Sunday, August 19, 2018

दो +दो = पाँच...

दो +दो = पाँच ...

         आदमी की तमामतर खूबियों-खामियों में एक यह भी है कि वह जितना भविष्य की कल्पनाएँ करता है उतना ही अतीत के बारे में भी सोचता है। भविष्य की ये कल्पनाएँ जहाँ एक तरफ योजनाबद्ध होतीं हैं वहीं दूसरी तरफ अतीत बिना किसी पूर्व सूचना के समय की खिड़कियों से झाँकने लगता है।
कल्पना कीजिए खिड़की के इस तरफ आप हिन्दी या गणित में डाॅक्टरेट की उपाधि लेकर जैसे ही घर आते हैं और खिड़की के उस तरफ बचपन की किसी पुरानी सी काॅपी पर अनायास निगाहें चलीं जाएँ। जहाँ आपने कभी परीक्षा को 'परिक्षा' लिखा था या दो + दो को 'पाँच' लिखा था... तब आपको डाॅक्टरेट से ज्यादा प्यार उस 'परिक्षा' या उस 'दो +दो =पाँच' पर आता है। और कमाल यह कि एक हाथ में डाॅक्टरेट और दूसरे हाथ में कलम होते हुए भी आपके हाथ उस छोटी सी ग़लती को सुधार नहीं पाते। फिर होठों पर जो मुस्कुराहट आती है उसका मतलब होता है बचपन... जो कहीं न कहीं अभी है आप में...और जो आज भी आपके डाॅक्टरेट पर भारी पड़ रहा है।
                जब आप रोज़मर्रा की जिंदगी में खोए रहते हैं। दिन - महीने - साल बीतते चले जा रहे होते हैं कि एक रोज आप जब आफिस या काॅलेज निकलने की तेजी में एक हाथ में राॅडो या राॅलेक्स की घड़ी पहन रहे होते हैं तभी दूसरे हाथ से वो 'भुकभुकिया' घड़ी छू जाती है जिसे कभी आपने तीस रुपए में खरीदा था और यह जानते हुए भी कि इसे खराब हुए एक जमाना बीत गया आप उसके डायल के छोटे से बटन को दबा कर चेक करते हैं कि जल रही है या नहीं? तो बंद होकर भी वह घड़ी बताती है कि उसके हर सेकेन्ड मिनट और घंटे को कभी जिया था आपने...और इस राॅडो - राॅलेक्स पर आज भी वो बचपन वाली घड़ी भारी है।
               जब आप ट्रेन के एसी की किसी श्रेणी वाली अभिजात्य संस्कृति ओढ़े - बिछाए सहयात्रियों से जानबूझकर कर अनजान बनते हुए अपने पारिवारिक लोगों के साथ चली जा रही होती हैं कि अनायास सामने की सीट पर किसी बच्चे की पहनी स्वेटर पर नज़र पड़ती है और आपकी उँगलियों के पोर स्वेटर के डिजाइन की थाह लेने लगते हैं।मन कहता है कि यह तो एकदम सीधी और सपाट बुनाई है! लेकिन आँखें कहतीं हैं कि-' नहीं! उल्टे फंदे को बुनकर सीधे फंदे को उतारा गया है'...तब आपको लगता है कि इस ओढ़ी हुई अमीरी और हीरे - मोती वाली जीवनशैली पर आज भी आपके वो गाँव वाले एल्युमिनियम के नौ - दस नंबर के कांटे ही भारी  हैं...।
यूँ जिंदगी हमें इन यादों के सहारे कई बार रुकने, मुस्कुराने और यह सोचने पर मजबूर करती है कि हमने चलना कहाँ से शुरू किया था।
            फेसबुक की जिन्दगी में आज ऐसा ही दिन है मेरा।यहीं कभी एक कहानी लिखी थी - 'आई लव यू संगीता यादव'।आज खुद ही उस कहानी को भूल जाने के बावजूद इतना याद है कि तब कई दिनों तक लगातार मैसेजेज आते रहे थे और लोगों ने पूछा था कि संगीता जी अब कैसी हैं? या कि आपको संगीता जी से शादी कर लेनी चाहिए। या कि असित भाई संगीता के बाद से 'यादव' हटा दीजिए।
हालाँकि एक लेखक को इतनी स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह कथानक, पात्र और परिणति का चयन कर सके। 'यादव' की जगह मिश्रा, तिवारी या सिंह भी होता तो ऐसी आपत्तियाँ आतीं ही। फिर भी जब वह कहानी एक साहित्यिक पत्रिका में छपी तो उसमें से 'यादव' हटा दिया गया था।
कहानी की एक दूसरी पात्र डॉ.अंजना त्यागी को भी लोगों ने फेसबुक से ढूंढ निकाला था और उन्हें भी दो - चार मैसेज भेज डाले थे... कुल मिलाकर चलना यहीं से शुरू किया था।
         पिछले दिनों रुममेट्स उपन्यास की लेखिका और यूट्यूब पर कहानियाँ सुनाने वाली सीत मिश्रा ने अपनी आवाज़ में बड़ी खूबसूरती से उसी कहानी को फिर से जिन्दा किया है...।
ऐसा नहीं है कि इस कहानी में कमियाँ नहीं होंगी या ऐसी भी चाहना नहीं है कि यह हिंदी कहानी धारा में कहीं गिनी भी जाए। फिर भी सुनिए क्या पता आज भी डाॅक्टरेट पर 'दो +दो = पाँच' भारी पड़ ही जाए ☺

