Thursday, August 31, 2023

हम चरागों

हम चराग़ों की तरह शाम से जल जाते हैं....

कल की शाम यकीनन बेहद ख़राब गुज़री और मेरी तक़दीर में लिखा है कि फिर सुब्ह भी ख़राब ही होगी।
तफ़सील से कहूँ तो कल के शाम की शुरुआत कल से ही नहीं हुई थी। जहाँ तक याद है, वो गर्मियों के बेहद उमस भरे दिन थे। साथी डॉ. आनंद ने कहा था कि चलिए भैय्या! कहीं घूम आया जाए! 
यूँ तो हम घूमने के इरादे से झारखंड आए थे और घूमना ही छोड़ कर सब कुछ हो रहा था।
हम पैदल टहलते हुए विवेकानंद चौक पर पहुँचे। वहाँ किसिम - किसिम के अनाजों को भून कर गर्मागर्म भूजा खिलाने वाले धनीराम जी की लोकप्रिय दुकान थी। दुकान क्या थी! किसी बेवा की साड़ी थी। जिस पर पैबंद लगाते - लगाते अब साड़ी का ही पता नहीं चल रहा था। हालांकि डॉ. आनंद ने कहा था - देखिए भैय्या ! स्वरोजगार इसे कहते हैं। हमारी तरह बी. एड्. /पी0-एच0डी0 होता तो आज बेरोज़गार होता।
मैंने धनीराम जी की ओर देखा तो बेसाख़्ता बिना मुस्कुराए न रह सका - आग की तपिश में झुलसा साँवला सा चेहरा। दरमयाना कद। आम सी शक्ल-ओ-सूरत का एक आम आदमी। लेकिन उन्होंने जो शर्ट पहन रखी थी उस पर पाँच - पाँच सौ के नोटों के साथ दो - दो हज़ार के नोट भी छपे थे। एक झटके में कहें तो कुछ एक - आध लाख रुपये तो वो बदन पर चिपकाए घूम रहे थे। 
मैंने हँसी के लिए पूछा - धनीराम जी! ये शर्ट कहाँ से खरीदा। एक मुझे भी चाहिए था। 
उन्होंने भी हँसते हुए खोरठा भाषा में जो जवाब दिया उसका मतलब था कि ये शर्ट उनकी पत्नी ने उन्हें गिफ्ट दिया है जो सामने सिलवट पर चटनी पीस रही थी। 
अब मैंने उस ग्रामीण औरत को देखा। साड़ी के आँचल को सिर पर से लपेट कर मद्धम स्वर में कोई गीत गा रही थी जिसकी भाषा खोरठा होने के कारण मुझे समझ में तो नहीं आया लेकिन रस जरुर समझ में आया - वही जिसे भवभूति ने कहा है - एको रस:करुणैव... ।
मेरी क्षेत्रीय भाषा भोजपुरी है, और यहाँ साथ काम करने वालों के बीच मुझे क्षेत्रीय भाषा को लेकर बहुत दिक्कतें आती थीं।
फिर क्या! मैंने रात - दिन मेहनत किया। लगातार पंद्रह दिनों तक...और तब जाकर मेरे सहकर्मी लोग आज भोजपुरी बोल पाते हैं। हालांकि मेरा काम था- "खोरठा भाषा और साहित्य का अध्ययन" ।
मैंने धनीराम जी से कहा - आपको पता है दो हज़ार के नोट सरकार वापस ले रही है। आपको भी यह शर्ट बैंक में जमा करना होगा। 
भूजा भूनते हुए उनके हाथ लरज गये। लेकिन जवाब में जब उन्होंने कुछ कहा नहीं तो मैंने भी उनकी दुकान के पास बज रहे फिल्मी गीत पर ध्यान केन्द्रित किया - "गर्मी - ए - हसरत - ए नाकाम से जल जाते हैं। हम चरागों की तरह शाम से जल जाते हैं" ।
2002 के बाद जवान हुई पीढ़ी को यह यकीन दिलाना ठीक वैसे ही मुश्किल है कि "राज़" फिल्म से पहले भी यह गज़ल अदब में पाई जाती थी, जैसे 2014 के बाद आज़ाद हुई पीढ़ी को यह यकीन दिलाना कि हम कांग्रेस से नहीं अंगरेज़ों से आज़ाद हुये थे। कतील शिफ़ाई की यह ग़ज़ल बेशक उनकी सभी ग़ज़लों पर तब भारी पड़ गई जब राज़ फिल्म की नायिका ने बड़े मादक अंदाज़ में इसे फिल्म में पढ़ा था। ठीक वैसे ही जैसे आज लोकतंत्र का मतलब बड़े मादक अंदाज़ में पढ़ा जा रहा है। 
