Thursday, April 21, 2016

समानांतर कहानियां

धूल भरी हवाओं और तेज़ धूप वाले चैत महीने का तीसरा पहर तो जैसे जान ही ले लेता है।रह रह के कहीं कोयल कूक उठती है। कहीं अचानक कोई महुआ टपक पड़ता है और कहीं आम की बौर में लुकाए कौए शोर मचाते रहते हैं।
इस सख्त धूप में भी वादों और उम्मीदों की फसल एक साथ लहलहा रही है क्योंकि चुनाव की सरगर्मियां भी बढ़ गई हैं और शादियों की खरीदारी भी।इसी में शक्ति बाबू का विवाह भी था कल। रास्ते में गजब की भीड़ एक ओर बारात के गाड़ियों की जल्दबाजी जैसे दुल्हन को अभी उठा लाना हो, और दूसरी तरफ चुनावी सभा करके लौट रहे केसरिया झंडों का जुलूस जैसे किसी सम्राट का दिग्विजय रथ निकला हो। मेरे गाड़ी के ड्राइवर ने इज्ज़त (शायद खौफ़) से गाड़ी किनारे खड़ी कर ली। अचानक नगाड़े के आकाशभेदी ध्वनि से वातावरण कांप उठा था। मैंने देखा शक्ल सूरत से मुसलमान दिखने वाला व्यक्ति 'युद्ध नाद' बजाए जा रहा है... बजाए जा रहा है। मुझे यह धुन बहुत पसंद है, क्योंकि वाद्ययंत्र वादक और वातावरण तीनों एक साथ उत्साहित हो उठते हैं। 'युद्ध नाद' अलग तरह की शैली है। बजाने वाला जैसे बरछी चला रहा हो, वही युद्धोन्माद चेहरे पर भी होता है और नगाड़े की आवाज में भी। शत्रु पक्ष में खौफ छा जाता है और मित्र पक्ष में जैसे उन्माद।
गाड़ियों की भीड़ गुजर जाने के बाद मैंने उस वादक से पूछा - चचा कितना पैसा मिलता है?
चचा ने झिझकते हुए कहा - साठ रुपए ...
मैंने पूछा - इस लडके को कितना मिलता है?
चचा ने कहा - ई तो बच्चा है। सीख रहा है अभी। इसको दस बीस रुपए बख्शीश मिल जाए वही बहुत है।
ओह! चेहरे पर आए इस दर्प, स्वाभिमान और आक्रामकता के पीछे कितनी गरीबी दयनीयता और करुणा है।
मैंने कहा - कौन सी पार्टी जीतेगी चचा?
उन्होंने कहा - मोदिया की पार्टी जीतेगी।
मैंने कहा - क्या होगा मोदी जी के जीतने से?
चचा की आंखों में चमक आ गई और बोले -हम बुनकरों पर भी ध्यान देने को कहें हैं मोदी।
मैंने पूछा - अच्छा चचा नाम क्या है आपका?
उन्होंने कहा - नसीर ....
अचानक मैंने उस बुनकर नसीर के कुर्ते की पीठ पर सटाई गई कपड़ों की चकत्तियां देखीं। मन भर आया... चुपचाप गाड़ी में आकर बैठ गया।
             भोपाल की गलियों में धूप का असर ज्यादा नहीं होता।लेकिन पसीना खूब निकलता है। प्रकृति का शहर है भोपाल।पहाडी झरनों और पेड़ों की सुंदरता से सजा हुआ एक मेहनती प्रदेश।
इसी शहर की एक तंग गली में साइकिलों के पंचर बनाने की एक दुकान के सामने एक बड़ी सी गाड़ी बल खाते, बचते बचाते आ कर रुकी थी। गाड़ी से निकल कर उज़ैर खान साहब ने पूछा - मोहतरम नसीर खान साहब कहां मिलेंगे?
पंचर बनाने वाले उस आदमी ने उड़ती हुई सी नज़र डाली और काम में लगा रहा।
