Saturday, September 18, 2021

एक शहर था

इस दश्त में एक शहर था वो क्या हुआ....?

             भारत के किसी भी शहर में जब भी कोई लेखक आता है (रायल्टी प्राप्त लेखक कृपया 'उतरना' समझें) तो उस शहर में आने से पहले दो काम करता है। पहला फोन और वो भी उसे जिसका नाम 'संपादक' होता है।
लेखक और संपादक का रिश्ता "कभी सास भी बहू थी" टाइप होता है। हिंदी का साहित्य गवाह है कि अगर कालांतर में लेखकों को ठीक-ठाक रायल्टी मिली होती तो आज संपादकों का नाम संकटग्रस्त जातियों की आईयूसीएन सूची (लाल सूची) में होता।
हिंदी का लेखक जो दूसरा महत्त्वपूर्ण काम करता है वो है उस जगह के समाचार पत्रों में लोकल न्यूज़ पढ़ते हुए यह पता करना कि आज कहाँ और किस जगह साहित्यिक गोष्ठी अथवा साहित्यिक सम्मेलन वगैरह आयोजित है और वो स्वादानुसार कहाँ का मुख्य अतिथि या विशिष्ट अतिथि बन सकता है।
यह आधुनिक युग की परंपराएँ हैं। और परंपराएँ , परंपराएँ ही होती है जिसका निर्वहन "माँग में सेंनुर" भरने की तरह आवश्यक है।
                  मैंने भी प्रयागराज उतरते ही साहित्य की मर्यादा का पालन किया और अखबार में लोकल का न्यूज पढ़ते हुए अनहद पत्रिका (त्रैमासिक) के यशस्वी संपादक संतोष चतुर्वेदी भैया को फोन भी किया - का हाल बा भइया?
संतोष भैया इतिहास के गम्भीर अध्येता, भाषिक सहोदर तथा 'स्वजातीय' हैं।'स्वजातीय' इसलिए लगाना पड़ा कि फिलहाल चर्चा में आए प्रसिद्ध इतिहासकार श्री मनोज मुन्तशिर भी स्वजातीय ही हैं जिन्होंने हिन्दी दिवस पर अपनी माताजी को मम्मी की जगह "माँ" कहने की अद्वितीय परंपरा शुरू की है। वर्नना हम जैसे गैर ऐतिहासिक लोग 'माई' ही कहते आए थे आज तक। 
खैर! संतोष भइया ने कहा - सब ठीके बा हो। तूं बतावऽ कहाँ बाड़ऽ?
मैंने कहा - भैया! प्रयागराज में हूँ। यहाँ अखबार में एक न्यूज छपी है नीलकांत जी के साथ कुछ आर्थिक अपराध हुआ है क्या?
उन्होंने आश्चर्य से पूछा - तुम जानते हो उन्हें?
                  क्या कहता मैं कि मेरे इस लेख का शीर्षक भी नीलकांत का ही है!
एक जमाने में अपनी मौज और अपने तेवर का एकलौता लेखक नीलकांत जिनके बारे में इलाहाबाद के साहित्यिक लोग जानते ही होंगे कि उन्होंने "एक बीघा गोएड़" समेत दर्जन भर उपन्यास लिखे और कोलकाता वाली पत्रिका 'लहक' ने शायद अप्रैल या मार्च 2016 में इन पर अपना विशेषांक भी निकाला था।
"एक बीघा गोएड़" की वास्तविक कीमत वही आँखें समझ पायेंगी जिन्होंने प्रेमचंद, रेणु, भैरव प्रसाद गुप्त, और मार्कण्डेय को पढ़ने के साथ-साथ आजादी के बाद चकबंदी के समय गाँव में गोएड़ वाली जमीन के लिए लेखपाल, नायब तहसीलदार और तहसीलदारों का ईमान पैसे पर बिकते देखा था। यही नहीं उन्हीं आँखों ने यह भी देखा होगा कि जब पुलिसिया लाठी, लेखपाल का नज़राना और पट्टीदारी में कट्टा - बंदूख चल जाने के बाद हरहराते देह ने कँपकँपाते हाथों से पट्टे का कागज लिया तभी पूँजीवाद ने सड़क के किनारे वाली जमीन की मालियत बढ़ा दी.... ।
                      आज कोई नहीं पूछता गोएंड वाली जमीन को और ना ही ऐसे किसी लेखक नीलकांत को कि वो आज किस भाव में और किस हाल में हैं! वर्ना इसी गोएंड वाली जमीन और नीलकांत जी में जब तक ऊर्जा थी तब तक इन्हें कौन न जानता था! जिस जमीन के दम पर किसान के बदन पर कुर्ता फहरता था और जिन लेखकों के दम पर शहरों की रवायतें जिंदा थीं। आज यकीन नहीं होता कि यह उन्हीं लोगों काा बसाया प्रयागराज है!
                        याद कीजिए! जब तक जिस्म में जान हो तब तक गोएंड की जमीन, भले ही वो फसल देकर थक चुकी हो, उसे बंधक नहीं रखा जाता।
देख लीजियेगा नीलकांत जी के साथ उम्र के आखिरी पड़ाव में ऐसे दुर्दिन में जिन लोगों ने आर्थिक अपराध किया है उनके खिलाफ कोई कार्रवाई हुई भी है या नहीं!
प्रयागराज के जिलाधिकारी महोदय एसपी महोदय को ट्विट कीजिए और उन्हें बताइए कि पूँजीवाद ने भले सड़क के आसपास के जमीनों की कीमत बढ़ा दी है लेकिन हम अपने गोएंड की जमीन और "एक बीघा गोएंड" के लेखक के ही साथ हैं.....।
वर्ना बनतीं जाएंगी अट्टालिकाएँ सड़क वाली जमीन पर और घटती जाएगी गोएंड वाली जमीन की कीमत।
                   संभव है आज चुरा लें कुछ लोग अपनी नज़रें गोएंड वाली जमीन और उसके लेखक नीलकांत से।
लेकिन याद रखिएगा जब भी मेरे या आप जैसा साहित्य का कोई विद्यार्थी पाठक या लेखक उतरेगा भारत के किसी भी सुदूर गाँव से किसी भी शहर के स्टेशन पर तब वहाँ के लोकल अखबारों की कतरनें आपके गाल पर तमाचा मार कर यह जरूर पूछेंगी - इस दश्त में कोई शहर था वो क्या हुआ....

