आदरणीया कल्पना दीक्षित जी!
नमस्कार।
आपका पत्र प्राप्त हुआ। जैसा कि जगत् व्यापार है - पत्रोत्तर।
लेकिन इस कार्य में अप्रत्याशित विलम्ब हुआ। कारण - महाराज इन्द्र की उपेक्षा से ग्राम-प्रान्तर नीरस और आदिदेव सूर्य के भीषण ताप से जन-जीवन अस्तव्यस्त हो गया था। वरुण देव पश्चिमाभिमुख थे। वर्षा की आशा न थी। अतः किस मुख से कहते कि- हम यहाँ कुशल हैं !
अस्तु, आपका पत्र हम ग्रामवासियों के लिए सौभाग्य सिद्ध हुआ और 'किम् बहुना' इन्द्रदेव की अहैतुकी कृपा भी हुई, मलयानिल से ग्राम-प्रान्तर के कानन-कुञ्ज, लता-पुष्प ही नहीं निकेत और मार्ग तक सुवासित हो उठे। कृषक-ललनाओं द्वारा रोपित और इंद्र के द्वारा सिञ्चित धान के पौधों को देखकर प्रतीति होती है कि जैसे किसी नवचित्रकार ने हमारे ग्राम-भूमि को चित्र पटल पर उतारना चाहा हो, और कार्यसिद्धि में असफल होने पर वह अपनी हरीतिमा हम पर फेंक कर भाग गया हो...।
अब इस हरित रंग का प्रभाव देखिए कि दृष्टि की भाव-भूमि में जो ग्राम-क्षेत्र कल तप्त था वो अब शीतल है, जो कल विरल था वो अब सघन है, जो कल उष्ण था वो आज आर्द्र है, जो कल पीतवर्ण था वो आज हरितिम् है। इसलिए अब कह सकता हूँ कि-हम यहाँ कुशल हैं।
आपने पत्र में शोध आलेखों, शास्त्रीय सिद्धान्तों और उपनिषदों से संबंधित पुस्तकें और पत्रिकाएँ भेजने की बात कही है।साथ ही प्रश्न भी कि - गाँव में अभी इस स्तर को समझने की पृष्ठभूमि तैयार करने की आवश्यकता है न!
आपके इस प्रश्न का परीक्षण करने के लिए मैंने कल अम्मा से कहा था - अम्मा! अगिला हफ्ता कलकत्ता से डाॅ कल्पना दीक्षित जी घरे आवेऽ वाली बानीं। उहां के चिट्ठी आईल हऽ।
अम्मा के माथे पर चिंता की लकीरें बन आईं और उन्होंने कहा - दीक्षित ब्राह्मण लोग बड़ी जोग - बराव वाला होला। का खिलावल - पियावल जाई?
तभी दुलारी भौजी ने दाल दरना छोड़ कर कहा - हम तऽ उहां से आँखि मटकावे के सीखब।
बगल से आम का अचार लेने आई लड़की ने कहा था - ए चाची एगो कलकतिहा साड़ी मंगा दऽ।
बताइए! ग्राम-संस्कार में आकंठ समाहित इन्हीं अनगढ़ आत्माओं को शोध आलेखों और उपनिषदों का गुरुतम् ज्ञान देना चाहती थीं न आप?
बताइए जो गाँव अभी खिलाने-पिलाने और आँख मटकाने या कलकतिहा साड़ी के स्तर पर ही हैं, इन्हें ही उपनिषदों के स्तर पर ले जाना चाहती हैं न आप? और उस पर आपका यह मानना कि - "उपनिषदों का आत्मज्ञान यांत्रिक मनुष्य को समग्र व्यूहों से मुक्त कर सकेगा" तो आकाश कुसुम ही है।
लेकिन बड़ा सीधा और सच्चा सा सवाल है मेरा कि - गाँव को शास्त्रों के नियम-विनियम सिखाना ही क्यों?
इन्हें इनकी सहजता के जड़ों से काटकर तर्कणा के उस प्रस्थान बिंदु पर क्यों ले जाना जिसे नागर सभ्यता कहते हैं?
शास्त्रोक्ति है - नगर में रहने वाले नागरिक होते हैं और गाँव में रहने वाले गँवार। यहाँ तक तो ठीक है लेकिन हर नगर, हर राजाज्ञाएँ, हर योजनाएँ आज बस इसलिये संचालित हैं कि हम गँवारों को नागरिक कैसे बनाया जाए!