असित कुमार मिश्र
बलिया
         

दो +दो = पाँच...

दो +दो = पाँच ...

         आदमी की तमामतर खूबियों-खामियों में एक यह भी है कि वह जितना भविष्य की कल्पनाएँ करता है उतना ही अतीत के बारे में भी सोचता है। भविष्य की ये कल्पनाएँ जहाँ एक तरफ योजनाबद्ध होतीं हैं वहीं दूसरी तरफ अतीत बिना किसी पूर्व सूचना के समय की खिड़कियों से झाँकने लगता है।
कल्पना कीजिए खिड़की के इस तरफ आप हिन्दी या गणित में डाॅक्टरेट की उपाधि लेकर जैसे ही घर आते हैं और खिड़की के उस तरफ बचपन की किसी पुरानी सी काॅपी पर अनायास निगाहें चलीं जाएँ। जहाँ आपने कभी परीक्षा को 'परिक्षा' लिखा था या दो + दो को 'पाँच' लिखा था... तब आपको डाॅक्टरेट से ज्यादा प्यार उस 'परिक्षा' या उस 'दो +दो =पाँच' पर आता है। और कमाल यह कि एक हाथ में डाॅक्टरेट और दूसरे हाथ में कलम होते हुए भी आपके हाथ उस छोटी सी ग़लती को सुधार नहीं पाते। फिर होठों पर जो मुस्कुराहट आती है उसका मतलब होता है बचपन... जो कहीं न कहीं अभी है आप में...और जो आज भी आपके डाॅक्टरेट पर भारी पड़ रहा है।
                जब आप रोज़मर्रा की जिंदगी में खोए रहते हैं। दिन - महीने - साल बीतते चले जा रहे होते हैं कि एक रोज आप जब आफिस या काॅलेज निकलने की तेजी में एक हाथ में राॅडो या राॅलेक्स की घड़ी पहन रहे होते हैं तभी दूसरे हाथ से वो 'भुकभुकिया' घड़ी छू जाती है जिसे कभी आपने तीस रुपए में खरीदा था और यह जानते हुए भी कि इसे खराब हुए एक जमाना बीत गया आप उसके डायल के छोटे से बटन को दबा कर चेक करते हैं कि जल रही है या नहीं? तो बंद होकर भी वह घड़ी बताती है कि उसके हर सेकेन्ड मिनट और घंटे को कभी जिया था आपने...और इस राॅडो - राॅलेक्स पर आज भी वो बचपन वाली घड़ी भारी है।
               जब आप ट्रेन के एसी की किसी श्रेणी वाली अभिजात्य संस्कृति ओढ़े - बिछाए सहयात्रियों से जानबूझकर कर अनजान बनते हुए अपने पारिवारिक लोगों के साथ चली जा रही होती हैं कि अनायास सामने की सीट पर किसी बच्चे की पहनी स्वेटर पर नज़र पड़ती है और आपकी उँगलियों के पोर स्वेटर के डिजाइन की थाह लेने लगते हैं।मन कहता है कि यह तो एकदम सीधी और सपाट बुनाई है! लेकिन आँखें कहतीं हैं कि-' नहीं! उल्टे फंदे को बुनकर सीधे फंदे को उतारा गया है'...तब आपको लगता है कि इस ओढ़ी हुई अमीरी और हीरे - मोती वाली जीवनशैली पर आज भी आपके वो गाँव वाले एल्युमिनियम के नौ - दस नंबर के कांटे ही भारी  हैं...।
यूँ जिंदगी हमें इन यादों के सहारे कई बार रुकने, मुस्कुराने और यह सोचने पर मजबूर करती है कि हमने चलना कहाँ से शुरू किया था।
            फेसबुक की जिन्दगी में आज ऐसा ही दिन है मेरा।यहीं कभी एक कहानी लिखी थी - 'आई लव यू संगीता यादव'।आज खुद ही उस कहानी को भूल जाने के बावजूद इतना याद है कि तब कई दिनों तक लगातार मैसेजेज आते रहे थे और लोगों ने पूछा था कि संगीता जी अब कैसी हैं? या कि आपको संगीता जी से शादी कर लेनी चाहिए। या कि असित भाई संगीता के बाद से 'यादव' हटा दीजिए।
हालाँकि एक लेखक को इतनी स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह कथानक, पात्र और परिणति का चयन कर सके। 'यादव' की जगह मिश्रा, तिवारी या सिंह भी होता तो ऐसी आपत्तियाँ आतीं ही। फिर भी जब वह कहानी एक साहित्यिक पत्रिका में छपी तो उसमें से 'यादव' हटा दिया गया था।
कहानी की एक दूसरी पात्र डॉ.अंजना त्यागी को भी लोगों ने फेसबुक से ढूंढ निकाला था और उन्हें भी दो - चार मैसेज भेज डाले थे... कुल मिलाकर चलना यहीं से शुरू किया था।
         पिछले दिनों रुममेट्स उपन्यास की लेखिका और यूट्यूब पर कहानियाँ सुनाने वाली सीत मिश्रा ने अपनी आवाज़ में बड़ी खूबसूरती से उसी कहानी को फिर से जिन्दा किया है...।
ऐसा नहीं है कि इस कहानी में कमियाँ नहीं होंगी या ऐसी भी चाहना नहीं है कि यह हिंदी कहानी धारा में कहीं गिनी भी जाए। फिर भी सुनिए क्या पता आज भी डाॅक्टरेट पर 'दो +दो = पाँच' भारी पड़ ही जाए ☺