असित कुमार मिश्र
बलिया

Tuesday, September 14, 2021

दिल सितुही

दिल सितुही देह सिलवट....

दू हजार के कलेन्डर से बीसवाँ बरिस देखते - देखत एतरे निकल गइल जइसे घर के मनसरहंग लइका घर से निकल जाव.... ना हंसिये आवे ना रोवाइये।
मरकिनौना कहियो एइसन दिन ना बीते जहिया दु-चार लोगन के मुअला के समाचार ना आवे। जिउ एतना डेराइल रहे कि सपनवो में सुस्मिता सेन ना सेनेटाइजरे लउके। सही में, जिनगी एतना सस्ता कबो ना रहे कि सर्दी-जोखाम, जे के आदमी कुछु ना बूझे,ओसे जान चल जाव।
                          एक दिन के बाति हऽ। भोरे में ऊंघाई टूट गईल। बुझाईल कि केहू रोवता। साँस एकदम से अटक गईल.... आहि रे बाप! केहू अगल-बगल से गइल का?
किल्ली खोल के बहरी निकलनीं। नीब के डाढि पर दु - तीन गो रुखी छुआ-छुई में लागल रहली सन आ ओसे तनीं ऊपर पुलुईं पर एगो कउवा के काँव-काँव सुनाईल।
ओइसे तऽ गाँव के भोर बहुत मनसाईन लागेला। लेकिन मन ठीको तऽ रहे के चाहीं। जब पूरा दुनिया में हमनी के समसान के फोटो दउरता तऽ मन मनसाईन ना भकसाईन भइले रही।
तबले फेर पुरुब ओर से ओइसहीं आवाज आईल। तनीं कान लगवला पर बुझाईल कि ना केहू रोवत नइखे, तीन घर आगे वाला बाबा आपन भजन वाला टीसन पकड़ लेले बाड़ें - भंवरवा के तोहरा संगे जाई.... रे भंवरवाऽऽऽ.... ।
मन में तऽ आईल कि इनके, इनकी भंवरवा के संगही उड़ा दिहीं - बाबा! ई कुल्ह का सुरु कइले बानीं। कुछु नीमन गाईं महाराज!
बाबा चुप तऽ हो गइलें लेकिन फिर बोललें - तऽ कोनो नीमन भजन मन परावऽ।
हम कहनीं - गाईं! जिंदगी प्यार का गीत है इसे हर दिल को गाना पड़ेगा....।
                पता ना बाबा ई वाला भजन गइनीं कि ना लेकिन मूड अपसेट तऽ होइए गइल।
अब सुतहू के बेरा ना रहे। सोचनीं कि वर्क फ्राॅम होम कईल जाव ।लेकिन ना वर्क में मन लागे ना होम में।
जब वर्क फ्राॅम होम से ले के वर्क फ्राॅम दुआरे तक कुल्ह कऽ के देख लीहनीं, आ कहीं मन ना लागल तऽ सोचनीं कि अब वर्क फ्राॅम पिछुआरी कर के देखल जाव।
सही बताईं तऽ अब गाँव में भी गाँव बस पिछुआरिये रह गइल बा, आगे से तऽ कुल सहर होइये गइल बा। अबहीं हमरे होस में जुआठ, हरीस, बरहा, हेंगा, गोईंठा के कहो, टुटले-फाटल डोली तक रहे। लेकिन सहर बने के सवख जब आवे ला तऽ साज होखे चाहे सामान, भासा होखे चाहे संस्कृति सबकर जगह पिछुआरिये बनल।
कुछु समझ में ना आइल कि का कइल जाव तऽ सोचनीं कि पेपर बना लीहल जाव। टेस्ट लेबहीं के बा।
अच्छा ई हमरे ना दुनिया के कवनो मास्टर के आदत हऽ, ओके जब कुछु ना बुझाई कि का करे के बा तऽ ऊ पेपर बनावे लागी। कवनो परीच्छा के पेपर उठा के देख लिहीं। देखते ई बुझा जाई कि सौ गो में निन्यानबे गो पेपर कुछु ना बुझइला के दौरान ही बनावल गईल बा।
अबहीं दु लाईन लिखनीं तबले बुझाईल कि पिछवा कुछ हीलता। घूम के देखनीं तऽ दुआरी के पर्दा रहे।
मन में आईल कि अइसन पर्दा अब आवत होई कि ना? बहुत पहिले गाँधी आश्रम के दुसुत्ती वाला पर्दा आवे। जेवना पर कुछु- कुछु, फूल - पतई के साथे गीता - रामायन के दोहा-चौपाई लिखाइल रहे...। बै! अब ऊ समय कहाँ बा! अब तऽ एक से एक डिजाइनदार पर्दा आवता।
मन में आइल कि देखल जाव एपर का लीखल बा? जब आँख उठा के देखनीं तऽ सिकुड़ के दिल सितुही आ देह डेरा के सिलवट हो गईल - "क्यों व्यर्थ चिंता करते हो?
तुम क्या लाए थे जो तुमने खो दिया...
जो आज तुम्हारा है वो कल किसी और का होगा.... "।
आहि रे करम! आजु के दिन ठीक - ठाक बीत जाव बस।
लैपटॉप के सिरहाने धर के चुपचाप सुतले में भलाई रहे। दस मिनट देस-दुनिया के चिंता में बीतल आ ओही में का जाने कब ऊंघाई लाग गइल।
दसो मिनट भी ठीक से ना बीतल होई, तबले दु गो पुलिस आ के डांटे लगलन स- मास्क कहाँ बा? तहार चालान होई। महामारी अधिनियम के तहत दु साल जेल.... हाथ छोड़ा के चलनीं भाग। डाक बंगला तक जात-जात मोटरसाइकिल के पेट्रोल खत्तम - ओनी पूरा पुलिस फोर्स। अब का करीं!
तबले पाछे से आ के एगो दरोगा हाथ पकड़ लीहलस - का हाल बा माट्साहब!
चिंहुक के उठनीं।देखनीं कि सोनापति भाई खटिया के लगे कुर्सी पर बइठल बाड़ें। हाथ देखनीं हथकड़ी ना रहे। तनी जिउ में जिउ आइल।
