Friday, April 8, 2016

ढाई आखर प्रेम का....

सुश्री गीताली जी की गणना तिनसुकिया (असम) के प्रतिष्ठित अध्यापकों में होती है। उन्होंने शिक्षा पर कुछ लिखने का आदेश दिया है।बडा अच्छा लगा जानकर कि गोरखपुर में तो बाकायदा अध्यापकों ने टीम बना रखी है कि कैसे शिक्षा प्रभावी रुप में दी जाए जिनमें बहन प्रीति गुप्ता और रिवेश प्रताप सिंह सर शामिल हैं।
           शिक्षा को लेकर पूरा ढांचा ही उल्टा है।पहले एक कहानी सुना लूं -आठ दस साल पुरानी बात है गाजीपुर के एक पंडीजी इलाहाबाद में सिविल की तैयारी करते थे। कभी मेन्स में अटकते कभी इन्टरव्यू में। दोस्तों ने सलाह दी कि- जा के कहीं से बी एड् मार लो। नहीं तो बियाह भी नहीं होगा।
पंडीजी औसत जजमानी वाले घर से थे। टेस्ट में सरकारी कालेज मिल गया तो कम पैसे में ही हो गया। और संयोग कि तुरंत नौकरी मिल गई बलिया जिले में। ज्वॉइन करने के बाद पंडीजी ने अपना दिमाग लगाया।रात को स्कूल में ही सोते थे। सामान के नाम पर एक तकिया चटाई और दो तीन कपड़े। स्कूल के बाद उन्हीं बच्चों को कोचिंग पढाने लगे। पहले तो किसी ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन जब उन्हीं बच्चों का केन्द्रीय विद्यालय नवोदय विद्यालय सी एच एस आदि में चयन होने लगा तो गांव के किसी व्यक्ति ने अपने घर का बाहरी कमरा पंडीजी को आफर किया। कोई चौकी लगा गया कोई ताजी दही दे जाता।
इधर गांव के कुछ सम्मानित लोगों ने पंडीजी से कहा कि हमारे बच्चों को भी पढाइए।
पंडीजी ने कहा कि हम केवल सरकारी स्कूलों के बच्चों को ही पढाते हैं।
सम्मानित लोगों ने अप्लीकेशन डाल दिया कि हमारे स्कूल का मास्टर मन का मालिक है। बारह बजे आता है छह बजे तक पढाता है। मतलब कोई टाईम टेबल नहीं है। जांच बैठ गई एक दिन बेसिक शिक्षा अधिकारी छह बजे पहुंचे तो देखा कि सच में प्रायमरी स्कूल के बरामदे में क्लास चल रही है। खिसिया कर पंडीजी की ओर आए और चौंक गए। अचानक मुंह से निकला - अरे पंडितवा तूं ईहां कैसे?
पंडीजी भी भावुक हुए अपने रूममेट को अधिकारी के रुप में देखकर। दौड़ कर लिपट गए। भरत मिलाप के बाद घर ले गए। रास्ते में किसी से बोल दिया कि ए चाची पानी भेजवाइए। किसी से कह दिया कि खाना भेजवाइए। कोई दही लेकर आया कोई घी में बना हलुवा।
अधिकारी साहब आश्चर्य चकित होकर एक लाईन लिख कर भेज दिए कि पंडितवा तो यूपी का आनंद कुमार है।
छब्बीस जनवरी को जिलाधिकारी ने पांच सौ रुपए और अंगवस्त्रम् से सम्मानित भी कर दिया। लेकिन आलोचकों ने फिर अप्लीकेशन डाला। इस बार न पहले वाले बेसिक शिक्षा अधिकारी थे न जिलाधिकारी। पंडितजी सस्पेंड कर दिए गए। थोड़ा बहुत बवाल मचा। गांव वाले धरना प्रदर्शन करने लगे। अंततः पंडीजी बहाल हुए।
         हो सकता है यह कहानी लग रही हो।बहुत शार्टकट में सुनाई है कहानी। पंडीजी आज भी सोनभद्र में तैनात हैं और बेसिक शिक्षा अधिकारी लोग शिक्षा में सुधार कैसे हो यह सीखने आते हैं उनसे। सस्पेंड और जांच से ऊपर की चीज हैं वो पंडीजी।
अब बात करता हूं वर्तमान शिक्षा की। लोग प्राथमिक विद्यालय में जूनियर विद्यालय में नियुक्त होकर सिविल की तैयारी करते रहते हैं।साथी अध्यापक गण गर्व से बताते हैं कि जो एस डी एम बना है वो मेरे विद्यालय में पढाता था हमारे साथ...। इसीलिये मैंने कहा कि शिक्षा का ढांचा उल्टा है। व्यक्ति ज्वॉइन करने के बाद भी शिक्षक नहीं बन पाया वह मन से तो एस डी एम है। पढाएगा क्या? शिक्षक सुनना तो उसे गाली जैसा लगता है वह शिक्षक होकर भी नहीं है। ये बस एक ऐसे प्लेटफॉर्म पर हैं जहां से उन्हें बीस हजार रुपये मिल रहे हैं और तैयारी का समय भी। मौका मिला कि बत्ती वाली गाड़ी पर सवार होकर निकल गए और अध्यापक वाली कुर्सी फिर किसी भावी एस डी एम का इंतजार करने लगी।