इसके लिए गाँवों में जीविकोपार्जन के उपाय कम से कम किए गए। नगर की चकाचौंध से हमें भ्रमित किया गया।गाँवों को बताया गया कि तुम्हें नागर-भाषा नहीं आती तो तुम मूर्ख हो।हमारे रंग-रूप, रहनसहन, बोलचाल को शास्त्रों ने 'ग्राम्यत्व दोष' कह कर स्थापित किया।
और जब किसी तरह हम अपनी सहजता सरलता और आंचलिकता से दूर नहीं हुए तो अब गाँवों को ही नगर बनाया जाने लगा।
अगर भारत के हर गाँव को ब्रज मान लिया जाए और हर शहर को द्वारिका तो मुझे कहने में संकोच नहीं कि ये द्वारिकाएँ एक दिन ब्रज को निगल जाएंगी।
आज स्थिति यह है कि भारत के प्रत्येक ब्रज से प्रतिदिन सहस्त्रों गोपाल द्वारिका की ओर प्रस्थान तो करते हैं लेकिन उनमें से कोई द्वारिकाधीश नहीं बन पाता।
कितनी सहज बात है कि एक ग्रामा अपनी पुत्री या पुत्रवधू के आगमन में चिंतित है कि वह क्या खिलाएगी- क्या पिलाएगी?
कितना सहज भाव है उस अनगढ़ और वृद्धा भौजाई में जो बिहारी के द्वारा निर्दिष्ट नायिका के नेत्रों के दस प्रकारों पर चर्चा नहीं, 'आँख मटकाना' सीखना चाहती है।
कितना लचीलापन है गाँव के सम्बन्धों में कि एक कृषक बालिका माँगती भी है तो कलकतिहा साड़ी... अगर 'द्वारिकाएँ' समझ सकें तो यही ब्रज है... यही बलिया है।
नागर सभ्यताओं को समझना होगा कि प्रीति के सहज प्रभाव पर नीति का कठोर बंधन जीवन में बाधा की सृष्टि करता है। और ये शास्त्र- वेद-उपनिषद् ये नागर सभ्यताएँ ग्राम्य जीवन की सहज जीवन शैली, सहजता और इसके अनगढ़ सौंदर्य में बाधा उत्पन्न करते हैं।
इसलिए गाँव के पते पर कुछ भेजना हो तो ट्रक भर आशीर्वाद भेजिएगा। अपने कुशलता की सूचना भेजिएगा। दुलारी भौजी के लिए सेनुर-टिकुली भेजिएगा। और ग्राम-ललनाओं के लिए दुसुत्ती कढ़ाई के छापे वाली किताब भेजिएगा।
लेकिन ये लोग कोई मूल्य न दे सकेंगी।एक तो हर बात का मूल्य नागर सभ्यता का चलन है और दूसरे आपने उचित ही कहा है - 'समझ की भावधारा का मूल्य मुद्राओं में सम्भव नहीं है'।
खैर! विषयांतर करते हैं... आपकी भेजी किताब आलोक भैया ने अभी नहीं दी। उनसे पुस्तक-प्रत्यर्पण पड़ोसी देश पाकिस्तान से बंदी प्रत्यर्पण के समान है। जब तक 'जानकी जय' किताब मुझ तक आएगी तब तक उस किताब के रचनाकार 'लव - कुश खंडकाव्य' रच चुके होंगे।
पत्र उपन्यास विधा का अतिक्रमण न करने लगे यह भी ध्यान रखना है।इसलिए कम शब्दों में ही आमंत्रण स्वीकारिए। आपको बहुत अच्छा लगेगा यहाँ। यहाँ की कच्ची माटी में नोह गड़ाकर चलने का आनंद और फिसलने का डर दोनों मिलकर एक अलग ही रस की सृष्टि करता है। उस पर अगल-बगल के लोग और भी डरा देते हैं कि - "गिर गए न तो मुँहवा उज्जर हो जाएगा"। यह सुनते ही विरोधाभास अलंकार हो या न हो हँसी जरुर हो जाती है।
अब तो जो थोड़ा बहुत गाँव बच चुका है उसी में गुड़ से पनिपियाव होगा और छज्जों पर लटकी बरसाती लौकियों की सब्जी होगी यही नहीं सिरके वाली दाल से भोजन भी। सूरन का चोखा होगा और पीपर के ठूंसे या बाँस का अचार भी...। तो बस आ ही जाइए।
पुन: मंगलकामना और श्रद्धा के साथ -
असित कुमार मिश्र
बलिया
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