सोनापति कहलन - कांहे हाथ देखऽ तनीं?
हम जल्दी-जल्दी "कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती".... पढ़े लगनीं।
सोनापति ब्यंग में कहलन - अब केतना लक्ष्मी चाहीं! एगो तऽ सबसे आराम के नोकरी आ ओहू में सबसे ज्यादा तनखाह मास्टरे के बा। भर लाकडाउन ऐस कइल ह मास्टर लोग....
हम का बोलीं अब। बाकिर कहनीं कि- ए सोनापति भाई! ई तहार दोस नइखे। जेकरी-जेकरी नांव के बाद "पति" लागल बा न! ऊ सबके लागता कि मास्टरन के तनखाह बहुत ढेर बा।
हम आगे ओसारा में ले जाके पूछनीं- खैर! ई कुल छोड़ऽ, बतावऽ कइसे आईल भइल हऽ?
सोनापति भाई कहलन - देखऽ भाई! हमनीं के आम आदिमी हईं जा। हमनीं के बाप नेता - मंतरी बिजनेसमैन ना रहे। हमनीं के आगहूँ सोचे के बा आ पीछहू।
हम कहनीं - एकदम सही बात बा भयवा।
ऊ बात आगे बढ़वलन- हमनीं के सपनवो आम आदमी वाला आवेला - पेट्रोल खत्तम हो गईल - दाल खत्तम हो गईल - थइली कवनो काट लीहल-पुलीस चालान काट दीहलस ... एइसने कुल सपना रहेला हमनीं के किस्मत में। हं कि ना!
हम आंख चोरवा के कहनीं - हं भाई। एकदम सही बात कहलऽ।
आ बड़ आदिमी जानतरऽ का सपना देखे ला - पेट्रोल पंप खोले के, आपन जहाज कीने के एघरी तऽ टरेनवो मान लऽ। जेड प्लस सिकोरिटी के.... हई आम आदमी वाला जीवन हमनीं के तऽ जी लिहनीं जा। हमनी के लइका जीहन सन?
हम तऽ सोनापति भाई के देखते रह गइनी। सोनापति हमनी के पीढ़ी के हड़ाह कबि हउवन। ओइसे मूल रूप से मोटर मैकेनिक आ बीमा कंपनी के काम करेलन। हमरा बुझा गईल कि केतना सही बात बोलता जवान। हम कायल होके कहनीं - ना भइया! आवे वाली पीढ़ी खातिर नीमन से प्लानिंग करे के परी।
सोनापति तीन पन्ना के एगो फारम निकाल के कहलन - हई जीवन बीमा के फारम भरीं तब।
दु-केतरे तऽ कहल जाला - "कुजगहा फोड़ा आ ससुर बैद"।
एगो तऽ ओइसहीं कोरोना आर्थिक तमाचा मारता ओहू में आपने मित्र बीमा लेबे आ जाव।
हम बहाना कइनीं- भइया! बीमा में कवनो बाति नइखे बाकिर एकर पइसा बेरा पर ना मिलेला।
सोनापति जी ओज गुण आ बीर रस के कबि हईं। इहां के "बीमा-हजारा" किताब के जहिया बिमोचन रहे ओहि दिन किताब भले एगहू ना बेचाइल बाकिर सौ गो से अधिका बीमा मिलल रहे।
सोनापति भाई तनीं खिसिया के कहनीं - जवार में घूम के हमार रेकार्ड पता कर लिहीं। ई कंपनी एइसन - तइसन ना हऽ ।बीमा कराईं आ मान लीं कि बाई द वे कुछु हो गईल तऽ लास फुंकाये के बेरा ले चेक रउरी हाथ में.... ।कहीं तऽ लिख के दे दीं।
हमार त बुझाइल कि जाने निकल जाई। मने - मने हाथ जोड़ के भगवान से कहनीं कि हे भगवान आजु के दिन ठीके-ठीक निकल जाव।
केहूतरे सोनापति भाई से बियफ्फे के बीमा देबे के वादा कर के भेजनीं। आ घर में आके मोबाइल स्विच आफ कइनीं। आ दिन भर केहू से भेंट ना होखे एसे चुपचाप सुत गईनीं।
                             साँझ के बेरा उठनीं। आ भगवान के धन्यवाद दिहलीं कि आजु के दीन नीमने-नीमन कट गईल।
अगिला दिने सबेरे चाह पी के मोबाइल खोलनीं तऽ सोनापति भाई के एकईस गो मिसकाल के मैसेज।
एनी से फोन कइनीं - का हो सोनापति भाई! काल्हु एतना फोन कांहे आईल रहुवे ?
ओनी से सोनापति भाई के रोवनिया आवाज आईल - मरदे! का बताईं एगो बाछा के बचावे में अपने बोलेरो से लड़ के गिर गइनीं। मोटरसाइकिल के तऽ जवन हाल भइल ऊ भइल दहिना गोड़ टुटल बा। दस हजार रुपिया भेजऽ जल्दी से.... ।
- ओह! भइया नये गाड़ी रहल ह तऽ  इंस्योरेंस होखबे करी।
सोनापति भाई कहलन - अरे ऊ साला महीना भर जाँच करीहन सन ओहू के बाद जबले कुछ देईब ना तबले क्लेम ना मिली। इंस्योरेंस विभाग के अभी तूं नइखऽ जानत।
हम कहनीं - अच्छा भइया! दुर्घटना बीमा भा आयुष्मान कार्ड तऽ बा न?
सोनापति भाई कहलन - ना मरदे! हम आपने बीमा ना कर पवनीं। हम का जानीं कि एक्सीडेंट होइये जाई। आ आयुष्मान कार्ड हास्पिटलवा वाला मानते नइखन सन.... । रातिये भर में दिल सिकुड़ के सितुही हो गईल बा देह सिलवट ।काल्हु का जने कवना के मुँह देखले रहुंवी।
संयोग से हमरो मन में इहे बात चलत रहुवे कि काल्हु कवना के मुँह देखले रहुंवी.... ।आखिर में कहहीं के परल -हं भाई! एकदम सही बात कहलऽ हऽ।