कुछ तो चालीस की उम्र तक तैयारी करते रहते हैं। बाकी के बीस साल इसी फ्रस्ट्रेशन में निकल जाते हैं कि साला मैं एस डी एम कैसे नहीं बना? अब सोचने वाली बात है कि वो पढाए क्या होंगे जीवन में।
दरअसल हमने अपना आदर्श माना है सर्वपल्ली राधाकृष्णन को। जो अध्यापक के पद से राष्ट्रपति पद तक पहुंचे। निश्चित ही शिक्षा संबंधी उनके विचार अमूल्य हैं और उनका योगदान अतुलनीय। लेकिन यह तो प्रतियोगिता हुई। बैंक का चपरासी भी मैनेजर बनने के लिए लालायित है। लेक्चरर, असिस्टेंट प्रोफेसर बनना चाहता है। असिस्टेंट जो है वो प्रोफेसर बनने के लिए व्यग्र है। जो प्रोफेसर हैं वो विभागाध्यक्ष, जो डीन हैं वो कुलपति और जो कुलपति है वह राष्ट्रपति बनना चाहता है। मैं पूछता हूं अध्यापक कहां गया? शिक्षक कहां गया? शिक्षक पद की गरिमा तो तब होती न जब कोई राष्ट्रपति कहता कि भाई मैं अध्यापक बन कर खुश रहूंगा। मुझे उसी पद पर तैनात करो।
गाजीपुर वाले पंडीजी के पास पर्याप्त अवसर था कि वो फिर से मनोयोग से सिविल में लग जाते लेकिन उन्होंने शिक्षक का पद नहीं छोड़ा।सबसे पहले तो शिक्षक को स्वयं प्रतियोगिता से मुक्त होना है। वकील साहब कार से चलते हैं और हम नहीं। ऐसी सोच एकदम नहीं चलेगी।
दूसरी बात! अक्सर मैं अधिकारियों के साथ स्कूलों में जाता रहता हूँ। किसी कमरे में दस बच्चे होते किसी में पंद्रह तो कोई क्लास शून्य।
मैं पूछता हूं कि - सर बच्चे क्यों नहीं आए?
अध्यापकों का जवाब होता है - हम क्या करें घर से उठा कर लाएं बच्चों को?
मैं चुप हो जाता हूँ। सच भी है भाई! जब सैंया कोतवाल हैं तो क्या डरना?
मैं अधिकारी नहीं हूँ सवाल करने का हक नहीं है। नहीं तो पूछता कि जब बच्चे ही नहीं हैं तो आपकी क्या आवश्यकता है यहां? आप भी घर जाइए। दीवारों और कमरों को पढाने के लिए तो आपकी नियुक्ति हुई नहीं है।
उपस्थिति की समस्या सभी सरकारी स्कूलों में है जबकि प्राईवेट स्कूल एकदम भरे हुए। चलिए एक बात पूछता हूँ - नवरात्रि का समय है अंगूर आ गये हैं बाजार में। एक दुकान में एकदम ताजा अंगूर है और दुकानदार यही सोचकर चुप है कि मेरा तो ताजा है ही मुझे क्या प्रचार करना?
दूसरी ओर बासी अंगूर वाला मिनट मिनट पर चिल्ला रहा है - लीजिए भैया अंगूर। अमेरिका का ताजा ताजा अंगूर....। अब आप बताइए किसके अंगूर बिकने की संभावना ज्यादा है? जो चुप है उसका या जो चिल्ला रहा है उसका?
निश्चित ही जो दिखता है वही बिकता है। जो चिल्ला रहा है वह सफल व्यापारी है। इसी तरह सरकारी स्कूलों के अध्यापक एम ए बीएड पी एचडी नेट टेट पता नहीं क्या क्या हैं। गजब के योग्य हैं लेकिन बेच नहीं पा रहे खुद को। बता ही नहीं पा रहे अभिभावकों को कि मैं पढा सकता हूं।
कमी यहां है - जैसे ही छुट्टी हुई हेल्मेट लगाया स्कूल से गायब। अध्यापिकाएं भी हैं स्कार्फ बांधा छतरी निकाली गायब। कितने लोग हैं जो अपने क्लास के बच्चे के घर जाते हैं उनकी टुटही चारपाई पर बैठ कर कहते हैं कि - ए चाची तुम्हारा लईका न बहुत तेज है रे दरोगा बनेगा। तोर गरीबी दूर कर देगा आंखी किरिया।
कितने लोग हैं जो रास्ते में गांव के लोगों को नमस्ते भैया नमस्ते बाबू नमस्ते चाचा कहते हैं? कितनी अध्यापिकाएं हैं जो रास्ते में किसी औरत के सिर पर सहारा देकर बोझा उठा सकती हैं?