हालांकि न तो मैंने पहली दफ़ा इस ग़ज़ल को सुना था और न ही वो फिल्म वाली  लड़की पहली दफे कतील शिफ़ाई की इस ग़ज़ल के चंद शे'रों को दुहरा रही होगी।
फिर भी उस समय मेरे मन में न जाने क्यों आया कि मैंने मोबाइल निकाला और जियो - ट्यून में से सर्च करके' शोभा गूर्टू' की आवाज़ में इसी ग़ज़ल को यूँ सेट कर दिया कि कोई फोन करे तो रिंग की जगह उसे यही शे'र सुनाई दे।
उस दिन और कोई कयायत नहीं गुज़री। शाम का क्या! वो तो रोज़ की ढलनी ही थी। 
अगले दिन ही डॉ. आनंद मेरे कमरे में आए और बोले - भैय्या ! एक बात कहूँ! अपने मोबाइल में से ये सड़ा हुआ काॅलर ट्यून हटा दीजिए। 
मैं हैरान रह गया। आनंद उसी लखनऊ का है, जहाँ की पहचान अदब, तहज़ीब और नफ़ासत से थी। 
मैं डाँटने की वाला था फिर ख़्याल आया कि यह व्यक्तिगत रुचि की बात भी तो हो सकती है! क्योंकि डॉ. आनंद की योग्यता में संदेह नहीं। विद्वान होने के साथ - साथ तेज़ भी है। अभी केंद्रीय विद्यालय की टीजीटी और पीजीटी दोनों में चयनित हुआ था लेकिन मुझे छोड़ कर जाना नहीं चाहता।
                      खैर! जो कयामत आनी थी कल आई। शाम को बड़े दिनों बाद हम विवेकानंद चौक की तरफ घूमने गये। धनीराम जी वहाँ न दिखे, न उनकी वो खूबसूरत दुकान ही वहाँ थी, जिसकी फटी हुई छत से हम तारों - सितारों को बखूबी गिन सकते थे। हाँ! लुढ़कती हुई सी सिल पड़ी थी जिसके चटकार स्वाद में कैद होकर न जाने कितने लोगों ने घंटे भर इंतज़ार किया होगा कि अब भूजे के साथ चटनी मिलेगी। 
मैंने बगल की दुकान से धनीराम जी के बारे में पता किया तो मालूम हुआ कि उनकी दुकान रेल विभाग द्वारा बनाये जा रहे ओवर-ब्रिज के रास्ते में आती थी। इसलिये उनकी दुकान हटा दी गई। 
                दुकान के ध्वंसावशेषों को देखते हुए जाने क्यों मुझे लगा जैसे कोई औरत साड़ी के आँचल को सिर पर ओढ़े हुए आ रही है।मेरे बगल से निकल कर औंधी पड़ी सिल को ठीक करती है और फिर उस पर चटनी पीसने लगी है... कंठ से ठीक वही दर्द भरा गीत फूट पड़ता है। लेकिन आज खोरठा न समझते हुए भी मैं साफ़-साफ़ समझ पा रहा हूँ... जैसे किसी ने कतील शिफ़ाई की ग़ज़ल का मिसरा उठा दिया हो... गर्मी - ए- हसरत-ए- नाकाम से जल जाते हैं...।फिर किस बेखुदी में मैं कमरे तक आया, मुझे याद नहीं। 
                    आज की सुब्ह हर साल की तरह सबसे पहले आगरे से आशु चौधरी दीदी का फोन आया। मैंने डरते-डरते फोन उठाया।हे ईश्वर! कुछ गलत न सुनना पड़े! 
उन्होंने कहा - जब काॅलर - ट्यून अच्छी हो तो फोन थोड़ा देर से उठाना चाहिए। रक्षाबंधन की शुभकामना असित!
                    न चाहते हुए भी 'काॅलर ट्यून' की बात आने से मुझे फिर धनीराम जी याद आए। उनकी शर्ट, उनकी दुकान और उस बदनसीब सिल की भी याद आ गई, जिसके एक किनारे बैठ कर चटनी पीसती वो साँवली युवती एकदम कतील शिफ़ाई की ग़ज़ल जैसी थी। 
हालांकि अब वहाँ मोटा सा पिलर बन गया है और उस पर सर्च लाइट लगा दी गई है जिससे इस कस्बे में रौनक आ गई है लेकिन मुझे ये उजाला जैसे तवायफ़ के कोठे से आती रोशनी की तरह चुभता है। जिसमें रौनकें तो हैं लेकिन सूकून नहीं।उजाला तो है लेकिन इस उजाले का कोई भविष्य नहीं.... ।

असित कुमार मिश्र 
बलिया 



                    




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