असित कुमार मिश्र
बलिया

Monday, May 24, 2021

जिसका कोई अर्थ नहीं...

कभी-कभी सोचता हूँ कि, जिनके होने से हमारा होना तय होता है उनका न होना कैसा होता होगा?
या फिर जिनका होना हमें एक लंबी प्रक्रिया में उलझाए रखता है, कभी दुःख में, कभी सुख में, कभी खीझ में या फिर कभी उलाहने में। अचानक उस होने की जगह एक अनचाही रिक्तता या शून्यता घेर ले तो वो लोग खाली बैठ कर क्या करते होंगे?
ऐसा क्या करते होंगे कि जिससे वो खुद को व्यस्त रख सकें यह जानते हुए भी कि इस हर व्यस्तता के पीछे का कारण उस व्यक्ति का खालीपन ही है.... ।
                       जहाँ तक याद है नवंबर 2019 का कोई दिन रहा होगा। उस दिन कुछ दोस्तों के साथ सामूहिक भोजन का कार्यक्रम बन रहा था। तय हुआ कि आज इलाहाबादी व्यञ्जनों से भोग लगेगा।
इलाहाबाद इस लिहाज़ से भी बहुत अच्छा है कि वहाँ (डीबीसी) दाल - भात - चोखा भी व्यञ्जनों में सम्पूर्णता का बोध कराता है।
यूँ रात्रि के प्रथम प्रहर में जब सब्जी वाले बिन बिकी सब्जियों पर पानी का आखिरी छींटा मार रहे होते हैं और सब्जियाँ भी ताजी दिखने के लिए अपना आखिरी जोर लगा रहीं होतीं हैं। ऐसे ही संधिकाल में हमने कुछ टमाटरों को हाथ लगाया था - भैया! कैसे दिए?
इधर टमाटर भी लाज के मारे और लाल हुए जा रहे थे उधर सब्जी वाले ने हँस कर कहा था - अब क्या भाव देखना है! ले लीजिए जितना लेना हो।
इस तरह जब देर से सब्जियाँ खरीदी गईं तो भोजन में भी देर होना ही था। फिर भी लगभग आठ बजे भोजन बन कर तैयार हो गया था।
                             हँसी - ठहाकों के बीच भोजन का कार्यक्रम चल ही रहा था कि बलिया से आनंद का फोन आया। आनंद ने बताया कि " फेसबुक के अनिमेष वर्मा भइया के मम्मी - पापा बक्सर में किसी धार्मिक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आए थे लेकिन बलिया में उनकी गाड़ी खराब हो गई है । हर पाँच - सात किलोमीटर पर गाड़ी गरम होकर बंद हो रही है ।अब वो लोग सिकन्दरपुर की तरफ़ जा रहे हैं "।
मैंने कहा  -" आनंद भाई! जब ऐसी बात थी तो उन लोगों को बलिया में ही कहीं रोक लेना चाहिए था। अच्छा ठीक है उन लोगों का कोई नंबर हो तो भेजिए मुझे।
भोजनोपरांत मैंने मित्र अशोक जी को रोक लिया। और आनंद के दिए नंबर पर फोन किया।
उधर से घबराहट में लोकेशन बताया गया।
जिससे मुझे पता चला कि कच्छप-गति से चलती हुई भी गाड़ी लगभग पैंतीस किमी की दूरी तय करके मेरे कस्बे से पाँच किमी दूर निकल गई थी लेकिन अब आगे जाने से साफ़ मना कर चुकी थी।
रात के साढे नौ से कुछ अधिक का समय गाँव - देहात में "सुबरन" को खोजने वाले तीनों कोटियों के लोगों के लिए ही अधिक उपयुक्त माना जाता है।
मैंने मोबाइलधारी महाशय को जो शायद सहयोगी और कर्मणा ब्राह्मण ही थे। उनको सांत्वना दी कि आप लोग एकदम न घबराएँ। मैं यहीं का हूँ और पाँच मिनट में आ रहा हूँ।