असित कुमार मिश्र
बलिया
         

दो +दो = पाँच...

दो +दो = पाँच ...

         आदमी की तमामतर खूबियों-खामियों में एक यह भी है कि वह जितना भविष्य की कल्पनाएँ करता है उतना ही अतीत के बारे में भी सोचता है। भविष्य की ये कल्पनाएँ जहाँ एक तरफ योजनाबद्ध होतीं हैं वहीं दूसरी तरफ अतीत बिना किसी पूर्व सूचना के समय की खिड़कियों से झाँकने लगता है।
कल्पना कीजिए खिड़की के इस तरफ आप हिन्दी या गणित में डाॅक्टरेट की उपाधि लेकर जैसे ही घर आते हैं और खिड़की के उस तरफ बचपन की किसी पुरानी सी काॅपी पर अनायास निगाहें चलीं जाएँ। जहाँ आपने कभी परीक्षा को 'परिक्षा' लिखा था या दो + दो को 'पाँच' लिखा था... तब आपको डाॅक्टरेट से ज्यादा प्यार उस 'परिक्षा' या उस 'दो +दो =पाँच' पर आता है। और कमाल यह कि एक हाथ में डाॅक्टरेट और दूसरे हाथ में कलम होते हुए भी आपके हाथ उस छोटी सी ग़लती को सुधार नहीं पाते। फिर होठों पर जो मुस्कुराहट आती है उसका मतलब होता है बचपन... जो कहीं न कहीं अभी है आप में...और जो आज भी आपके डाॅक्टरेट पर भारी पड़ रहा है।
                जब आप रोज़मर्रा की जिंदगी में खोए रहते हैं। दिन - महीने - साल बीतते चले जा रहे होते हैं कि एक रोज आप जब आफिस या काॅलेज निकलने की तेजी में एक हाथ में राॅडो या राॅलेक्स की घड़ी पहन रहे होते हैं तभी दूसरे हाथ से वो 'भुकभुकिया' घड़ी छू जाती है जिसे कभी आपने तीस रुपए में खरीदा था और यह जानते हुए भी कि इसे खराब हुए एक जमाना बीत गया आप उसके डायल के छोटे से बटन को दबा कर चेक करते हैं कि जल रही है या नहीं? तो बंद होकर भी वह घड़ी बताती है कि उसके हर सेकेन्ड मिनट और घंटे को कभी जिया था आपने...और इस राॅडो - राॅलेक्स पर आज भी वो बचपन वाली घड़ी भारी है।
