शोध विषय :- "स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिन्दी उपन्यासों का सामाजिक यथार्थ"
(संदर्भ :सन् 1950 से 1975 तक)
समस्या जिसका अध्ययन किया जाएगा:- प्रस्तावित शोध की मुख्य समस्या स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिन्दी उपन्यासों में (सन 1950 से लेकर 1975 तक के ) पूर्वांचल पर आधारित उपन्यासों का अध्ययन करना तथा देखना कि उपरोक्त समय में पूर्वांचल तथा पूर्वांचल के समाज की वर्तमान समय से किस प्रकार की भिन्नता है जिससे पूर्वांचल के संपूर्ण समाज एवं संस्कृति को समझा जा सके। पूर्व में पूर्वांचल पर आधारित उपन्यासों का तथा इससे संबंधित अध्ययन अवश्य किया गया है, परंतु समाजशास्त्रीय आधार पर इन उपन्यासों का उल्लेख कहीं नहीं है। मैं समझता हूँ कि पूर्वांचल के समाज, संस्कृति और साहित्य को संपूर्ण रूप से समझने के लिए यह आवश्यक है कि उन प्रत्येक पहलुओं को समझा जाए जिन्होंने इसके निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस आधार पर पूर्वांचल आधारित उपन्यासों और इसका संपूर्ण समाजशास्त्र सदैव एक महत्त्वपूर्ण पहलू रहा है जिसकी भूमिका निसंदेह महनीय है तथा जिसकी उपेक्षा निश्चित ही हमारे ज्ञान हेतु अलाभकारी होगी। हिंदी उपन्यास मैला आँचल (फणीश्वर नाथ रेणु), बलचनमा (नागार्जुन) आधा गाँव (राही मासूम रजा) इत्यादि में हमें आंचलिकता तथा तत्कालीन समाज का चित्रण भलीभांति मिलता है। यथा - 'मैला आँचल' की भूमिका में रेणु कहते हैं - "इसमें फूल भी है,शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है, मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया" ।
अतः यह आवश्यक है कि परिवर्तन की इस पूरी प्रक्रिया तथा परिणाम को संपूर्णता के साथ समझा जाए क्योंकि पूर्वांचल का क्षेत्र समाज और साहित्य एक दूसरे पर परस्पर निर्भर हैं। सभी ने एक दूसरे के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहाँ पूर्वांचल का समाज एक नए रूप में आया है।
प्रस्तुत शोध के क्रम में समाजशास्त्र के विविध संदर्भ का अध्ययन करते हुए साहित्य में योगदान को समझने का प्रयत्न किया जाएगा तथा अधोलिखित प्रश्नों पर प्रकाश डाला जाएगा-
1-चयनित उपन्यासों में चित्रित जीवनगत समस्याएँ क्या हैं? पूर्वांचल में ग्रामीण एवं शहरी जीवन के स्वरूप में किस तरह परिवर्तन आया है?
2- चयनित उपन्यासों जैसे बलचनमा और पुरुष पुराण आदि में समाज और संस्कृति की क्या उपादेयता है?
3- विभिन्न लेखकों की वैचारिकी और युगीन चेतना ने चयनित कृतियों और लेखकों को कैसे और कितना प्रभावित किया है?
4 चयनित उपन्यास वर्तमान समय में किस रूप में प्रासंगिक हैं उपन्यासों की प्रखर अभिव्यक्ति में उनके कलात्मक पक्ष का कितना योगदान है?