                       पाँच मिनट से भी कम समय में हमने उनकी गाड़ी का दरवाज़ा खोला। एक तरफ़ अशोक जी गाड़ी का निरीक्षण करने लगे दूसरी तरफ़ मैंने कहा - माताजी! मेरा नाम सोनू है अनिमेष वर्मा भइया का दोस्त हूँ।पास में ही घर है चलिए।
माताजी के हाथ का दबाव अपने बैग पर बढ़ गया।
उन्होंने अनिमेष भइया को फोन किया - "कोई सोनू नाम का लड़का आया है तुम्हारा दोस्त बता रहा है"।
जैसा कि होना ही था उधर से सोनू नाम से अनभिज्ञता ज़ाहिर की गई। माताजी ने उस बैग को थोड़ा और कस कर पकड़ लिया जिसमें शायद कुछ पैसे, एटीएम कार्ड या छोटे - मोटे गहने रहे होंगे।
ना चाहते हुए भी मुझे हँसी आ गई। एक तो रात का समय दूसरे हमारे बलिया की गौरव गाथा उस पर सोनू नाम की अनंत महिमा। लगता है इन तीनों से माताजी परिचित थीं।
माताजी ने कहा - अंशु तो कह रहा है कि वो तुम्हें नहीं जानता।
मैंने कहा - कौन अंशु?
अब तक माताजी को इतना यकीन हो गया था कि उनका सामान उनसे छिनने वाला है।
मैं हँस पड़ा। जिस फ़ेसबुक की दुनिया के हम लोग निवासी हैं।जहाँ एक दूसरे पर भरोसा है, हज़ारों-हज़ार रुपये का लेन देन होता है। ग्रुप्स बनते हैं, वैचारिक क्रांतियाँ होतीं हैं, रूठना - मनाना होता है, माताजी उससे सर्वथा अनजान थीं।
थोड़ी बहुत ग़लती मुझसे भी हुई। मुझे वह नाम बताना था जिससे अनिमेष भैया मुझे जानते थे। लेकिन सच कहूँ तो अपने आसपास या परिजनों से 'आफिशियल' नाम बताने में बड़ी शर्म आती है।
माताजी ने कहा कि - तुम अनिमेष के दोस्त हो और तुम्हें यह नहीं पता कि अंशु उसी का नाम है!
मैंने कहा - माताजी! मेरी बात कराइए न अनिमेष भैया से बस एक मिनट।
उस एक मिनट का कमाल ये हुआ कि उधर अनिमेष भैया जान गए कि असित और सोनू एक ही हैं इधर मैं भी जान गया कि अनिमेष और अंशु भी एक ही हैं।
मैंने अनिमेष भैया से कहा कि "भैया! मैं घर लेकर जा रहा हूँ कल गाड़ी ठीक करा के घर भेजवा दूँगा"।
अनिमेष भैया ने कहा कि - इसकी ज़रूरत नहीं है असित भाई। कोई गाड़ी मिल जाए तो घर भेजवा दीजिए बस।
लेकिन मेरा मानना था कि सौभाग्य या दुर्भाग्य जैसे भी हो यहाँ तक आ ही गए हैं तो घर भी चरण-रज से पवित्र हो ही जाए!
मैंने फिर माताजी पर दबाव बनाया घर चलने के लिए। लेकिन उन्होंने बगल में बैठे पिता जी की तरफ़ संकेत करते हुए कहा - "इनका आक्सीजन कम हो रहा है। रात को रिफिलिंग की जरुरत लगेगी इसलिए हम लोग रात में कहीं रुकते नहीं हैं" ।
अब मैंने ध्यान से देखा - सच में नीचे एक बाक्स रखा था जिससे एक पतली पाइप निकल कर उनके नाक से सटी हुई थी। उस धैर्य के देवता ने मुस्कुराते हुए कहा - "हाँ! बेटा। बस घर तक जाने का इंतज़ाम कर दो। अगली बार आएँगे तो ज़रूर तुम्हारे घर चलेंगे"।
                       इसके पहले मैंने इस तरह का मामला नहीं देखा था। मैंने अनिमेष भैया को फोन करके कहा भी - भैया इस स्थिति में तो हमारे यहाँ गऊ-दान की तैयारी होने लगती है और ये लोग धार्मिक आयोजनों में भाग ले रहे हैं... कमाल है!
दु:ख की कथा यही है कि जो हमारे लिए अत्यन्त पीड़ादायी होता है, हम सोचते हैं कि सारी दुनिया में एक हम पर ही यह विपत्ति क्यों आई! दूसरे उससे भी बड़े दु:ख के अभ्यस्त हो चुके होते हैं और वह दु:ख उनकी जिंदगी का हिस्सा बन चुका होता है।