               जब आप ट्रेन के एसी की किसी श्रेणी वाली अभिजात्य संस्कृति ओढ़े - बिछाए सहयात्रियों से जानबूझकर कर अनजान बनते हुए अपने पारिवारिक लोगों के साथ चली जा रही होती हैं कि अनायास सामने की सीट पर किसी बच्चे की पहनी स्वेटर पर नज़र पड़ती है और आपकी उँगलियों के पोर स्वेटर के डिजाइन की थाह लेने लगते हैं।मन कहता है कि यह तो एकदम सीधी और सपाट बुनाई है! लेकिन आँखें कहतीं हैं कि-' नहीं! उल्टे फंदे को बुनकर सीधे फंदे को उतारा गया है'...तब आपको लगता है कि इस ओढ़ी हुई अमीरी और हीरे - मोती वाली जीवनशैली पर आज भी आपके वो गाँव वाले एल्युमिनियम के नौ - दस नंबर के कांटे ही भारी  हैं...।
यूँ जिंदगी हमें इन यादों के सहारे कई बार रुकने, मुस्कुराने और यह सोचने पर मजबूर करती है कि हमने चलना कहाँ से शुरू किया था।
            फेसबुक की जिन्दगी में आज ऐसा ही दिन है मेरा।यहीं कभी एक कहानी लिखी थी - 'आई लव यू संगीता यादव'।आज खुद ही उस कहानी को भूल जाने के बावजूद इतना याद है कि तब कई दिनों तक लगातार मैसेजेज आते रहे थे और लोगों ने पूछा था कि संगीता जी अब कैसी हैं? या कि आपको संगीता जी से शादी कर लेनी चाहिए। या कि असित भाई संगीता के बाद से 'यादव' हटा दीजिए।
हालाँकि एक लेखक को इतनी स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह कथानक, पात्र और परिणति का चयन कर सके। 'यादव' की जगह मिश्रा, तिवारी या सिंह भी होता तो ऐसी आपत्तियाँ आतीं ही। फिर भी जब वह कहानी एक साहित्यिक पत्रिका में छपी तो उसमें से 'यादव' हटा दिया गया था।
कहानी की एक दूसरी पात्र डॉ.अंजना त्यागी को भी लोगों ने फेसबुक से ढूंढ निकाला था और उन्हें भी दो - चार मैसेज भेज डाले थे... कुल मिलाकर चलना यहीं से शुरू किया था।
         पिछले दिनों रुममेट्स उपन्यास की लेखिका और यूट्यूब पर कहानियाँ सुनाने वाली सीत मिश्रा ने अपनी आवाज़ में बड़ी खूबसूरती से उसी कहानी को फिर से जिन्दा किया है...।
ऐसा नहीं है कि इस कहानी में कमियाँ नहीं होंगी या ऐसी भी चाहना नहीं है कि यह हिंदी कहानी धारा में कहीं गिनी भी जाए। फिर भी सुनिए क्या पता आज भी डाॅक्टरेट पर 'दो +दो = पाँच' भारी पड़ ही जाए ☺

असित कुमार मिश्र
बलिया
         

Thursday, August 16, 2018

राजनीतिक दोस्तों के लिए

राजनीतिक दोस्तों के लिए...