*अध्ययन का औचित्य* - स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिंदी उपन्यासों पर पूर्व में कार्य हो चुके हैं किंतु "स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिंदी उपन्यासों का सामाजिक यथार्थ" स्वयं में नवीन कार्य है। जिसमें शोध की अपार संभावना विद्यमान है। साहित्य में सामाजिक यथार्थ और सामाजिक संबंधों की समग्रता जनता के सामाजिक संघर्ष और इतिहास प्रक्रिया की दशा का चित्रण करके रचनाकार जनता का यथार्थ विकसित करता है जिससे जनता की चेतना तीव्र और जागृत होती है। चेतना के जागरण का अर्थ है अपनी मानसिकता सामाजिकता का बोध। और जागृत सामाजिक चेतना ही आगे चलकर परिवर्तनकारी चेतना बनती है।
(क) साहित्य के सामाजिक सरोकारों को देखते हुए भारतीय समाज के विकास की समस्याओं का अध्ययन करना तथा साहित्य के समाजशास्त्र को समझना अपेक्षित प्रतीत होता है क्योंकि जैसे-जैसे समाज में परिवर्तन होता है वैसे-वैसे साहित्य में भी परिवर्तन होता चलता है तथा साहित्यिक प्रवृत्तियाँ बदलती रहती हैं।
(ख) साहित्य-अभिव्यंजना का सबसे सशक्त साधन है - उपन्यास। उपन्यास जीवन की सशक्त व्याख्या करता है। यह जन-जीवन का महाकाव्य है। उपन्यास मानव के यथार्थ जीवन के सबसे अधिक निकट होता है।अतः तत्कालीन समाज के यथार्थ जीवन, सामाजिक मूल्यों तथा स्थापनाओं को उद्घाटित करना हो तो उपन्यासों का अध्ययन एक सशक्त माध्यम हो सकता है।
(ग) कोई भी विशेष भू-भाग जिसकी अपनी एक संस्कृति हो, अपनी एक भाषा हो, अपनी समस्याएँ हों, संक्षेप में सामान्य देश भी जहाँ किसी विशेषता का आदेश दे- अंचल कहलाता है। जबकि आंचलिकता व्यक्ति की नवीन वृत्तियों का प्रतिफल है अतः आंचलिकता आंतरिक मूल्यों की गुणवत्ता है जो अंचल के प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक वातावरण की ही देन होती है ।
समग्र रूप में कहा जा सकता है कि आंचलिक जीवन के यथार्थ का अध्ययन भारतीय जनमानस की आत्मा का अध्ययन है जिससे भारतीय संस्कृति, संस्कार एवं जीवन-मूल्यों को अधिक गंभीरता से समझा जा सकता है। शोध की दृष्टि से पर्याप्त सामग्री उपलब्ध होने के बावजूद "स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिंदी उपन्यासों का सामाजिक यथार्थ" (संदर्भ :सन् 1950 से 1975 तक) विषय पर कोई शोध-कार्य नहीं हुआ है।
*पूर्व में हुए शोध कार्य-*
स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक (पूर्वांचल) हिंदी उपन्यासों पर हुए दो शोध-कार्य की जानकारी शोधगंगा द्वारा प्राप्त हुई है-
1. पूर्वांचल के आंचलिक उपन्यासों का विषय एवं शिल्पगत विवेचन : श्रीमती नीलमणि सिंह, वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर, वर्ष 2017
२. पूर्वांचल के आंचलिक कहानीकार समीक्षात्मक अध्ययन : दिव्या सिंह, वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर, वर्ष 2009
*शोध की मौलिकता-*
स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक साहित्य में सामाजिक यथार्थ विशेष जानकारी एकत्र करने के क्रम में इस बात की जानकारी हुई है कि पूर्व में आंचलिक उपन्यासों के विषय तथा शिल्पगत विवेचन पर प्रकाश डाला गया है किंतु "स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक उपन्यास का सामाजिक यथार्थ" विषय पर कार्य का अत्यंत अभाव मिला। प्रस्तुत शोध- कार्य एक नवीन अध्ययन है, जिससे तत्कालीन समाज का अध्ययन समग्र रूप में किया जा सकता है। ऐसा मेरा प्रयास रहेगा।
*मीमांसात्मक सिद्धांत-*
साहित्य की सामाजिकता का सिद्धांत हिंदी साहित्य के समालोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी जी ने लिखा है- 'साहित्य जीवन की पुनर्रचना है और आलोचना इस पुनर्रचना की पुनर्रचना है इसी के आधार पर स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिन्दी उपन्यासों का सामाजिक यथार्थ (संदर्भ : सन 1950 से सन 1975 ई. तक) का चित्रण कहाँ तक हुआ है? इसका अध्ययन शोध-विषय के अंतर्गत करने का प्रयास किया जाएगा।
*परिकल्पना* - प्रायः सभी आंचलिक उपन्यासकारों ने स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिंदी उपन्यासों में सामाजिक यथार्थ की परिकल्पना प्रस्तुत की है।
*अध्ययन की प्रविधि* - उपरियुक्त शोध-विषय का अध्ययन निम्नांकित प्रविधियों से किया जा सकेगा:-