अनिमेष भैया ने हँसते हुए कहा - नहीं! नहीं! पापा सालों से ऐसे ही रहते हैं। इसीलिए हमने आक्सीजन की व्यवस्था घर पर ही कर रखी है।
                सीवान जिले का चरित्र भी बलिया की तरह ही है। इसका आभास तब हुआ जब मैंने कुछ गाड़ियों के मालिकों से बात की। कोई भी रात के दस बजे सीवान जाने के लिए तैयार नहीं हुआ।
अचानक चंचल भइया की याद आई। मैंने उन्हें फोन किया - क्या हो रहा है ?
उन्होंने कहा - खाना खा रहा हूँ।
मैं हैरान रह गया। जो अभी पंद्रह मिनट पहले भर पेट डीबीसी खाया था वो अब किस पेट में खाना खा रहा है!
मैंने कहा - अरे! अभी न खाए थे मेरे साथ...।
-भक्क! दाल भात से पेट भरता है कहीं?
मैंने मन ही मन उनका पेट छूकर प्रणाम किया और कहा कि जल्दी आइए सीवान चलना है।
                   सीवान का मेन रास्ता भागलपुर से घूम कर जाता है इसलिए जब पीपे का पुल नहीं रहता है तो यह पंद्रह किमी की दूरी सौ किलोमीटर के आसपास पड़ती है। बीच-बीच में हमारी बातें होतीं रहीं। बाबूजी ने बताया कि उनका परिवार प्रसिद्ध श्रीवास्तव परिवार है जिसमें तंग इनायतपुरी जैसे लोग हैं।
माताजी ने पूछा - कभी मिले हो अनिमेष से?
मैंने बताया कि शायद नहीं। या एक बार पँजवार के भोजपुरी सम्मेलन में दो मिनट के लिए मिला था।
उन्होंने आश्चर्य से कहा - बताओ! तब भी तुम जानते हो कि आरव की आँखें उसकी माँ जैसी हैं।
मन में आया कि कह दें - जिस तरह उनके बाल कम हो रहे हैं जल्दी ही वो सेकेंड नवीन भइया बनेंगे मैं यह भी जानता हूँ।
घर पहुँच कर भी माताजी ने राहत की साँस नहीं ली। हम लोगों के लिए चाय, पिता जी की दवाइयाँ, आक्सीजन आदि की व्यवस्था करने के बीच हम लोगों से हँस - हँस कर बातें करती रहीं... लगता ही नहीं था कि ये वही हैं जिन्हें अपने बैग की चिंता थी मुझसे थोड़ी देर पहले।
                     सीवान पीछे छूटता गया और धीरे-धीरे वो साल भी। लेकिन वो लोग, उनका स्नेह, उनकी जिजीविषा, खास तौर पर माताजी, जिनके आठों पहर के केंद्र में पिता जी ही थे,
हमेशा याद आती रही।
अभी पिछले दिनों मैंने उन्हें फोन किया था - माताजी पहचाना मुझे मैं असित। आपको शादी की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर बहुत बधाई...।
उन्होंने कहा - सोनू न? तुम तो सोनू ही रहोगे मेरे लिए जैसे अंशु...। तुम्हारा नंबर है मेरे मोबाइल में पहचानूँगी कैसे नहीं। खुश रहो। फिर कब आओगे....!
लगा कि उस बार सोनू बता कर ग़लती की थी इस बार असित बता कर।
                   आज जब दोनों नामों का कोई मतलब नहीं है। मेरा नंबर है उनके मोबाइल में। नाम बताने तक की भी ज़रूरत नहीं, फिर भी फोन नहीं कर पा रहा हूँ। क्या कहूँगा कि पिताजी के निधन पर शोक व्यक्त करने के लिए फोन किया है! मुझे लगता है कि जिस तरह अब मेरे नाम का कोई अर्थ नहीं उसी तरह मेरी शोकपूर्ण संवेदना का कोई अर्थ नहीं....कुछ बोल न पाऊँगा।

