दो +दो = पाँच ...
आदमी की तमामतर खूबियों-खामियों में एक यह भी है कि वह जितना भविष्य की कल्पनाएँ करता है उतना ही अतीत के बारे में भी सोचता है। भविष्य की ये कल्पनाएँ जहाँ एक तरफ योजनाबद्ध होतीं हैं वहीं दूसरी तरफ अतीत बिना किसी पूर्व सूचना के समय की खिड़कियों से झाँकने लगता है।
कल्पना कीजिए खिड़की के इस तरफ आप हिन्दी या गणित में डाॅक्टरेट की उपाधि लेकर जैसे ही घर आते हैं और खिड़की के उस तरफ बचपन की किसी पुरानी सी काॅपी पर अनायास निगाहें चलीं जाएँ। जहाँ आपने कभी परीक्षा को 'परिक्षा' लिखा था या दो + दो को 'पाँच' लिखा था... तब आपको डाॅक्टरेट से ज्यादा प्यार उस 'परिक्षा' या उस 'दो +दो =पाँच' पर आता है। और कमाल यह कि एक हाथ में डाॅक्टरेट और दूसरे हाथ में कलम होते हुए भी आपके हाथ उस छोटी सी ग़लती को सुधार नहीं पाते। फिर होठों पर जो मुस्कुराहट आती है उसका मतलब होता है बचपन... जो कहीं न कहीं अभी है आप में...और जो आज भी आपके डाॅक्टरेट पर भारी पड़ रहा है।
जब आप रोज़मर्रा की जिंदगी में खोए रहते हैं। दिन - महीने - साल बीतते चले जा रहे होते हैं कि एक रोज आप जब आफिस या काॅलेज निकलने की तेजी में एक हाथ में राॅडो या राॅलेक्स की घड़ी पहन रहे होते हैं तभी दूसरे हाथ से वो 'भुकभुकिया' घड़ी छू जाती है जिसे कभी आपने तीस रुपए में खरीदा था और यह जानते हुए भी कि इसे खराब हुए एक जमाना बीत गया आप उसके डायल के छोटे से बटन को दबा कर चेक करते हैं कि जल रही है या नहीं? तो बंद होकर भी वह घड़ी बताती है कि उसके हर सेकेन्ड मिनट और घंटे को कभी जिया था आपने...और इस राॅडो - राॅलेक्स पर आज भी वो बचपन वाली घड़ी भारी है।
जब आप ट्रेन के एसी की किसी श्रेणी वाली अभिजात्य संस्कृति ओढ़े - बिछाए सहयात्रियों से जानबूझकर कर अनजान बनते हुए अपने पारिवारिक लोगों के साथ चली जा रही होती हैं कि अनायास सामने की सीट पर किसी बच्चे की पहनी स्वेटर पर नज़र पड़ती है और आपकी उँगलियों के पोर स्वेटर के डिजाइन की थाह लेने लगते हैं।मन कहता है कि यह तो एकदम सीधी और सपाट बुनाई है! लेकिन आँखें कहतीं हैं कि-' नहीं! उल्टे फंदे को बुनकर सीधे फंदे को उतारा गया है'...तब आपको लगता है कि इस ओढ़ी हुई अमीरी और हीरे - मोती वाली जीवनशैली पर आज भी आपके वो गाँव वाले एल्युमिनियम के नौ - दस नंबर के कांटे ही भारी हैं...।
यूँ जिंदगी हमें इन यादों के सहारे कई बार रुकने, मुस्कुराने और यह सोचने पर मजबूर करती है कि हमने चलना कहाँ से शुरू किया था।
फेसबुक की जिन्दगी में आज ऐसा ही दिन है मेरा।यहीं कभी एक कहानी लिखी थी - 'आई लव यू संगीता यादव'।आज खुद ही उस कहानी को भूल जाने के बावजूद इतना याद है कि तब कई दिनों तक लगातार मैसेजेज आते रहे थे और लोगों ने पूछा था कि संगीता जी अब कैसी हैं? या कि आपको संगीता जी से शादी कर लेनी चाहिए। या कि असित भाई संगीता के बाद से 'यादव' हटा दीजिए।
हालाँकि एक लेखक को इतनी स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह कथानक, पात्र और परिणति का चयन कर सके। 'यादव' की जगह मिश्रा, तिवारी या सिंह भी होता तो ऐसी आपत्तियाँ आतीं ही। फिर भी जब वह कहानी एक साहित्यिक पत्रिका में छपी तो उसमें से 'यादव' हटा दिया गया था।
कहानी की एक दूसरी पात्र डॉ.अंजना त्यागी को भी लोगों ने फेसबुक से ढूंढ निकाला था और उन्हें भी दो - चार मैसेज भेज डाले थे... कुल मिलाकर चलना यहीं से शुरू किया था।
पिछले दिनों रुममेट्स उपन्यास की लेखिका और यूट्यूब पर कहानियाँ सुनाने वाली सीत मिश्रा ने अपनी आवाज़ में बड़ी खूबसूरती से उसी कहानी को फिर से जिन्दा किया है...।
ऐसा नहीं है कि इस कहानी में कमियाँ नहीं होंगी या ऐसी भी चाहना नहीं है कि यह हिंदी कहानी धारा में कहीं गिनी भी जाए। फिर भी सुनिए क्या पता आज भी डाॅक्टरेट पर 'दो +दो = पाँच' भारी पड़ ही जाए ☺
असित कुमार मिश्र
बलिया