(1)मार्क्सवादी प्रविधि - स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिंदी उपन्यासों के ग्रामीण समाज में वर्ग संघर्ष, वर्ग वैमनस्य और वर्ग भेद आदि का अध्ययन इसी प्रविधि से किया जाएगा।
(2) तुलनात्मक प्रविधि -स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिंदी उपन्यासों में व्यक्त भारतीय ग्रामीण समाजों की तुलना और अन्यान्य पत्र - पत्रिकाओं में व्यक्त आंचलिक समाज की तुलना में तुलनात्मक प्रविधि का प्रयोग अपेक्षित होगा।
(3) ऐतिहासिक प्रविधि - स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिंदी उपन्यासों में व्यक्त ग्रामीण जीवन के इतिहास, सामाजिक स्थिति और विकास आदि का आकलन कर बदलाव की माँग और संभावनाओं का अध्ययन ऐतिहासिक प्रविधि से किया जाएगा।
*अध्ययन के स्रोत* -
(क) प्राथमिक स्रोत - इसके अंतर्गत 1950 से 1975 तक के निम्नांकित स्वातंत्र्योत्तर आंचलिक हिंदी उपन्यासों को आधार बनाया जाएगा -
(1) बलचनमा, नागार्जुन (1952), वाणी प्रकाशन नई दिल्ली
(2) मैला आँचल, फणीश्वरनाथ रेणु (1954), राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
(3) आधा गाँव, राही मासूम रजा (1966), राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
(4) राग दरबारी, श्रीलाल शुक्ल (1968)राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
(5) पुरुष पुराण, डॉ. विवेकी राय (1975) अनुराग प्रकाशन वाराणसी
(ख) *द्वितीयक स्त्रोत * - द्वितीयक स्त्रोत के अंतर्गत समीक्षात्मक ग्रंथ, अन्य संबंधित शोध-प्रबंध, शोध- आलेख तथा पत्र - पत्रिकाओं का आधार ग्रहण किया जाएगा।
अध्यायों का वर्गीकरण :
अध्याय विभाजन
प्रस्तावना
अध्याय एक: सामाजिक यथार्थ : एक अध्ययन
1.1 समाज का साहित्य से अन्तर्सम्बन्ध
1.2 रचनाकार समाज और रचनाएँ
13 साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन
अध्याय दो : हिंदी आँचलिक उपन्यास : एक संक्षिप्त परिचय
2.1 प्रेमचन्द पूर्व, प्रेमचन्द युगीन, प्रेमचंदोत्तर युगीन उपन्यास और उपन्यासकार
2.2 आँचलिकता : एक परिदृश्य
2.3 हिंदी के आँचलिक उपन्यासों का उद्भव और विकास
अध्याय तीन : स्वतंत्रता से पूर्व हिन्दी आँचलिक उपन्यासों का सामाजिक / सांस्कृति यथार्थः अध्ययन
3.1 पूर्वांचल का सामाजिक अध्ययन
3.2 मध्यवर्गीय चेतना
3:3 आंचलिक उपन्यासों में ग्राम
3.4 आंचलिकता की पहचान
अध्याय चार : स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यासों के सामाजिक यथार्थ के विविध आयाम
4.1 सामाजिक आधार
4.2 सांस्कृतिक आधार
4.3 राजनीतिक आधार
4.4 आर्थिक आधार
अध्याय पाँच : स्वातंत्र्योत्तर हिंदी आंचलिक उपन्यासों का कलात्मक अध्ययन
5.1 कथानक का आधार
5.2 भाषा - शैली
5.3 बिम्ब और प्रतीक
5.4 अन्य प्रयोग
*संदर्भ ग्रंथ-सूची*
मौलिक ग्रंथ
1. बलचनमा - नागार्जुन (1952),वाणी प्रकाशन नई दिल्ली
2.मैला आँचल - फणीश्वरनाथ रेणु (1954) ,राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
3. आधा गाँव - राही मासूम रजा (1966), राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
4.राग दरबारी - श्रीलाल शुक्ल (1968),राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
5.पुरुष पुराण - डा. विवेकी राय (1975),अनुराग प्रकाशन वाराणसी
*समीक्षात्मक ग्रंथ - इनका समीक्षात्मक आधार लिया जाएगा।
1.साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका :मैनेजर पाण्डेय, हरियाणा साहित्य अकादमी, चण्डीगढ़
2. साहित्य का समाजशास्त्रीय चिंतन : निर्मला जैन
3. साहित्य का उत्तर समाजशास्त्र : डा. सुधीश पचौरी
4. साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि : मैनेजर पाण्डेय
5. साहित्य का समाजशास्त्र :डा. नगेन्द्र
6. हिन्दी के आंचलिक उपन्यास और उनकी शिल्प विधि :डा. आदर्श सक्सेना
7. स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास एक सर्वेक्षण :महेन्द्र चतुर्वेदी
8. आंचलिक उपन्यास ग्रामीण मध्य वर्ग :हजारीप्रसाद द्विवेदी
9. आंचलिकता और आधुनिक परिवेश कल्पना :शिव प्रसाद सिंह
10. हिन्दी के आंचलिक उपन्यास :प्रकाश वाजपेयी
11.शास्त्रीय समीक्षा के सिद्धांत :डॉ. त्रिगुणायत
आंचलिक उपन्यास
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