2019 चुनाव का खुमार धीरे-धीरे गहराता जा रहा है। अपनी अपनी पार्टियों के झंडों के बीच दूसरी पार्टियों की आलोचना का दौर ज़ारी है।
चूंकि फेसबुक पर आलोचना और बदतमीज़ी में विभेद अभी नहीं किया जा सका है। इसलिए फेसबुक की आलोचनाएँ प्राय:बदतमीज़ियों में बदल कर सम्बन्ध विच्छेद का कारण बन जातीं हैं।
फेसबुक आज बहुउद्देशीय मंच हो गया है,यह बताने की बात नहीं है। सबके अपने-अपने तरीके और उद्देश्य हैं। कोई इसी मंच पर जन सहयोग से समाज के गरीब और असहाय बच्चों को शिक्षित करने का पुनीत कार्य कर रहा है तो कोई अपनी पार्टी की नीतियों और योजनाओं को व्यापक समुदाय के लोगों तक फैला रहा है। यहीं कोई ब्राह्मण संगठन के नाम पर विभिन्न गोत्रों के ब्राह्मणों को एक मंच पर लाने का भगीरथ प्रयास कर रहा है तो दूसरी तरफ अध्यापकगणादि कार्यक्षेत्र की समस्याओं को लेकर ग्रुप की स्थापना कर उसमें विचार-विमर्श करते हैं... सबका कार्य महत्त्वपूर्ण है और सबकी अपनी-अपनी विचारधारा है। मेरी तरफ से सबका सम्मान और समर्थन है।
                खैर! मुझे यहाँ अपनी बात कहनी थी इसलिए अपनी ही बात करुँगा। मैंने फेसबुक बस साहित्यिक गतिविधियों के लिए ही ज्वॉइन किया था ।तब प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं तक मेरी पहुँच नहीं थी और लिखने-पढ़ने की अभिरुचि ने मुझे यहाँ ला पटका था।तभी मैंने यह भी निश्चित किया था कि राजनीति पर नहीं लिखना है। लेकिन कभी-कभी भावोद्वेग में एकाध लेख लिखा ही, इससे इन्कार भी नहीं। क्योंकि 'पाश' के शब्दों में कहूँ तो -" मैं आदमी हूँ। बहुत छोटा - छोटा कुछ, जोड़ कर बना हूँ।"
                 इधर कुछ दिनों से देखने में आ रहा है कि राजनीतिक लोग चुनाव आयोग द्वारा प्रदत्त 'नोटा' का उपहास कर रहे हैं और 'नोटा' चुनने वाले लोगों को मूर्ख, कांग्रेसी, आपिया सर्पोला कह रहे हैं और पोस्ट लिख रहे हैं कि - 'नोटा का प्रयोग करने वाले देशद्रोही हैं।'
भारतीय राजनीति में विकल्प की ऐसी रिक्तता कभी नहीं थी। पिछले कुछ चुनावों में 'नोटा' का बढ़ता प्रतिशत इस बात का प्रमाण है। देश की एक बड़ी आबादी राजनीति में सुधार की जरूरत महसूस कर रही है लेकिन सत्ता बदलती रही व्यवस्था जस की तस है। इसलिए अगर किसी के द्वारा नोटा का विकल्प चुना जा रहा है तो वह आपिया कांगी या देशद्रोही कैसे हो गया?
पहली बात तो यह कि किसको और किसने यह अधिकार दे दिया कि आप देशभक्ति और देशद्रोही का सर्टिफिकेट बाँटेंगे? और यह सर्टिफिकेट किस प्रकार से उपयोगी है?
दूसरी बात भारत निर्वाचन आयोग ने नोटा की व्यवस्था की है और कोई भी व्यक्ति जो हर दल की छद्म राजनीति से दु:खी है वह नोटा का प्रयोग कर सकता है।
कुछ मित्र लिख रहे हैं कि नोटा का प्रयोग करने से आप सरकार से कोई माँग नहीं कर सकते। आपका वोट देना न देना और नोटा का प्रयोग करना सब एक बराबर है...।
राजनीति शास्त्र के ऐसे विद्वान प्रोफेसर्स से निवेदन करना चाहता हूँ कि जीवन में एक बार ओएमआर शीट पर भी परीक्षा दे लीजिए ताकि आपको पता चले कि अगर प्रश्न आए - रामचरितमानस किसकी रचना है -