दो मिनट बाद फिर उज़ैर साहब ने कहा - जनाब नसीर खान साहब...
मैं नहीं जानता किसी नसीर खान को- पंचर बना रहे बूढ़े की आवाज भी कांपी और हाथ भी।
उज़ैर साहब ने कहा -अगर मैं आपके अज़ीज़ जनाब मो उमर खान का बेटा होता तो भी दो मिनट का वक्त न देते आप?
बूढ़े की गीली आंखों ने पानी जज़्ब करते हुए कहा- आइए!
उज़ैर खान साहब वक्त की इस संगसारी पर हैरान रह गए। कभी यह बूढ़ा अदब की शान हुआ करता था। इसकी गजलों रुबाइयों और कलामों पर शहरेअदब रश्क करता था। और आज इस अजीम शख्सियत की यह हालत?
उज़ैर खान साहब के हाथों पर एक शेरवानी धरते हुए बूढ़े ने कहा - बेटा यही आखिरी निशानी है मेरी आवारगी की।
उज़ैर साहब ने नरम हाथों से टटोला होगा उस शेरवानी को जिसकी तहों में किसी लेखक के गुमनामी की कहानी दर्ज होगी। जिसकी सलवटों में तवारीख का एक एक कोना खून से लथपथ होगा। उज़ैर साहब के कुछ पाक आंसू भी गिरे होंगे उस पैरहन पर...। उज़ैर साहब ने कहा होगा कि मैं किसी अकादमी से बात करता हूं। आपके भी कलाम शाया होंगे। दुनिया आपकी सही कीमत जानेगी। यह सुनकर नसीर खान की आँखों में एक चमक कौंधी होगी...।
              मैं गुजरते हुए इस जुलूस के गौरव को महसूस कर रहा था। नगाड़े की आवाज मेरे अंदर बम फटने जैसे लग रहा थी । मैंने ड्राइवर से कहा - जल्दी चलिए यहां से बहुत शोर हो रहा है।
ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढा दी थी लेकिन नसीर के नगाड़े की आवाज अब भी सुनाई दे रही थी। तभी मोबाइल की आवाज ने मेरा ध्यान खींचा। उज़ैर खान साहब का फोन है। मैंने फोन उठाया। उधर से आवाज आई - असित भाई आज एक नसीर साहब से मिलना हुआ।
मैंने कहा - सर, मेरा भी नसीर से मिलना हुआ।
उन्होंने कहा - यार ऐसा नहीं होना था नसीर साहब के साथ।
मैंने कहा - जी सर ऐसा नहीं होना था नसीर के साथ।
उन्होंने कहा - मैं सोच रहा हूँ कि आखिर कौन दोषी है नसीर के इस हाल के लिए। मैंने कहा - जी सर मैं भी सोच रहा हूँ कि कौन दोषी है नसीर के इस हाल के लिए।            उज़ैर साहब ने कहा - यार तुम मेरी ही बात क्यों दुहरा रहे हो?
मैंने फोन काट दिया। क्या कहता कि उज़ैर साहब! ऐसी अनगिनत समानांतर कहानियां रोज घट रही हैं हमारे चारों ओर। कोई भोपाल का नसीर है कोई बलिया का। कोई हिंदू धर्म का नसीर है कोई मुसलमान धर्म का। अकादमियों के अध्यक्ष बदलते गये सत्ता के केंद्र बदलते गये लेकिन नहीं बदली तो नसीर की किस्मत।
उज़ैर सर ने फिर फोन किया है - असित मुझे नसीर साहब की आवाज अब भी सुनाई दे रही है।
मैंने थोड़ा ध्यान से सुनने की कोशिश की। नसीर के नगाड़े की आवाज... हाँ हल्की-सी आवाज अब भी आ रही है... उफ़ ये समानांतर कहानियां।
असित कुमार मिश्र
बलिया

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