Monday, April 18, 2016

पादुका पुराण

पिछले दिनों मंदिर के बाहर से भरत सम किसी भाई ने मुझे राम जानकर मेरी पादुका पार कर दी। निजी गुप्तचरों के लाख प्रयास के बाद भी उस पादुका ग्राही व्यक्ति का पता नहीं चल पाया। किसी आम आदमी की पादुका चोरी होना नितांत साधारण घटना है, इसलिए इस पर कोई चर्चा नहीं होती, खबर जैसा कुछ नहीं बनता।आम आदमी होना कितना महत्वहीन है,  कितना तथ्यहीन है , यह बस वही समझ सकता है जो आम आदमी है। विदीर्ण होते हृदय को सांत्वना कैसे दूं समझ में नहीं आ रहा।
      अगर आज मैं राजनीति वाले किसी पद पर होता तो पादुका की क्या कमी होती? आजकल जनता वो नाजुक नाजुक, सुंदर सुंदर जूते नेताओं पर फेंक रही है कि क्या कहने!
कल ही टीवी पर रेड एंड चीफ के सीईओ सिरी सुमेसर परसाद जी बता रहे थे कि - हमारी कंपनी के जूते इतने सॉफ्ट,कंफर्टेबल और पकड़ में मजबूत हैं कि युवा वर्ग इन्हें पहनने के लिए कम,नेताओं पर फेंकने के ज्यादा प्रयोग कर रहा है।
'आउटलुक' पत्रिका भी 'सेक्स सर्वेक्षण' जैसे कालजयी मुद्दे को छोड़कर अब इसी पर रिसर्च कर रही है कि पिछले पांच सालों में नेताओं पर किस कंपनी के जूते ज्यादा फेंके गए।
     अगर मैं साहित्यिक जगत से संबंधित होता तो 'प्रेमचंद के फटे जूते' टाईप प्रसिद्ध रचनाएँ मुझ पर लिख दी गई होतीं। और आज मैं किसी साहित्यिक अकादमी के सचिव पद का प्रबल दावेदार माना जाता। साहित्यिक साथी गण मेरे पादुका चोरी की घटना पर विह्वल होकर 'हाय असहिष्णुता-हाय असहिष्णुता' का जाप करते हुए मोदी जी से इस्तीफे की मांग कर रहे होते। और साथी कवयित्रियां 'काव्य संध्या' के आयोजन के लिए पडोसी पाकिस्तान में कोई अच्छी जमीन तलाशने के बाद इकोनॉमी क्लास के टिकट की मांग कर रही होतीं।
       इधर अगल बगल घटनाएं तेजी से घट रही हैं। सुना है गुड़गांव का नाम गुरुग्राम कर दिया गया है। हमारे गाँव के सिरी छेदीलाल जी इससे बड़े दुखी हैं। उनका मानना है कि मुझे 'जार्ज होल' कहा जाए या 'सूराख अली' रहूंगा तो चाय वाला छेदीलाल ही न। लेकिन विपक्ष में खड़े पान की पीक को 'समाजवाद' की तरह घोंट रहे मिश्रौली गांव के परधान जी का कहना है कि- बेटा हमरे गांव का नाम अगर आज मिश्रौली की जगह सैफई होता न बता देते तुमको कि नाम का फरक क्या होता है। बूझि गए न!
अब शायद छेदीलाल जी बूझ गये हैं और चुपचाप चीनी चाय अदरक और पानी का महागठबंधन तैयार कर आग पर रख रहे हैं।
                सच कहूं तो इन बातों में मेरा मन नहीं लग रहा। मेरी स्थिति गहन गिरि कानन कुञ्ज लता गुल्मों में भटक रहे राम जैसी ही है,जो हर वन प्राणियों से पूछ रहे हैं - 'तुम देखी सीता मृगनयनी'।
हालांकि मेरी पादुका बहुत नई नहीं थी फिर भी साहचर्य जनित प्रेम तो हो ही गया था।मन उसकी स्मृति में रह रह कर भावुक हो रहा है। न जाने किन कठोर पांवों के राहुल गांधी तुल्य असहनीय भार को वहन कर रहा होगा।
बहुत कीमती नहीं थी मेरी पादुका लेकिन एक जोड़ी जूते की कीमत 'धूमिल' का 'मोचीराम' ही जानता है, तभी तो उसने कहा कि -
मुझे हर वक्त यह ख्याल रहता है कि जूते
और पेशे के बीच
कहीं न कहीं एक 'अदद आदमी' है
जिस पर टांके पड़ते हैं
जो जूते से झांकती हुई अंगुली की चोट
छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है।
            अखबार में इधर की बड़ी खबरें दिख रही हैं। कहीं भारत माता की जय का उद्घोष है जिसे खूबसूरती से वोटों में बदला जा रहा है, तो कहीं नीतीश कुमार जी संघ से आजादी चाहते हैं, तो कहीं युवाओं के दम पर अखिलेश यादव जी चुनाव का शंखनाद कर रहे हैं, तो कहीं अरबों रुपये का आई पी एल है ....और जनता वही 'अदद आदमी' है जो आज भी अंगुली की चोट छाती पर हथौड़े की तरह सह रही है।
वही 'अदद आदमी' जिसकी बात कोई नहीं करता और जो कहीं पलायन, कहीं बाढ़, कहीं सूखा, कहीं बेरोजगारी, कहीं भ्रष्टाचार और कहीं पानी के लिए मर रहा है।लेकिन अब सबकी समझ में आ रहा है कि कैसे कोई राबर्ट वाड्रा दिन पर दिन अमीर होता जा रहा है जिनकी कुल योग्यता यही है कि वो राजशाही परिवार के सदस्य हैं। और कैसे कोई होरी आज भी बैल के पगहे में लटक कर जान दे देता है। उसकी छोटी सी योग्यता यही है कि वो सैकड़ों का पेट पालने वाला अदद आदमी है। अब सबकी समझ में आ रहा है कि कैसे 'युवा वर्ग' का आह्वान करने वाले समाजवादी रथ ने अपने पहिए से सबसे ज्यादा युवाओं को ही रौंदा है।
राजनीतिक दलों को अब समझ जाना चाहिए कि उसी 'अदद आदमी' का जूता एक दिन अचानक गायब हो जाता है, और जब अंगुली की चोट छाती पर हथौड़े की तरह सहन करने से इन्कार कर देता है तो एकाएक उछल पड़ता है और कहीं भाषण पिलाते हुए मंच पर अचानक प्रकट हो जाता है। आज तो बस मेरे जूते गायब हुए हैं, जिस दिन सबके जूते गायब होंगे, उस दिन अंगुली की चोट हथौड़े की तरह सहने वाला हिमालय की तरह चोट करेगा।
क्योंकि - "असल बात तो यह है कि
वह चाहे जो है
जैसा है जहाँ कहीं है
आजकल कोई आदमी जूते की नाप से बाहर नहीं है"
इसलिए समय आ गया है कि ढूंढिए - मेरे 'जूते' नहीं! वही 'अदद आदमी'। जिसकी बात कोई नहीं करता....

असित कुमार मिश्र
बलिया

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