1- सूरदास
2-नरहरिदास
3-अग्रदास
4-इनमें से कोई नहीं
और अगर आप "इनमें से कोई नहीं"(नोटा) का गोला काला करते हैं तो न आपकी ओएमआर शीट खराब होती है और न ही आप परीक्षा से संबंधित किसी सवाल-जवाब से वंचित किए जा सकते हैं।
अगर आयोग ने " इनमें से कोई नहीं" का विकल्प दिया है चाहे वो आयोग, चुनाव का हो या लोक सेवा का तो आप इनमें से कोई नहीं का प्रयोग कर सकते हैं।
रही बात वोट न देने की तो जहाँ तक मेरी जानकारी है आज तक किसी भी चुनाव में 75% से ज्यादा मत नहीं पड़े होंगे। मतलब 25% लोगों ने स्वेच्छा से मतदान नहीं किया और वो खुशी-खुशी इसी भारत के निवासी हैं उनमें से कोई भी पाकिस्तान नहीं गया। याद रखें कि जब तक चुनाव आयोग ने वोट देने को अनिवार्य घोषित नहीं किया तब तक आपको कोई भी वोट देने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। आपकी मर्जी आप उस दिन गली में क्रिकेट भी खेल सकते हैं। मद्यपान कर दिन भर सो भी सकते हैं। हाँ! आपसे निवेदन जरूर किया जा सकता है कि आप वोट जरुर दें और ठीक वैसे ही जैसे निवेदन किया जाता है कि कृपया मद्यपान न करें।
               इस पोस्ट के पाठकों से पुन: अपेक्षा है कि यहाँ आपकी राजनैतिक प्रतिबद्धता को प्रभावित करने का कोई इरादा नहीं है। आप अगर भारतीय जनता पार्टी के वोटर हैं तो मैं आपका सम्मान करता हूँ और आपको अपनी पार्टी के लिए जरूर भाजपा को वोट करना चाहिए। अगर आप समाजवादी पार्टी के वोटर हैं तो आपका भी बेहद सम्मान है और आप समाजवादी पार्टी को वोट जरुर दें। अगर आप बहुजन, आम आदमी पार्टी या भारत के किसी भी लोकतांत्रिक दल के नेता सदस्य या वोटर हैं तो आप सभी का सम्मान है और आप वहीं वोट कीजिए जहाँ आपको अच्छा लगता है। लेकिन नोटा के प्रति इस तरह अफवाह न फैलाएं न फैलने दें।और इस तरह का दुराग्रह भी न करें कि "ये " पार्टी है तो हिन्दुत्व है या "ये" पार्टी है तो ईसाईयत जिन्दा है या इस पार्टी से इस्लाम जिंदा है...। हिंदुत्व इस्लाम या कोई भी धर्म हमारे लोकतंत्र से जिंदा है और लोकतंत्र की इकाई लोक है पार्टी नहीं।
इसलिए आपसे भी अन्य दलों की भावना और उसके राजनीतिक मत भले ही वह नोटा ही क्यों न हो उसके प्रति सम्मान की अपेक्षा की जाती है। अपनी यह देशभक्ति या देशद्रोही वाली डिग्री अपने पास बचाकर रखिए किसी विश्वविद्यालय ने पाँच नंबर का वेटेज दिया तो आपसे आकर ले जाऊँगा।
             जो लोग नोटा की तरफदारी करने के लिए मुझे अन्फ्रेंड या ब्लाॅक करना चाहते हैं वो बिना किसी संकोच के ऐसा कर सकते हैं। बल्कि मेरा निवेदन हर पार्टी के लोगों से है कि जो लोग भी मुझसे राजनीतिक कारणों और लेखों के कारण जुड़े हों, वो अपनी सूची से विदा कर दें क्योंकि मैं किसी भी राजनैतिक दल की तरफ से नहीं हूँ। न ही मैं किसी भी तरह के राजनीतिक लेख लिखता - पढ़ता हूँ। मेरा विषय साहित्य संस्कृति लोककला आदि है और मैंने फेसबुक केवल और केवल साहित्यिक गतिविधियों के लिए चुना है।
सभी राजनीतिक दलों के प्रति श्रद्धा और सम्मान के साथ

