना।
मानस में गोस्वामी जी नाम की महत्ता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि -
रूप विसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें।
सुमिरिअ नाम रूप बिन देखे। आवत हृदय सनेह विसेषे।।
अर्थात् नाम के बिना रूप की विशिष्टता को नहीं जाना जा सकता। इसे हथेली पर रखकर भी पहचाना नहीं जा सकता। क्योंकि बिना रूप को देखे भी नाम का स्मरण करने से विशेष प्रेम के साथ वह रूप हृदय में प्रकट हो जाता है।
           मैं नाम के स्वभाव, रूप के सापेक्ष उसकी महत्ता आदि पर शास्त्रीय विमर्श नहीं करना चाहता। मैं तो दैनिक जीवन में इन नामों के कारण होने वाली कठिनाइयों का उल्लेख मात्र करना चाहता हूं।इस नाम रुपी भवसागर में मुझ जैसे अज्ञ से लेकर आप जैसे विज्ञ तक सभी फंस कर चक्कर काटते रहते हैं। और कमाल यह कि ऐसे कठिन समय में भी बचने का आधार क्या है- यही नाम! 'कलियुग केवल नाम अधारा'।
मसल वही कि' उसी को देखकर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले'।
           मेरे अंग्रेजी के गुरुदेव बहुत विद्वान सरल और सहज हैं। मेरा सौभाग्य कि मुझे उनके साथ डर डर कर पढ़ाने का अवसर मिला। वो अक्सर नोबेल पुरस्कार विजेता टाॅमस स्टर्न्स इलियट की इस थ्योरी को मेरे दिमाग में भरते रहते थे - poetry is not a turning loose of emotion but an escape from emotion. it is not the expression of personality, but an escape from personality. अर्थात् कविता कवि व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व से पलायन है।
मैं डर डर कर कहता कि यही बात तो हिंदी में भी है आसान भाषा में कि - ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे....। गुरुदेव बस पीटते ही नहीं थे मुझे,नि:संदेह यह बड़प्पन था उनका।
         एक बार यही गुरुवर बाजार से जूता लाए, पहना, और 'जीर्णावस्थाया: प्राप्तकाले' पता चला कि यह 'गोल्ड स्टार' नहीं 'ग्लाड स्टार' है। यही नाम का जगत व्यापार है। आप बुद्धि व्यापार में भले ही निष्णात् हों इस नाम के छद्म रुप को भेदने की कला भी आनी चाहिए।
ऐसा नहीं कि जो व्यक्ति जाॅन ड्राइडन, स्काट जेम्स और सेन्ट्सबरी जैसे कठिन लेखकों को पढता-समझता हो वो 'गोल्ड स्टार' और 'ग्लाड स्टार' में अंतर न समझ सके। पर नाम के हाथों छलना लिखा था न! क्या करे कोई? क्या राम नहीं जानते थे कि काञ्चन मृग नहीं होता।
             इसी नाम की एक और ऐसी ही अवस्था तब आती है जब विवाह का निमंत्रण पत्र हाथ में हो। और लाल अक्षरों में लिखा शब्द सामने हो - 'गनेश परिणय पारबती'। नीचे स्वर्णाक्षरों में' बाल अनुरोध' कि - 'मेले मामा की छादी में जलूल से जलूल आना'।
अब संदेह उस आचार्य प्रवर कुलगुरु की विद्वता पर होता है, जिसने विवाह के पहले गण वंश गोत्र कुल इत्यादि पर तो ध्यान दिया लेकिन' गनेश परिणय पारबती' पर?  'मौनं एवास्ति'!
यहाँ तरस उस लौकिक गनेश पर आता है जिसने पारबती का वरण प्रिया के रूप में किया है।
नाम के इसी गुण को आप वाहनों के शीशे पर बलात् चिपकाए गए 'पांडेय परिवार' के साथ वाले पोस्टर्स पर भी देख सकते हैं जहां छपा होता है - संतोष परिणय अनुराग। इसे देखते ही लगता है कि हम अकस्मात् उन यूरोपीय देशों में आ गए जहाँ समलैंगिक विवाह की भी मान्यता है। यह पता करना ही कठिन है कि कौन वर है कौन वधू?