असित कुमार मिश्र
बलिया

Wednesday, May 19, 2021

भेज रहा हूँ नेह निमंत्रण

भेज रहा हूँ नेह निमंत्रण....

आजकल पूर्वांचल में गाँवों के हर गली - मुहल्ले मानस की चौपाइयों और शिव चर्चा के सुमधुर गायन से गुलज़ार हैं। पूरब तरफ़ वाले माइक से पूर्णाहुति के मंत्रोच्चार सुनाई देते हैं तब तक पच्छिम टोले से "हैलो चेक - हैलो चेक" की आवाज़ यह बताने के लिए काफ़ी है, कि थोड़ी ही देर बाद उधर वाली चौपाइयाँ सरक कर इधर आ जाएँगी ।
बीच-बीच में शिव चर्चा वाली दीदी जी का समूह भी शिव को जगा देने के लिए आलाप लेता रहता है - "जागऽऽ जागऽऽ महादेव , जगा दऽ महादेव " ... ।
डेढ़ दो घंटे बाद शिव चर्चा का यही भजन जो घर के आगे वाली खिड़कियों से मेरे कान में घुस रहा था वो अब पीछे के जँगले से आता हुआ सुनाई दे रहा है। मानों शिव चर्चा टोली को यह आभास हो गया है कि इस कोने से हमारी आवाज़ कैलास पर्वत तक नहीं पहुँच सकेगी।शिव को जगाने के लिए एंगल बदलना ज़रुरी है।
बीच - बीच में लाउडस्पीकर्स से घर्र-घर्र, किर्र -किर्र की आवाज़ें भी आतीं रहती हैं जैसे कोरोना नामक राक्षस का लोगों की भीड़ में दम घुट रहा हो...।
                 कई दिनों बाद ही बारामदे की मेज़ पर छितराए शादी - ब्याह के रंगीन कार्ड्स पर आज फिर नज़र गई। जो कार्ड्स परसों तक लगभग बीस की संख्या में थे वो आज बढ़ कर चालीस तक पहुँच गए हैं। कमबख्त कोरोना के मरीज़ों की रिकवरी रेट भी इस द्रुत गति से नहीं बढ़ रही है।ये कार्ड्स यह बताने के लिए काफ़ी हैं कि इस बार लग्न बहुत तेज़ है।
कुछेक कार्ड्स को यूँ ही उठा कर देखा। स्याही की तीखी गंध ने बताया कि एकाध तो जैसे अभी प्रेस से ही चले आ रहे हैं।
विभिन्न आकार और भिन्न-भिन्न रंग रूप के इन कार्ड्स में गणेश वंदना,सूर्य मंत्र और शादी में बुलाने वाले काव्यमय आग्रह प्रायः अलग-अलग हैं, लेकिन सभी कार्ड्स में एक बात सामान्य है - "बाल हठ"।
जो प्रायः सबमें यूँ है - "मेरे मामा की या चाचा की छादी में जलूल से जलूल आना" - (गोलू और मोलू)
लेकिन सच्चाई है कि तिलक - ब्याह के दिन पौने सात बजे ही कोने वाले घर में यही गोलू और मोलू एक में लोटियाए सोए मिलेंगे जिन्होंने आपको "जलूल से जलूल" बुलाया था। और उनकी मम्मी जिनके दोनों हाथ दोनों तरफ़ से लँहगे को पकड़ने के लिए ही बने हैं वो अब ज़बान से ही पूरे घर को संभालने में व्यस्त रहेंगी।
                      कार्ड्स की यह रंगीनियाँ और यह "बाल हठ" आधुनिक युग की घटना है जो बाजारीकरण से प्रभावित लगती है। जिसका उद्देश्य आपको हर हाल में अपने यहाँ खींच लाना है।जैसे विज्ञापनों की दुनिया में हम पाते हैं कि अब बच्चे माँ - बाप को बता रहे हैं कि कौन सा सीमेंट अच्छा है या कौन सा सरिया अच्छा है। क्योंकि मनोविज्ञान कहता है कि बच्चों की तुतलाती या मधुर आवाज़ मन पर असर करती है।
संभव है बाज़ार जब अपना अगला कदम उठाए तो अगली पीढ़ी के कार्ड्स पर "मित्र अनुरोध" कुछ यूँ लिखें मिल जाएँ - मेरे दोस्त की शादी में जरुर आइए। मैं भी आ रहा हूँ - (ऋतिक रोशन - रणवीर कपूर)
मेरी सहेली की शादी में अवश्य पधारें। मैं भी आ रही हूँ - (कंगना रानावत-दीपिका पादुकोण)
                        लेख कैसा भी लिखें किसी भी विषय पर लिखें उसमें बिहारी, गुलेरी जी और पूर्ण सिंह जैसे कवियों और लेखकों को 'टैग' मात्र कर देने से लेख की महत्ता सहस्र गुना बढ़ जाती है ऐसा फेसबुक के ब्रह्म बाबाओं का मानना है।
तो बिहारी हिंदी साहित्य में ऐसे कवि हैं जिनकी मात्र एक रचना है - बिहारी सतसई। जिससे वो साहित्याकाश में सदैव चमकते रहेंगे।
गुलेरी जी की तीन कहानियाँ हैं - सुखमय जीवन, बुद्धू का काँटा और उसने कहा था। मात्र इन्हीं तीन कहानियों से हिंदी साहित्य इनका ऋणी है।
अध्यापक पूर्ण सिंह ने छह निबंध लिखे और मात्र उन्हीं छह निबंधों के कारण निबंधों की दुनिया उनके नाम-चर्चा के बिना अधूरी है।
बिहारी ने कुल सात सौ तेरह दोहे लिखे थे सतसई में। चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी की तीनों कहानियों में भी हजारों पंक्तियाँ होंगी और पूर्ण सिंह जी के निबंधों में भी हजारों-हजार वाक्य।
लेकिन हिन्दी में एक ऐसे कवि भी हैं जिनका कि मात्र कुछ पंक्तियों का
"काव्यमय आग्रह" उपलब्ध है। लेकिन उसकी व्यापकता, उसकी मान्यता और प्रतिष्ठा कुछ ऐसी थी कि लगभग तीन दशकों से भी अधिक समय तक वह पंक्तियाँ शादी - ब्याह के कार्ड्स पर निर्विवाद और निर्विरोध छपतीं रहीं, राज करतीं रहीं। लोकजीवन के उस स्वर्णिम दौर की गंध जिनकी आत्मा में बसी होगी, उन्हें उस समय के शादी कार्ड्स की खुश्बू याद आ गई होगी -