क्यों कहेंगे भाई! अट्ठाईस सौ की पे स्केल, स्विफ्ट गाड़ी, एप्पल मोबाइल है न!
लेकिन आप भरोसा कीजिए। जैसे ही गांव के टच में आप आए, आपकी उपस्थिति बढ जाएगी। जैसे ही आपने गांव के आते जाते लडकों को नमस्ते भैया कहना शुरू किया दस दिन बाद वही लडके पहले ही आपको नमस्ते दीदी नमस्ते मैडम कहने लगेंगे। आज भी कुछ नहीं बदला भगवान् की तरह पूजा होगी आपकी, लेकिन पहले भगवान् बनना होगा।
हम लोग सरस्वती शिशु मंदिर में पढाते थे। हफ्ते में एक दिन पांच बच्चे के घर तय था जाना। महीने में पांच अभिभावकों को पोस्टकार्ड लिखते थे। पांच को फोन करते थे कि आपका बच्चा हिंदी में ठीक है। उसका बटन टूटा हुआ था कल। बाल बढ गया है उसका आदि आदि।एडमिशन के टाईम माईक वाली गाड़ी लेकर घूमते थे। विद्यालय के बैनर पोस्टर चिपकाते थे। अभिभावकों से मिलते थे। कोई तीन किलोमीटर दूर ताल में गेंहू काटता था तो वहां भी पहुंच जाते थे। तब जाकर उपस्थिति शत प्रतिशत होती थी।
अक्सर मैं हैरान रह जाता हूँ सुनकर कि बच्चों को पीटने पर अभिभावकों ने अध्यापक को पीटा। कहीं जेल भी होती है अध्यापक को। अगर मुझ पर यह नियम लगता तो यह लेख भी जेल से ही लिख रहा होता। चलिए आप से ही पूछता हूँ - आप क्लास में मार नहीं खाते थे? घर आकर कहते भी होंगे। लेकिन मां बाप भाई बहन की प्रतिक्रिया होती थी कि - तुम ही कुछ किए होगे।
विचार कीजिए इस पर। पहले अभिभावक अध्यापक पर भरोसा करता था। और आज यह भरोसा एकदम नहीं है। मैं यह नहीं कह रहा कि भरोसा बना कर पीट ही दीजिये। अपना बदला ले लीजिए। मैं बस यह कह रहा हूँ कि अभिभावकों के टच में रहिए। उन्हें बताइए कि आपका बेटा बेटी मेरा भी बेटा-बेटी है। मां बाप रोज पीटते हैं कहां होता है एफआईआर? तो बिना मां बाप बने मारेंगे बच्चों को तो यही होगा। आखिर कोई अनजान व्यक्ति कैसे मार सकता है मेरे बच्चे को? वही अनजान हैं आप उस अभिभावक के लिए।
एक बहुत छोटी सी बात कहूंगा - जहां कोचिंग पढाता हूँ वहां भीड़ संभालनी मुश्किल होती है। खिड़की के पीछे से लोग पढते हैं। सिफारिश कराते हैं। अब मेरी ही नियुक्ति वहीं बगल के इंटर कालेज में हो जाए तो क्या वही भीड़ लगेगी?
नहीं लगेगी। क्योंकि मैं अब बदल गया हूँ। अब मैं सरकारी नौकरी में हूँ मतलब आराम हो गया मुझे। तो जब ऐसी ही सोच है तो फिर मैं ही रहूंगा और दीवारें रहेंगी, बच्चे नहीं रहेंगे। मेरे क्लास में उपस्थिति कम है तो सीधे-सीधे मैं जिम्मेदार हूँ कोई और नहीं।
अगली बात- कुछ अध्यापक अध्यापिकाओं के घर जाना हुआ। गजब का साफ सुथरा घर। रंगी दीवारें, झालर मैट पेंटिंग पता नहीं क्या क्या। और कभी कभी उनके स्कूल भी जाना होता है। गजब की अव्यवस्था। बिखरी किताबें अनियंत्रित बच्चे। गंदी दीवारें।
मैं समझ नहीं पाता यह वही अध्यापक हैं जिनके घर मैं गया था। इतना दोहरापन क्यों भाई? अगर आप साफ सुथरे हैं तो हर जगह होंगे न? या अगर गंदे ही हुए तो फिर मुझे किसके घर ले गए थे अपना बता कर?
यह तो बहुत छोटी सी बात है। माना कि सरकार पैसा नहीं देती तो आप पांच अध्यापक मिल कर स्कूल को रंगवा नहीं सकते? लाईन से फूल क्यारियां नहीं बनवा सकते? स्कूल में ब्रेंच सनमाइका बोर्ड और बीस तीस अच्छी तस्वीरें सूक्तियां नहीं लगा सकते?
बस एक सत्र में ऐसा कीजिए अगर परिवर्तन नहीं होता है तो क्या होगा बहुत होगा तो आपके अधिकतम पांच हजार रुपये नुकसान हो जाएंगे यही न! सोच लीजिएगा कि असित कुमार मिश्र को दान में दे दिया इतना पैसा।
असित कुमार मिश्र
बलिया

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