असित कुमार मिश्र
बलिया

Monday, August 6, 2018

पत्र दो

आदरणीया कल्पना दीक्षित जी!
नमस्कार।
आपका पत्र प्राप्त हुआ। जैसा कि जगत् व्यापार है - पत्रोत्तर।
लेकिन इस कार्य में अप्रत्याशित विलम्ब हुआ। कारण - महाराज इन्द्र की उपेक्षा से ग्राम-प्रान्तर नीरस और आदिदेव सूर्य के भीषण ताप से जन-जीवन अस्तव्यस्त हो गया था। वरुण देव पश्चिमाभिमुख थे। वर्षा की आशा न थी। अतः किस मुख से कहते कि- हम यहाँ कुशल हैं !
            अस्तु, आपका पत्र हम ग्रामवासियों के लिए सौभाग्य सिद्ध हुआ और 'किम् बहुना' इन्द्रदेव की अहैतुकी कृपा भी हुई, मलयानिल से ग्राम-प्रान्तर के कानन-कुञ्ज, लता-पुष्प ही नहीं निकेत और मार्ग तक सुवासित हो उठे। कृषक-ललनाओं द्वारा रोपित और इंद्र के द्वारा सिञ्चित धान के पौधों को देखकर प्रतीति होती है कि जैसे किसी नवचित्रकार ने हमारे ग्राम-भूमि को चित्र पटल पर उतारना चाहा हो, और कार्यसिद्धि में असफल होने पर वह अपनी हरीतिमा हम पर फेंक कर भाग गया हो...।
अब इस हरित रंग का प्रभाव देखिए कि दृष्टि की भाव-भूमि में जो ग्राम-क्षेत्र कल तप्त था वो अब शीतल है, जो कल विरल था वो अब सघन है, जो कल उष्ण था वो आज आर्द्र है, जो कल पीतवर्ण था वो आज हरितिम् है। इसलिए अब कह सकता हूँ कि-हम यहाँ कुशल हैं।
               आपने पत्र में शोध आलेखों, शास्त्रीय सिद्धान्तों और उपनिषदों से संबंधित पुस्तकें और पत्रिकाएँ भेजने की बात कही है।साथ ही प्रश्न भी कि - गाँव में अभी इस स्तर को समझने की पृष्ठभूमि तैयार करने की आवश्यकता है न!
आपके इस प्रश्न का परीक्षण करने के लिए मैंने कल अम्मा से कहा था - अम्मा! अगिला हफ्ता कलकत्ता से डाॅ कल्पना दीक्षित जी घरे आवेऽ वाली बानीं। उहां के चिट्ठी आईल हऽ।
अम्मा के माथे पर चिंता की लकीरें बन आईं और उन्होंने कहा - दीक्षित ब्राह्मण लोग बड़ी जोग - बराव वाला होला। का खिलावल - पियावल जाई?
तभी दुलारी भौजी ने दाल दरना छोड़ कर कहा - हम तऽ उहां से आँखि मटकावे के सीखब।
बगल से आम का अचार लेने आई लड़की ने कहा था - ए चाची एगो कलकतिहा साड़ी मंगा दऽ।
             बताइए! ग्राम-संस्कार में आकंठ समाहित इन्हीं अनगढ़ आत्माओं को शोध आलेखों और उपनिषदों का गुरुतम् ज्ञान देना चाहती थीं न आप?
बताइए जो गाँव अभी खिलाने-पिलाने और आँख मटकाने या कलकतिहा साड़ी के स्तर पर ही हैं, इन्हें ही उपनिषदों के स्तर पर ले जाना चाहती हैं न आप? और उस पर आपका यह मानना कि - "उपनिषदों का आत्मज्ञान यांत्रिक मनुष्य को समग्र व्यूहों से मुक्त कर सकेगा" तो आकाश कुसुम ही है।
               लेकिन बड़ा सीधा और सच्चा सा सवाल है मेरा कि - गाँव को शास्त्रों के नियम-विनियम सिखाना ही क्यों?
इन्हें इनकी सहजता के जड़ों से काटकर तर्कणा के उस प्रस्थान बिंदु पर क्यों ले जाना जिसे नागर सभ्यता कहते हैं?
शास्त्रोक्ति है - नगर में रहने वाले नागरिक होते हैं और गाँव में रहने वाले गँवार। यहाँ तक तो ठीक है लेकिन हर नगर, हर राजाज्ञाएँ, हर योजनाएँ आज बस इसलिये संचालित हैं कि हम गँवारों को नागरिक कैसे बनाया जाए!