भेज रहा हूँ नेह निमंत्रण
प्रियवर तुम्हें बुलाने को।
हे मानस के राजहंस,
तुम भूल न जाना आने को।।
              इन पंक्तियों के रचनाकार शंभु दयाल त्रिपाठी "नेह जी" महादेवी के जिले फर्रुखाबाद में छिबरामऊ के रहने वाले बताए जाते हैं।
आज के दौर में उन शब्दों को हथेलियों में रखकर तौलता हूँ तो जैसे लगता है कि 'मानस के राजहंस' जैसी उपमा इस 'बाल-हठ' के जमाने में दुर्लभ है। उस स्वर्णिम दौर में 'विनीत' और 'दर्शनाभिलाषी' वाले बाॅक्स में छपे नाम ,सच में हाथ जोड़े विनीत भाव से या तो शादी में पूड़ी-तरकारी चलाते मिलते थे या हैरान परेशान सबकी व्यवस्था में लगे रहते थे।
उस समय के कार्ड, कार्ड नहीं कैलेण्डर होते थे जिस पर सीता राम की युगल छवि होती थी या फिर शिव पार्वती की। उसके नीचे विवाह कार्यक्रम और फिर पूरे बारह महीनों की दिन - तिथियाँ। जिसे लोग साल भर खूँटी पर टाँगे रखते थे।
उस समय पच्चीस - तीस लोग तो बड़की नाच में बावन खंभे वाले तम्बू लगाने की टीम में ही होते थे। और दस-बीस बच्चे पानी वाला जग - मग लेकर इधर-उधर दौड़ते - भागते मिलते थे...।
समय ने हमें आज ऐसे दौर में लाकर खड़ा कर दिया है कि जब न तो बिहारी हैं न नेह जी। "नेह जी" होते तो आज नीचे की पंक्ति काट कर लिखते -

भेज रहा हूँ नेह निमंत्रण
प्रियवर तुम्हें बुलाने को।
हे मानस के राजहंस,
तुम जिद न करना आने को।

                            याद कीजिए! उस समय तम्बू में जितने खम्बे होते थे उतने भी लोगों को शादी में न तो शामिल होने की अनुमति है न उचित ही।
ऐसे समय में उस पुराने दौर को याद कर लीजिए।
'आज मेरे यार की शादी है' से लेकर ' यार मेरा हर एक से वफ़ा करता है'  जैसे गानों को यू-ट्यूब पर देख - सुन लीजिए। विवाह में नाचने, गाने से लेकर रूठने तक के रस्मों की अदायगी अपने कमरे में ही कर लीजिए।
विवाह निश्चित ही हमारे सनातन धर्म का पंद्रहवाँ संस्कार है लेकिन अभी जो कोराना आया है वह अल्पज्ञानी है, उसकी जानकारी में बस एक ही संस्कार है - सोलहवांँ (अन्त्येष्टि संस्कार)। इसलिए सचेत रहिए।
शादी कार्ड पर छपे "बाल हठ" के कारण किसी शादी - ब्याह में तब तक शामिल न होइए जब तक वर - वधू दोनों में से कोई एक आप खुद न हों।
फिर कह रहा हूँ उस समय न गोलुआ जाग कर आपके स्वागत में खड़ा मिलेगा न मोलुआ....।
हाँ! संभव है कोरोना फूफा जरुर हाथों में माला लिए खड़े मिल जाएँ और कौन जानता है कि जीवन में आनी वाली यही "माला" आखिरी हो.... ।

असित कुमार मिश्र
बलिया