कहीं कहीं वाहनों को ढंकते हुए सर्वव्यापी बोर्ड 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' के साथ, एक छोटा बोर्ड और होता है जिस पर लिखा होता है -
राणा समरवीर बहादुर सिंह तोमर परिणय सोनी।
ऐसा लगता है मानों हाथी के साथ हरिणी को बांध दिया गया हो।
          बाज़ार भी अब ऐसी जगह बन गई है जहां 'नाम' किसी नटी की तरह नित्य लीलाएं कर रहा है। कोई सरल हृदया ग्रामीण बाला 'सास बहू सीरियल' के बीच में 'सात दिनों में पाएं गोरी त्वचा' वाले विज्ञापन देखकर, फेयर एण्ड लवली खरीद लाती है। लगातार चौदह दिन उसकी त्वचा रुपी आत्मा फेयर एंड लवली रुपी परमात्मा से एकाकार होती रहती है तब पता चलता है कि ओह! यह तो 'फेस एंड लवली' है। इसीलिये मेरी त्वचा गोरी नहीं हुई। हाय रे नाम!
बालों के सफेद होने के भय से भीता नायिका महीने भर 'केश निखार' लगाने के बाद भी यह नहीं जान पाती है कि यह केश निखार नहीं 'केश निसार' है।
         इधर व्यापार ने अपने व्यवसाय का तरीका बदल लिया है।अब चीजें देश से जोड़ी जाने लगी हैं । क्रिकेट जैसे खेल में भी टीम नहीं हारती जीतती। देश हारता जीतता है। तेल मसाले से लेकर दाल चावल तक देश का कहा जाने लगा है। महात्मा गांधी ने नमक कानून देश के लिए तोड़ा हो या नहीं, टाटा नमक 'देश का नमक' जरुर है।
कल संध्या समय मैं भी साबुन तेल नमक चीनी जैसी गृहोपयोगी वस्तुएं लाने बाजार गया था। दुकानदार श्री वर्मा जी ने पूछा था - ए बाबा! 'नमकवा' कौन सा दें?
यही बलिया है, भोजपुरी का हार्टलैण्ड। यहां हर चीज में प्रत्यय लगा कर बोला जाता है। 'नमक' यहां 'नमकवा' हो जाता है। मेरे दिमाग में भी नमक से पहले देश उभर आया और स्वत: मुख से निकला - 'टटवा' नमक ही दीजियेगा।
वर्मा जी के सहायक श्री बेदर्दी जी ने सारे सामान थैले में रखकर थैला दे दिया।
घर आते ही इस नमक ने अपने नाम का रुप दिखा दिया। यह सच में 'टटवा नमक' ही था। अब अजीब हास्यास्पद स्थिति हो गई थी। गाँव की भौजाईयां भी हंस कर कहने लगीं कि - का जी बबुआ! एमए, बीए करना सब अकारथ गया आपका।
और मैं नियति नहीं! नहीं!! नाम पर स्तब्ध था। मैं क्या जानता था कि सच में टटवा नमक भी हो सकता है। मैं दुकानदार वर्मा जी के पास गया और बोला कि वर्मा जी आपने मुझे गोल्ड स्टार के जगह पर ग्लाड स्टार धरा दिया? फेयर एंड लवली की जगह फेस एंड लवली धरा दिया? टाटा नमक की जगह टटवा नमक धरा दिया?
वर्मा जी ने कहा था - बाबा आप ईहे 'नमकवा' तो मांगे थे।
फिर नमक से नमकवा हो रहा है। खैर मैंने दोनों नमक, टाटा और टटवा का चित्र ले लिया है। और सारी स्थिति भी स्पष्ट कर दी है। मन करे तो हंस लीजिएगा मेरे एमए, बीए करने पर। या नाम के इस छल व्यापार पर। लेकिन यह जरूर कहूंगा कि - 'नाम - नाम सत्य है भाई' ! अकाट्य सत्य।
असित कुमार मिश्र
बलिया