इसके लिए गाँवों में जीविकोपार्जन के उपाय कम से कम किए गए। नगर की चकाचौंध से हमें भ्रमित किया गया।गाँवों को बताया गया कि तुम्हें नागर-भाषा नहीं आती तो तुम मूर्ख हो।हमारे रंग-रूप, रहनसहन, बोलचाल को शास्त्रों ने 'ग्राम्यत्व दोष' कह कर स्थापित किया।
और जब किसी तरह हम अपनी सहजता सरलता और आंचलिकता से दूर नहीं हुए तो अब गाँवों को ही नगर बनाया जाने लगा।
                अगर भारत के हर गाँव को ब्रज मान लिया जाए और हर शहर को द्वारिका तो मुझे कहने में संकोच नहीं कि ये द्वारिकाएँ एक दिन ब्रज को निगल जाएंगी।
आज स्थिति यह है कि भारत के प्रत्येक ब्रज से प्रतिदिन सहस्त्रों गोपाल द्वारिका की ओर प्रस्थान तो करते हैं लेकिन उनमें से कोई द्वारिकाधीश नहीं बन पाता।
कितनी सहज बात है कि एक ग्रामा अपनी पुत्री या पुत्रवधू के आगमन में चिंतित है कि वह क्या खिलाएगी- क्या पिलाएगी?
कितना सहज भाव है उस अनगढ़ और वृद्धा भौजाई में जो बिहारी के द्वारा निर्दिष्ट नायिका के नेत्रों के दस प्रकारों पर चर्चा नहीं, 'आँख मटकाना' सीखना चाहती है।
कितना लचीलापन है गाँव के सम्बन्धों में कि एक कृषक बालिका माँगती भी है तो कलकतिहा साड़ी... अगर 'द्वारिकाएँ' समझ सकें तो यही ब्रज है... यही बलिया है।
नागर सभ्यताओं को समझना होगा कि प्रीति के सहज प्रभाव पर नीति का कठोर बंधन जीवन में बाधा की सृष्टि करता है। और ये शास्त्र- वेद-उपनिषद् ये नागर सभ्यताएँ ग्राम्य जीवन की सहज जीवन शैली, सहजता और इसके अनगढ़ सौंदर्य में बाधा उत्पन्न करते हैं।
इसलिए गाँव के पते पर कुछ भेजना हो तो ट्रक भर आशीर्वाद भेजिएगा। अपने कुशलता की सूचना भेजिएगा। दुलारी भौजी के लिए सेनुर-टिकुली भेजिएगा। और ग्राम-ललनाओं के लिए दुसुत्ती कढ़ाई के छापे वाली किताब भेजिएगा।
लेकिन ये लोग कोई मूल्य न दे सकेंगी।एक तो हर बात का मूल्य नागर सभ्यता का चलन है और दूसरे आपने उचित ही कहा है - 'समझ की भावधारा का मूल्य मुद्राओं में सम्भव नहीं है'।
              खैर! विषयांतर करते हैं... आपकी भेजी किताब आलोक भैया ने अभी नहीं दी। उनसे पुस्तक-प्रत्यर्पण पड़ोसी देश पाकिस्तान से बंदी प्रत्यर्पण के समान है। जब तक 'जानकी जय' किताब मुझ तक आएगी तब तक उस किताब के रचनाकार 'लव - कुश खंडकाव्य' रच चुके होंगे।
               पत्र उपन्यास विधा का अतिक्रमण न करने लगे यह भी ध्यान रखना है।इसलिए कम शब्दों में ही आमंत्रण स्वीकारिए। आपको बहुत अच्छा लगेगा यहाँ। यहाँ की कच्ची माटी में नोह गड़ाकर चलने का आनंद और फिसलने का डर दोनों मिलकर एक अलग ही रस की सृष्टि करता है। उस पर अगल-बगल के लोग और भी डरा देते हैं कि - "गिर गए न तो मुँहवा उज्जर हो जाएगा"। यह सुनते ही विरोधाभास अलंकार हो या न हो हँसी जरुर हो जाती है।
अब तो जो थोड़ा बहुत गाँव बच चुका है उसी में गुड़ से पनिपियाव होगा और छज्जों पर लटकी बरसाती लौकियों की सब्जी होगी यही नहीं सिरके वाली दाल से भोजन भी। सूरन का चोखा होगा और पीपर के ठूंसे या बाँस का अचार भी...। तो बस आ ही जाइए।
पुन: मंगलकामना और श्रद्धा के साथ -

असित कुमार मिश्र
बलिया